इतिहासपूर्वी समस्या और बर्लिन कांग्रेसविश्व का इतिहास

क्रीमिया का युद्ध क्यों लडा गया

क्रीमिया का युद्ध क्यों लडा गया

क्रीमिया का युद्ध  जुलाई, 1853 से सितंबर, 1855 तक काला सागर के आसपास चला युद्ध था, जिसमें फ्रांस, ब्रिटेन, सारडीनिया, तुर्की ने एक तरफ तथा रूस ने दूसरी तरफ से लड़ा था। ‘क्रीमिया की लड़ाई’ को इतिहास के सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तथा अनिर्णायक युद्धों में से एक माना जाता है। युद्ध का कारण स्लाववादी राष्ट्रीयता की भावना थी। इसके अतिरिक्त दूसरी तरफ तुर्की के धार्मिक अत्याचार भी कारण बने, किंतु बेहद खून खराबे के बाद भी नतीजा कुछ भी नहीं निकला।
क्रीमिया का युद्ध

यह युद्ध कदाचित् अकारण लड़ा गया था फिर भी यूरोपीय इतिहास में इसका विशेष महत्व आँका जाता है। उन दिनों यूरोपीय देशों में लोगों की यह धारणा हो गई थी कि रूस के पास इतने अधिक शस्त्रास्त्र हैं कि वह अजेय है। उससे लोग आतंकित थे। कुस्तंतुनिया की ओर राज्यविस्तार करने की रूस की नीति पीटर महान् के समय से ही चली आ रही थी। अपनी इस राज्यविस्तार की आकांक्षापूर्ति के लिये वह कोई न कोई बहाना ढूँढ़ता रहता था। इस युद्ध को पहला ऐसा युद्ध माना जाता है जिसमें जनता को प्रतिदिन की लड़ाई की खबर मिली। द टाइम्स अखबार के विलियम रसेल और रोजर फ़ेंटन ने पत्र में इस लड़ाई का विवरण दिया था।

क्रीमिया युद्ध के कारण

1841 से 1852 तक पूर्वी समस्या शांत रही तथा तुर्की के सुल्तान अब्दुल मजीद को अपने साम्राज्य को पुनर्गठित करने का अवसर मिल गया। इधर यूरोपीय महाशक्तियाँ प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से तुर्की में अपने कूटनीतिक दाँव-पेच लगाती रही। अंत में इन कूटनीतिक दाँव-पेचों की एक चरम सीमा आ पहुँची तथा पूर्वी समस्या को लेकर 1854 में इतिहास प्रसिद्ध क्रीमिया का युद्ध भङक उठा। इस क्रीमिया युद्ध के भङक उठने के निम्नलिखित कारण थे –

ईसाई तीर्थ स्थानों का प्रश्न

फिलीस्तीन में स्थित जेरुस्लम के पवित्र स्थान तुर्की साम्राज्य में थे। इन पवित्र स्थानों पर नियंत्रण रखने के संबंध में दीर्घकाल से रूस, फ्रांस और तुर्की के बीच झगङा चल रहा था। इन पवित्र स्थानों में शताब्दियों से ग्रीक (यूनानी) संन्यासी एवं कैथोलिक संन्यासी रहते थे। 1535 में तुर्की के सुल्तान ने इन पवित्र स्थानों की देखभाल करने का कार्य कैथोलिक संन्यासियों को सौंप दिया तथा फ्रांस को तुर्की में रहने वाले रोमन ईसाइयों का संरक्षक स्वीकार किया। 1789 में फ्रांस में हुई क्रांति के बाद फ्रांस ने इन पवित्र स्थानों में रुचि लेना बंद कर दिया। फलतः इन पवित्र स्थानों पर यूनानी संन्यासियों का अधिकार हो गया। रूस यूनानी संन्यासियों का संरक्षक माना जाता था।

