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महाराणा साँगा का इतिहास

महाराणा साँगा का इतिहास

महाराणा साँगा – महाराणा कुम्भा के बाद महाराणा साँगा ही मेवाङ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शासक हुआ, जिसने अपने बाहुबल से मेवाङ की सीमाओं का विस्तार किया तथा राजपूताने के समस्त राजपूतों को मेवाङी ध्वज के नीचे संगठित किया। महाराणा कुम्भा की हत्या 1468 ई. में हुई थी और महाराणा साँगा का राज्याभिषेक 1509 ई. में हुआ था। अतः 1468ई. से 1509 ई. के मध्य मेवाङ की राजनीतिक घटनाओं का वर्णन इस पोस्ट में किया जायेगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मेवाङ के इतिहास में 1468ई. से 1509 ई. का काल काफी उथल-फुथल तथा सिंहासन प्राप्ति के लिये संघर्ष का काल रहा। अपने पिता महाराणा कुम्भा की हत्या करके 1468 ई. में उदयसिंह (उदा) मेवाङ की गद्दी पर बैठा लेकिन एक पुतृहन्ता को शासक के रूप में स्वीकार करने को मेवाङी सामंत तैयार नहीं थे। अतः उन्होंने कुम्भा के छोटे पुत्र रायमल को मेवाङ की गद्दी पर बैठाने का निश्चय किया तथा रायमल को, जो उस समय अपनी ससुराल ईडर में था, चित्तौङ आने का निमंत्रण दिया।

अपने पिता की हत्या की सूचना और मेवाङ सामन्तों का निमंत्रण मिलते ही रायमल ससैन्य मेवाङ की तरफ रवाना हुआ। जावर में उदयसिंह से असंतुष्ट सरदार आकर मिल गये। मेवाङी सामंतों की सहायता से रायमल ने जावर में उदा को पराजित किया। हरबिलास शारदा का मत है कि उदा ने अपनी स्थिति को सुदृढ बनाने तथा सिरोही और मारवाङ के शासकों का समर्थन प्राप्त करने हेतु, सिरोही के देवङाओं को आबू तथा मारवाङ के राव जोधा को अजमेर का तारागढ दुर्ग ले लेने दिया।

इतना ही नहीं राव जोधा के पुत्र दूदा ने मेवाङ के अधिकारियों को खदेङ कर सांभर पर भी अधिकार कर लिया। लेकिन उदा ने उनके विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। उदा की इस नीति के कारण अनेक मेवाङी सामंत, जो अब तक उसके पक्षधर थे, उदा से नाराज हो गये। फलस्वरूप उदा की स्थिति दिन प्रतिदिन कमजोर होती गयी।

इसीलिए पानगढ व चित्तौङ के समीप रायमल से लङे गये युद्धों में उदा पराजित हुआ और कुम्भलगढ चला गया। परंतु कुछ दिनों बाद मेवाङी सामन्तों ने उसे वहाँ से भी खदेङ दिया। 1473 ई. में रायमल ने लगभग संपूर्ण मेवाङ पर अधिकार कर लिया, तब तक वह मेवाङ की गद्दी पर आसीन हुआ।

महाराणा साँगा

पितृघाती उदा अपने पुत्रों सहित मेवाङ से भाग कर मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन खिलजी की शरण में माण्डू आया। उसने सुल्तान से सैनिक सहायता की प्रार्थना की तथा सुल्तान को अपने पक्ष में करने के लिये उदा ने अपनी पुत्री का विवाह भी सुल्तान के सात करने की बातचीत की।लेकिन एक दिन अचानक बिजली के गिरने से पितृघाती उदा की वहीं मृत्यु हो गयी।

