आधुनिक भारतआधुनिक भारतइतिहास

आधुनिक भारत का इतिहास कहाँ से प्रारंभ होता है?

आधुनिक भारत का इतिहास

आधुनिक भारत का इतिहास-

मुगल साम्राज्य का केन्द्रीय ढांचा अपने विरोधाभास के कारण 18 वीं शताब्दी के आरंभ से ही टूटने लगा था। इस की सैनिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियां जो भी रही हों मुगल सम्राट देश की विभिन्न जातियों में एक राष्ट्र की भावना जगाने अथवा सामूहिक प्राण उत्पन्न करने में पूर्णतया असफल रहे थे। विद्रोह तथा द्रोह के उदाहरण तो मुगल साम्राज्य के उत्कृष्टतम काल से ही विद्यमान थे परंतु 18 वीं शताब्दी में उन्होंने एक भयानक रूप धारण कर लिया।

दुर्बल मुगल राजकुमार जल्दी-जल्दी सिंहासन पर बैठे अथवा बिठलाए गए और परिस्थिति बिगङती ही चली गई। अब नियम था दुर्बलतम की अतिजीविता । सम्राट अपने शक्तिशाली षङयंत्रकारी तथा स्वार्थी अभिजात वर्ग के हाथों की कठपुतलियां बन गए थे। शक्ति के भूखे, बंगाल, अवध तथा दक्कन के सूबेदार, लगभग स्वतंत्र बन चुके थे। स्वार्थ तथा राज्य प्रसार की होङ में लगे वे मुगल सम्राटों की भी अनदेखी कर के सम्राट के शत्रुओं अथवा यूरोपीय कंपनियों से जोङ-तोङ में लगे रहते थे।

आधुनिक भारत का इतिहास

1739 ई. में हुए नादिरशाह आक्रमण के बाद मुगल साम्राज्य पूर्ण रूप से धराशायी तथा लहूलुहान पङा था और कोई भी शक्ति उसे समाप्त कर भारत का स्वामी बन सकती थी।

भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में भारत पर अंग्रेज़ों का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि, इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर विदेशों के हाथों में चली गई।

यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे, समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे, और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी।

भारत पर अंग्रेज़ों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज़ शासक हुए, जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और धन-निकास की नीति अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया।

इस काल के इतिहास के पन्ने इस बात को सिद्ध करते हैं कि, एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहीं दूसरी ओर देश को ग़ुलामी की ओर धकेल दिया गया।

भारत के पतन के कारण

भारत का उपयोग इंग्लैण्ड के लिए करना अंग्रेजों का प्रमुख दृष्टिकोण बन गया था। अंग्रेज प्रशासन, न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखता था और न ही भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग था।

इंग्लैण्ड में जो कानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे थे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि, भारत के हितों का इंग्लैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेज़ों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया।

भारतीयों का विरोध

यह सही है कि, प्रशासन एवं यातायात तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने अंग्रेजी विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि, अंग्रेज़ों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि, जहाँ भारतीयों ने मुसलमानों के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के इतिहास में शामिल किया, वहीं उन्होंने अंग्रज़ों को अपना संप्रभु नहीं माना।

हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। अंग्रेज़ कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये। यह विदेशी शासन भारतीयों को क़तई स्वीकार नहीं था। बंगाल के ‘सिराज’ के काल से लेकर दिल्ली के बहादुरशाह द्वितीय के काल तक भारतीय विरोध जारी रहा था।

अंग्रेजों की एकता की नीति

अंग्रेज राष्ट्रवाद में विश्वास रखते थे, जबकि भारत में न यह भावना थी, और न ही अनुशासन। युद्ध-कौशल तथा रणनीति में अंग्रेज़ भारतीयों की अपेक्षा कहीं आगे थे। भारतीय सैनिक निष्ठावान तो थे, पर इन्हें भी अपने राजा के प्रति पूर्ण ईमानदार और वफ़ादार नहीं कहा जा सकता। भारतीय इतिहास में न जाने कितने ही सहायकों और विश्वासपात्रों ने अपने ही राजाओं को धोखा दिया और उनके साथ विश्वासघात करके उन्हें मौत के घाट उतार दिया। इन्हीं सब बातों से भारतीयों का अपनी भूमि पर ही पतन हुआ।

बंगाल, अवध, मैसूर, महाराष्ट्र, पंजाब और सिंध इन सभी का विलय अंग्रेज़ी साम्राज्य में हो गया था। जो भी अंग्रेज़ शासक आये, चाहे वह वारेन हेस्टिंग्स हो या लॉर्ड कॉर्नवॉलिस, लॉर्ड वेलेज़ली हो या लॉर्ड हेस्टिंग्स, लॉर्ड विलियम बैंटिक हो या लॉर्ड डलहौज़ी, इन सभी ने अपने शासकीय एवं सैनिक सुधारों पर अत्यधिक बल दिया। इन सभी का सिर्फ़ एक ही मकसद था, सम्पूर्ण भारत पर अधिकार और ब्रिटिश सत्ता में वृद्धि।  

