इतिहासमध्यकालीन भारत

अफगान राजपूत संबंध कैसे थे | Aphagaan raajapoot sambandh kaise the | How were afghan rajput relations

अफगान राजपूत संबंध – दिल्ली के सिंहासन पर बहलोल के उत्थान की कथा अफगान गुटबंदियों और उनके विश्वासघात के खिलाफ संघर्ष की कहानी है। यह सच है कि सैनिक और जन नायक के रूप में बहलोल में ऐसे गुण थे जिन्होंने अंततोगत्वा उसे दिल्ली का सिंहासन दिलाया और 19 अगस्त, 1451 को बहलोल दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ।

बहलोल को जो राज्य मिला था वह कोई फूलों की सेज न था। गृहयुद्ध, विद्रोह, शासकों की क्षमता और विदेशी हमलों की वजह से सल्तनत की नाकामी पर अधिक ध्यान देना संभव नहीं था। दूर-दराज तक के इलाकों को केंद्रीय नियंत्रण में लाने के लिये इस्तेमाल होने वाली अक्तादारी अब साम्राज्य को घातक आघात पहुँचाने लगी थी। आर्थिक और सैनिक नियंत्रण कायम रखने के अपनी कर्तव्यों के कारण ये अधिकारी यानी अक्तादार अब राजनीतिक नियंत्रण अपनी मुट्ठी में लेने की जोङ-तोङ में व्यस्त थे और इस स्थिति से निपटने में सैयद पूरी तरह नाकाम प्रमाणित हुए।

उन राजाओं ने इन परिस्थितियों का फायदा उठाया जो वास्तविक रूप से कभी भी अधीन नहीं किए गए थे और केवल नाममात्र के लिये सुल्तानों की अधीनता स्वीकार कर रहे थे। सरकार को असहाय पाकर इन लोगों ने भी अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया और छोटी-छोटी रियासतें बना ली। इनमें से कुछ तो काफी शक्तिशाली हो गए। जो राजपूत प्रभावशाली शक्ति के रूप में अपना स्थान तुर्कों के हाथों गँवा चुके थे उन्होंने देखा कि उत्तरी भारत पर अपनी सार्वभौम सत्ता पुनः स्थापित करने का अवसर आ गया है।

किंतु बहलोल ने गद्दी पर बैठाने के कुछ वर्षों के भीतर ही अपने राज्य में पुनः व्यवस्था स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली। उसने अपने प्रमुख शत्रु जौनपुर के शर्कियों को पदच्युत करते हुए अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया। अहमद यादगार के कथन पर विश्वास किया जाए तो मानना पङेगा कि उसे मेवाङ के उन राजपूतों के इरादों पर भी अंकुश लगाने में सफलता मिली जो पूर्ण स्वतंत्रता और सार्वभौम सत्ता का उपभोग कर रहे थे।

मेवाङ नरेश के खिलाफ लोदी अभियान का किसी समकालीन इतिहासकार द्वारा शायद ही कोई उल्लेख मिलेगा। इनमें से अहमद यादगार की तारीखें सलातीन अफागिना ही उल्लेखनीय है। लेकिन कठिनाई यह है कि यादगार ने न तो राणा के नाम का उल्लेख किया है, न अभियान की तिथि का। कर्नल टाड द्वारा लिखित ग्रंथ में भी तिथि का उल्लेख नहीं है। एक तथ्य मात्र यादगार के उस ब्यौरे में है जिसमें उसने संकेत दिया है कि मेवाङ पर इस तरह का आक्रमण हुआ था लेकिन उसका कोई ठोस नतीजा न निकलने के कारण समकालीन इतिहासकारों ने घटना को नजरअंदाज कर देना ही ठीक समझा। मुहम्मद हबीब और के.एस. निजामी जैसे आधुनिक इतिहासकारों ने घटना का बिलकुल ही उल्लेख नहीं किया है। ए.बी.पांडे ने आक्रमण का उल्लेख तो किया है लेकिन उनका कहना है कि टाड और यादगार के विवरणों में भारी अंतर के कारण किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन जान पङता है।