फ्रांस का राष्ट्रपति लुई नेपोलियन फ्रांस में अपनी स्थिति सुदृढ करने के लिये पादरियों को प्रसन्न करना चाहता था, अतः 1850 में उसने तुर्की के सुल्तान से माँग की कि कैथोलिक संन्यासियों के प्राचीन अधिकार उन्हें वापस लौटाए जाये। स्पेन, पुर्तगाल, आस्ट्रिया आदि कैथोलिक राज्यों ने नेपोलियन की माँग का समर्थन किया, किन्तु रूस के जार ने तुर्की के सुल्तान को लिखा कि वह यूनानी संन्यासियों के अधिकारों को पूर्ववत बनाए रखे। तुर्की के सुल्तान असमंजस में पङ गया। किन्तु सुल्तान ने व्यावहारिक रूप से फ्रांस की माँग को स्वीकार कर लिया, जिससे रूस नाराज हो गया।

रूस के जार का विरोध

जब तुर्की के सुल्तान ने फ्रांस की माँग को स्वीकार कर लिया तो रूस का जार क्रोधित हो उठा। मार्च, 1853 में रूस के जार ने तुर्की के सुल्तान से माँग की कि तुर्की साम्राज्य के समस्त यूनानी चर्च के मानने वाले ईसाइयों पर वह रूस का संरक्षण स्वीकार करे। इंग्लैण्ड और फ्रांस को यह प्रस्ताव मंजूर नहीं था, अतः तुर्की के सुल्तान ने रूस के प्रस्ताव को अनुचित बताते हुए ठुकरा दिया।

रूसी राजदूत का तुर्की से पलायन

जार को यह विश्वास था, कि इंग्लैण्ड के सहयोग से तुर्की के भविष्य के बारे में कोई निर्णय किया जा सकता है। जनवरी, 1853 में रूस के जार ने प्रस्ताव रखा कि तुर्की साम्राज्य का आपस में बँटवारा कर लिया जाय। इंग्लैण्ड इस प्रस्ताव को खतरनाक समझता था, क्योंकि यदि रूस तुर्की में अपना विस्तार कर लिता है, तो इंग्लैण्ड के व्यापार को भारी खतरा उत्पन्न हो सकता था, अतः इंग्लैण्ड की सरकार ने जार निकोलस के प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। इधर तुर्की के सुल्तान ने कुस्तुन्तुनिया में स्थित रूसी राजदूत मेनशिकाफ अत्यन्त ही क्रुद्ध हुआ तथा सुल्तान के इस निर्णय के विरोध में 22 मई, 1853 को रूसी दूतावास के अन्य कर्मचारियों के साथ कुस्तुन्तुनिया को छोङकर चला गया।

रूसी सेनाओं का तुर्की साम्राज्य में प्रवेश

मेनशिकाफ के कुस्तुन्तुनिया छोङकर चले जाने से स्थिति अत्यन्त ही तनावपूर्ण हो गई और युद्ध की आशंका उत्पन्न हो गयी। तुर्की के सुल्तान के इस रुख के कारण रूस का जार क्रुद्ध तो था ही, अतः 31 मई को उसने सुल्तान को लिखा कि वह रूस की माँगें स्वीकार कर ले, अन्यथ वह माल्दाविया तथा वालेशिया पर अधिकार कर लेगा। रूस की इस धमकी से इंग्लैण्ड और फ्रांस चौकन्ने हो गये तथा दोनों ने अपने जहाजी बेङे को वेसिका की खाङी में पहुँचने का आदेश दे दिया। इससे सुल्तान और अधिक प्रोत्साहित हो गया। सुल्तान ने प्रोत्साहित होकर रूस की माँगों को पुनः अस्वीकार कर दिया, अतः 21 जुलाई 1853 को रूस की सेना ने माल्दाविया तथा वालेशिया पर अधिकार कर लिया। इससे स्थिति अत्यन्त गंभीर हो गयी।

वियना नोट

युद्ध को रोकने के उद्देश्य से आस्ट्रिया के विदेशमंत्री ने इंग्लैण्ड, फ्रांस व प्रशा के प्रतिनिधियों को वियना में आमंत्रित किया। चारों राज्यों को प्रतिनिधियों ने झगङा समाप्त करने के लिये एक नोट तैयार किया, जिसे वियना नोट कहा जाता था। इस नोट में तुर्की के सुल्तान की स्वतंत्रता स्वीकार की गई तथा तुर्की साम्राज्य में रहने वाले यूनानी ईसाइयों की सुरक्षा का अधिकार रूस को प्रदान किया गया। सुल्तान द्वारा वियना नोट को अस्वीकृत किए जाने में किसका उत्तरदायित्व अधिक था, यह प्रश्न तो अभी विवादास्पद है, किन्तु यह बात निर्विवाद है, कि सुल्तान द्वारा वियना नोट को अस्वीकृत किए जाने पर रूस और तुर्की के बीच युद्ध अवश्यम्भावी हो गया।