भारतीय समाज की कुरीतियाँ

हमारे देश का स्वरूप यहाँ की सामाजिक विषमताओं और कुरीतियों के कुपरिणाम स्वरूप बहुत अधिक दुःखद ओर क्रूर बन गया था। भारतीय जीवन मे अनेक प्रकार की सामाजिक अव्यवस्था – वर्णव्यवस्था , अंधविश्वास, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, प्रांतवाद, भाषा-बोली वाद, दहेज-प्रथा, बाल-विवाह प्रथा, सती -प्रथा, आदि रूढिया ओर कुरीतिया फैल चुकी थी।अपनी अंधविश्वासी परम्परा एवं रीति-रिवाजों के घेरे में पड़े भारतीय आधुनिकता से सर्वथा अपरिचित थे। 

भारत का आर्थिक शोषण

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के काल में आर्थिक परिवर्तन हुए। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर थे। भारतीय कारीगरी की ख्याति दूर-दूर तक थी। भारत के सामान से देशी और विदेशी मण्डियाँ भरी रहती थीं। 18 वीं शताब्दी के आरम्भ तक भारत से उत्कृष्ट सूती और रेशमी वस्त्र, मसाले, नील, चीनी, दवाएँ और जवाहरात आदि बड़ी मात्रा में विदेश भेजे जाते थे, और बदले में सोना और चाँदी हिन्दुस्तान में आता था।

शुरू में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भी भारतीय चीजों का खूब निर्यात किया, परन्तु कालान्तर में भारतीय व्यापार और कला-कौशल का गला घोंटने की नीति अपनायी गयी। कृषि-भूमि पर भू-राजस्व लगाया गया, जिसकी कठोरता के कारण कृषि की प्रगति समाप्त हो गई। इस प्रकार कम्पनी के शासन काल में कृषि, व्यापार व उद्योग तीनों का पतन हुआ। 19 वीं शताब्दी के पूर्व भारत में पूँजी लगाकर अंग्रेज़ों ने यहाँ की अर्थव्यस्था पर अपनी पकड़ कर ली।

दूसरी ओर वह भारत का धन इंग्लैण्ड ले गये। इन दोनों बातों से ही भारत का आर्थिक शोषण हुआ। धन के इस निर्गमन ने जहाँ भारत को दरिद्र बनाया, वहीं इंग्लैण्ड के औद्योगिक विकास ने गति पकड़ ली।

भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्तियाँ थीं : मुग़ल और मराठा। मुग़ल पतनोन्मुख हो चले थे, और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि, औरंगज़ेब की मृत्यु (1707 ई.) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया।

अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए मुग़ल साम्राज्य को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगज़ेब की मृत्यु के पहले से ही यूरोप की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।

मुगलों के पतन के समय भारत की स्थिति

मुगल साम्राज्य की स्थिति- औरंगजेब की मृत्यु के बाद हुए उसके पुत्रों में उत्तराधिकार के संघर्ष में विजयी होकर मुअज्जम, बहादुरशाह के नाम से गद्दी पर बैठा। उसके शासनकाल में मुगल अमीरों में गुटबंदी बढ गई तथा उसकी उदारता से शाही राजकोष भी खाली हो गया।

बहादुरशाह की मृत्यु के बाद, जहाँदरशाह (1712-1713) अपने भाइयों को परास्त कर गद्दी हथिया ली, परंतु उसकी अयोग्यता एवं नर्तकी लालकंवर के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण दरबारी अमीरों के षङयंत्र बढ गये। अतः बहादुरशाह के पौत्र फर्ऱुखसियर (1713-19) ने सैयद भाइयों (सैयद अब्दुला और सैयद हुसैनखाँ) के सहयोग से गद्दी हथिया ली।

परंतु अब प्रशासन में सैयद भाइयों का प्रभाव बढ गया। जब फर्रुखसियर ने सैयद भाइयों के प्रभाव को नष्ट करने का प्रयास किया, तब सैयद भाइयों ने मराठों की सहायता से उसे गद्दी से हटाकर बहादुरशाह के एक अन्य पौत्र रफी-उद्-दरजात को गद्दी पर बैठा दिया। तीन महीने बाद उसे भी गद्दी से हटाकर उसके भाई रफीउद्दौला को नया बादशाह बना दिया, किन्तु साढे तीन महीने बाद पेचिस की बीमारी से उसकी मृत्यु हो गयी।

अतः बहादुरशाह के एक अन्य पौत्र मुहम्मदशाह (1719-1748) को गद्दी पर बैठाया। मुहम्मदशाह के शासनकाल में यद्यपि सैयद भाइयों का पतन हो गया, किन्तु साम्राज्य के विघटन की गति तेज हो गयी। इसी प्रकार, 1724 ई. में दक्षिण के सूबेदार निजाम-उल-मुल्क आसफजहाँ ने हैदराबाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली। 1727 ई. में पूर्वी भारत के समृद्ध सूबे बंगाल, बिहार और उङीसा भी केन्द्रीय सत्ता से मुक्त हो गये और शुजाउद्दौला ने वहाँ अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। इस प्रकार अब मुगल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा।