उदा की मृत्यु के बाद भी सुल्तान ने मेवाङ पर आक्रमण करने का विचार नहीं छोङा। उसने उदा के दोनों पुत्रों को राज्य दिलाने के बहाने, साथ लेकर, चित्तौङ को जा घेरा। सुदृढ किले से राणा रायमल ने शत्रु सेना का डट कर मुकाबला किया। फलस्वरूप गयासुद्दीन को माण्डू लौटने के लिये विवश होना पङा उदा के पुत्रों ने भागकर बीकानेर के राज्य में शरण ली।

राणा रायमल ने लगभग 36 वर्षों (1473-1509ई.)तक शासन किया। किन्तु उसमें अपने पिता की भाँति शूरवीरता एवं कूटनीतिज्ञता का अभाव था। परिणामस्वरूप मेवाङ के कुछ अधीनस्थ क्षेत्र उसके हाथ से निकल गये। आबू, तारागढ और सांभर तो उदा के शासनकाल में ही मेवाङ से अलग हो चुके थे। रायमल ने इन्हें पुनः अधिकृत करने का कोई प्रयास नहीं किया। अब मालवा के सुल्तान ने रणथंभौर, टोडा और बून्दी को अपने अधिकार में कर लिया।

टोडा के शासक राव सुरतान ने मेवाङ में आश्रय इस आशा से लिया था कि शायद मेवाङ से उसे सहायता मिल जाय। राव सुरतान के साथ उसकी पुत्री तारा भी थी, जो अद्वितीय सुन्दरी और वीरांगना थी। राव सुरतान ने प्रतिज्ञा कर रखी थी कि वह अपनी पुत्री का विवाह उस शूरवीर के साथ करेगा जो टोडा जीतकर उसे वापिस दिलायेगा।

राणा रायमल के द्वितीय पुत्र जयमल ने तारा की सुन्दरता पर आसक्त होकर उससे विवाह करने की जिद की तथा राव सुरतान के साथ अत्यन्त ही अशिष्ठ व्यवहार किया। क्रुद्ध राव सुरतान ने जयमल को मौत के घाट उतार दिया और राणा को सूचित कर दिया। डॉ.गोपीनात शर्मा उसका सोलंकियों के विरुद्ध लङते हुए मारा जाना बताते हैं।

जयमल की मृत्यु के बाद रायमल के ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज ने तारा से विवाह करने का निश्चय कर टोडा पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। कुँवर पृथ्वीराज ने टोडा का राज्य राव सुरतान को सौंप दिया तथा वचनबद्ध राव सुरतान ने तारा का विवाह पृथ्वीराज से कर दिया।

मुसलमानों के हाथ से टोडा निकल जाने से मालवा का सुल्तान क्रुद्ध हो उठा और उसने चाकसू, सीकर, नरेना, सांभर, आमेर और अजमेर पर अधिकार कर लिया। सुल्तान के वापिस लौटते ही पृथ्वीराज ने अजमेर पर पुनः अधिकार कर लिया। इससे क्रुद्ध होकर मालवा के नये सुल्तान नासिरुद्दीन ने 1503 ई. में चित्तौङ पर आक्रमण कर दिया, लेकिन उसे कोई सफलता नहीं मिली। डॉ. गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि इस बार राणा रायमल ने उसे धन देकर लौटा दिया।

जो भी हो, सुल्तान वापिस माण्डू लौट गया। इस घटना के कुछ ही दिनों बाद पृथ्वीराज को सिरोही जाना पङा। पृथ्वीराज की एक बहिन की शादी सिरोही के शासक राव जगमाल के साथ हुई थी, लेकिन वह पृथ्वीराज की बहिन को अत्यधिक कष्ट दे रहा था। अतः पृथ्वीराज अपने बहनोई को समझाने सिरोही आया।

कहा जाता है कि लौटते समय राव जगमाल ने विषयुक्त लड्डू पृथ्वीराज के साथ बँधवा दिये, जिनको खाने से रास्ते में ही पृथ्वीराज की मृत्यु हो गयी। इस प्रकार राणा रायमल के दो ज्येष्ठ पुत्रों का स्वर्गवास हो गया।

