अलाउद्दीन खिलजीइतिहासखिलजी वंशदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

अलाउद्दीन खिलजी के राजनीतिक आदर्श क्या थे?

अलाउद्दीन खिलजी के राजनीतिक आदर्श – जलालुद्दीन की हत्या कर अलाउद्दीन ने दिल्ली की गद्दी पर अधिकार कर लिया था। ऐसी स्थिति में उसकी प्रथम समस्या थी हङपे हुए राजत्व को जनता की दृष्टि में उचित सिद्ध करना, जिससे वह उस वास्तविक राजत्व के समकक्ष हो जाए जिसके लिये जनता के ह्रदय में प्रेम, लगाव व भक्ति थी। यह सोचने-विचारने के बाद ही अलाउद्दीन के समय में राजत्व के सिद्धांत का ढाँचा पुनः निर्मित किया गया। वह जलालुद्दीन और कैकुबाद के समान मानवीय प्रवृत्तियों पर आधारित राजत्व का समर्थक नहीं था। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उसे अपने कार्यों के लिये धार्मिक स्वीकृति प्राप्त करने की आकांक्षा नहीं थी। वह किसी दैवी-शक्ति पर आधारित राजत्व में नहीं वरन ऐसे राजत्व में विश्वास करता था जो स्वयं अपने अस्तित्व द्वारा अपना औचित्य सिद्ध कर सके।

उस समय के एक बुद्धिजीवी हजरत अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन के लिये राजत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इसमें अलाउद्दीन के राजत्व को न्यायसंगत बनाने और ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया गया। अमीर खुसरो ने शासक की सर्वोच्च उपलब्धि उसकी विजयों को मानते हुए लिखा है कि सूर्य पूर्व से पश्चिम तक धरती को अपनी तलवार की किरणों से आलोकित करता है। उसी प्रकार शासक को भी विजय हासिल करनी चाहिए और उन विजयों को सुरक्षित रखना चाहिए। अलाउद्दीन ने अपने राज्यारोहण के बाद निरंतर विजय प्राप्त की। उन विजयों से प्रभावित खुसरो की दृष्टि में वह एक महान विजेता था, परंतु विजेता होने से भी अधिक उसकी महत्ता एक कुशल एवं कर्मठ प्रशासक के रूप में थी। इसी महान गुण ने अलाउद्दीन के राजत्व को महानता देनी चाही है। उसने कहा, उसके युग का विजेता (अलाउद्दीन) शासक के गुणों में सर्वोत्कृष्ठ है, अतः न तो कलम और न ही जीभ उसकी शक्ति का वर्णन कर सकती है। इस प्रकार अमीर खुसरो ने ईश्वरीय गुणों से समानता देकर अलाउद्दीन के पद को पवित्र तथा दिव्य बना दिया। अलाउद्दीन को ईश्वर की छाया माना गया। किंतु यह शरीअत में दिए गए सिद्धांत पर आधारित नहीं था, और इसमें इस्लामी सिद्धांतों का सहारा भी नहीं लिया गया।

यह कहना उचित होगा कि अलाउद्दीन एक अनुभवी राजनीतिज्ञ था और अपनी समस्याओं को बुद्धिमानी से सुलझाता था। वह राजनीति में धन के महत्त्व को समझता था। उसे पता था कि धन एक ऐसी शक्ति है, जिसका कोई मुकाबला नहीं है। उसके पास जो अपार धन था उसका प्रयोग उसने जनता के ह्रदय को जीतने के लिये किया। धन का उदारतापूर्वक वितरण कर उसने राजत्व को सुरक्षित व संगठित कर लिया। यह कहा गया है कि अपने धन व सोने से उसने लोगों के ह्रदय को ऐसा मोह लिया कि सब उसकी ओर झुक गए तथा जलालुद्दीन के वध से उनकी अलाउद्दीन के प्रति जो शत्रुता थी वह समाप्त हो गयी। अमीरों व जनसाधारण के समस्त वर्गों के ह्रदयो में उसने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।