ऐसी स्थिति में यादगार के विवरण को जैसा का तैसा ठीक नहीं माना जा सकता क्योंकि वह सन 1613 के कुछ ही बाद लिखा गया था और इसमें तिथि के बारे में भारी भ्रम है। राजपूत इतिहास के अनुसार मेवाङ पर आक्रमण का मौका बहलोल को इसलिए मिला, क्योंकि इस राजपूत रियासत में आंतरिक मतभेद फैले हुए थे। अपने पिता महाराणा कुंभा की हत्या करके सन 1468 में गद्दी पर बैठे राय ऊदा ने अगले पाँच वर्षों तक आतंक का साम्राज्य बनाए रखा। अंत में उसके भाई रायमल ने उसे खदेङ दिया। राय ऊदा ने बहलोल की मदद चाही और उसकी दोस्ती के बदले अपनी बेटी उसे देने की पेशकश की। टॉड के अनुसार इसके फौरन बाद ऊदा की बिजली गिरने से उस समय मौत हो गयी जब वह बहलोल के दरबार से बाहर निकल रहा था।

ऊदा की मौत हो जाने पर भी बहलोल अपने अधिकारियों कुतुब खाँ और खानखाना फारमुली को लेकर ऊदा के पुत्रों, साहसमल और सूरजमल के साथ आया। मेवाङ पहुँचकर शाही सेना ने नाथद्वारा के निकट सियाढ में पङाव डाल दिया। यहाँ पर रायमल ने अपने जागीरदारों के साथ 58 हजार घुङसवारों और 11 हजार पैदल सैनिकों की सेना एकत्र कर लोदियों से टक्कर ली। लङाई के आरंभिक दौर में राणा के भतीजे छत्रसाल के नेतृत्व में राजपूतों ने तेजी से हमला करके अफगान शिविर को भारी क्षति पहुँचाई और उसके सैनिकों को हताहत कर दिया। बाद में जब सैनिकों के बीच सीधे दो-दो हाथ होने लगे तो बङी संख्या में राजपूतों सहित छत्रसाल मारा गया। छत्रसाल की मृत्यु के बाद हताश राणा ने संधि की। उसने खुतबा पढना कबूल किया और सुल्तान के नाम के सिक्के चित्तौङ में जारी किए।

लोदियों की यह विजय थोङे समय ही कायम रह सकी। जैसे ही बहलोल ने पीठ फेरी, राजपूतों ने उसके शासन को जुए की भाँति भार समझकर उतार फेंका। उधर बहलोल की अपनी आंतरिक समस्याएँ थी, जिनके रहते हुए उसे कभी समय ही नहीं मिला कि फिर मेवाङ की ओर मुँह कर सकें। इसके बाद उसके शासनकाल में किसी लङाई के बारे में कोई सूचना नहीं मिलती है।

रायमल का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राणा साँगा था, जो सत्ताईस वर्ष की उम्र में 5 मई, 1509 ई. को गद्दी पर बैठा। उसका शासनकाल न केवल मेवाङ अपितु भारत के इतिहास का भी महत्त्वपूर्ण दौर है क्योंकि उसने दिल्ली के सुल्तान और अन्य पङोसी राज्यों से जमकर लोहा लिया। उसके शासनकाल के समय राजपूतों की साम्राज्य स्थापना की उम्मीद उस समय तक बलवती बनी रही जब तक बाबर के हमले ने उसे चूर-चूर नहीं कर दिया।