रायमल के पुत्रों में परस्पर विरोध

राणा रायमल के 11 रानियाँ थी जिनसे 13 पुत्र और 2 पुत्रियाँ हुई। पृथ्वीराज ज्येष्ठ पुत्र था और जयमल दूसरा पुत्र था तथा साँगा तीसरा पुत्र था। पृथ्वीराज और साँगा सगे भाई थे। रायमल अपने जीवनकाल में अपना उत्तराधिकारी निश्चित नहीं कर पाया था, जिससे उसके महत्वाकांक्षी पुत्र और चचेरे भाई एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य रखने लगे।

रायमल ने कुम्भलगढ की शासन व्यवस्था पृथ्वीराज को सौंप कर इस वैमनस्य में और वृद्धि कर दी। साँगा, रायमल का तीसरा पुत्र होते हुये भी मेवाङ की गद्दी पर बैठने का स्वप्न देख रहा था, लेकिन रायमल के ज्येष्ठ पुत्रों – पृथ्वीराज और जयमल का दावा ज्यादा मजबूत था। रायमल का चाचा सारंगदेव भी मेवाङ की गद्दी का उम्मीदवार था।

कुम्भा के भाई खेमकरण का पुत्र सूरजमल तो रायमल को भी मेवाङ का शासक स्वीकार करना आपतिजनक समझता था। ऐसी स्थिति में साँगा को सिंहासन प्राप्त होना दूर की कल्पना थी। रायमल के उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर इन सभी उम्मीदवारों में, रायमल के जीवनकाल में ही तनाव उत्पन्न हो गया था।

डॉ.ओझा और हरबिलास शारदा ने एक जनश्रुति को स्वीकार करते हुए लिखा है कि एक दिन पृथ्वीराज, जयमल और साँगा अपने चाचा सारंगदेव के साथ एक ज्योतिषी के यहाँ पहुँचे और अपना भविष्यफल जानना चाहा। ज्योतिषी ने जन्मपत्रियों के आधार पर साँगा का राजयोग प्रबल बताया।

महत्त्वाकांक्षी पृथ्वीराज इस भविष्यवाणी को सहन न कर सका और आवेश में आकर अपनी तलवार से साँगा पर आक्रमण कर दिया। साँगा बच तो गया किन्तु तलवार की हूल से उसकी एक आँख फूट गयी। इस पर सारंगदेव ने बीच में आकर दोनों को समझाया। उसने साँगा की आँख का इलाज भी करवाया, किन्तु साँगा की एक आँख हमेशा के लिए चली गयी। सारंगदेव ने तीनों भाईयों में मेल कराने का प्रयास किया और कहा कि ज्योतिषी के कथन पर विश्वास कर आपस में मनमुटाव करना अच्छा नहीं है।

इससे तो अच्छा है कि भीमल गाँव की चारण जाति की पुजारिन से, जो चमत्कारिक है, अपना भविष्य जाने लें। अतः तीनों भाई सारंगदेव के साथ भीमल गाँव की उस पुजारिन के पास पहुँचे। पुजारिन उस समय कहीं गयी हुई थी, अतः सभी वहाँ बैठकर उसका इन्तजार करने लगे। जब पुजारिन आयी तो सभी ने उससे भविष्य जानने की इच्छा प्रकट की। पुजारिन ने भी ज्योतिषी की भविष्यवाणी का समर्थन किया। इसको सुनते ही तीनों में वहीं युद्ध आरंभ हो गया। पृथ्वीराज साँगा पर टूट पङा। सारंगदेव ने किसी तरह साँगा को बचाया और साँगा वहाँ से भाग खङा हुआ।

जयमल भी उसका पीछा करता हुआ सेवन्त्री गाँव आया। इस गाँव में राठौङ बीदा ने साँगा को शरण दी, लेकिन राठौङ बीदा जयमल के हाथों मारा गया। साँगा गोङवाङ के मार्ग से अजमेर पहुँचा, जहां कर्मचंद पंवार ने उसे आश्रय दिया। इस प्रकार साँगा कई दिनों तक अज्ञातवास में रहा। इस संपूर्ण प्रकरण में कितना ऐतिहासिक सत्य है। यह कहना बङा मुश्किल है।

