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कर्जन की अफगान नीति क्या थी?

कर्जन की अफगान नीति (Curzon’s Afghan Policy)

लार्ड कर्जन की अफगान नीति उतनी सफल नहीं हुई जितनी उत्तर-पश्चिमी सीमान्त नीति हुई थी। लार्ड कर्जन के भारत आने के समय अब्दुर रहमान अफगानिस्तान का अमीर था, जो कर्जन से पहले ही परिचित था। उसे ब्रिटिश सहायता से ही 1880 ई. में अफगान गद्दी प्राप्त हुई थी। अँग्रेजों की ओर से अमीर को आश्वस्त किया गया था कि वे उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, यदि कोई उस पर विदेशी आक्रमण होगा तो अँग्रेज उसकी सहायता करेंगे तथा उसे अँग्रेजों से 80 हजार पौंड की वार्षिक सहायता तब तक प्राप्त होगी रहेगी जब तक उसके उनके अच्छे संबंध बने रहेंगे। Videvmr Stories TV

1893 ई. में जब डूरण्ड समझौता हुआ तब यह आश्वासन पुनः दुहराये गये और अमीर को दी जाने वाली वार्षिक आर्थिक सहायता बढाकर 1,20,000 पौंड कर दी गयी। वैसे इस संबंध में कभी औपचारिक संधि पर हस्ताक्षर तो नहीं हुए, लेकिन अमीर की वैदेशिक नीति का का संचालन ब्रिटेन के माध्यम से होता रहा और रूस को बार-बार यह सूचना भेजी गयी कि अफगानिस्तान उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर है। अफगानिस्तान के प्रति ब्रिटिश नीति का मुख्य सिद्धांत यह था कि वे अफगानिस्तान को एक मध्यवर्ती राज्य के रूप में अपने प्रभाव में रखना चाहते थे तथा यह भी चाहते थे कि अफगानिस्तान इतना शक्तिशाली हो कि वह देशी आक्रमण का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सके।

किन्तु इन सबके लिए अमीर ने अँग्रेजों के प्रति कोई कृतज्ञता प्रदर्शित नहीं की। वह अँग्रेजों से धन तो प्राप्त करता रहा लेकिन अँग्रेजों से दूरी भी बनाये रखी। उसने तो भारत सरकार के साथ पत्र-व्यवहार तक करना पसंद नहीं किया। उसने अफगानिस्तान और भारत के बीच व्यापार ठप्प कर दिया तथा ब्रिटिश क्षेत्र के कबाइलियों से मिलकर षङयंत्र करता रहा। इन सबके बावजूद उसने वही किया जो अँग्रेजों ने कहा। इस प्रकार अँग्रेजों से उसके संबंध न तो बहुत अच्छे और न बहुत खराब रहे। अक्टूबर, 1901 ई. में अब्दुर रहमान की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र हबीबुल्ला अफगानिस्तान का नया अमीर बना।

हबीबुल्ला के अमीर बनते ही कुछ पेचीदे और महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठ खङे हुए। कर्जन का कहना था कि अब्दुर रहमान और अँग्रेजों के बीच जो सुरक्षा समझौता हुआ था वह परम व्यक्तिगत था और किसी अर्थ में यह पैतृक नहीं था, एक अर्द्ध बर्बर देश में तो कदापि नहीं जहाँ शासक की मृत्यु, उत्तराधिकार के दावेदारों में खून-खराबा मचा देती है। यही बात आर्थिक सहायता पर भी लागू होती थी।

लेकिन आर्थिक सहायता का प्रश्न तो इस तरह हल हो गया कि हबीबुल्ला ने आर्थिक सहायता लेने से इन्कार कर दिया। कर्जन ने नये अमीर को अनेक बार भारत आने और नया समझौता करने का निमंत्रण भेजा, लेकिन अमीर ने सभी निमंत्रणों को अस्वीकार कर दिया। अमीर का कहना था कि उसके पिता के समय जो समझौता हुआ था वह दो व्यक्तियों के बीच न होकर दो राज्यों के बीच हुआ था और इस कारण उसके पिता के मर जाने से वह समझौता समाप्त नहीं हो सकता।