सिकंदर लोदी राणा साँगा का समकालीन था जो बहलोल की मृत्यु के बाद सन 1489 में गद्दी पर बैठा था। जिस समय सिकंदर अपने राज्य की सीमा का विस्तार करने में लगा था उसी समय राणा साँगा ने छटासू पर कब्जा कर लिया जो लोदियों के अधिकार में चला आ रहा था। यादगार के अनुसार राणा साँगा ने इसे पूरनमल की जागीर में शामिल कर दिया। पूरनमल आसपास के गाँवों में रहने वाले सैयदों पर जुल्म ढाता रहा। विक्रम संवत् 1568 (1511 ई.) के सिल्हादि खंढार अभिलेख से संकेत मिलता है कि पूर्वी राजस्थान में सिकंदर लोदी की शक्ति काफी कम हो गयी थी। अवसर पाकर राणा साँगा वस्तुतः न केवल समूचे राजस्थान का अधीश्वर बन गया था अपितु अपने पङोसियों की कीमत पर अपनी सीमाओं का विस्तार भी कर रहा था। मालवा ऐसी ही एक रियासत थी जहाँ से महमूद खिलजी द्वितीय ने अपने प्रधानमंत्री मेदिनी राय को निकाल दिया था क्योंकि वह बहुत शक्तिशाली हो गया था। साँगा ने मालवा के खिलाफ मेदिनी का पक्ष लिया। उधर लोदियों की नजर भी मालवा पर ही लगी हुई थी। उधर रणथंभौर सिकंदर से बच गया था पर चंदेरी और नरवर पर वह कब्जा जमा चुका था। इस तरह सीसोदिया और लोदी, दोनों के हित में टकराव अपरिहार्य था और लङाई के लिये दोनों ही मौके की तलाश में थे।

इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती कि सिकंदर और राणा साँगा की लङा कभी हुई भी थी या नहीं। लेकिन अनुमान लगाया जा सकता है कि लोदियों से राणा की विस्तार नीति के कारण कुछ मतभेद जरूर हुआ होगा और इससे दोनों के संबंधों में तनाव और बढ गया होगा, यद्यपि इनकी सीधी मुठभेङ इब्राहीम लोदी के शासनकाल में हुई जो सन 1517 में सिकंदर का उत्तराधिकारी बना।

नीरोद भूषण राय ने नियामतुल्लाह का अफगानों का इतिहास में लिखा है कि इब्राहीम के गद्दी पर बैठने के तुरंत बाद दोनों शासक इतनी फुरसत में नहीं थे कि लङाई लङ सकें। लेकिन वीर विनोद, अमर काव्य वंशावली और सूर्य वंशावली से इस बात की पुष्टि नहीं होती। इन स्त्रोतों के अनुसार सन 1517 में खतौली (बूँदी जिला) में जमकर लङाई हुई थी हालाँकि इसमें राजपूत विजयी हुए और उन्होंने एक लोदी शहजादे गयासुद्दीन को (जो कि बहलोल लोदी का पुत्र था) बंदी बना लिया, फिर भी तलवार के एक वार से राणा साँगा की बाईं भुजा कट गई और एक तीर ने उसे जिंदगी भर के लिए लंगङा कर दिया। इन जख्मों के कारण राणा इतना हताश हो गया कि वह सिंहासन खाली करना चाहता था। लेकिन इतना सब होने पर भी उसके समर्थकों ने उसे अपना फैसला बदलने को राजी कर लिया।

राजपूत शिविर में लोदी वंश के एक शहजादे के उपस्थित होने से इब्राहीम लोदी को डर हुआ कि राणा साँगा की शह पर गृहयुद्ध हो सकता है। उसका अपना हित इसी में था कि मामले को जितनी जल्दी हो सके, निबटा लिया जाए। उसने अपेक्षाकृत कम उम्र के एक सेनापति मियाँ माखन के नेतृत्व में एक सेना भेज दी जिसमें सारन और चंपारन के सूबेदार मियाँ हुसैन फारमुली और खानखाना फारमुली जैसे अनुभवी लोग भी थे। इस लङाई में आरंभिक लाभ राजपूतों को मिला और अफगानों की हार का जिम्मेदार मियाँ हुसैन और मारूफ फारमुली को ठहराया गया। सुल्तान ने उसकी गिरफ्तारी का हुक्म जारी किया लेकिन ये लोग राणा साँगा से मिल गए और इस तरह राणा की स्थिति और भी मजबूत हो गयी। इसके बाद लङाई धौलपुर के निकट बारी ग्राम के करीब हुई जिसमें इब्राहीम की सेना को भारी पराजय का मुँह देखना पङा। इब्राहीम स्वयं भी मैदान में आया किंतु अंत में उसे बिना किसी नतीजे के वापस लौट जाना पङा। राणा साँगा गंभीरी नदी के किनारे तक बढ आया और वहां सिकंदर लोदी द्वारा बनाए गए हमलों में आग लगा दी गयी। इस स्थान पर बंदी शहजादे गयासुद्दीन को गद्दी पर बैठाया गया। वाकियात-ए-मुश्तकी के लेखक के अनुसार इस अवसर पर मौजूद सभी हिंदू और मुस्लिम अधिकारियों ने राम-राम कहा। इन शब्दों का प्रयोग मियाँ हुसैन फारमुली को पसंद नहीं आया और उसने राणा साँगा का साथ छोङ देने का फैसला कर लिया। राणा को इस संबंध में पता चला तो वह भाग निकला। परंतु आधुनिक इतिहासकारों को इस विवरण में कुछ अतिशयोक्ति मालूम पङती है। ऐसा लगता है कि सुल्तान के स्वयं सामने आने पर दल बदलू लोगों का हौसला पस्त हो गया होगा और तभी उन्होंने सुल्तान के शिविर में लौट जाने की सोची होगी। इस विजय के बाद राणा चित्तौङ लौट आया। बाबर के अनुसार राणा ने दिल्ली के सुल्तान से काफी बङा इलाका छीन लिया था जो उसने मेदिनीराय को सौंप दिया।