अलाउद्दीन यह समझता था कि उसका राजत्व जनता के स्नेह और भक्ति के बिना संभव नहीं है। उसे अपने राजत्व को जनता की दृष्टि में पवित्र और न्यायसंगत बनाना थआ। उसे जनता द्वारा राजत्व की वैधानिकता को मान्यता दिलाना भी आवश्यक था। बिना उस कार्य के उसका अस्तित्व व स्थिरता संभव ही नहीं थी। यही कारण है कि अपने पद के स्थायित्व के लिये अलाउद्दीन ने जनमत का समर्थन प्राप्त करना आवश्यक समझा। यद्यपि मध्यकाल में जनसाधारण में प्रायः अधिक राजनीतिक जागरूकता नहीं थी तथापि सुल्तानों ने जन समर्थन प्राप्त करने का प्रयत्न किया। धार्मिक प्रभाव के फलस्वरूप सुल्तानों ने जनहित व जनकल्याण को महत्व दिया था और वह निरंकुशता पर एक प्रभावशाली अंकुश था। अलाउद्दीन ने अपने राजत्व को धर्म के प्रभाव से पूर्णतः मुक्त करने का प्रयत्न किया और उसे अधिकाधिक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप प्रदान किया। इतना होने के बावजूद जन कल्याण को सुल्तान ने प्रमुख कर्तव्य माना है। धन के वितरण व जनहित के कार्यों से उसने अपने पद को स्थायित्व तथा शक्ति प्रदान की और वह उसकी वैधानिकता स्थापित करने में सफल रहा।

जनता का समर्थन प्राप्त करने के बाद ही उसने अपनी समस्याओं की ओर ध्यान दिया। उसने जलाली परिवार के उन सभी सदस्यों को समाप्त कर दिया जो उसके प्रतिद्वंद्वी बन सकते थे। आंतरिक सुरक्षा की स्थापना के बाद उसने मंगोलों को समाप्त किया और उसकी शक्ति सर्वोच्च हो गयी। उसके बाद उसने एक के बाद दूसरी विजय हासिल की। इन विजयों, अपार धन की प्राप्ति और सशक्त सेनाओं के फलस्वरूप अलाउद्दीन स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने लगा वह अपनी सफलता, शक्ति तथा अहंकार से प्रेरित होकर असाधारण और सनक भरी योजनाएँ बनाने लगा। बरनी के अनुसार, वह असंभव और हास्यास्पद बातें सोचने लगा। उसके मस्तिष्क में अपने व्यक्तित्व और अपने को अमर बनाने की आकांक्षाएँ उठ खङी हुई। उसकी प्रथम योजना थी एक नवीन धर्म की स्थापना, जिससे पैगंबर के समान भावी पीढियाँ उसका नाम लें। सुल्तान अपने घनिष्ठ साथियों से इस संबंध में तर्क करता रहा। उसे विश्वास था कि अपनी भुजाओं और अपने स्वामिभक्त सेवकों के बल पर वह एक धर्म की स्थापना कर सकता है जो उसकी मृत्यु के बाद भी उन्नति करता जाएगा। धर्म और राज्य को निकट संबंधी माना जाता रहा है। संभवतः इसी कारण से अलाउद्दीन ने यह चाहा कि वह सांसारिक तथा आध्यात्मिक दोनों शक्तियोंं में सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करे। चूँकि वह एक विस्तृत राज्य का निर्माता था, ऐसी स्थिति में वह एक धर्म का निर्माता भी बनना चाहता था जिससे उसका कोई प्रतिद्वंद्वी न रह जाए और उसको कोई चुनौती न दे सके। अलाउद्दीन जन्म और पालन पोषण से मुसलमान था और इस्लाम के अनुसार किसी को भी धर्म परिवर्तन करने का अधिकार नहीं था। इस प्रकार की योजना बनाकर अप्रत्यक्ष रूप से वह इस्लाम की अवहेलना कर रहा था किंतु उसका उद्देश्य संभवतः यह नहीं था कि वह इस्लाम का विरोध करे। वह तो केवल अपने नाम को अमर बनाने और कीर्ति प्राप्त करने की लालसा से प्रेरित था। दिल्ली के कोतवाल अलाउलमुल्क ने साहस के साथ सुल्तान को बताया कि धर्म ईश्वरीय ज्ञान का मामला है, जिसे मानवीय ज्ञान या बुद्धि के आधार पर प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। चंगेज खाँ ने मुसलमानों का रक्त बहाकर इस्लाम का नाश करने का प्रयत्न किया था परंतु वह असफल रहा। अनेक मंगोलों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया था परंतु कोई मुसलमान मंगोल धर्म का अनुयायी नहीं बना। अतः शक्ति के आधार पर धर्म की स्थापना नहीं हो सकती। उसने अलाउद्दीन से यह भी कहा कि यदि लोग सुनेंगे कि सुल्तान उनके धार्मिक विश्वासों में हस्तक्षेप करने का विचार कर रहा है तो वे सब उसकी भक्ति से विमुख हो जाएँगे। कोतवाल के परामर्श का प्रभाव लाभकारी सिद्ध हुआ और अलाउद्दीन अपनी भूल को समझ गया।