इस समय अफगानिस्तान की राजनीति में परिवर्तन आने लगा। अमीर ने अपने बहुत से अधिकार अपने भाई को सौंपना आरंभ कर दिया। कभी-कभी तो वह राज्य के कार्य में बिल्कुल ही भाग नहीं लेता था। फलस्वरूप उसकी सेना में अनुशासनहीनता दिखाई देने लगी। इसके अलावा कर्जन को यह भी सूचना मिली की अमीर का झुकाव रूस की तरफ है, हालाँकि इस संबंध में कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं मिलते। अमीर ने भारत के माध्यम से युद्ध सामग्री आयात करने पर जोर दिया और उसने यह भी कहा कि वह उतना ही शक्तिशाली है जितना जापान का सम्राट। कर्जन ने अमीर को बातचीत करने के लिए बार-बार भारत आने का निमंत्रण भेजा, किन्तु अमीर ने उन्हें ठुकरा दिया। इस प्रकार 1994 ई. तक आते-आते आंग्ल-अफगान संबंध अत्यधिक बिगङ गये।

जब अमीर ने बार-बार भारत आने का ब्रिटिश निमंत्रण स्वीकार नहीं किया, तब कर्जन और गृह सरकार की स्वीकृति से कार्यवाहक गवर्नर जनरल लार्ड एम्पथिल ने अमीर को पत्र लिखा कि भारत में अँग्रेजी सरकार अफगानिस्तान में एक व्यापारिक मिशन भेजेगी। इसके प्रत्युत्तर में अमीर ने लिखा कि वह मिशन का स्वागत करेगा तथा अपने पुत्र इनायतुल्ला के नेतृत्व में एक मिशन भारत भेजेगा। फलस्वरूप 1904 ई. के अंत में इनायतुल्ला भारत आया, किन्तु उसकी यात्रा का कोई राजनीतिक परिणाम नहीं निकला।

भारत सरकार ने भी लुइस डेन के नेतृत्व में एक मिशन अफगानिस्तान भेजा, जो 12 दिसंबर, 1904 ई. को काबुल पहुँचा। अमीर ने कूटनीतिज्ञता का परिचय देते हुए शिष्टमंडल के साथ व्यक्तिगत साक्षात्कार में बङा अच्छा व्यवहार किया। किन्तु औपचारिक दृष्टि से इस शिष्टमंडल के साथ ऐसे व्यवहार किया। किन्तु औपचारिक दृष्टि से इस शिष्टमंडल के साथ ऐसे व्यवहार किया गया मानो वह कोई द्वारपाल हो। इस प्रकार के व्यवहार करने का उद्देश्य संभवतः अफगान अमीर द्वारा अपनी जनता को अपनी महत्ता दिखाना करने का उद्देश्य संभवतः अफगान अमीर द्वारा अपनी जनता को अपनी महत्ता दिखाना था, ठुकरा दिया है और अब अँग्रेजों ने विवश होकर अपना शिष्टमंडल अमीर के पास भेजा है।

ब्रिटिश शिष्टमंडल के दो उद्देश्य थे – प्रथम तो ब्रिटिश सरकार व अमीर के बीच उत्पन्न हुए मतभेदों को समाप्त करना और दूसरा यह कि उससे वह संधि पुनः कर ली जाय जो उसके पिता के काल से चली आ रही थी। डेन एक संधि-पत्र लेकर आया, जिसे अमीर ने देखा, किन्तु उसने कहा कि वह स्वयं संधि-पत्र की शर्तें तैयार करेगा।

अमीर ने एक संधि-पत्र शुद्ध फारसी में लिखा जिसमें केवल यह लिखा गया था कि अमीर अपने पिता के समय से चले आ रहे समझौते का पालन करेगा। इसके अलावा अमीर अपने पिता के समय से चले आ रहे समझौते का पालन करेगा। इसके अलावा अमीर ने अपने पिता के समय से चले आ रहे समझौते का पालन करेगा। इसके अलावा अमीर ने उसमें एक महत्त्वपूर्ण बात यह लिख दी कि उसे हिज मैजेस्टी की उपाधि से संबोधित किया जाय। अमीर की इस शर्त से एक नया विवाद उत्पन्न हो गया। तीन सप्ताह इसी तरह के पत्रों के आदान-प्रदान में लग गये, पर कोई निष्कर्ष नहीं निकल पाया।