उसके बाद राणा से किसी लङाई का उल्लेख फारसी विवरणों में नहीं मिलता। हालाँकि एक स्थानीय स्त्रोत में राणा के साथ एक संघर्ष का उल्लेख पार्श्वनाथ श्रवण सतबीसी नाम की (सन् 521 में रची गयी) एक कविता में मिलता है। इब्राहीम द्वारा रणथंभौर पर आक्रमण का उल्लेख करते हुये इसमें कहा गया है कि चतासू के लोगों ने घबराहट में नगर खाली कर दिया था। खबर मिलते ही राणा साँगा इब्राहीम के खिलाफ बढ आया और जब उसकी विजय का समाचार मिला तो इस कविता की रचना की गयी।

यद्यपि कोई सीधी मुठभेङ नहीं हुई, तथापि मेवाङ से सुल्तान के संबंध तनावपूर्ण बने रहे। कहा जा ता है कि अन्य असंतुष्ट लोदी अमीरों के साथ राणा साँगा ने बाबर को इब्राहीम लोदी पर चढाई के लिये आमंत्रित किया।

जैसा कि पहले ही संकेत किया जा चुका है। सल्तनत के पतन के इस दौर में कितने ही स्थानीय राजाओं ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया था। इस तरह की रियासतों में ग्वालियर भी एक थी जिसका सामरिक दृष्टि से बङा महत्त्व था। उसकी शक्ति संपन्नता भी विख्यात थी। अपने शासन के शुरू के वर्षों में बहलोल ग्वालियर से मित्रता का प्रयास करता रहा। ग्वालियर के राजा कीर्तिसिंह (1455-1479ई.) की शिनाख्त रायकरन से की गयी है। साथ ही बहलोल ने महमूद शर्की से शमसाबाद छीनने के बाद उसे ही वहाँ का सूबेदार बनाया था। इस बात की पुष्टि उस तथ्य से होती है कि राजा कीर्तिसिंह को बहलोल की ओर से काटने के लिये सुल्तान हुसैन शाह ने सन 1466 में ग्वालियर पर हमला किया था। यद्यपि सन् 1479 में हुसैन शाह बहलोल के हाथों पराजित हो गया था तथापि उसने ग्वालियर में शरण ली और राजा ने उसे पूरी तरह से वित्तीय सहायता प्रदान की। इस बात से यह कठोर हकीकत स्पष्ट हो जाती है कि ग्वालियर अधीनता का केवल मुखौटा ही लगाए रहा और उसकी आङ में अपना दोहरा खेल खेलता रहा। वह इतना शक्तिशाली हो चुका था कि सुल्तान को खुले आम चुनौती और उसके दुश्मन को पनाह दे सकता था।

ग्वालियर के खिलाफ सन् 1486-87 में बहलोल का अभियान इसलिए हुआ होगा ताकि राजा पर अधीनता थोपी जा सके। यादगार और नियामत उल्ला तथा मासिर-ए-रहीमी के दावों के बावजूद संभव यही है कि बहलोल अपनी संप्रभुता की मान्यता और उसके प्रतीक के बतौर ग्वालियर के राजा से 80 लाख टंका की नजर पा चुका था।

