इतिहासराजस्थान का इतिहास

कान्हङदे और अलाउद्दीन खिलजी

कान्हङदे और अलाउद्दीन खिलजी अमीर खुसरो और बरनी की रचनाओं से तो हमें कान्हङदेव और अलाउद्दीन के आपसी संबंधों की जानकारी मिलती है, परंतु कान्हङदे प्रबंध तथा बीरमदेव सोनगरा की बात नामक रचनाओं से भी पर्याप्त जानकारी मिलती है।

कान्हङदे प्रबंध के अनुसार 1298 ई. में अलाउद्दीन ने सोमनाथ के मंदिर को ध्वंस करने तथा गुजरात को जीतने के लिये उलूगखाँ और नुसरतखाँ के नेतृत्व में एक विशाल शाही सेना भेजी। चूँकि गुजरात जाने का सीधा रास्ता मारवाङ (जालौर) होकर था, अतः अलाउद्दीन ने कान्हङदे को संदेश भिजवाया कि वह शाही सेना को अपने राज्य में से होकर गुजरने दे।

परंतु कान्हङदे ने सुल्तान के अनुरोध को ठुकरा दिया। उस समय शाही सेना ने कान्हङदे से टक्कर लेना उचित नहीं समझा और वह मेवाङ के मार्ग से निकल गई। शाही सेना ने मार्ग में पङने वाले राज्यों को नष्ट-भ्रष्ट किया, गुजरात और काठियावाङ को जीता और सोमनाथ के मंदिर तथा शिवलिंग को तोङा और विपुल धनसंपदा के साथ वापस दिल्ली का मार्ग पकङा।

इस बार शाही सेना ने जालौर होकर दिल्ली जाने का मार्ग चुना। उलूगखाँ और नूसरतखाँ को कान्हङदे की इच्छा या अनिच्छा की अब कोई चिन्ता न रही।

कान्हङदे ने शाही सेना को सबक सिखाने का निश्चय किया। संयोगवश लूट के माल में से राज्य के हिस्से को वसूल करने की बात को लेकर शाही अधिकारियों और सैनिकों, विशेषकर नवमुस्लिम (मंगोल)सैनिकों में भारी तनाव उत्पन्न हो गया था।

जब शाही सेना ने जालौर के निकट पङाव डाला, तो कान्हङदे ने अपना विरोध करने तथा शाही सेना की वास्तविकता स्थिति की जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से अपने मंत्री जेता देवङा को उलूगखाँ के पास भेजा। उलूगखाँ से भेंट के बाद वापस लौटकर जेता देवङा ने कान्हङदे को सलाह दी कि इस समय शाही सेना पर आक्रमण करना उचित नहीं होगा।

कुछ विद्वानों का मत है कि जेता देवङा ने नवमुस्लिम सैनिकों ने शाही शिविर में विद्रोह का झंडा फहरा दिया तो दूसरी तरफ जेता देवङा के नेतृत्व में राजपूत सैनिकों ने भी शाही सेना पर धावा बोल दिया और गुजरात की लूट का कुछ अंश लूट कर ले गये। कहा जाता है कि सोमनाथ की मूर्ति के पाँच टुकङे भी राजपूतों के हाथ लग गया जिन्हें बाद में कान्हङदे ने पाँच शिव मंदिरों में प्रतिष्ठित करवाया।

लेकिन मुस्लिम रचनाओं से इन सब बातों की पुष्टि नहीं होती है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि इस अभियान के दौरान कान्हङदे के विरोधी कोई तात्कालिक कदम नहीं उठाया। पाँच वर्ष बाद जालौर को उसके विनाशक आक्रमण का सामना करना पङा।

अलाउद्दीन की जालौर विजय

रणथंभौर और चित्तौङ की विजय के बाद अलाउद्दीन का हौसला बढ गया और अब उसने जालौर के स्वतंत्र राज्य को जीतने का निश्चय किया। अलाउद्दीन द्वारा जालौर पर किये गये आक्रमण के कई कारण बतलाये जाते हैं। पहला कारण तो निश्चित रूप से अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी आकांक्षी रही होगी। वह संपूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाना चाहता था।

