इतिहासप्राचीन भारतवैदिक काल

उत्तरवैदिक काल का प्रारंभ कब हुआ

उत्तरवैदिक काल का प्रारंभ कब हुआ

उत्तरवैदिक काल का प्रारंभ – उत्तरवैदिक काल का समय 1000 ई.पू. से लेकर 600 ई.पू. तक था। ऋग्वैदिक काल के बाद के समय को उत्तरवैदिक काल के नाम से जाना जाता है।

उत्तरवैदिक काल में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद की संहिताओं, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यक एवं उपनिषद ग्रंथों की रचना हुई। इस युग में आर्य संस्कृति का प्रमुख एवं नवीन केन्द्र कुरुक्षेत्र बन गया था।

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गंगा-यमुना का तटवर्ती मध्य देश अब विशिष्ट हो गया था। पूर्व में कोशल (अवध), काशी और विदेह (उत्तरी बिहार) इस युग में आर्यों के नवीन केन्द्र बन गये थे।

इस काल में यज्ञ तत्कालीन संस्कृति का मूल आधार था। इस काल में प्रजापति (सृष्टि के निर्माता)को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया था।

पशुओं के देवता रुद्र इस काल में महत्त्वपूर्ण देवता बन गये थे। ये शिव के रूप में पूजे जाते थे।

विष्णु को संरक्षक के रूप में पूजा जाता था। पूषन शूद्रों के देवता के रूप में जान जाते थे।

उत्तरवैदिक काल में पशुपालन आर्यों की अर्थव्यवस्था के मुख्य आधारों में से साधन था। इस काल में सीसा, टिन, चाँदी, सोना, ताँबा तथा लोहा का प्रचलन हो गया था। तथा उद्योगों का अधिक से अधिक विकास उत्तरवैदिक काल में ही हुआ था।

उत्तरवैदिक काल में व्यापार मुख्यतः विनियम प्रणाली पर ही आधारित था, किन्तु ऋग्वैदिक काल के समय गाय विनिमय का साधन थी। इस युग में मुद्रा का शतमान कहा जाता था। चित्रित धूसर भांड इस युग की सबसे विशेष विषेशता थी।

इस काल में समाज चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बँटा हुआ था। विशेष बात यह थी, कि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य का उपनयन संस्कार होता था, परंतु शूद्रों का उपनयन संस्कार नहीं होता था। इस काल में जाति परिवर्तन भी नहीं होता था।

वर्णों का आधार कर्म पर न होकर जन्म पर हो गया था।

शक्तिशाली राजतंत्रों का उदय ही उत्तरवैदिक काल की महत्त्वपूर्ण विशेषता थी।

ऐतरेय ब्राह्मण में साम्राज्य, भौज्य, स्वराज्य, पारमेष्ठय, राज्य, महाराज्य, आधिपत्य व सार्वभौम आदि राज्यों का उल्लेख है।

राज्यों के शासक साम्राज्य की स्थापना करने के बाद अश्वमेघ, राजसूय, वाजपेय एवं अग्निष्टोम यज्ञ कराते थे।

प्रशासनिक व्यवस्था की सुविधा के लिये राज्य में अनेक नवीन विभागों की रचना की गयी।

राजा मंत्रियों की सहायता से समस्त राज्य में प्रशासन करता था। इन मंत्रियों को रत्निन कहा जाता था।

उत्तरवैदिक काल में न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था तथा उसकी सहायता के लिये अन्य अधिकारी भी होते थे।

इस काल में न्यायाधीश को स्थपति कहा जाता था। ग्राम स्तर पर घटित मामलों तथा अपराधों में ग्राम्यवादिन नामक अधिकारी ही अंतिम निर्णय लेता था।

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