अलाउद्दीन की दूसरी योजना थी – सिकंदर के समान अपनी विजयपताका दूर-दूर तक फहरनाना। वह दिल्ली में प्रशासन कार्य चलाने के लिये प्रतिनिधि छोङकर स्वयं अभियान का नेतृत्व करने और सिकंदर के समान पूर्व तथा पश्चिम को अपने अधीन करने की योजना बनाने लगा। यहाँ तक कि उसने अपने सिक्कों और सार्वजनिक प्रार्थनाओं में भी स्वयं को दूसरा सिकंदर घोषित किया। अलाउलमुल्क ने अलाउद्दीन को परामर्श दिया कि उसकी विश्व विजय की योजना प्रशंसनीय है, परंतु व्यावहारिक नहीं। परिस्थितियाँ उतनी अनुकूल नहीं हैं जितनी सिकंदर के समय थी। दिल्ली सल्तनत सिकंदर के यूनानी साम्राज्य के समान दृढ नींव पर आधारित नहीं है। सिकंदर के पास अरस्तू जैसा योग्य सलाहकार और बुद्धिमान व्यक्ति था परंतु अलाउद्दीन के पास ऐसा कोई व्यक्ति नहीं था जो उसकी अनुपस्थिति में राजकाज की व्यवस्था कर सके। स्थिति को समझते हुए उसने अलाउद्दीन को परामर्श दिया कि उसे पहले भारत के स्वतंत्र राज्य को जीतना चाहिए और मंगोल आक्रमणों से रक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए। जब वह इसमें सफल हो जाए तो देश के बाहर साम्राज्य विस्तार की योजना को कार्यान्वित कर सकता है। अलाउलमुल्क की साहसपूर्ण सलाह से अलाउद्दीन प्रभावित हुआ और उसने योजनाओं की असंभाव्यता तथा अव्यावहारिकता को स्पष्टता से समझ लिया।

इसके बाद अलाउद्दीन ने अपना ध्यान राज्य को शक्तिशाली बनाने पर केन्द्रित किया। उसके सामने अब एक नई समस्या थी, जिसने उसे अत्यधिक चिंतित किया। यह समस्या थी राज्य में विद्रोह के चिह्नों का उदय। उसने स्थिति को समझकर विद्रोहों के कारण ढूँढने और उनका उन्मूलन करने का निश्चय किया। उसने अपनी गोपनीय परिषद की सभाओं में अपने विश्वासपात्र अमीरों तथा बुद्धिमान और अनुभवी व्यक्तियों से चर्चा करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि राज्य में व्याप्त अशांति के चार आधारभूत कारण हैं –

  • पहला, सुल्तान ने अपनी प्रजा की उपेक्षा की है और उनके भले-बुरे कार्यों के विषय में जानने की चिंता नहीं की है।
  • दूसरा, मद्यपान की सभाओं में लोग राज्य के विरुद्ध षङयंत्र रचते हैं।
  • तीसरा, मलिकों में परस्पर एकता, साहचर्य, वैवाहिक संबंध और मेल-मिलाप के फलस्वरूप यदि उनमें से कोई एक संकट में रहता तो अन्य सौ उसके साथ अपने संपर्कों, रिश्तेदारी और लगाव के कारण उसके सहयोगी बन जाते हैं।
  • चौथा, धन लोगों को अवज्ञाकारी, निष्ठाहीन, उद्दंड तथा अहंकारी बना देता है।