दूसरा कारण जालौर के निकट गुजरात अभियान से लौटती हुई शाही सेना को सहायता न देकर उसके विरुद्ध कान्हङदे द्वारा शत्रुतापूर्ण आचरण का प्रदर्शन करना था।

कान्हङदे

अलाउद्दीन कान्हङदे के इस अमैत्रीपूर्ण व्यवहार को क्षमा नहीं कर पाया होगा। फरिश्ता ने एक दूसरा ही कारण बतलाया है। उसके अनुसार सुल्तान ने 1305 ई. में एन-उल-मुल्क मुल्तानी को जालौर पर आक्रमण करने के लिये भेजा। मुल्तानी ने कान्हङदे को समझा-बुझाकर सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर लेने के लिये तैयार कर लिया। कान्हङदे ने दिल्ली जाकर सुल्तान के समक्ष समर्पण कर दिया परंतु खलजी दरबार में उसे अपनी स्थिति असम्मानजनक प्रतीत होने लगी।

वह वहाँ से निकल भागने की सोच ही रहा था कि एक दिन सुल्तान ने गर्वोक्ति के साथ कहा कि हिन्दू राजाओं में कोई ऐसा नहीं है जो उसकी सैनिक शक्ति को चुनौती देने का साहस कर सके।

इससे कान्हङदे को अत्यधिक दुःख हुआ और वह सुल्तान को अपने विरुद्ध लङने की चुनौती देकर जालौर लौट आया।सुल्तान उसकी घृष्टता से क्रोधित हो उठा और उसने जालौर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी। हाजी उदवीर भी इस कथा को दोहराता है।

परंतु इन दोनों फारसी इतिहासकारों के वृत्तांत को विश्वसनीय नहीं माना जा सकता क्योंकि यह विचित्र सा प्रतीत होता है कि पहले तो कान्हङदे आत्म-समर्पण के लिये दिल्ली जाता है और फिर कुछ दिनों बाद ही भरे दरबार में सुल्तान की सैन्य शक्ति को चुनौती देकर अपने वंश, राज्य तथा प्रजा को संकट में डाल देता है।

लगता है कि इस प्रकरण को रोचक बनाने के लिये काव्य लेखकों ने बहुत सी अनावश्यक बातें अपनी तरफ से जोङ दी होंगी।

मुहणोत नैणसी द्वारा जालौर अभियान का दूसरा ही कारण बताया है। उनके अनुसार कान्हङदे के साथ उसका पुत्र वीरमदेव भी दिल्ली गया था और अपने पिता के साथ सुल्तान के दरबार में जाया करता था।अलाउद्दीन के हरम की एक राजकुमारी वीरम से प्रेम करने लग गयी।

जब सुल्तान को इसका पता चला तो पहले तो उसने राजकुमारी को डरा-धमका कर वीरम का विचार छोङने को कहा। जब सुल्तान को इसमें सफलता नहीं मिली तो उसने वीरम को राजकुमारी के साथ विवाह करने के लिये विवश करने का निश्चय किया। परंतु वीरम एक मुस्लिम राजकुमारी के साथ विवाह करने के पक्ष में नहीं था।

अतः वह चुपचाप जालौर भाग गया। सुल्तान ने इसे अपना अपमान समझा और तत्काल जालौर पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। कान्हङदे प्रबंध में इसके बाद की घटनाओं का भी विवरण दिया गा है। उसके अनुसार जब शाही सेनाओं को जालौर पर अधिकार करने में सफलता न मिली तो राजकुमारी फिरोजा स्वयं जालौर गई जाँ कान्हङदे प्रबंध ने उसका आदर-सत्कार तो किया परंतु उसके साथ वीरम की शादी करने से इन्कार कर दिया। हताश फिरोजा दिल्ली लौट गयी।

