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द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध(Second Anglo-Maratha War) 1803-1806 ई.

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध(dviteey aangl-maraatha yuddh)

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध को पढने से पहले प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के बारे में जान लेना जरूरी है। हमने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन विस्तार से इससे पहले वाली पोस्ट में किया है, तो प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध के बारे में जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध प्रारंभ होने से पहले वॉरेन हेस्टिंग्ज  1785 ई. में इंग्लैण्ड चला गया। हेस्टिंग्ज के बाद मेकफर्सन ने 1785-86 तक 21 महीने तक कार्यवाहक गवर्नर-जनरल के रूप में कार्य किया।सितंबर,1786 में कार्नवालिस गवर्नर-जनरल बनकर भारत आया।

1784 में ब्रिटिश संसद ने पिट्स इंडिया एक्ट पारित कर दिया था, जिसमें स्पष्ट कर दिया गया था कि भारत में कंपनी देशी रियासतों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन करेगी। कार्नवालिस ने भारत में जहाँ तक संभव हो सका, इस नीति का पालन किया। 1793 में वह वापिस चला गया।

1793 में ही सर जॉन शोर को गवर्नर-जनरल के पद पर नियुक्त किया गया। उसने भी कार्नवालिस की नीति का अनुसरण किया। 1795 में हैदराबाद के निजाम व मराठों के बीच खरदा का युद्ध हुआ। इस अवसर पर निजाम ने अंग्रेजों से सहायता देने की प्रार्थना की, किन्तु सर जॉन शोर ने अहस्तक्षेप की नीति के कारण निजाम को सहायता देने से इन्कार कर दिया।

फलस्वरूप निजाम,मराठों से पराजित हुआ और उसे अपमानजनक संधि के लिए विवश होना पङा।1798 में सर जॉन शोर को वापिस इंग्लैण्ड बुला लिया गया।और उसके स्थान पर लार्ड वेलेजली को गवर्नर-जनरल बनाकर भारत भेजा गया।

सालबाई की संधि के बाद 20 वर्ष तक शांति रही। इस अवधि में मराठा अपने अन्य शत्रुओं से निपटते रहे। नाना फङनवीस के नेतृत्व में उत्तऱी व दक्षिण भारत में मराठों का प्रभाव फैलने लगा।

इस अवधि में महादजी सिंधिया की शक्ति में वृद्धि हुई तथा पेशवा की शक्ति का हास हुआ। पेशवा माधवराव द्वितीय के काल में नाना फङनवीस मराठा संघ का सर्वेसर्वा बन गया था। 1796 में पेशवा माधवराव द्वितीय की मृत्यु हो गई। बाजीराव द्वितीय पेशवा की मनसब पर बैठा।

मराठों में आपसी संघर्ष –

पेशवा बाजीराव द्वितीय सर्वथा अयोग्य था। 13 मार्च,1800 को नाना फङनवीस की मृत्यु हो गई। जब तक नाना फङनवीस जीवित रहा, उसने मराठों में एकता बनाये रखी।किन्तु उसकी मृत्यु के बाद मराठा सरदारों में आपसी संघर्ष प्रारंभ हो गये। दो मराठा सरदारों-ग्वालियर का शासक दौलतराव सिंधिया तथा इंदौर का शासक जसवंतराव होल्कर के बीच इस बात पर प्रतिस्पर्द्धा उत्पन्न हो गयी कि पेशवा पर किसका प्रभाव रहे।

पेशवा,बाजीराव द्वितीय निर्बल व्यक्ति था, अतः वह भी किसी शक्तिशाली मराठा सरदार का संरक्षण चाहता था।अतः वह दौलतराव सिंधिया के संरक्षण में चला गया।अब बाजीराव व सिंधिया ने होल्कर के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बना लिया। होल्कर के लिये यह स्थिति असहनीय थी।

फलस्वरूप  1802 के प्रारंभ में सिंधिया व होल्कर के बीच युद्ध छिङ गया। जब होल्कर मालवा में सिंधिया की सेना के साथ युद्ध में व्यस्त था, पूना में पेशवा ने होल्कर के भाई बिट्ठूजी की हत्या करवा दी।अतः होल्कर अपने भाई का बदला लेने पूना की ओर चल पङा। पूना के पास होल्कर ने पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को पराजित किया और एक विजेता की भाँति पूना में प्रवेश किया।

होल्कर ने राघोबा के दत्तक पुत्र अमृतराव के बेटे विनायकराव को पेशवा घोषित किया। पेशवा भयभीत हो गया तथा भागकर बसीन (बंबई के पास अंग्रेजों की बस्ती) चला गया। बसीन में उसने वेलेजली से प्रार्थना की कि वह उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे। वेलेजली भारत में कंपनी की सर्वोपरि सत्ता स्थापित करना चाहता था। मैसूर की शक्ति नष्ट करने के बाद अब मराठे ही उसके एकमात्र प्रतिद्वन्द्वी रह गये थे।

