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तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के समय गवर्नर जनरल कौन था

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध

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तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध (Third Anglo-Maratha War) – अगस्त, 1805 में वेलेजली भारत से चला गया। उसके स्थान पर लार्ड कार्नवालिस को पुनः भारत भेजा गया। किन्तु यहाँ आने के कुछ ही महीनों बाद गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गयी। अतः जार्ज बार्लो को गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया। कार्नवालिस व जार्ज बार्लो दोनों ने देशी राज्यों के प्रति अहस्तक्षेप की नीति का पालन किया और मराठों के प्रति उदारता की नीति अपनाई। फलस्वरूप 22 नवंबर,1805 को सिंधिया से एक नई संधि की गई, जिसके अनुसार उसे ग्वालियर व गोदह के दुर्ग तथा उसका उत्तरी चंबल का भू-भाग लौटा दिया।

कंपनी ने राजपूत राज्यों को अपने संरक्षण में लेने का विचार त्याग दिया। फलस्वरूप राजपूत राज्यों पर पुनः मराठों का प्रभाव स्थापित हो गया। इसी प्रकार 7जनवरी, 1806 को होल्कर के साथ भी संधि करके उसे उसके अधिकांश क्षेत्र लौटा दिये। तत्पश्चात् 1807 में लार्ड मिण्टो गवर्नर-जनरल बनकर आया।

उसने भी अहस्तक्षेप की नीति का अनुसरण किया। इन तीनों की नीतियों के फलस्वरूप मराठों ने अपनी शक्ति पुनः संगठित कर ली। इधर पिंडारी भी, जो आरंभ में मराठों के सहयोगी थे, अपनी स्वयं की शक्ति बढा रहे थे।

ऐसी परिस्थितियों में 1813 में लार्ड हेस्टिंग्ज गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। लार्ड हेस्टिंग्ज मराठा शक्ति को पूरी तरह समाप्त कर राजपूत राज्यों पर ब्रिटिश संरक्षण स्थापित करना चाहता था। लार्ड हेस्टिंग्ज ने सर्वप्रथम पिंडारियों की शक्ति को नष्ट करने की योजना बनायी, क्योंकि उसे भय था कि कहीं पिंडारियों से युद्ध करने से पूर्व 27मई,1816 को भोंसले के साथ तथा 5नवंबर,1817 को सिंधिया के साथ समझौता किया गया।

इस समझौते में उन्होंने पिंडारियों को कुचलने के लिए अंग्रेजों को समर्थन देने का वादा किया तथा सिंधिया ने चंबल नदी से दक्षिण पिश्चिम राज्यों पर से अपना प्रभाव हटा दिया।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का वर्णन-

बसीन की संधि द्वारा यद्यपि पेशवा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुका था, किन्तु वह अब इस अधीनता से मुक्त होना चाहता था। इसके लिए पेशवा ने सिंधिया,होल्कर तथा भौंसले से गुप्त रूप से बातचीत भी आरंभ कर दी। पेशवा ने अपनी सैनिक शक्ति को भी सुदृढ करने का प्रयत्न किया। इस समय पेशवा तथा गायकवाङ के बीच खिराज के संबंध में झगङा चल रही था।

अतः इस संबंध में बातचीत करने के लिए गायकवाङ का एक मंत्री गंगाधर शास्री अंग्रेजों के संरक्षण में पूना आया। पेशवा अंग्रेजों के विरुद्ध गायकवाङ का सहयोग चाहता था, किन्तु गंगाधर अंग्रेजों का घनिष्ठ मित्र था, अतः उसने पेशवा से सहयोग करने से इंकार कर दिया।

ऐसी स्थिति में पेशवा के एक विश्वसनीय मंत्री त्रियंबकजी ने धोखे से गंगाधर शास्री की हत्या करवा दी। पूना दरबार में ब्रिटिश रेजीडेण्ट एलफिन्सटन की त्रियंबकजी से व्यक्तिगत शत्रुता थी, अतः रेजीडेण्ट ने पेशवा से माँग की कि त्रियंबकजी को बंदी बनाकर उसे अंग्रेजों के सुपुर्द कर दिया जाये।

पेशवा ने बङी हिचकिचाहट के साथ 11 सितंबर,1815 को त्रियंबकजी को अंग्रेजों के हवाले कर दिया। त्रियंबकजी को बंदी बनाकर थाना भेज दिया गया। किन्तु एक वर्ष बाद त्रियंबकजी थाना से भागने में सफल हो गया। इस पर एलफिन्सटन पेशवा पर आरोप लगाया कि उसने त्रियंबकजी को भागने में सहायता दी है।

एलफिन्सटन ने पेशवा की शक्ति को सीमित करने के उद्देश्य से पेशवा पर एक नई संधि करने हेतु दबाव डाला और उसे धमकी दी कि यदि वह नई संधि करने पर सहमत नहीं होगा तो उसे पेशवा की मनसब से हटा लिया जायेगा।अतः भयभीत होकर 13 जून,1817 को पेशवा ने अंग्रेजों से नई संधि (पूना की संधि) कर ली।

इस संधि के अंतर्गत पेशवा ने मराठा संघ के अध्यक्ष पद को त्याग दिया, सहायक सेना के खर्च के लिए 33लाख रुपये वार्षिक आय के भू-भाग उसे अंग्रेजों को सौंपने पङे और नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित अपने राज्य के सभी भू-भाग उसे अंग्रेजों को सौंपने का वादा किया और जब तक त्रियंबकजी को अंग्रेजों के सुपुर्द ने कर दिया जाये, उस समय तक त्रियंबकजी के परिवार को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखना स्वीकार किया। पेशवा के बिना अंग्रेजों की अनुमति के किसी अन्य राज्य से पत्र-व्यवहार ने करने का वादा किया।