बहलोल धौलपुर के राजा के खिलाफ भी आगे बढा जो कि शायद ग्वालियर का सहायक था। वहाँ करीब 100 मन सोना बहलोल के हाथ लगा। फिर वह इटावा की ओर बढा किंतु इटावा की बागडोर राय धाँधू के बेटे चौहान जागीरदार शाक्तिसिंह ने छीन ली।

सिकंदर के शासन के दौरान स्थानीय मुखियाओं की समस्या ने नया रूप ले लिया। हुसैन शाह शर्की ने, जिसे जौनपुर से निष्कासित कर बिहार की ओर खदेङ दिया गया था, बगावत के लिए अफगानों को भङकाया और स्थानीय जमींदारों को उकसाना चालू कर दिया। ग्वालियर और धौलपुर की रियासतों को कर और भेंट देने के लिये मजबूर अवश्य कर दिया गया था लेकिन उनकी अधीनता पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। इन लोगों ने दरअसल अपना स्वतंत्र रुख कायम रखा था और ऐसी स्थिति में ये नाममात्र को ही अधीन थे। फिर भाट गाहोरा की बघेल रियासत भी थी जिसने बहलोल के खिलाफ सुल्तान हुसैन शाह शर्की की मदद की थी।

सिकंदर ने समझौतों और शक्ति प्रदर्शन की नीति अपनाकर अपनी स्थिति सुदृढ करने की कोशिश की। दिल्ली की प्रभुसत्ता मानने से इनकार करने वाले सूबेदार सुल्तान शर्फ को दबाने के लिए सिकंदर लोदी बयाना की ओर बढा तो उसे ग्वालियर से भी गुजरना पङा जो राजा मानसिंह के अधीन था। बयाना के निकट होने के कारण ग्वालियर सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भी था। इसलिए वह सन 1492 में ग्वालियर पहुँचा। इस अभियान के संबंध में वह जानता था कि ग्वालियर को विजित करने में उसकी काफी समय और शक्ति खराब करने पङेगी। इस कारण उसने एक ऐसे प्रतिष्ठाजनक मार्ग की तलाश की जो उसके सम्मान के अनुरूप हो। उसने मान लिया कि राजा मानसिंह अब भी वफादार है और बधाई भेजने में उसकी असफलता की वजह संयोग मात्र है, जान बूझकर की गयी अवहेलना नहीं। उसने एक घोङा और खिलअत के साथ ख्वाजा मुहम्मद कुर्बान फारमुली को भेजा। राजा मानसिंह भी तकरार के लिए उत्सुक नहीं था उसने मान सम्मान के साथ धूमधाम से उपहार स्वीकार करके अपने भतीजे को 1000 घुङसवारों के साथ भेजा ताकि वह सुल्तान के साथ बयाना जाए। प्रभुसत्ता की इस मान्यता से सिकंदर संतुष्ट हो गया।

ग्वालियर के खिलाफ अभियान के बारे में सिकंदर तभी गंभीरता से सोच पाया जब उसे हुसैन शाह शर्की को आखिरी तौर पर हरा देने में सफलता मिल गयी। किंतु राजा मानसिंह को भनक मिल गयी और उसने अपने एक हिजङा (खुसदा) सेवक निहाल को उपहारों के साथ सुल्तान के पास भेजा। लेकिन इस सद्भावना यात्रा का मतलब पूरा नहीं हो पाया। निहाल ने अपनी जबानदराजी से सुल्तान को नाराज कर दिया। गुस्से से काँपता हुआ सिकंदर लङने के लिए तुला बैठा था। राजा मानसिंह ने उमरावों के एक ऐसे वर्ग को पनाह दी थी जो सुल्तान के प्रति वफादार नहीं था। यह अपने में अवहेलना का काम था और इसीलिए राजा मानसिंह को सबक सिखाने की जरूरत थी।