इन कारणों को जानने के बाद सुल्तान ने अमीर वर्ग के दमन के उपाय किए। प्रथम, उसने संपत्ति को जब्त करने को प्राथमिकता दी। खालसा भूमि को कृषियोग्य बनाकर, राजस्व में वृद्धि की तथा अन्य वित्तीय सुधारों से उनके धन को कम कर दिया। बरनी लिखता है, दिल्ली में मलिकों, अमीरों, राजकीय कर्मचारियों, हिंदू मुल्तानी व्यापारियों और हिंदू साहूकारों के अलावा अन्य घरों में सोना नाम मात्र के लिए रह गया। दूसरे, अलाउद्दीन ने गुप्तचर प्रणाली का संगठन किया। गुप्तचरों के भय से अमीर अपने घरों में काँपते रहते थे और दरबार में संकेतों से या फुसफुसाकर बात करते थे। तीसरे, अलाउद्दीन ने दिल्ली में मद्य-निषेध कर दिया। उसने स्वयं भी शराब पीना छोङ दिया और अमीरों को मद्यपान करने के लिये कठोर दंड दिये। जुआ खेलने तथा भाँग के सेवन पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। अमीरों की मद्यपान सभाओं का अंत करके अलाउद्दीन ने उनके मेल-मिलाप को बंद कर दिया। चौथे, उसने अमीरों के परस्पर मेल-मिलाप और उनके आनंद पर रोक लगा दी। उन पर तीन शर्तें लगा दी – सुल्तान अमीर के धन का उत्तराधिकारी होगा, कोई भी विवाह सुल्तान की आज्ञा के बिना संपन्न नहीं हो सकता और अमीरों के बाद उनके पुत्र सुल्तान के दास होंगे।

इस प्रकार अलाउद्दीन ने अमीरों का दमन कर स्वयं को एक दृढ निरंकुश शासक बना लिया। इससे केंद्रीकृत शासन व्यवस्था का कार्य सुगम हो गया। अलाउद्दीन में वे सारे गुण थे जो एक सफल स्वेच्छाचारी शासक में होने चाहिए। उसने अमीर वर्ग और धर्माधिकारियों को अपनी इच्छा के आगे समर्पण करने के लिये बाध्य किया और प्रशासन को कुशल बनाने का काम किया। अलाउद्दीन ने खलीफा की सत्ता को मान्यता दी। उसने यास्मिन-उल-खिलाफत-नासिरी-अमीर-उल-मुमिनिन की उपाधि धारण की।

यद्यपि अलाउद्दीन शिक्षित नहीं था तथापि उसमें व्यावहारिक ज्ञान की कमी नहीं थी और वह अपने राज्य की आवश्यकताओं को भली-भाँति समझता था। अब्बासी खलीफाओं के आदर्श पर धर्म की रक्षा व प्रचार किसी भी सुल्तान का मुख्य कर्तव्य होता था। परंतु बलबन अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक जैसे शासकों ने कभी भी धर्म को राजनीति से ऊपर स्थान नहीं दिया। अलाउद्दीन की लौकिक शक्ति ने धार्मिक शक्ति को पूर्णतः आच्छादित भी किया। अलाउद्दीन ने यह अनुभव किया कि राजनीतिक आवश्यकताएँ धार्मिक सहिष्णुता की माँग करती हैं और एक अस्थिर बुद्धि व धर्मांध शासक की अपेक्षा एक शक्तिशाली शासक की आवश्यकता को महसूस करती हैं। जब अलाउद्दीन गद्दी पर आसीन हुआ तो उसने स्पष्ट रूप से यह विचार प्रकट किया कि राजनीति तथा धर्म बिल्कुल ही भिन्न तथा विपरीत कार्यक्षेत्र हैं। धर्म और धार्मिक आदेशों का राजनीति से कोई संबंध नहीं है और राजनीति के कानून स्वयं अपने आप में कानून हैं एवं उन पर धार्मिक कानून का कोई दबाव नहीं होना चाहिए। वह केवल जनहित को अपना कर्तव्य मानता था, धार्मिक कानूनों के पालन को नहीं। उसे विश्वास था कि किसी भी देश के, और विशेषकर हिंदुस्तान के कार्यों को शरीअत का पालन या प्रोत्साहन देकर नहीं किया जा सकता। जनता पर कोरे उपदेशों का प्रभाव प्रायः नहीं पङता है। ऐसी परिस्थिति में उसके साथ में उसके साथ कठोरता का व्यवहार कभी-कभी आवश्यक होता है।