रूस और तुर्की का युद्ध

तुर्की के सुल्तान को इंग्लैण्ड व फ्रांस से सहायता मिलने की आशा थी, अतः 5 अक्टूबर, 1853 को उसने रूस को चेतावनी दी कि वह 15 दिन के अंदर डेन्यूब प्रदेश (मोल्दाविया और वालेशिया) खाली कर दे। रूस ने इस चेतावनी का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया, अतः 23 अक्टूबर, 1853 को तुर्की ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

सिनोय का हत्याकाण्ड

जब तुर्की ने डेन्यूब प्रदेश पर रूस के विरुद्ध आक्रमण कर दिया तब 30 अक्टूबर, 1853 को रूस ने सिनोय की खाङी में स्थित तुर्की के जहाजी बेङे को नष्ट कर दिया। इस घटना को सिनोय का हत्याकाण्ड कहते हैं। इस घटना से इंग्लैण्ड और फ्रांस में सनसनी फैल गयी।

इंग्लैण्ड व फ्रांस को यह विश्वास हो गया कि यदि रूस की प्रगति को रोका नहीं गया तो तुर्की का अस्तित्व ही खतरे में पङ जाएगा। अतः सतर्कता और सुरक्षा की दृष्टि से इंग्लैण्ड और फ्रांस का संयुक्त जहाजी बेङा काले सागर में प्रवेश कर गया। इसी समय युद्ध को टालने की दृष्टि से नेपोलियन तृतीय ने रूस के जार को एक व्यक्तिगत पत्र लिखा और प्रस्ताव किया कि रूस की सेना तुर्की के प्रदेश से तथा इंग्लैण्ड, फ्रांस की नौ-सेना काले सागर से हटा ली जाए और इसके बाद समझौते द्वारा समस्या का हल निकाला जाय, किन्तु रूस के जार ने इस पत्र का कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया बल्कि अत्यन्त ही कङे शब्दों का प्रयोग करते हुये लिखा कि रूस आज भी वैसा ही है, जैसा 1812 में था।

इस पर 27 फरवरी, 1854 को इंग्लैण्ड व फ्रांस ने संयुक्त रूप से रूस को चेतावनी दी कि 30 अप्रैल तक मोल्दाविया व वालेशिया खाली कर दे। 19 मार्च, को रूस ने इस चेतावनी को ठुकरा दिया तथा 28 मार्च, 1854 को इंग्लैण्ड व फ्रांस ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

मार्च-अप्रैल, 1854 में रूस को सिलिस्ट्रिया में तुर्की की सेनाओं से कङा संघर्ष करना पङा। मई के अंत तक इंग्लैण्ड तथा फ्रांस की सेनाएँ भी सहायता के लिये आगे बढ गई। उसी समय आस्ट्रिया ने रूस से मांग की कि वह मोल्दाविया एवं वालेशिया से अपनी सेनाएँ हटा ले। इसके साथ ही आस्ट्रिया ने अपनी सेनाओं को रूस की सीमा पर एकत्रित कर दिया, ताकि किसी भी समय रूस पर पीछे से आक्रमण हो सके। ऐसी परिस्थिति में रूस को विवश होकर डेन्यूब प्रदेशों से अपनी सेना हटानी पङी। रूस की सेना के हटते ही तुर्की से बातचीत करके आस्ट्रिया की यह शत्रुतापूर्ण तटस्थता की नीति आगे चलकर रूस की हार का प्रमुख कारण बनी।