अतः वह मराठा राजनीति में हस्तक्षेप करने का अवसर ढूँढ रहा था। पेशवा द्वारा प्रार्थना करने पर वेलेजली को अवसर मिल गया। वेलेजली ने पेशवा के समक्ष शर्त रखी कि यदि वह सहायक संधि स्वीकार करले तो उसे पुनः पेशवा बनाने में सहायता दे सकता है। पेशवा ने वेलेजली की शर्त को स्वीकार कर लिया और 31 दिसंबर,1802 को पेशवा और कंपनी के बीच बसीन की संधि हो गयी।

बसीन की संधि की शर्तें निम्नलिखित हैं-

  • पेशवा अपने राज्य में 6,000 अंग्रेज सैनिकों की एक सेना रखेगा तथा इस सेना के खर्चे के लिए 26 लाख  रुपये वार्षिक आय का भू-भाग अंग्रेजों को देगा।
  • पेशवा ने अंग्रेजी संरक्षण स्वीकार कर भारतीय तथा अंग्रेज पदातियों की सेना को पूना में रखना स्वीकार किया।
  • पेशवा बिना अंग्रेजों की अनुमति के मराठा राज्य में किसी अन्य यूरोपियन को नियुक्ति नहीं देगा और न अपने राज्य में रहने की अनुमति देगा।
  • पेशवा ने सूरत नगर कंपनी को दे दिया।
  • पेशवा ने निजाम से चौथ प्राप्त करने का अधिकार छोङ दिया और अपने विदेशी मामले कंपनी के अधीन कर दिये।
  • पेशवा के जो निजाम और गायकवाह के साथ झगङे हैं, उन झगङों के पंच निपटारे का कार्य कंपनी को सौंप दिया ।
  • भविष्य में किसी राज्य के साथ युद्ध,संधि  अथवा पत्र-व्यवहार बिना अंग्रेजों की अनुमति के नहीं करेगा।

द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन

बसीन की संधि के बाद मई-जून, 1803 ई. में बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों के संरक्षण में पुनः पेशवा बना दिया गया। किन्तु बसीन की संधि से मराठा सरदारों के आत्मगौरव पर भारी आघात पहुँचा, क्योंकि पेशवा ने मराठों की इज्जत व स्वतंत्रता बेची दी थी। मराठा सरदार इसे सहन नहीं कर सके।

अतः उन्होंने  पारस्परिक वैमनस्य को भुलाकर अंग्रेजों के विरुद्ध एक होने का प्रयत्न किया। सिंधिया और भोंसले तो एक हो गये, किन्तु सिधिंया व होल्कर की शत्रुता  ताजा थी। अतः उसने भी इस अंग्रेज विरोधी संघ में शामिल होने से इंकार कर दिया। इस प्रकार केवल सिंधिया व भोंसले ने अंग्रेजों के विरुद्ध सैनिक अभियान की तैयारी आरंभ की।

जब वेलेजली को इसकी सूचना मिली तो उसने 7 अगस्त,1803 को मराठों के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी और एक सेना अपने भाई आर्थर वेलेजली तथा दूसरी जनरल लेक के नेतृत्व में मराठों के विरुद्ध भेज दी।

आर्थर वेलेजली ने सर्वप्रथम अहमदनगर पर विजय प्राप्त की। उसके बाद अजंता व एलोरा के पास असाई नामक स्थान पर सिंधिया व भोंसले की संयुक्त सेना को पराजित किया। असीरगढ व अरगाँव के युद्धों में मराठा पूर्णरूप से पराजित हुए।

अरगाँव में पराजित होने के बाद 17सितंबर,1803 को भोंसले ने अंग्रेजों से देवगढ की संधि कर ली। इस संधि के अंतर्गत भोंसले ने वेलेजली की सहायक संधि की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया। केवल एक शर्त,राज्य में कंपनी की सेना रखने संबंधी शर्त स्वीकार नहीं की और वेलेजली ने भी इस शर्त को स्वीकार करने के लिए जोर नहीं दिया। इस संधि के अनुसार कटक व वर्धा नदी के आस-पास के क्षेत्र अंग्रेजों को दे दिये गये।

इधर जनरल लेक ने उत्तरी भारत की विजय यात्रा आरंभ की। उसने सर्वप्रथम अलीगढ पर अधिकार किया। तत्पश्चात दिल्ली पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। फिर जनरल लेक ने भरतपुर पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। भरतपुर के शासक से सहायक संधि की। भरतपुर से वह आगरा की ओर बढा तथा आगरा पर अधिकार किया। अंत में लासवाङी नामक स्थान पर सिंधिया की सेना पूर्णतः पराजित हुई।