डॉ.गोपीनाथ शर्मा का मानना है कि साँगा ने सारंगदेव को अपनी तरफ मिलाया, सारंगदेव को सूरजमल के भय के कारण किसी के सहयोग की आवश्यकता थी। पृथ्वीराज और जयमल तो राज्य के निकटतम अधिकारी थे, उनका भी एक गठबंधन होना स्वाभाविक था। सारंगदेव का बीच-बचाव करने का प्रयत्न और अपने राजपूत साथियों के साथ भीमल गाँव आना भी एक षड्यंत्र का सूचक है। इस संपूर्ण कथानक में संग्रामसिंह (साँगा) की महत्त्वाकांक्षा तथा उसकी पूर्ति के लिये सतर्कता स्पष्ट होती है।

साँगा का राज्यारोहण

जब साँगा आज्ञातवास में था तब उसे मेवाङ की गद्दी प्राप्त होना असंभव दिखाई दे रहा था। किन्तु परिस्थितियाँ धीरे-धीरे उसके अनुकूल होती गयी। जयमल, राव सुरतान के हाथों मारा गया और सिरोही से लौटते समय रास्ते में, अपने बहनोई द्वारा दिये गये विषयुक्त लड्डू खाने से पृथ्वीराज की मृत्यु हो गयी। अपनी मृत्यु से पूर्व पृथ्वीराज ने सारंगदेव की भी हत्या कर दी थी। बचा हुआ सूरजमल भी नये राज्य की स्थापना की तलाश में कांठल की ओर चला गया था।

अतः साँगा के विरोधियों की समाप्ति हो चुकी थी तथा राणा रायमल के लिये साँगा को उत्तराधिकारी घोषित करने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया था। ऐसी स्थिति में कर्मचंद पंवार ने राणा रायमल को साँगा के बारे में सूचना भिजवाई। राणा रायमल ने तत्काल साँगा को चित्तौङ बुला भेजा और उसे महाराजकुमार का पद दिया। संभवतः जब रायमल मृत्यु शैय्या पर था तभी साँगा को अजमेर से बुलाया था।

अतः रायमल की मृत्यु के बाद साँगा महाराणा संग्रामसिंह के नाम से मेवाङ की गद्दी पर बैठा। साँगा के राज्याभिषेक कि तिथि के बारे में मतभेद है। डॉ.ओझा के अनुसार 24 मई, 1509 ई. में साँगा सिंहासन पर बैठा, जबकि कुछ विद्वानों के अनुसार वह 5 मई, 1509 ई. को गद्दी पर बैठा। तिथि जो भी रही हो, इसमें कोई संदेह नहीं कि साँगा का शासनकाल न केवल मेवाङ के इतिहास में बल्कि उत्तरी भारत के इतिहास में भी एक महत्त्वपूर्ण अध्याय रहा है।

प्रारंभिक कठिनाइयाँ

साँगा मेवाङ का शासक बन तो गया, लेकिन उसने अनुभव कर लिया कि उसका राज्य चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ है। दिल्ली पर इस समय सिकंदर लोदी (1489-1517ई.) का शासन था। यद्यपि उसका अधिकांश समय विद्रोही अफगान सरदारों का दमन करने में ही व्यतीत हुआ, फिर भी उसने बिहार को जीतकर सल्तनत को मजबूत बनाया था।

यद्यपि वह ग्वालियर नहीं जीत सका, परंतु उसने धौलपुर, अवन्तगढ, नरवर और चंदेरी पर अधिकार कर सल्तनत की सीमाओं का विस्तार किया। उसने नागौर के मुस्लिम शासक मुहम्मदखाँ को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिये विवश कर राजस्थान पर भी अपना प्रभाव स्थापित करने का प्रयास किया। उसने रणथंभौर जीतने का भी असफल प्रयास किया। उसकी मृत्यु के बाद इब्राहीम लोदी दिल्ली के तख्त पर आसीन हुआ।