युद्ध का प्रमुख कारण

सिलिस्ट्रिया में तुर्की की सेनाओं से कङा संघर्ष होने के कारण रूसी सेनाओं को अधिक सफलता नहीं मिली। अप्रैल में ब्रिटिश एवं फ्रेंच सेनापति अपनी सेनाओं सहित तुर्की पहुँच गए, किन्तु जून में रूस ने डेन्यूबी प्रदेशों से अपनी सेनाएँ हटाना प्रारंभ कर दिया तथा अगस्त तक इस क्षेत्र में कोई भी रूसी सैनिक नहीं हा। डेन्यूबी प्रदेशों से रूसी सेनाएँ हट जाने से इंग्लैण्ड व फ्रांस का प्रारंभिक उद्देश्य पूरा हो गया तथा वे युद्ध बंद कर सकते थे, किन्तु मित्र राष्ट्र रूस की शक्ति को क्षीण कर उसे पंगु बना देना चाहते थे ताकि वह फिर उन्हें परेशान न कर सके। इसके अलावा वे रूस को नीचा दिखाना चाहते थे। जुलाई, 1854 में मित्र राष्ट्रों ने रूस के समक्ष निम्नलिखित चार प्रस्ताव रखे-

  • मोल्दाविया एवं वालेशिया पर रूस के संरक्षण अधिकारों को समाप्त कर दिया जाय।
  • डेन्यूब नदी में यूरोप के सभी राज्यों को व्यापार करने की सुविधआएँ प्राप्त हों।
  • तुर्की की यूनानी जनता पर रूस अपने संरक्षण के अधिकार को त्याग दे।
  • तुर्की को यूरोपीय राज्य मंडल में शामिल कर लिया जाय।

क्रीमिया युद्ध का द्वितीय चरण – क्रीमिया पर आक्रमण

रूस ने मित्र राष्ट्रों की इन माँगों को अस्वीकार कर दिया, अतः इंग्लैण्ड व फ्रांस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर आक्रमण करने का निश्चय किया। क्रीमिया, रूस की सामुद्रिक शक्ति का प्रमुख केन्द्र था तथा क्रीमिया के सिबास्टोपोल पर रूस का सामुद्रिक शस्त्रागार था। मित्र राष्ट्र इस पर अधिकार कर रूस को पंगु बना देना चाहते थे।

14 सितंबर, 1854 को ब्रिटिश सेनापति लार्ड रेगलान तथा फ्रेंच सेनापति सेंट अर्नाण्ड के नेतृत्व में मित्र राष्ट्रीय फौजें, सिबास्टोपोल के उत्तर में यूपेटोरिया की खाङी में उतरी। 20 सितंबर, को रूसी सेनापति मेनशिकाफ ने एल्मानी के पास मित्र राष्ट्रों को रोकना चाहा, किन्तु एल्मा के युद्ध में रूसी सेना परास्त हुई। मित्र राष्ट्रों की इस विजय से अब सिबास्टोपोल पर आक्रमण करने का मार्ग खुल गया।

मित्र राष्ट्रों की सेनाओं को तेजी से आगे बढने में कुछ विलम्ब हो गया, अतः स्थिति का लाभ उठाते हुए रूस ने सिबास्टोपोल की रक्षा की पूरी तैयारी कर ली। इसी बीच 29 सितंबर, 1854 को फ्रेंच सेनापति सेण्ट अर्नाण्ड की मृत्यु हो गयी। 17 अक्टूबर को सिबास्टोपोल का घेरा आरंभ किया गया। क्रीमिया युद्ध में सबसे बङी लङाई सिबास्टोपोल के लिये ही हुई थी। यह घेरा लगभग 11 महीने तक चलता रहा तथा युद्ध में दोनों पक्षों के लगभग पाँच लाख व्यक्ति मारे गये।

जनवरी, 1855 के अंत में सार्डीनिया के प्रधानमंत्री कैवूर ने मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध में भाग लेने का निश्चय किया। अप्रैल, 1855 तक लगभग 18 हजार इटली के सैनिक क्रीमिया पहुँच गए, जिससे मित्र राष्ट्रों को बङा प्रोत्साहन मिला। इसी बीच मार्च, 1855 में रूस के जार निकोलस प्रथम की मृत्यु हो गई तथा अलेक्जेण़़्डर द्वितीय रूस का जार बना।

युद्ध का अंतिम चरण

सितंबर में मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने मालाकाफ पर अधिकार कर लिया। अब सिबास्टोपोल को बचाना असंभव हो गया। 9 सितंबर, 1855 को रूसी सेना ने अपने गोला बारूद में आग लगा दी तथा सिबास्टोपोल पर मित्र राष्ट्रों ने अधिकार कर लिया। सिबास्टोपोल के पतन के बाद भी कुछ दिन युद्ध चलता रहा। 28 नवम्बर, को रूस की सेनाओं ने तुर्की के महत्त्वपूर्ण दुर्ग कार्स पर अधिकार कर लिया और तत्पश्चात जार अलेक्जेण्डर द्वितीय संधि करने को तैयार हो गया।