इस अराजकता की स्थिति का लाभ उठाते हुए राजपूत शासक भी केन्द्रीय सत्ता के नियंत्रण से मुक्त हो गये। पंजाब में मुगल सूबेदारों के अत्याचारों से त्रस्त होकर सिक्खों ने भी अपनी शक्ति संगठित कर ली। बाद में रणजीतसिंह ने सिक्खों को संगठित कर पंजाब के एक शक्तिशाली सिक्ख राज्य की स्थापना कर ली। इस प्रकार औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया और साम्राज्य की शक्ति छिन्न-भिन्न हो गयी।

मराठों का उत्कर्ष

शिवाजी के वंशज

छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के बाद जनवरी, 1681 ई. में उसका ज्येष्ठ पुत्र शंभाजी गद्दी पर बैठा। शंभाजी अपने योग्य पिता का योग्य पुत्र नहीं था। इधर औरंगजेब ने 1686-87 ई. में बीजापुर और गोलकुण्डा को हस्तगत करने के बाद अपनी संपूर्ण शक्ति मराठों के विरुद्ध लगा दी। फलस्वरूप शंभाजी को कैद कर उसकी निर्मम हत्या कर दी गयी। इससे मराठों की क्रोधाग्नि भङक उठी और उन्होंने शंभाजी के भाई राजाराम के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध अपना स्वतंत्रता संग्राम छोङ दिया। मुगलों ने राजाराम के निवास स्थान रायगढ दुर्ग पर आक्रमण कर उसे घेर लिया।

शंभाजी की विधवा पत्नी यशुबाई की सलाह पर राजाराम सुदूर दक्षिण की ओर चला गया। किन्तु विश्वासघात के कारण शंभाजी की विधवा पत्नी और उसका पुत्र शाहू मुगलों द्वारा कैद कर लिये गये। दुर्भाग्य से 2 मार्च, 1700 ई. को राजाराम की भी मृत्यु हो गयी। उसके बाद राजाराम की विधवा पत्नी ताराबाई ने अपने तीन वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बिठा दिया और मराठों का नेतृत्व स्वयं ग्रहण कर लिया।

ताराबाई के नेतृत्व में मराठों की शक्ति दिन-प्रतिदिन बढती गयी। औरंगजेब ने मराठों का दमन करने का भरसक प्रयत्न किया, परंतु उसे घोर निराशा ही हुई, घोर निराशा की अवस्था में 20 फरवरी, 1707 ई. को औरंगजेब की मृत्यु हो गयी।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों – मुअज्जम और आजम के बीच उत्तराधिकार संघर्ष छिङ गया। जब आजम दक्षिण भारत से उत्तर के लिये रवाना हुआ तो वह अपने साथ शाहू एवं उसके परिवार को भी ले गया। मार्ग में मुगल सेनानायक जुल्फिकारखाँ के सुझाव पर शाहू को मुक्त कर दिया, किन्तु उसके परिवार को मुगल शिविर में कैद रखा। शाहू को मुक्त करने में मुगलों का मुख्य उद्देश्य यह था कि शाहू और ताराबाई में उत्तराधिकार का संघर्ष छिङ जायेगा, जिससे वे दक्षिण में मुगल सत्ता को अधिक हानि नहीं पहुँचा सकेंगे।

शाहू मुगलों की कैद से मुक्त होकर महाराष्ट्र की ओर चला पङा तथा महाराष्ट्र पहुँचते-पहुँचते उसके पास एक अच्छी सेना हो गयी। जब ताराबाई को शाहू के आगमन की सूचना मिली तो उसने घोषणा की कि शाहू का मराठा राज्य पर कोई उत्तराधिकार नहीं है, क्योंकि जिस मराठा राज्य का निर्माण शिवाजी ने किया था वह उसके पिता शंभाजी ने खो दिया है तथा मौजूदा मराठा राज्य का निर्माण उसके पति राजाराम व स्वयं उसने किया है, जिसका वास्तविक उत्तराधिकारी उसका पुत्र शिवाजी द्वितीय ही है।

अंत में, नवम्बर, 1707 में खेङ के मैदान में और उसके बाद सतारा के निकट शाहू और ताराबाई के पक्षों में युद्ध हुआ, जिसमें ताराबाई पराजित हुई। शाहू ने सतारा को अपनी राजधानी बनाया और जनवरी, 1708 ई. में अपना राज्याभिषेक किया।