तब सुल्तान ने राजकुमारी की धाय के नेतृत्व में जालौर पर आक्रमण करने के लिये एक शक्तिशाली सेना भेजी। राजकुमार वीरम लङता हुआमारा गया। उसका सिर दिल्ली ले जाया गया। राजकुमारी ने उसका विधिवत ढंग से दाह-संस्कार करवाया और फिर स्वयं भी यमुना में कूदकर मर गई।

नैणसी और कान्हङदे प्रबंध का यह विवरण भी सही प्रतीत नहीं होता । राजकुमारी फिरोजा और वीरम के प्रेम-संबंधों की पुष्टि अन्य समकालीन रचनाओं से नहीं होती। इसी प्रकार, एक स्री की अधीनता में तुर्क सैनिक अधिकारियों द्वारा किसी अभियान में भाग लेना भी सही प्रतीत नहीं होता। आक्रमण का वास्तविक कारण निश्चित रूप से जालौर की स्वतंत्र सत्ता को नष्ट करना था। इसी कारण से अन्य राजपूत राज्यों पर भी आक्रमण किये गये थे।

परंतु डॉ.गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि, कान्हङदे प्रबंध जो फरिश्ता, हाजी उदवीर तथा नैणसी से पहले लिखा गया था, यदि कुछ घटनाओं को बता देता है तो उनमें अधिकांश सत्य हैं। इनको निराधार मानकर अस्वीकार करना उचित नहीं।उदाहरण के लिए, फिरोजा का वीरम से प्रेम होना तथा गुलविहिश्त को भेजना आदि के अंश अस्वाभाविक नहीं हैं।

केवल एकमात्र इनका जिक्र समसामयिक फारसी तवारीखों में न होना इनको अस्वीकार करने के लिये पर्याप्त नहीं है।

संघर्ष का जो भी कारण रहा हो, अलाउद्दीन खलजी ने पूरी तैयारी के साथ जालौर पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया। क्योंकि उत्तरी-भारत के अन्य दुर्गों को अपने अधिकार में बनाये रखने के लिये जालौर की स्वतंत्रता सत्ता को समाप्त करना दिल्ली सल्तनत के लिये अति आवश्यक था ।

जालौर पर आक्रमण करने के पूर्व शाही सेना ने जालौर से लगभग 30 मील की दूरी पर स्थित सिवाना पर आक्रमण किया। सिवाना का शक्तिशाली दुर्ग हलदेश्वर की ऊँची पहाङी पर बना हुआ था। आसपास के पहाङी क्षेत्र में बेरी, बबूल, धोक, पलास, बङ आदि पेङों के कारण दुर्ग का मार्ग काफी दुर्गम था। प्रारंभ में सिवाना दुर्ग पर पंवारों का अधिकार था परंतु इस समय शीतलदेव नामक चौहान सरदार दुर्ग का रक्षक था।

वह बिना संघर्ष के दुर्ग को शत्रुओं के हाथ में देना राजपूती परंपरा और सम्मान के विरुद्ध मानता था। वैसे भी वह एक पराक्रमी सेनानायक था और कई युद्धों में विजय प्राप्त कर चुका था। अलाउद्दीन भी इस तथ्य से सुपरिचित था, अतः 2 जुलाई, 1308 ई. में उसने सिवाना को जीतने के लिये एक सेना तैनात कर दी।

इस सेना ने सिवाना दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया। लंबे समय तक घेराबंदी जारी रही और इस दौरा दोनों पक्षों के सैकङों सैनिक तथा सरदार मारे गये।

अलाउद्दीन को नाहरखाँ जैसे सेनानायक से हाथ धोना पङा। काफी प्रयासों के बाद जब शाही सेना को सफलता न मिली तो अलाउद्दीन स्वयं एक सेना के साथ सिवाना की तरफ बढा। ऐसा कहा जाता है, कि सुल्तान ने एक राजद्रोही भावले की सहायता से किले के जल कुण्ड को गोरक्त से अपवित्र करवा दिया जिससे दुर्गवासियों के लिये जल की समस्या उत्पन्न हो गयी। खाद्य सामग्री भी समाप्त होने को थी।