पेरिस की संधि

25 फरवरी, 1856 को इंग्लैण्ड, फ्रांस, आस्ट्रिया, रूस, तुर्की और सार्डीनिया पीडमाण्ट के प्रतिनिधि संधि की शर्तों पर विचार विमर्श के लिये पेरिस में एकत्रित हुए। संधि के लिये आस्ट्रिया ने मध्यस्थता की। 30 मार्च, 1856 को सभी देशों ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसे पेरिस की संधि कहा जाता कहा जाता है। इस संधि में निम्नलिखित शर्तें रखी गई-

क्रीमिया का युद्ध
  • तुर्की को यूरोप की संयुक्त व्यवस्था में सम्मिलित कर लिया गया, जिससे उसकी गणना यूरोप के बङे राज्यों में होने लगी। सभी राष्ट्रों ने तुर्की की स्वतंत्रता व प्रादेशिक अखंडता को बनाए रखने की गारण्टी दी।
  • तुर्की के सुल्तान ने अपनी ईसाई प्रजा के हितों को ध्यान में रखते हुए उनकी स्थिति में सुधार करने का पुनः आश्वासन दिया, इसके बदले में यूरोप के सभी देशों ने तुर्की के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना स्वीकार किया।
  • काले सागर को तटस्थ क्षेत्र मान लिया मान, जहाँ किसी भी राष्ट्र के युद्धपोतों का प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। यह भी निश्चित किया गया कि रूस और तुर्की यहां अपने सैनिक अड्डे स्थापित नहीं करेंगे।
  • रूस और तुर्की ने एक दूसरे के जीते हुये प्रदेश वापस कर दिये। कार्स पर पुनः तुर्की तथा क्रीमिया पर रूस का अधिकार मान लिया गया। मोल्दाविया तथा वालेशिया पर रूस का संरक्षण समाप्त हो गया।
  • तुर्की के प्रभुत्व में सर्बिया की स्वतंत्रता स्वीकार कर ली गयी तथा यूरोपीय राज्यों ने उसकी स्वतंत्रता की गारंटी दी।
  • डेन्यूब नदी में सभी राज्यों को व्यापार करने का अधिकार दिया गया।
  • तुर्की साम्राज्य में रहने वाले ईसाइयों की सुरक्षा के अधिकार से रूस को वंचित कर दिया गया।

3 दिसंबर,1783 ई. में हुई पेरिस की संधि क्या थी

क्रीमिया युद्ध का महत्त्व

क्रीमिया युद्ध के महत्त्व के संबंध में इतिहासकारों एवं राजनीतिज्ञों में भिन्न-भिन्न मत हैं। प्रसिद्ध विद्वान सर राबर्ट मोरियर के अनुसार यह युद्ध आधुनिक युग के युद्ध में सबसे व्यर्थ युद्ध था। फ्रांस के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ थीयर्स के अनुसार यह युद्ध कुछ अभागे साधुओं को पूजा गृह की कुंजी दिलवाने के लिये लङा गया था, किन्तु उनके संबंध में कोई उचित व्यवस्था न हो सकी और व्यर्थ में सहस्रों सैनिकों का बलिदान हो गया।

इसके विपरीत लार्ड क्रोमर का मत था कि यदि क्रीिया युद्ध बंद न होता तथा उसके बाद लार्ड बीकन्सफील्ड उसी नीति का अनुसरण न करता तो बाल्कन राज्य कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकते थे एवं कुस्तुन्तुनिया पर रूस का अधिकार हो जाता।डेविड थाम्प्सन ने लिखा है कि, 1855 में तीन बङे राज्यों के बीच युद्ध होना पुरानी व्यवस्था के अन्तर्गत शांति बनाए रखने के प्रयत्नों की प्रथम विफलता थी।