शाहू के राज्यारोहण के समय महाराष्ट्र की राजनीतिक स्थिति अत्यन्त गंभीर थी। ताराबाई की सत्ता भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी तथा मराठा सरदारों में स्वार्थ, संकीर्णता, धन लोलुपता और अवसरवादिता उत्पन्न हो चुकी थी। मराठा प्रशासन अस्त-व्यस्त हो चुका था। चूँकि शाहू मुगल शिविर में बङा हुआ था, अतः वह आरामपसंद व विलासी व्यक्ति था। उसके लिये महाराष्ट्र की उलझी हुई व्यवस्था को सुलझाना संभव नहीं था।

अतः शाहू को ऐसे दृढसंकल्प व्यक्ति की सेवाओं की आवश्यकता थी जो साहू की समस्त कठिनाइयों को हल कर प्रशासन व्यवस्था को संगठित कर सके। पेशवा ने शाहू की इच्छाओं को पूरा कर दिखाया। फलस्वरूप शाहू के शासनकाल में पेशवा की शक्ति का उत्कर्ष हुआ। पहले पेशवा अष्ट प्रधान की शक्ति से ऊपर उठे और बाद में छत्रपति से भी ऊपर उठ गये।

पेशवाओं का उत्थान

पेशवाओं का अभ्युदय मुख्यतः बालाजी विश्वनाथ की सेवाओं के कारण हुआ था, जिसे 16 नवम्बर, 1713 ई. को पेशवा पद पर नियुक्त किया गया था। बालाजी विश्वनाथ ने ताराबाई की सत्ता को समाप्त किया तथा विद्रोह मराठा सरदारों की शक्ति का दमन कर उन पर शाहू के प्रभुत्व की पुनः स्थापना की। बालाजी विश्वनाथ की सबसे महत्त्वपूर्ण सेवा शाहू के लिए दक्षिण के छः मुगल सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का शाही फरमान प्राप्त करना था।

दिल्ली में सैयद भाइयों के सहयोग से फर्रुखसियार मुगल तख्त पर आसीन हुआ था, लेकिन कुछ समय बाद उसकी सैयद भाइयों से अनबन हो गयी और दोनों पक्ष एक-दूसरे को समाप्त करने पर उतारू हो गये। 1719 ई. में सैयद हुसैनखाँ ने मराठों से एक संधि की जिसमें शाहू को दक्षिण के छः सूबों से चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार देने तथा शाहू के परिवार को मुगलों की कैद से छोङ देने का वचन दिया।

उसके बाद बालाजी विश्वनाथ अपनी मराठा सेना लेकर सैयद हुसैनखाँ की सहायतार्थ दिल्ली गया, जहाँ फर्रुखसियर को गद्दी से उतारकर उसे मार डाला और रफी-उद-दरजात को सम्राट बनाया। नये सम्राट ने 1719 की मुगल मराठा संधि के अनुसार शाही फरमान जारी कर दिये। मराठों की यह दिल्ली यात्रा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई, क्योंकि मुगल सत्ता का खोखलापन स्पष्ट हो गया। अतः दिल्ली से वापस आने के बाद बालाजी विश्वनाथ ने उत्तर भारत में मराठा शक्ति के प्रसार की योजना बनायी, परंतु योजना को कार्यान्वित करने से पूर्व ही 1720 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।

बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के बाद उसका 20 वर्षीय पुत्र बाजीराव (1720-1740) पेशवा बना, जिसने मराठों के प्रभाव को और अधिक बढाया। उसने निजाम-उद-मुल्क को दो बार पराजित किया, पुर्तगालियों से बसीन व सालसेट छीन लिये तथा मराठा प्रभाव को गुजरात, मालवा और बुंदेलखंड तक पहुँचा दिया। वस्तुतः बाजीराव ने संपूर्ण उत्तर-भारत में मराठा शक्ति के विस्तार का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। 28 अप्रैल, 1740 को बाजीराव की मृत्यु हो गयी, तब शाहू ने बाजीराव के 19 वर्षीय पुत्र बालाजी बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया।

बालाजी बाजीराव के शासनकाल (1740-1761) में मराठा साम्राज्य प्रसार, आंतरिक व्यवस्था और भौतिक समृद्धि की दृष्टि से उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया। छत्रपति की समस्त शक्तियाँ पेशवा के हाथ में आ गयी और सतारा के स्थान पर पूना मराठा राज्य का प्रमुख केन्द्र बन गया। 25 दिसंबर, 1749 ई. को शाहू की मृत्यु हो गयी और तत्पश्चात छत्रपति का नाम इतिहास में प्रायः लुप्त हो गया तथा पेशवा मराठा साम्राज्य का सर्वोच्च व्यक्ति बन गया।

लेकिन बालाजी बाजीराव योग्य सेनानायक और कुशल कूटनीतिज्ञ नहीं था। उसकी इस अयोग्यता का लाभ उठाकर सिन्धिया व भोंसले जैसे मराठा सरदार स्वतंत्र शासकों की भाँति व्यवहार करने लगे। उसने अपनी स्वार्थी नीति के कारण उत्तर भारत की लगभग सभी प्रमुख शक्तियों को नाराज कर दिया था। उसके उत्तरी अभियानों का ध्येय अधिक से अधिक धन बटोरना था। राजपूत शासकों पर तो इतने जुल्म ढाये कि वे मराठों के शत्रु बन गये। फलस्वरूप पानीपत के युद्ध में मराठों को कहीं से सहायता प्राप्त न हो सकी।