यद्यपि सभी मराठा सरदार अंग्रेजों से अपमानजनक संधियाँ कर चुके थे, किन्तु उन्होंने ये संधियाँ विवशता के कारण की थी। और वे उनसे मुक्त होना चाहते थे।

पेशवा भी पूना की संधि के अपमान की आग में जल रहा था।अतः जिस दिन सिंधिया ने अंग्रेजों के साथ संधि की (5नवंबर,1817), उसी दिन पेशवा ने पूना में स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्सी पर आक्रमण कर दिया। एलफिंसटन किसी प्रकार जान बचाकर भागा तथा पूना से चार मील दूर किर्की नामक स्थान पर ब्रिटिश सैनिक छावनी में शरण ली। पेशवा की सेना ने किर्की पर धावा बोल दिया, किन्तु पेशवा पराजित हुआ तथा वह सतारा की ओर भाग गया। नवंबर,1817में पूना पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।

पेशवा द्वारा युद्ध आरंभ कर दिये जाने पर कुछ मराठा सरदारों ने भी युद्ध करने का निश्चय किया। नवंबर,1817 में ही अप्पा साहब भोंसले ने नागपुर के पास सीताबंदी नामक स्थान पर अंग्रेजों से युद्ध किया, किन्तु पराजित हुआ। तत्पश्चात् दिसंबर,1817 में नागपुर के युद्ध में वह पुनः पराजित हुआ। और भागकर पंजाब चला गया। पंजाब से भागकर वह शरण के लिए जोधपुर आया। जोधपुर के राजा मानसिंह ने, जो स्वयं अंग्रेजों का विरोधी था, अप्पा साहब को शरण दी तथा 1840 में अप्पा साहब की जोधपुर में ही मृत्यु हो गयी।

इसी प्रकार होल्कर की सेना व अंग्रेजों के बीच 21 दिसंबर, 1817 को महीदपुर के मैदान में भीषण युद्ध हुआ। युद्ध में होल्कर की सेना पराजित हुई तथा जनवरी, 1818 में दोनों के बीच मंदसौर की संधि हो गयी। इस संधि के अनुसार होल्कर ने सहायक संधि स्वीकार कर ली, राजपूत राज्यों से अपने अधिकार त्याग दिये तथा बूंदी की पहाङियों व उसके उत्तर के सभी प्रदेश कंपनी को हस्तांतरित कर दिये। इस प्रकार होल्कर भी कंपनी की अधीनता में आ गया।

अब अंग्रेजों ने पेशवा की ओर ध्यान दिया। अंग्रेजों ने पेशवा के विरुद्ध एक सेना भेजी। जनवरी, 1818 में कोरगांव के युद्ध में तथा अंत में फरवरी, 1818 में अष्टी के युद्ध में पेशवा बुरी तरह पराजित हुआ।

अतः मई, 1818 में उसने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने पेशवा के पद को समाप्त कर पेशवा को 8 लाख रुपये वार्षिक पेंशन देकर कानपुर के पास बिठुर भेज दिया। पेशवा का राज्य ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया। सतारा का छोटा सा राज्य शिवाजी के वंशज प्रतापसिंह को दे दिया गया। पेशवा के मंत्री त्रियंबकजी को आजीवन कारावास की सजा देकर चुनार के किले में भेज दिय गया। इस प्रकार लार्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा शक्ति को नष्ट करने में सफलता प्राप्त की।

तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध का महत्त्व-

यह मराठों का अंतिम राष्ट्रीय युद्ध था और इस युद्ध ने मराठा शक्ति का सूर्य सदा के लिए अस्त कर दिया। एक-एक करके सभी मराठा सरदारों ने अंग्रेजों के सामने घुटने टेक दिये और इस प्रकार मराठा संघ ध्वस्त हो गया।

भारत में अंग्रेजों की एकमात्र प्रतिद्वंद्वी शक्ति समाप्त हो गयी, जिससे अब अंग्रेजों की सर्वोच्चता को चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा। मराठों की इस पराजय के फलस्वरूप पेशवा, होल्कर, सिंधिया और भोंसले अपने राज्यों के अधिकांश भू-भाग खो बैठे।राजपूत राज्यों से मराठों का प्रभुत्व समाप्त हो गया और राजपूत राज्य मराठों के प्रभुत्व से निकल कर अंग्रेजों के प्रभुत्व में चले गये।

रेम्जे म्यूर ने इस युद्ध के औचित्य को सिद्ध करते हुए लिखा है कि कंपनी की ओर से कोई आक्रामक युद्ध नहीं था तथा जिन क्षेत्रों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाये जाने के साथ युद्ध समाप्त हुआ था, वह भविष्य में शांति बनाये रखने के लिए आवश्यक था। वेलेजली ने मराठा शक्ति पर प्रहार कर उसे क्षीण कर दिया था तथा लार्ड हेस्टिंग्ज ने मराठा के कार्य को पूरा कर लिया। इस युद्ध के बाद कंपनी भारत की सार्वभौम सत्ता बन गई।

प्रिंसप ने ठीक ही लिखा है कि, ब्रिटिश प्रभाव और सत्ता भारत में जादू की तरह फैल गई।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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