प्राचीन भारतइतिहास

चैत्यगृह तथा विहार किसे कहते हैं

पर्वत गुफाओं को खोदकर गुहा विहार बनवाने की जो परंपरा मौर्यकाल में प्रारंभ हुई, वह सातवाहन काल में आते-आते चर्मोत्कर्ष पर पहुँच गई। खुदाई के कार्य को सेलकम्म (शैलकर्म)तथा खुदाई करने वाले की संज्ञा सेलवड्ढकी (शैलवर्धकि) थी। उत्कीर्ण गुफा को कीर्ति तथा उसके प्रवेश द्वार को कीर्त्तिमुख कहा जाने लगा।

गुफा के सम्मुख चट्टान काटकर जो स्तंभ तैयार किये जाते थे उन्हें कीर्तिस्तंभ कहा गया।

सातवाहन काल में पश्चिमी भारत में पर्वत गुफाओं को काटकर चौत्यगृह तथा विहारों का निर्माण किया गया।

सातवाहन काल – महत्त्वपूर्ण तथ्य।

चैत्यगृह का अर्थ-

चैत्य का शाब्दिक अर्थ है, चिता-संबंधी। शवदाह के बाद बचे हुए अवशेषों को भूमि में गाङकर उनके ऊपर जो समाधियां बनाई गई, उन्हीं को प्रारंभ में चैत्य अथवा स्तूप कहा गया। इन समाधियों में महापुरुषों के धातु-अवशेष सुरक्षित थे, अतः चैत्य उपासना के केन्द्र बन गये। कालांतर में बौद्धों ने इन्हें अपनी उपासना का केन्द्र बना लिया और इस कारण चैत्य-वास्तु बौद्धधर्म का अभिन्न अंग बन गया। पहले चैत्य या स्तूप खुले स्थान में होता था, किन्तु बाद में उसे भवनों में स्थापित किया गया। इस प्रकार के भवन चैत्यगृह कहे गये। ये दो प्रकार के होते थे।

  1. पहाङों को काटकर बनाये गये चैत्य
  2. ईंट-पत्थरों की सहायता से खुले स्थान में बनाये गये चैत्य

विहार का अर्थ-

इनमें पहाङों को काटकर बनाये गये चैत्यगृहों के उदाहरण ही दक्कन की विभिन्न पहाङी गुफाओं से मिलते हैं। चैत्यगृहों के समीप ही भिक्षुओं के रहने के लिये आवास बनाये गये, जिन्हें विहार कहा गया। इस प्रकार चैत्यगृह वस्तुतः प्रार्थना भवन(गुहा-मंदिर) होते थे, जो स्तूपों के समीप बनाये जाते थे, जबकि विहार भिक्षुओं के निवास के लिये बने हुए मठ या संघाराम होते थे। चैत्यगृहों की संख्या तो कम है, लेकिन गुहा-विहार बङी संख्या में मिलते हैं।

चैत्यगृहों की जो संरचना उपलब्ध है, उसके अनुसार उनके आरंभ का भाग आयताकार तथा अंत का भाग अर्धवृत्ताकार या अर्धगोलाकार होता था। इसकी आकृति घोङे के नाल जैसी होती थी। अंतिम भाग में ही ठोस अंडाकार स्तूप बनाया जाता था, जिसकी पूजा की जाती थी। चूँकि स्तूप को चैत्य भी कहा जाता है, अतः इस प्रकार की गुफा को चैत्यगृह कहा जाने लगा। इसकी दोहरी आकृति के कारण इसे द्वयस्र (बेसर) चैत्य भी कहा जाता है। स्तूप पर हर्मिका तथा एक के ऊपर एक तीन छत्र रहते थे। स्तूप के सामने मंडप तथा अगल-बगल के सामने प्रदक्षिणा के लिये बरामदे होते थे।मंडप की छते गडपृष्ठाकार अथवा ढोलाकार होती थी। मंडप बरामदे को अलग करने के लिये चैत्य में दोनों ओर स्तंभ बनाये जाते थे।

गुफा की खुदाई चैत्य में दोनों ओर स्तंभ बनाये जाते थे। गुफा की खुदाई कीर्तिमुख (प्रवेश द्वार) से ही आरंभ होती थी। इसके दो भाग थे – ऊपरी तथा निचला। ऊपरी भाग में घोङे की नाल की आकृति का चाप बनाया जाता था, जिसे चैत्य गवाक्ष (कीर्तिमुख) कहा जाता है। निचला भाग ठोस चट्टानी दीवार का होता था। इसमें तीन द्वार काटे जाते थे। मध्यवर्ती द्वार मंडप (नाभि) तक पहुँचने के लिये होता था। अगल-बगल के द्वार प्रदक्षिण कर दायी ओर से बाहर निकल जाता था। मध्यवर्ती द्वार भिक्षुओं के लिये आरक्षित था, जो इसी से जाकर स्तूप का स्पर्श करते थे। इस प्रकार संपूचर्ण चैत्यगृह तैयार होता था। इसे कुभा गुहा अथवा घर भी कहा जाता है।

इस प्रकार चैत्यगृह के तीन अंग मुख्य होते थे-

  1. मध्यवर्ती कक्ष (नाभि)
  2. मंडप या महामंडप
  3. स्तंभ।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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