अन्य शक्तियों का उद्भव

उत्तर मुगलकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में सिक्खों, राजपूतों, जाटों तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुगलों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी।

इसी प्रकार राजपूतों ने राजपूताना में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने रूहेलखण्ड में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली।

सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुगल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिल गया।

इन विदेशियों को अपना क्षेत्राधिकार बढ़ाने का ये सुअवसर यूँ ही नहीं मिल गया। इन्होंने देख लिया था कि, भारत की देशी रियासतों में आपसी फूट बहुत ज़्यादा है। ये फूट इस हद तक बढ़ चुकी थी कि देशी रियासतें बाहरी लोगों का मुकाबला करने की बजाय आपस में ही लड़ती रहीं। जब इन रियासतों ने बाहरी आक्रमणकारियों को पहचाना, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

भारतीय ऐतिहासिक लङाइयाँ

भारतीय इतिहास में समय-समय पर कई युद्ध हुए हैं। इन युद्धों के द्वारा भारत की राजनीति ने न जाने कितनी ही बार एक अलग ही दिशा प्राप्त की। भारतीय रियासतों में आपस में ही कई इतिहास प्रसिद्ध युद्ध लड़े गए। इन देशी रियासतों की आपसी फूट भी इस हद तक बढ़ चुकी थी, कि अंग्रेज़ों ने उसका पूरा लाभ उठाया। राजपूतों, मराठों और मुसलमानों में भी कई सन्धियाँ हुईं। भारत के इतिहास में अधिकांश युद्धों का लक्ष्य सिर्फ एक ही था, दिल्ली सल्तनत पर अधिकार करना। अंग्रेजों ने अपनी सूझबूझ और चालाकी व कूटनीति से दिल्ली पर अधिकार प्राप्त कर लिया था।

कई युद्ध हुये थे, जो निम्नलिखित हैं, ये सभी युद्ध परीक्षा की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं-

पानीपत का तीसरा युद्ध (1761 ई.)

ईरान के शासक नादिरशाह के मरणोपरांत उसके एक प्रमुख सेनानायक अहमदशाह अब्दाली ने 1747 ई. में काबुल तथा कंधार पर अधिकार करके अफगानिस्तान में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। अफगानिस्तान में अपनी सत्ता सुदृढ करने के बाद उसने भारत की ओर ताकना शुरू कर दिया।

वह पंजाब, मुल्तान, कश्मीर आदि भारतीय भू-भागों को, जो कि नादिरशाह के अधीन रह चुके थे, अपने अधिकार में लाना चाहता था। उसके अन्य उद्देश्य थे – भारत से धन प्राप्त करना, लूटमार के द्वारा अपने अफगान सैनिकों को संतुष्ट करना और नवीन विजयों द्वारा अपनी प्रतिष्ठा एवं शक्ति बढाना।

उसे भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने का शीघ्र ही बहाना मिल गया। 1748 ई. में पंजाब के सूबेदार जकरियाखाँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों- यहियाखाँ और शाहनवाजखाँ में उत्तराधिकार का संघर्ष छिङ गया। मुगल सम्राट के वजीर ने यहियाखाँ का पक्ष लिया। अतः शाहनवाजखाँ ने अब्दाली को सहयोग के लिए आमंत्रित किया। 1748 ई. में अब्दाली पंजाब में आ पहुँचा। इसी बीच मुगल वजीर ने शाहनवाजखाँ को अपने पक्ष में कर लिया।

अतः अब्दाली ने पहले शाहनवाजखाँ को परास्त किया, फिर लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसी समय मुगल वजीर के नेतृत्व में दिल्ली से शाही सेना आ गयी, जिसने भानपुर के युद्ध में अब्दाली को परास्त किया। अतः अब्दाली वापिस लौट गया, किन्तु 1752 ई. में उसने पुनः आक्रमण किया। विवश होकर मुगल सम्राट ने पंजाब और मुल्तान अब्दाली को सौंप दिये। अब्दाली, मुइन-उल-मुल्क को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर वापिस अफगानिस्तान लौट गया।

पानीपत की तीसरी लड़ाई में सबसे अधिक क्षति मराठों को उठानी पड़ी। कुछ समय के लिए उनकी बाढ़ रुक गयी और इस प्रकार वे मुगल बादशाहों की जगह ले लेने का मौक़ा खो बैठे। यह लड़ाई वास्तव में मुगल साम्राज्य के पतन की सूचक है। इसने भारत में मुगल साम्राज्य के स्थान पर ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना में मदद की। अब्दाली को पानीपत में जो फतह मिली, उससे न तो वह स्वयं कोई लाभ उठा सका और न उसका साथ देने वाले मुसलमान सरदार। इस लड़ाई से वास्तविक फ़ायदा अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी  ने उठाया। इसके बाद कम्पनी को एक के बाद दूसरी सफलताएँ मिलती गयीं।