सर्वनाश को निकट जानकर राजपूत स्रियों ने परंपरागत जौहर की अग्नि में अपने आपको भस्म कर दिया और राजपूत पुरुषों ने केसरिया बाना पहना और दुर्ग का फाटक खोलकर वे शत्रु सेना पर टूट पङे और लङते – लङते वीर गति को प्राप्त हुए। शीतलदेव भी वीरगति को प्राप्त हुआ। सेनानायक कमालुद्दीन गर्ग ने उसका मस्तक काटकर सुल्तान के सम्मुख प्रस्तुत किया। अमीर खुसरो ने भी इस युद्ध में राजपूत सैनिकों द्वारा प्रदर्शित शौर्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की ही।

सुल्तान ने सिवाना दुर्ग का नाम बदलकर खैराबाद कर दिया और कमालुद्दीन गुर्ग को दुर्ग रक्षक नियुक्त कर वापस दिल्ली लौट गया। लौटने के पूर्व वह अपने सेनानायकों को आसपास के क्षेत्रों को अधिकृत करने का आदेश देता गया। शाही सेनानायकों ने मारवाङ के अनेक क्षेत्रों को पदाक्रान्त किया।

उन्होंने बाङमेर को जीत लिया तथा सांचौर को भी अपने अधिकार में कर लिया। सांचौर के प्रसिद्ध महावीर के मंदिर को भूमिसात कर दिया गया। भीनमाल नगर को भी नष्ट कर दिया गया और यहाँ के हजारों ब्राह्मणों को बंदी बना लिया गया।

शाही सेनाओं द्वारा की जाने वाली लूटमार कान्हङदे के लिये एक अपमानजनक चुनौती थी। उसने इस संकट के समय आसपास के अन्य राजपूत शासकों से सहायता भिजवाने का अनुरोध किया। रेवन्ती तथा धानसा की ओर से आने वाले राजपूतों ने खंडाला के निकट कई दिनों तक शाही सेना को आगे बढने से रोक दिया।

राजपूतों के आक्रमण से शाही सेना तितर-बित हो गयी। राजपूत सरदार जैता और देवा इस विजय का शुभ समाचार सुनाने के लिये कान्हङदे के पास जालौर चले आये। परंतु दूसरी तरफ मलिक नायब ने भागते हुये शाही सैनिकों को फिर से संगठित करके राजपूतों पर जोरदार आक्रमण कर दिया। राजपूत इस आक्रमण का सामना न कर पाये और वे जालौर की तरफ भाग खङे हुए। मलिक नायब ने आगे बढकर जालौर दुर्ग का घेरा डाल दिया।

कान्हङदे प्रबंध में कान्हङदे के पुत्र वीरमदेव और भाई मालदेव के द्वारा दुर्ग की सुरक्षा के लिये की गयी तैयारियों का विस्तृत विवरण दिया गया है। उसके अनुसार वीरमदेव और मालदेव ने शाही सेना के सभी प्रयासों को विफल बना दिया और उस पर प्रत्याक्रमण कर उसे मेङता की तरफ धकेल दिया।

इस मुठभेङ में शाही सेना के एक अधिकारी शम्सखाँ और उसकी पत्नी को बंदी बना लिया गया। जब सुल्तान को शाही सेना की विफलता की सूचना मिली तो वह अत्यधिक क्रोधित हो उठा और एक शक्तिशाली सेना के साथ वह स्वयं जालौर की तरफ चल पङा। वहाँ पहुँच कर उसने कमालुद्दीन गुर्ग को नये सिरे से दुर्ग पर आक्रमण का दायित्व सौंपा। कान्हङदे ने भी अपनी संपूर्ण शक्ति के साथ शत्रु का मुकाबला किया।

उसने मालदेव को बाङी तथा वीरमदेव को भाद्राजून के नार्को पर तैनात किया। परंतु कमालुद्दीन सभी प्रतिरोधों का अंत करता हुआ जालौर दुर्ग तक जा पहुँचा। कुछ दिनों तक दोनों पक्षों के मध्य भयंकर झङपें होती रहीं जिसमें कभी एक पक्ष तो कभी दूसरे पक्ष को जय-पराजय मिलती रही।