अब सिंधिया ने भी अंग्रेजों से संधि करना उचित समझा। फलस्वरूप 30सितंबर,1803 को सुर्जी अर्जुनगाँव की संधि हो गयी। इस संधि के अनुसार सिंधिया ने दिल्ली,आगरा,गंगा-यमुना का दोआब, बुंदेलखंड, भङौंच,अहमदनगर का दुर्ग,गुजरात के कुछ जिले,जयपुर व जोधपुर अंग्रेजों के अधिकार में दे दिये। उसने कंपनी की सेना को भी अपने राज्य में रखना स्वीकार कर लिया। अंग्रजों ने सिंधिया को पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन दिया।

सिंधिया व भोंसले ने बसीन की संधि को भी स्वीकार कर लिया था। इन विजयों से वेलेजली खुशी से उछल पङा और “घोषणा की कि, युद्ध के प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त कर लिया गया है और इससे सदैव शांति बनी रहेगी।” किन्तु वेलेजली का उक्त कथन ठीक न निकला,क्योंकि शांति  शीघ्र ही संकटग्रस्त हो गई।

होल्कर से युद्ध- मराठा राज्य का प्रमुख स्तंभ होल्कर, जो अब तक इन घटनाओं के प्रति उदासीन था, सिंधिया वे भोंसले के आत्मसमर्पण  के बाद अंग्रेजों से युद्ध करने का निर्णय लिया और अप्रैल 1804 में संघर्ष छेङ दिया। उसने सर्वप्रथम  राजपूताना में कंपनी के मित्र राज्यों पर आक्रमण किया।

वह अंग्रेजों के लिए चुनौती थी। अतः वेलेजली ने कर्नल मॉन्सन के नेतृत्व में एक सेना भेज दी। कर्नल मॉन्सन राजपूताने के भीतर घुस गया। होल्कर ने कोटा के निकट मुकंदरा के दर्रे के युद्ध में मॉन्सन को पराजित किया तथा उसे आगार की ओर लौटने को विवश कर दिया।

उसके बाद होल्कर ने भरतपुर पर आक्रमण करके वहाँ के शासक से संधि करली। यद्यपि भरतपुर के शासक ने अंग्रेजों से संधि करली थी, किन्तु इस समय उसने अंग्रेजों की संधि को ठुकरा दिया। तथा होल्कर का समर्थन किया । यहाँ से होल्कर दिल्ली की ओर गया तथा दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया। लेकिन दिल्ली पर विजय प्राप्त न कर सका।

दिल्ली पर होल्कर के दबाव को कम करने के लिए अंग्रेजों ने जनरल मूरे को होल्कर की राजधानी इंदौर पर आक्रमण करने भेजा। मूरे ने इंदौर पर अधिकार कर लिया। जब होल्कर को इंदौर के पतन की सूचना मिली तो वह दिल्ली का घेरा उठाकर इंदौर की ओर रवाना हुआ। रास्ते में डीग नामक स्थान पर ब्रिटिश सेना से उसका भीषण संग्राम हुआ। उसके बाद फर्रुखाबाद में होल्कर पराजित हुआ। और पंजाब की तरफ भाग गया। इस युद्ध में भी होल्कर की शक्ति को पूरी तरह से नहीं कुचला जा सका।

भरतपुर के शासक ने होल्कर का समर्थन किया था, अतः जनरल लेक ने भरतपुर के दुर्ग को घेर लिया। जनरल लेक ने दुर्ग पर अधिकार करने के लिए 6जनवरी, से  21 फरवरी,1805 के बीच चार बार आक्रमण किये, किन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली। अंत में अप्रैल,1805 में उसे भरतपुर के राजा से शांति संधि करनी पङी।

जनरल लेक की यह भयंकर भूल थी कि वह व्यर्थ ही भरतपुर में उलझा रहा। यदि लगे हाथ होल्कर से निपट लिया जाता तो भरतपुर तो स्वतः ही बाद में अंग्रेजों की अधीनता में आ जाता। किन्तु उसकी मूर्खता से न तो होल्कर की शक्ति को ही नष्ट किया  जा सका  और न भरतपुर पर ही अधिकार हो सका।

इस असफलता के कारण ब्रिटिश सरकार व बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स बङे चिंतित हुये। इंग्लैण्ड  के प्रधानमंत्री पिट्ट ने भी वेलेजली की कटु आलोचना की। फलस्वरूप वेलेजली को त्यागपत्र देकर जाना पङा।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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