लोदी साम्राज्य की सीमाओं के सबसे निकट धौलपुर की रियासत थी जो उस समय ग्वालियर के अधीन थी और वहाँ का शासक राजा विनायक देव था। सिकंदर ने पहले धौलपुर को झुकाने का निर्णय लिया और सेना लेकर आलम खाँ मेवाती, खानखाना नूहानी और खवास खान को भेजा। राजा ने कसकर लोहा लिया और सिकंदर लोदी के सैनिकों को भारी चोट पहुँचाकर पीछे धकेल दिया। सिकंदर लोदी का डेरा उस समय संभल में था। वह 22 फरवरी, 1504 ई. को धौलपुर पर चढ गया। सुल्तान के आने की खबर से राजा का हौसला टूट गया और वह सैनिकों के भरोसे किला छोङकर ग्वालियर चला गया। लोदी सेना की ताकत अब बढ गयी थी। राजा भी ग्वालियर से सेना लेकर आ नहीं पाया था। राजपूत अब ज्यादा दिन टिक नहीं पा रहे थे। अंत में एक दिन वे अंधेरा हो जाने पर किला छोङकर चले गए। पीछे से सिकंदर के सैनिकों ने किले पर कब्जा कर लिया और जी भरकर लूटमार की। मंदिर गिरा दिए गए और उनकी जगह कहीं-कहीं मस्जिदें बना दी गयी।

वह पूरा अभियान एक लंबी लङाई था और उसमें सिकंदर के करीब दो वर्ष निकल गए। इससे स्पष्ट होता है कि राजपूतों ने घोर प्रतिरोध किया था। फिर भी जीत हासिल करना कोी आसान बात नहीं थी। इसलिए जब राजा मानसिंह ने अपने पिछले व्यवहार के लिये क्षमायाचना के साथ उपहार लेकर अपने पुत्र विक्रमादित्य को भेजा और बागी उमरावों को अपने राज्य से निकालने को तैयार हो गया तो सिकंदर ने शांति प्रस्ताव को मंजूर कर लेने में ही बुद्धिमानी समझी। इतना ही नहीं, उसने धौलपुर की रियासत भी राजा विनायक देव को लौटा दी।

लेकिन यह इंतजाम बहुत थोङे समय ही चल पाया। कुछ समय बाद उसी साल सन् 1504 में सिकंदर लोदी ने धौलपुर को अपना सदर मुकाम बनाकर फिर ग्वालियर के खिलाफ अभियान छेङ दिया। ग्वालियर और मंद्रेल के लिए अग्रिम भारी टोलियाँ भेजी गयी। मंद्रेल अफगानों के कोप का शिकाल होने से बच नहीं पाया। वहाँ भारी तबाही मचाई गयी। मकान और बाग-बगीचे नष्ट कर दिये गये। लोगों को मार डाला गया। इसी अभियान के दौरान विनायक देव को उसकी रियासत से निकाल दिया गया और उसकी जगह कमरुद्दीन को दे दी गयी। विनायक देव को हटाना इसलिए भी जरुरी हो गया था कि ग्वालियर को जीतने का काम धौलपुर को आधार बनाकर ही हो सकता था और धौलपुर के राजा की गर्मजोशी कुछ ठंडी होने पर ही वह समस्या खही कर सकता था।

धौलपुर और मंद्रेल अफगानों के नियंत्रण में आ जाने से ग्वालियर का एक खासा हिस्सा शाही नियंत्रण में आ गया था किंतु रियासत को पूरी तरह जीत पाना अब भी बहुत दूर की बात थी। इसलिए सिकंदर सन 1506 में फिर लौटा और डेढ महीने तक धौलपुर में ठहरा रहा। फिर वह चंबल की ओर बढा और कई महीनों तक वहाँ डेरा डाले पङा रहा क्योंकि ग्वालियर का राजा सर्वक्षार नीति अपना रहा था। लूट मार की मदद से राजपूत आक्रमणों के कारण जरूरी चीजों की बेहद कमी हो गयी। एक अन्य अवसर पर राजपूतों ने सिकंदर पर एकाएक ऐसा हमला किया कि उसकी जान जाते-जाते बची। सिकंदर ने अभियान की निस्सारता अनुभव की और वह लौट पङा। दोनों ही पक्षों ने नुकसान उठाया लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा था।