मूलतः अलाउद्दीन का दृष्टिकोण एक मध्यकालीन निरंकुश शासक का था और वह राज्य की राजनीति में धर्मांध उलेमा की सलाह के अनुकरण को अव्यावहारिक समझता था। उसे इस बात की चिंता नहीं थी कि अंतिम न्याय के दिन उसका क्या होगा? उसने काजी मुगीसुद्दीन से कहा, यद्यपि मुझे कोई ज्ञान नहीं है और न मैंने कोई पुस्तक पढी है, फिर भी मैं जन्म से मुसलमान हूँ और मेरे पूर्वज कई पीढियों से मुसलमान हैं। विद्रोह रोकने के लिये जिनमें हजारों व्यक्तियों की मृत्यु होती है, मैं जनता को ऐसे आदेश देता हूँ जो राज्य और उनके हित के लिये उचित होते हैं। किंतु आजकल के लोग बङे धृष्ट और सुनी-अनसुनी करने वाले करने वाले होते हैं और मेरे आदेशों का भली-भाँति पालन नहीं करते। अरस्तू, मेरे लिए आवश्यक है कि मैं उन्हें कठोर दंड दूँ ताकि वे आज्ञाकारी बनें। मैं ऐसे आदेश देता हूँ जो राज्य के लिये हितकर होते हैं और परिस्थिति देखते हुए तर्कसंगत दिखाई देते हैं। मैं यह नहीं जानता कि शरीअत में उनकी अनुमति है या नहीं। मैं नहीं जानता कि न्याय के दिन अल्लाह मेरे साथ कैसा व्यवहार करेगा।

मध्यकालीन शासकों के समान अलाउद्दीन भी सर्वशक्तिमान शासक था। समकालीन स्त्रोत भी उसकी निरंकुशता का समर्थन करते हैं। अमीर खुसरो और जियाउद्दीन बरनी सुल्तान को ईश्वर का नायब या खलीफा मानते थे। बरनी का मत है कि परिस्थिति के अनुसार सुल्तान को कठोर या दयालु होना चाहिए। लोगों में न्याय का प्रचार करने के लिये शक्ति और सत्ता-संपन्न शासक की आवश्यकता है, और शासक के ऊपर किसी का आधिपत्य नहीं होना चाहिए। खजाइन उल फतह में अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन को विश्व का सुल्तान, पृथ्वी के शासकों का सुल्तान, युग का विजेता और जनता का चरवाहा जैसी पदवियों से विभूषित किया है। इससे स्पष्ट है कि अलाउद्दीन के समय शासक ही राज्य था और वह शाही निरंकुशता का युग था। उसने सारे अधिकारों को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया था और वह शासन के प्रत्येक विभाग की व्यक्तिगत रूप से देख-रेख करता था। इल्तुतमिश, बलबन व मुहम्मद तुगलक के समान अलाउद्दीन भी स्वयं खुले दरबार में न्याय करता था। वह अपने न्याय में बलबन के समान अलाउद्दीन ही कठोर था। अलाउद्दीन विजय और प्रादेशिक विस्तार की लगातार कामना के बावजूद विवेकहीन प्रसारवाद के खतरों से परिचित था। वह राजकीय मामलों के प्रति सजग था। यही प्रधान कारण है कि अलाउद्दीन अन्य बातों की अपेक्षा एक प्रशासक के रूप में सल्तनत काल के शासकों में बहुत ऊँचा स्थान रखता है। केवल अनुभव के आधार पर शिक्षा प्राप्त करते हुए और मुल्लाओं के पूर्व निर्धारित मूर्खतापूर्ण सिद्धांतों को त्यागकर अलाउद्दीन ने अपनी शक्ति सुदृढ की। वह जानता था कि वह उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर शासन कर सकता था जिसे हिंदू जनता स्वीकार करती हो। इसी कारण उसने बलबन की जातीय उच्चतावादी नीति का त्याग किया और योग्यता के आधार पर पदों का वितरण किया। उसने किसी धर्मयुद्ध की कल्पना भी नहीं की और धार्मिक उद्देश्यों पर बल न देकर समयानुकूल और व्यावहारिक शासन व्यवस्था की विवेकपूर्ण ढंग से स्थापना की।

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