उसका प्रारंभिक समय तो अपने विरोधियों का दमन करने में बीता और जब उसने राजस्थान की ओर कदम बढाया तो उसे साँगा के हाथों पराजित होना पङा…अधिक जानकारी

दिल्ली सल्तनत और साँगा

सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र इब्राहीम लोदी 22 नवम्बर, 1517 ई. को दिल्ली के तख्त पर आसीन हुआ। सिकंदर लोदी के अंतिम दिनों में साँगा ने दिल्ली सल्तनत को निर्बल देखकर दिल्ली सल्तनत के अधीन वाले मेवाङ की सीमा से लगे कुछ भागों को अधिकृत कर अपने राज्य में मिला लिया था। सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद इब्राहीम लोदी और उसके छोटे भाई जलालखाँ के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया…अधिक जानकारी

राणा साँगा और बाबर

राणा सांगा ने भारत के शक्तिशाली सुल्तानों को पराजित कर संपूर्ण भारत में ख्याति अर्जित कर ली थी, परंतु उसे अब उसके समान ही साहसी एवं पराक्रमी से मुकाबला करना था, और वह पराक्रमी था – जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर। भारत में मुगल साम्राज्य के संस्थापक बाबर की गणना एशिया के श्रेष्ठ एवं सम्मानित शासकों में की जाती है। बाबर ने भी राणा साँगा की भाँति जीवन में कई उतार-चढाव देखे थे…अधिक जानकारी

खानवा का युद्ध

 मार्च, 1527 के आरंभ में राणा साँगा और बाबर की सेनाएँ खानवा के मैदान में आमने-सामने आ डटी। यद्यपि फारसी इतिहासकारों ने तथा स्वयं बाबर ने राणा साँगा के सैनिकों की संख्या बहुत अधिक बढा चढाकर बतलायी है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबर की तुलना में साँगा के पास अधिक सैनिक थे। परंतु बाबर के पास एशिया का सर्वश्रष्ठ तोपखाना था, जबकि साँगा के पास इसका अभाव था…अधिक जानकारी

खानवा युद्ध के परिणाम

खानवा युद्ध के परिणाम अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण और दूरगामी सिद्ध हुए। खानवा का युद्ध देश के निर्णायक युद्धों में माना जाता है। कुछ विद्वानों ने तो इसे भारतीय इतिहास में पानीपत के प्रथम युद्ध से भी अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। साँगा की यह पराजय केवल राजस्थान के लिये ही नहीं बल्कि संपूर्ण भारत के लिये घातक प्रमाणित हुई। इस पराजय ने राजपूतों की रही-सही एकता को ही समाप्त नहीं किया, बल्कि मुगल शक्ति के समक्ष राजपूतों की शक्तिहीनता भी प्रकट कर दी…अधिक जानकारी

प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : महाराणा साँगा के राज्यारोहण के समय मालवा का शासक था
उत्तर
: नासिरुद्दीन

प्रश्न : साँगा द्वारा ईडर के उत्तराधिकार संघर्ष में हस्तक्षेप करने का प्रमुख कारण था
उत्तर
: अपने समर्थक व्यक्ति को ईडर की गद्दी पर बैठाने के लिये।

प्रश्न : गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह द्वारा मेवाङ पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण था
उत्तर
: साँगा द्वारा अहमदनगर की मुस्लिम सेनाओं को पराजित करना।

प्रश्न : इब्राहीम लोदी द्वारा मेवाङ पर आक्रमण करने का प्रमुख कारण था
उत्तर
: साँगा ने दिल्ली सल्तनत के अधीन पूर्वी राजस्थान के क्षेत्रों को जीत लिया था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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