खोई हुई प्रतिष्ठा की क्षतिपूर्ति के लिये सिकंदर ने अवंतगढ को हथियाने की योजना बनाई जो कि राजपूतों का मजबूत किला था। फरवरी, 1507 में इस पर घेरा डाल दिया गया। आक्रमण का नेतृत्व स्वयं सुल्तान ने किया। सिकंदर की सेनाओं की संख्या अधिक होने के कारण राजपूतों का प्रतिरोध टूट गया और किले पर सिकंदर का अधिकार हो गया। किले की नारियों ने जौहर कर लिया और राजपूत लङते हुये मारे गए। किला मुजाहिद खां के अधीन कर दिया गया। बाद में सिकंदर को पता चला कि अवंतगढ के राजा ने मुजाहिद खाँ को घूस देने की कोशिश की थी ताकि वह किला राजा को लौटा देने के लिए सुल्तान से बात करे। सुल्तान गुस्से से भर उठा। उसने मुजाहिद को हटा दिया और किला मलिक ताजुद्दीन कम्बों के सुपुर्द कर दिया गया।

इसके बाद राजपूतों के एक अन्य गढ नरवर पर हमला किया गया। यह किला न 1398 ई. से तोमर राजपूतों के नियंत्रण में था। करीब साल भर तक घेरा डाले रहने के बाद किले पर कब्जा कर लिया गया। किले का पतन हो जाने पर वहाँ भी मस्जिदें बनाई गयी, उलेमा बसाए गए और तालीम हासिल करने वालों को वजीफे दिए गए। लौटने के पहले वह किला राजसिंह नाम के एक कछवाहा राजा के सुपुर्द कर गया।

नरवर से लौटते समय वह हाटकांत से गुजरा और उसने भदौरिया राजपूतों का सफाया किया। उन पर निगरानी रखने के लिये उसने विभिन्न जगहों पर दस्ते भी तैनात किए।

अपने शासनकाल के दौरान सिकंदर कुछ स्थानीय मुखियाओं की विद्रोह की प्रवृत्ति को नियंत्रण में रखने में समर्थ रहा लेकिन ग्वालियर जैसे अपेक्षाकृत शक्तिशाली लोगों के खिलाफ उसकी कोशिशों का नतीजा आंशिक सफलता के रूप में ही निकल पाया। ग्वालियर पर अंतिम रूप से कब्जा इब्राहीम लोदी के शासनकाल में ही हो गया।

भगोङे लोदी शहजादे जलाल खाँ को दी गई पनाह हमले के लिये बहाना बनी। इब्राहीम लोदी के छोटे भाई जलाल खाँ को कालपी से जौनपुर तक सल्तनत के पूर्वी हिस्से पर शासन करने का हक मिला हुआ था जब कि इब्राहीम लोदी को दिल्ली और आगरा का शासन सँभालना था। यद्यपि यह इंतजाम चल नहीं पाया तथापि जिन उमरावों ने इब्राहीम को साम्राज्य के बँटवारे की सलाह दी थी, वे ही बाद में इसके खिलाफ सलाह देने लगे क्योंकि इस तरह के बँटवारे से अफगान सत्ता कमजोर हो सकती थी। इब्राहीम ने सलाह मान ली। जलाल खाँ जौनपुर पर अधिकार नहीं कर पाया था। उसने कालपी में जहाँ वह सूबेदार था, अपना राजतिलक भी करवा लिया था। इस पर गृहयुद्ध हो गया जिससे जलाल हार गया और उसे ग्वालियर में पनाह लेनी पङी।

जलाल खाँ के खिलाफ अपने अभियान के दौर में इब्राहीम लोदी ने मान गाँव (वर्तमान मैनपुरी जिले में) के राजपूतों को जनवरी, 1518 ई. में दबा दिया। इसी समय कोल (अलीगढ) परगना की हद में आने वाले जरतौली के राजपूत जमींदार ने विद्रोह खङा कर दिया और एक लङाई में इलाके के सूबेदार उमरखान शेरवानी को मौत के घाट उतार दिया। सुल्तान के हुक्म से इस बगावत को संभल के सूबेदार मलिक कासिम ने दबा दिया।