प्लासी का युद्ध

प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को लड़ा गया था। अंग्रेज और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला की सेनायें 23 जून, 1757 को मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील दूर ‘नदिया ज़िले’ में भागीरथी नदी के किनारे ‘प्लासी’ नामक गाँव में आमने-सामने आ गईं। सिराजुद्दौला की सेना में जहाँ एक ओर ‘मीरमदान’, ‘मोहनलाल’ जैसे देशभक्त थे, वहीं दूसरी ओर मीरजाफर जैसे कुत्सित विचारों वाले धोखेबाज भी थे। युद्ध 23 जून को प्रातः 9 बजे प्रारम्भ हुआ। मीरजाफर एवं रायदुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ निष्क्रिय रहे। इस युद्ध में मीरमदान मारा गया।  रॉबर्ट क्लाइव बिना युद्ध किये ही विजयी रहा। फलस्वरूप मीरजाफर को बंगाल का नवाब बनाया गया।

प्लासी के युद्ध के परिणामों की बक्सर के युद्ध में अंग्रेजों की विजय के साथ पुष्टि हुई।युद्ध ने अंग्रेजों को तात्कालिक सैनिक एवं वाणीज्यिक लाभ प्रदान किया, कंपनी का बंगाल,बिहार और उङीसा पर राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित हुआ।

मैसूर युद्ध

अंग्रेज इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि दक्षिण भारत की यदि तीनों शक्तियाँ (निजाम, मैसूर तथा मराठे) एक हो जाती हैं तो अंग्रेजों के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो जायेगा। इसलिए वे इन तीनों शक्तियों को अलग-अलग रखना चाहते थे। निजाम, मैसूर व मराठे अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु परस्पर संघर्ष में लीन रहते थे। अतः दक्षिण में अंग्रेजों की कूटनीति अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुई। किन्तु मैसूर की स्थिति ऐसी थी कि दक्षिण की अन्य शक्तियाँ उसके अस्तित्व को बनाये रखना चाहती थी। मराठों को खिराज, निजाम को मराठों के आक्रमण के विरुद्ध एक मित्र तथा अंग्रेजों को दक्षिण में शक्ति संतुलन बनाये रखने के लिए मैसूर की आवश्यकता थी। साथ ही ये शक्तियाँ मैसूर को इतना शक्तिशाली भी देखना नहीं चाहती कि वह उनके लिए खतरा बन जाये।

1761 ई. में हैदर अली ने मैसूर में हिन्दू शासक के ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया। निरक्षर होने के बाद भी हैदर अली की सैनिक एवं राजनीतिक योग्यता अद्वितीय थी। उसके फ़्राँसीसियों से अच्छे सम्बन्ध थे। हैदर अली की योग्यता, कूटनीतिक सूझबूझ एवं सैनिक कुशलता से मराठे, निज़ाम एवं अंग्रेज़ ईर्ष्या करते थे। हैदर अली ने अंग्रेज़ों से भी सहयोग माँगा था, परन्तु अंग्रेज़ इसके लिए तैयार नहीं हुए, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी न हो पाती। भारत में अंग्रेज़ों और मैसूर के शासकों के बीच चार सैन्य मुठभेड़ हुई थीं। अंग्रेज़ों और हैदर अली तथा उसके पुत्र टीपू सुल्तान के बीच समय-समय पर युद्ध हुए। ये युद्ध निम्नलिखित हैं-

  • प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (1767-1769 ई.)
  • द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1780-1784ई.)
  • तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1789-1792ई.)
  • चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 – 5 मई 1799 ई.)

32 वर्षों तक ये युद्ध चले थे। जो1767 से 1799 ई. के मध्य में लङे गए थे। अंत में अंग्रेजों की विजय हुई।

आंग्ल सिक्ख युद्ध

भारत के इतिहास में दो सिक्ख युद्ध हुए हैं। इन दोनों ही युद्धों में सिक्ख अंग्रेज़ों से पराजित हुए और उन्हें अंग्रेज़ों से उनकी मनमानी शर्तों के अनुसार सन्धि करनी पड़ी।

27 जून 1839 को रणजीतसिंह की मृत्यु हो गयी। रणजीतसिंह की मृत्यु के साथ ही केन्द्रीय शासन का प्रभाव कमजोर हो गया, क्योंकि रणजीतसिंह ने जिस ढँग से शासन व्यवस्था स्थापित की थी, उसे प्रभावकारी ढंग से चलाने के लिए शासक में व्यक्तिगत योग्यता का होना आवश्यक था। रणजीतसिंह का कोई भी उत्तराधिकारी उस आवश्यक योग्यता के अनुसार नहीं था। अतः रणजीतसिंह की मृत्यु के साथ ही अंग्रेजों की नीति में परिवर्तन आ गया और वह पंजाब को अपने साम्राज्य में मिलाने का स्वप्न देखने लगे।

प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1845-1846ई.)