अब्दुर रहमान की मृत्यु के बाद नये अमीर हबीबुल्ला ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता की राशि नहीं ली थी, लेकिन यह राशि जो इस समय तक 4 लाख पौंड हो चुकी थी, उस पर उसने अपना जन्मसिद्ध अधिकार बताया और ऐसे ही भारत से होकर हथियार आयात करने के अधिकार के विषय में उसकी धारणा थी। अमीर ने इन प्रश्नों के विवाद को झगङा नहीं माना।

जबकि दूसरी ओर उसने कहा कि वह अपनी वैदेशिक नीति पर ब्रिटिश नियंत्रण बर्दाश्त नहीं करेगा। दोनों के बीच वार्ता लंबी अवधि तक चलती रही, जिसका अंत नजर नहीं आ रहा था, क्योंकि दोनों पक्ष अपने-अपने मत पर अटल बने रहे। डेन मिशन असफल होता दिखाई दे रहा था। इस मिशन की असफलता से ब्रिटिश सम्मान को ठेस पहुँच सकती थी। किन्तु मार्च, 1905 में डेन को अमीर द्वारा तैयार किये गये संधि-पत्र को स्वीकार करना पङा। अमीर को अपनी इच्छानुसार सब प्राप्त हो गया और उसने ब्रिटिश शिष्टमंडल को भावभीनी विदाई दी।

भारत पहुँचकर डेन ने अपने मिशन को पूर्णतः सफल बताया। परंतु सत्य यह था कि डेन मिशन पूरी तरह असफल रहा। डेन मिशन ने जो कुछ प्राप्त किया, वह जो पत्र-व्यवहार से ही प्राप्त हो जाता। इस मिशन के कारण अफगानिस्तान में ब्रिटिश प्रतिष्ठा अपने निम्नतम बिन्दु पर पहुँच गई। अँग्रेजों को बहुत समय बाद समझ में आया कि मिशन भेजने की आवश्यकता ही नहीं थी। अफगान यह बात समझ में आया कि मिशन भेजने की आवश्यकता ही नहीं थी। अफगान यह बात अच्छी तरह जानते थे कि भारत सरकार को ही अपना मिशन भेजना पङा, जो अमीर से अपनी कोई बात नहीं मनवा सका।

वस्तुतः कर्जन के कठोर रवैये के कारण ही डेन मिशन को अपमानित होना पङा। यदि कर्जन के रवैये में थोङा भी लचीलापन होता तो डेन मिशन अपने उद्देश्यों में सफल हो सकता था। कर्जन ने अमीर से संधि करने का जो तर्क प्रस्तुत किया वह भी व्यर्थ और आधारहीन था। कर्जन ने अफगानिस्तान के प्रति अपनी साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का परिचय दिया तथा तथ्यों पर गहराई से विचार नहीं किया।

लार्ड कर्जन के उत्तराधिकारी लार्ड मिण्टो ने अमीर को भारत आने का निमंत्रण दिया, जो अमीर को 21 अगस्त, 1906 को प्राप्त हुआ। अमीर ने अपने दरबार में भाषण देते हुए कहा, इसके पहले लार्ड कर्जन ने भी मुझे भारत में निमंत्रित किया था, किन्तु उसके पत्र में यह धमकी दी गयी थी कि यदि मैं भारत नहीं गया तो आर्थिक सहायता बंद कर दी जायेगी…इसलिये यह बिल्कुल स्पष्ट है… मैंने निश्चय कर लिया कि मैं कभी नहीं जाउँगा…लार्ड मिण्टो का व्यवहार इतना मित्रतापूर्ण है कि इस निमंत्रण को स्वीकार करने में मुझे कोई संकोच नहीं है। तत्पश्चात 1907 ई. में अमीर भारत आया। गवर्नर जनरल ने उसका पहले आगरा में, फिर कलकत्ता में स्वागत किया। समस्या यह थी कि अमीर को कहाँ हिज मैजेस्टी की उपाधि प्रदान की जाय, जिसे उसने अपनी संधि में एक शर्त बनाया था। परंतु समस्या का समाधान तब हो गया जब ब्रिटिश सम्राट एडवर्ड ने एक तार में अमीर को हिज मैजेस्टी कहकर संबोधित किया। अमीर की इस यात्रा से दोनों सरकारों के संबंध सुदृढ हो गये तथा अमीर की प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।

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