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शुक्रनीति क्या है

शुक्रनीति के प्रणेता शुक्राचार्य थे। अर्थशास्र के बाद राज-शासन पर यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसके काल के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इसके संपादनकर्त्ता ओपर्ट ने इसका समय ईसा से पूर्व की शताब्दियों में निर्धारित किया है। काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार यह 8 वी.शता. की रचना है।

यू.एन. घोषा तथा राजेन्द्रलाल मित्र ने इसका समय 1200-1600 ई. के बीच रखा है। इस प्रकार हम शुक्रनीति को 12-13वी.शता. की रचना मान सकते हैं। 

शुक्रनीति में शासन-व्यवस्था का जैसा विवरण दिया गया है, वैसा अर्थशास्र को छोङकर और अन्य किसी भी ग्रंथ में नहीं दिया गया है। यह ग्रंथ राजतंत्र का समर्थन करता है, क्योंकि इसके समय तक गणराज्यों का अस्तित्व समाप्त हो चुका था। शुक्र  का मत है कि राजनीति एक कला है, जिसका सुनिश्चित उद्देश्य होता है। राज्य को सप्तांगों की समष्टि मानते हुये शुक्र उनकी तुलना मानव-शरीर के विविध अंगों से करते हैं। सम्राट को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुये वे लिखते हैं, कि वह सभी राजनैतिक एवं सामाजिक प्रथाओं का स्रोत होता है। वह  देवत्व का प्रतीक है। शुक्र का कहना है, कि राजा में पिता, माता, आचार्य, भाई, मित्र, कुबेर तथा यम के गुणों का मिश्रण होना चाहिये। माता-पिता के समान उसे प्रजा का पोषण करना चाहिये, भाई के समान उसे अपनी पैतृक संपत्ति में से केवल अपना वैध अंश ही ग्रहण करना चाहिये। आचार्य के समान उसे प्रजा को शिक्षा देनी चाहिये। मित्र के समान उसे प्रजा का विश्वासपात्र होना चाहिये, कूबेर  के समान उसे धन दान करना चाहिये तथा यम के समान दुष्ट को दंडित करना चाहिये। शासक की दिनचर्या एवं प्रशिक्षण के विषय में भी शुक्र का मत है, कि अनुशासन से बढकर राजा के लिये कुछ भी आवश्यक नहीं होता। अनुशासन के अभाव में राजा तथा राज्य का विनाश हो जायेगा। राजा जन्मना महान नहीं होता, अपितु वीर्य, शक्ति, बल, अनुशासन आदि उसे महान बनाते हैं। राज्य का उद्देश्य प्रजा की रक्षा करना है। शुक्र प्रजा को सलाह देते हैं, कि वह गुण तथा नैतिकता से विहीन राजा का बहिष्कार कर दे।

राजा के अलावा शुक्रनीति में मंत्रियों तथा अधिकारियों का भी विस्तार से वर्णन किया गया है। नागरिक प्रशासन का विशुद्ध वर्णन हुआ है। राजा को सलाह दी गयी है, कि वह मंत्रियों तथा अधिकारियों के कार्यों का बराबर निरीक्षण करता रहे और प्रजा की उनके उत्पीङनों से रक्षा करे। उत्तराधिकार के विषयम में शुक्र का मत है, कि सामान्यतः राजा के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र को यह पद मिलना चाहिये। किन्तु उसमें शारीरिक दोष होने पर यह कनिष्ठ पुत्र को मिलना चाहिये। प्रशासन के कुशल संचालन के लिये उन्होंने मंत्रिपरिषद की आवश्यकता पर बल दिया है।

उनके अनुसार राजा को अपने मंत्रियों से बराबर परामर्श करना चाहिये। शुक्रनीति में हम न्याय शासन का स्पष्ट एवं विस्तृत विवरण पाते हैं। दंडनीति का उद्देश्य सामान्य समृद्धि माना गया है। उन्होंने विविध प्रकार के न्यायलयों, अपराधों तथा दंडों का उल्लेख किया है। राजा का उद्देश्य प्रजा का कल्याण करना है। इसका कार्य केवल अराजकता का अंत एवं दुष्टों को दंडित करना ही नहीं है, अपितु इसे चिकित्सालयों तथा विश्रामगृहों की स्थापना करनी चाहिये और विद्या एवं विद्वानों को प्रोत्साहन देना चाहिये। व्यापार-व्यवसाय की उन्नति, खानों, वनों, उद्योगों आदि का विकास तथा सिंचाई के साधनों की व्यवस्था द्वारा राजा को प्रजा का कल्याण करना चाहिये। इस प्रकार शुक्रनीति हिन्दू राजनैतिक विचारधारा को प्रस्तुत करने वाला अंतिम ग्रंथ है। कौटिल्य के समान शुक्र भी कल्याणकारी राज्य के पक्षधर हैं।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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