प्रथम युद्ध में पराजय के कारण सिक्खों को अंग्रेज़ों के साथ 9 मार्च, 1846 ई. को ‘लाहौर की सन्धि’ और इसके उपरान्त एक और सन्धि, ‘भैरोवाल की सन्धि’ 22 दिसम्बर, 1846 ई. को करनी पड़ी। इन सन्धियों के द्वारा ‘लाल सिंह’ को वज़ीर के रूप में अंग्रेज़ों ने मान्यता प्रदान कर दी और अपनी एक रेजीडेन्ट को लाहौर में रख दिया। महारानी ज़िन्दा कौर को दलीप सिंह से अलग कर दिया गया, जो की दलीप सिंह की संरक्षिका थीं। उन्हें ‘शेखपुरा’ भेज दिया गया।

द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1848-1849ई.)

द्वितीय युद्ध में सिक्खों ने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। दलीप सिंह को पेन्शन प्रदान कर दी गई। उसे व रानी ज़िन्दा कौर को 5 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन पर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। जहाँ पर कुछ समय बाद ही रानी ज़िन्दा कौर की मृत्यु हो गई।

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम

सर्वप्रथम श्री सावरकर ने इस विप्लव को राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए आयोजित युद्ध कहा। पट्टाभिसीतारमैया के अनुसार भी 1857 का महान आंदोलन भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम था। अशोक मेहता ने भी अपनी पुस्तक द ग्रेट रिवोल्ट में यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह एक राष्ट्रीय विद्रोह था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी लिखा है कि यह केवल सैनिक विद्रोह शीघ्र ही जन-विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था।

बेंजेमिन डिजरैली ने भी ब्रिटिश संसद में इसे एक राष्ट्रीय विद्रोह कहा था। सुरेन्द्रनाथ सेन लिखते हैं कि जो युद्ध धर्म के नाम पर प्रारंभ हुआ था, स्वातंत्र्य युद्ध में जाकर समाप्त हुआ, क्योंकि इस बात में कोई संदेह नहीं कि विद्रोही विदेशी शासन से मुक्ति चाहते थे और वे पुनः पुरातन शासन व्यवस्था स्थापित करने के इच्छुक थे, जिनका प्रतिनिधित्व दिल्ली का बादशाह करता था।

लॉर्ड कैनिंग के गवर्नर-जनरल के रूप में शासन करने के दौरान ही 1857 ई. की महान् क्रान्ति हुई। इस क्रान्ति का आरम्भ 10 मई, 1857 ई. को मेरठ से हुआ, जो धीरे-धीरे कानपुर, बरेली, झांसी, दिल्ली, अवध आदि स्थानों पर फैल गया।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना

1885 ई. तक भारतीयों में राजनीतिक चेतना का उद्भव हो चुका था,और सब राजनीतिक अधिकार प्राप्त करने हेतु एक राष्ट्रीय संस्था की आवश्यकता अनुभव कर रहे थे। 1876 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी (Surendranath Banerjee) ने इंडियन (Indian Association)एसोसियेशन नामक संस्था की स्थापना की। 28 से 30 सितंबर, 1883 में कलकत्ता के अल्बर्ट हॉल (Albert Hall)में इस संस्था का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ, जिसमें उन सभी प्रश्नों पर विचार किया गया जो आगे चलकर आंदोलन की पृष्ठभूमि बन गये।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना का श्रेय एलन ओक्टोवियन ह्यूम(Alan Octavian Hume) को दिया जाता है। ह्यूम एक अंग्रेज सरकारी अधिकारी था। 1879 में नीति संबंधी मतभेद होने के कारण लार्ड लिटन(Lord Lytton) ने उसकी पदावनति कर दी थी।इस घटना ने उसे राजनीतिक आंदोलनकारी बना दिया।

साम्प्रदायिक दंगे

कुछ ब्रिटिश अफसरों ने भारत को स्वाधीन होने से रोकने के लिए अंतिम दुर्राभ संधि की और मुसलमानों की भारत विभाजन करके पाकिस्तान की स्थापना की माँग का समर्थन करना शुरू कर दिया। इसके फलस्वरूप अगस्त 1946 ई. में सारे देश में भयानक सम्प्रदायिक दंगे शुरू हो गये, जिन्हें वाइसराय लॉर्ड वेवेल अपने समस्त फ़ौजी अनुभवों तथा साधनों बावजूद रोकन में असफल रहा। यह अनुभव किया गया कि भारत का प्रशासन ऐसी सरकार के द्वारा चलाना सम्भव नहीं है, जिसका नियंत्रण पूर्ण रूप से अंग्रेज़ों के हाथों में हो।