परंतु धीरे-धीरे शाही सेना की स्थिति मजबूत होती गयी और दुर्ग में घिरे कान्हङदे तथा उसके सैनिकों की स्थिति दिन – प्रतिदिन खराब होती गयी। पेयजल और खाद्य-सामग्री के अभाव ने स्थिति को और अधिक भयावह बना दिया।

ऐसी नाजुक स्थिति में कान्हङदे के एक दहिया राजपूत सरकार बीका, जो शत्रुओं की सहायता से जालौर दुर्ग का स्वामी बनने का स्वप्न देख रहा था, ने विश्वासघात किया। वह सुल्तान द्वारा दिये गये प्रलोभनों में फँस गया और कान्हङदे का साथ छोङकर शाही सेना से आ मिला।

उसने शाही सेना को जालौर दुर्ग में घुसने का एक कम सुरक्षित मार्ग बताया जिस ओर जाकर मुस्लिम सेना ने दुर्ग पर जोरदार आक्रमण कर दिया। राजपूतों को एक कठिन मार्ग से आक्रमण की कोई संभावना न थी। बीका की पत्नी को जब अपने पिता के विश्वासघात का पता चला तो उस देशभक्त महिला ने उसी रात्रि में अपने पति को यमलोक पहुँचा दिया। परंतु तब तक काफी विलंब हो चुका था।

मुस्लिम सेना दुर्ग में प्रवेश कर चुकी थी। कान्हङदे ने अपने सैनिकों के साथ डटकर मुकाबला किया और अपने शूरवीर सरदारों तथा सैनिकों के साथ वीरगति को प्राप्त हुआ। कान्हङदे की मृत्यु के बाद भी राजपूतों ने साहस नहीं खोया। वीरमदेव ने बचे हुए सैनिकों को एकत्र करके युद्ध जारी रखा।

परंतु दुर्ग में मुस्लिम सेना के घुस आने तथा अधिकांश राजपूत सैनिकों के मारे जाने से अब विजय की कोई आशा न थी। अतः राजपूत ललनाओं ने जौहर रचाया तथा अपने आप को अग्नि में समर्पित कर दिया। वीरमदेव अपने साथियों सहित वीरगति को प्राप्त हुआ। इस भयंकर रक्तपात के बाद दुर्ग पर मुस्लिम सेना का अधिकार हो गया। इस विजय की स्मृति में अलाउद्दीन ने एक मस्जिद का निर्माण करवाया।

नैणसी ने जालौर पतन की तिथि वि.सं. 1368 अर्थात् 1311-12 ई. दी है, जबकि फरिश्ता ने 1308 ई. दी है। जैन प्रभासूरी कृत तीर्थ-कल्प में सांचौर पर शाही सेना के अधिकार की तिथि वि.सं.1367 दी गयी है। इससे स्पष्ट है कि जालौर का पतन 1311-12 ई. में हुआ था। जालौर अभियान के बाद कान्हङदे के परिवार का केवल एक सदस्य मालदेव जीवित रह गया।

उसने कुछ दिनों बाद सुल्तान के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया और थोङे दिनों बाद वह सुल्तान की कृपा प्राप्त करने में सफल रहा। खिज्रखाँ को चित्तौङ से हटा लेने के बाद अलाउद्दीन ने उसे चित्तौङ का कार्यभार संभालने के लिये नियुक्त किया था।

इस प्रकार 1311-12 ई. में कान्हङदेव की जीवन लीला का अंत हो गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह एक शूरवीर योद्धा, देशभक्त एवं चरित्रवान व्यक्ति था। परंतु जैसा कि डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है, उसमें कूटनीति का अभाव था। उसकी महानता और अधिक बढ जाती यदि वह अपनी स्वतंत्रता की रक्षा मालवा, गुजरात, सिसोदिया और अन्य चौहानों को साथ लेकर करता। जो भी हो, जालौर विजय के साथ ही राजस्थान के एक बहुत बङे भू-भाग पर मुसलमानों का पूर्ण प्रभुत्व कायम हो गया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : जालौर दुर्ग

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