ग्वालियर के खिलाफ अभियान सन 1518 के आसपास छेङा गया। इस समय जलाल खाँ भगोङे शहजादे के रूप में वहाँ रह गया था। इस युद्ध का बहाना भले ही जलाल खाँ को पनाह दिया जाना रहा हो, पर असली प्रयोजन उसकी सैनिक कीर्ति की भूख थी। वह ऐसा नाम करना चाहता था जिसमें उसके पितामह और पिता असफल रहे थे। इससे उसकी प्रतिष्ठा बहुत बढ जाती। इससे भी बढकर बात यह थी कि अतीत में किनारा काटने वाले ज्यादातर उमरावों ने अफसोस जाहिर किया था और सुल्तान की सत्ता में पुनः विश्वास प्रकट किया था। इससे उसकी स्थिति सुदृढ हो गयी थी और वह आराम से ग्वालियर पर हमला कर सकता था। ए.बी.पांडे का कहना है, कि इब्राहीम लोदी अपने नए पक्षधरों की परीक्षा लेने का मौका जल्दी से जल्दी पाना चाहता था ताकि वफादारी या हिम्मत के मामले में खामी पाए जाने पर उन्हें सजा दी जा सके। इन सब बातों के सहायक हो जाने पर इब्राहीम से कङा के सूबेदार आजम हुमायूँ खाँ शेरवानी को 30,000 घुङसवारों और 300 लङाकू हाथियों के साथ ग्वालियर पर कब्जा करने भेजा। सेना करीब पहुँचने पर जलाल खाँ मालवा भाग गया और फिर वहाँ से गोंङों के इलाके में, जहाँ से अंततोगत्वा उसे पकङकर सुल्तान के हवाले कर दिया गया। सुल्तान ने उसे बंदी बनाकर हाँसी के लिये रवाना किया लेकिन बीच में ही उसकी हत्या कर दी गयी।

जलाल खाँ के हट जाने के बाद इब्राहीम लोदी इस स्थिति में आ गया था कि भीकन खाँ लोदी, सुलेमान फारमुली, बहादुर खाँ नूहानी और बहुत से अन्य लोगों के अधीन सेना भेज सके।

इसी समय के आसपास राजा मान की मृत्यु हो चुकी थी और उसका पुत्र विक्रमादित्य उसकी जगह गद्दी पर आसीन हो गया। राजपूत बहादुरी से लङे फिर भी भारी क्षति के बावजूद सुल्तान की सेना को एक के बाद दूसरे फाटक पर कब्जा करने में सफलता मिल गयी। मुख्य किले की रक्षा के लिये राजा मान द्वारा बनवाया गया बादलगढ का किला भी अंत में ढह गया। इसके बाद का राजपूत प्रतिरोध केवल सारहीन लङाई रहा और अंत में विक्रमादित्य ने किले को समर्पित कर दिया। इब्राहीम ने तोमर राजा के सात बङप्पन का व्यवहार किया और किला अपने हाथ में ले लिया। उसने विक्रमादित्य को शमसाबाद की जागीर दे दी। इसका राजा पर ऐसा प्रभाव पङा कि न केवल वह वफादार रहा अपितु सन 1526 में उसने इब्राहीम के लिये लङते हुए अपनी जान दे दी।

राजपूतों के साथ लोदियों के संबंधों के पुनरावलोकन से एक बात बहुत स्पष्ट हो जाती है कि हिंदू या राजपूत राजाओं से व्यवहार के मामले में लोदी सुल्तान धार्मिक कारणों से कभी प्रभावित नहीं रहे। समझौते या जीत की नीति शाही जरूरतों के अनुसार चलती रही। यह कोरा संयोग नहीं था कि बहलोल और इब्राहीम, दोनों ही ने शमसाबाद की जागीर ग्वालियर के राजा को दे दी– बहलोल के समय में कीर्तिसिंह को और इब्राहीम के समय में विक्रमादित्य को। फिर भी वे मेवाङ के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की स्थापना आपसी हितों के टकराव के कारण नहीं कर सके। यह भी कहा जाता है कि अंततोगत्वा मेवाङ ने इब्राहीम लोदी के विरुद्ध बाबर को भारत आमंत्रित करने की अपील की थी।

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