वेवल ने 1 अगस्त, 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू को अंतरिम सरकार के गठन के लिए निमंत्रण दिया। 24 अगस्त, 1946 को पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारत की पहली अंतरिम राष्ट्रीय सरकार की घोषणा की गयी।

अतएव सितम्बर 1946 ई. में लॉर्ड वेवेल ने पंडित जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में भारतीय नेताओं की एक अंतरिम सरकार गठित की। ब्रिटिश अधिकारियों की कृपापात्र होने के कारण मुस्लिम लीग के दिमाग काफ़ी ऊँचे हो गये थे। उसने पहले तो एक महीने तक अंतरिम सरकार से अपने को अलग रखा, इसके बाद वह भी उसमें सम्मिलित हो गयी।

संविधान सभा (1946-50) एवं स्वतंत्रता की प्राप्ति

संविधान सभा के चुनाव जून 1946 के अंत तक समाप्त हो गए। ब्रिटिश भारतीयों को दी गयी 292 सीटों में से चार खाली रह गई क्योंकि सिखों ने सभा में सम्मिलित होने से इनकार कर दिया।

शेष 288 तीन वर्गों में बंट गए – ‘A’, ‘B’ और ‘C’ । वर्ग ‘A’ में कांग्रेस ने 162 सामान्य तथा दो मुस्लिम सीटों पर विजय प्राप्त की, लीग ने 19 सीटें जीती तथा निर्दलीय एक सीट पर सफल रहा। वर्ग ‘B’ में कांग्रेस ने 7 सामान्य तथा दो मुस्लिम लीग ने 19, यूनियनिस्ट पार्टी ने 3 तथा निर्दलीय को एक सीट मिली। वर्ग ‘C’ में कांग्रेस ने 32, लीग ने 35, कम्युनिस्टों ने एक, अनुसूचित जाति ने दो तथा कृषक प्रजा पार्टी ने एक सीट जीती। इस प्रकार कांग्रेस ने कुल 201, मुस्लिम लीग ने 73, नर्दलीय ने 8 तथा अन्य पार्टियों ने 6 सीटें जीती।

सभा की प्रथम बैठक 9 दिसंबर को कौंसिल चैंबर के पुस्तकालय में हुई जिसमें 205 सदस्यों ने भाग लिया। लीग तथा देशी राज्यों के सदस्यों ने इसमें भाग नहीं लिया। प्रारंभिक कार्यों में सभा ने 15 सदस्यीय एक समिति का गठन किया, जिसके कार्य कार्यविधि के नियम बनाने थे तथा इसके अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद थे।

सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव उद्देश्य प्रस्ताव संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी, 1947 को पारित किया गया। इसे बाद में भारत के संविधान का प्राक्कथन बनाया गया। तीन वर्षों के कठोर श्रम के बाद संविधान सभा द्वारा अंततः 26 नवंबर, 1949 को इस संविधान को स्वीकृति प्रदान की गई जो 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ।

1947 ई. के शुरू में लॉर्ड वेवेल के स्थान पर लॉर्ड माउंटबेटेन वाइसराय नियुक्त हुआ। उसे पंजाब में भयानक सम्प्रदायिक दंगों का सामना करना पड़ा। जिनको भड़काने में वहाँ के कुछ ब्रिटिश अफ़सरों का हाथ था।

वह प्रधानमंत्री एटली के नेतृत्व में ब्रिटेन की सरकार को यह समझाने में सफल हो गया कि भारत का भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान करने से शान्ति की स्थापना सम्भव हो सकेगी और ब्रिटेन भारत में अपने व्यापारिक हितों को सुरक्षित रख सकेगा।

3 जून, 1947 ई. को ब्रिटिश सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गयी कि भारत का; भारत और पाकिस्तान के रूप में विभाजन करके उसे स्वाधीनता प्रदान कर दी जायगी। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 15 अगस्त, 1947 ई. को ‘इंडिपेडंस ऑफ़ इंडिया एक्ट’ पास कर दिया। इस तरह भारत उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त, बलूचिस्तान, सिंध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल तथा पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल भागों से रहित हो जाने के बाद, सात शताब्दियों की विदेशी पराधीनता के बाद स्वाधीनता के एक नये पथ पर अग्रसर हुआ।

देशी राज्यों(रियासतों) का भारतीय संघ में विलय

5 जुलाई,1947 ई.को अंतरिम सरकार के गृहमंत्री सदार बल्लभ भाई पटेल के निर्देशन में राज्य मंत्रालय की स्थापना की गई और उन्हें भारत की ओर से देशी नरेशों के साथ बातचीत करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया।

15 अगस्त,1947 को भारत स्वतंत्र हो गया।भारत के विभाजन के समय खैरपुर,बहावलपुर आदि रियासतें पाकिस्तान में शामिल हो गई और शेष भारत में रह गई।सरादर पटेल ने भारतीय नरेशों से अपील की कि भारत के सामूहिक हितों को ध्यान में रखते हुए वे देश की अखंडता को बनाये रखने में मदद करें।

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