ग्राण्ट एवं टेम्परले ने लिखा है कि, विज्ञान के आधुनिक साधनों के बिना लङा जाने वाला यह अंतिम युद्ध था। उसके उद्देश्यों एवं कूटनीति प्रणाली पर मध्य युग की स्पष्ट छाप थी, क्योंकि उसके कारणों में क्रूसेड के काल के समान आर्थिक समस्याएँ भी एक कारण बन गई थी।

वस्तुतः क्रीमिया का युद्ध यूरोपीय इतिहास का संक्रांति काल था। इस युद्ध के पूर्व लगभग लगभग 40 वर्षों तक यूरोप में शांति रही, किन्तु इसके बाद 15 वर्षों में यूरोपीय राष्ट्रों के बीच चार बङे युद्ध हुए। इसका प्रमुख कारण यह था, कि क्रीमिया युद्ध के बाद यूरोपीय राज्यों में पारस्परिक संबंधों का दृष्टिकोण ही बदल गया।

क्रीमिया युद्ध की विजय के बाद नेपोलियन तृतीय एवं फ्रांस की प्रतिष्ठा बढ गई तथा नेपोलियन तृतीय राष्ट्रीयता के सिद्धांत के आधार पर यूरोपीय व्यवस्था का पुनर्निर्माण करने का प्रयत्न करने लगा। इधर आस्ट्रिया वियना व्यवस्था के आधार पर यूरोप में अपनी प्रधानता बनाए रखने का प्रयत्न करता रहा, किन्तु क्रीमिया युद्ध के प्रति उसकी नीति के कारण यूरोपीय राज्यों में उसके प्रति अविश्वास उत्पन्न हो गया।

क्रीमिया युद्ध के कारण रूस की विदेश नीति में परिवर्तन आया। रूस अब अपनी आंतरिक समस्याओं के प्रति अधिक ध्यान देने लगा तथा उसने मध्य यूरोपीय समस्याओं में सक्रिय भाग नहीं लिया। इंग्लैण्ड ने भी यूरोप की राजनीति में अनावश्यक हस्तक्षेप बंद कर दिया। अब यूरोपीय रंगमंच पर बिस्मार्क, कैवूर एवं गोर्शकोव जैसे राजनीतिज्ञों का आगमन हुआ, जिन्हें वियना व्यवस्था के प्रति कोई लगाव नहीं था।

पेरिस की संधि द्वारा पूर्वी समस्या का समाधान करने का प्रयत्न किया गया, किन्तु पूर्वी समस्या का प्रश्न इतना जटिल था, कि यूरोपीय राज्य इस पर एकमत नहीं हो सकते थे। क्रीमिया युद्ध का एक उद्देश्य रूस को निर्बल बनाना था तथा पेरिस की संधि द्वारा उसकी प्रगति पर कुछ समय के लिये रोक अवश्य लगा दी गयी थी, किन्तु उसकी महत्त्वाकांक्षा पर रोक नहीं लगाई जा सकी।

1870 में रूस ने काले सागर संबंधी शर्तों को अस्वीकार कर दिया तथा 1878 में उसने बेसरबिया पर पुनः अधिकार कर लिया। रूस की एशियाई विस्तार की नवीन नीति से भारतीय ब्रिटिश साम्राज्य को नया खतरा उत्पन्न हो गया। प्रसिद्ध विद्वान हेजन ने पेरिस की संधि की आलोचना करते हुये लिखा है, कि पूर्वी समस्या को हल करने में यह युद्ध पूर्ण रूप से असफल रहा। साउथगेट ने भी पेरिस की संधि की आलोचना करते हुए लिखा है कि पेरिस की संधि द्वारा पूर्वी समस्या का जो हल निकाला गया, वह न तो उचित ही था और न पर्याप्त।

पेरिस संधि की इस घोषणा से कि यूरोपीय राज्य तुर्की के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, तुर्की साम्राज्य की ईसाई जनता को बङी निराशा हुई, क्योंकि उन्होंने समझा कि यदि अब उनके ऊपर धार्मिक अत्याचार हुआ तो यूरोपीय राष्ट्र उनकी कोई मदद नहीं करेंगे, अतः उन्हें अपनी रक्षा के लिये अपनी मदद अपने आप करनी होगी। इस प्रकार पेरिस की संधि के परिणामस्वरूप पूर्वी समस्या और अधिक उलझ गई।

प्रसिद्ध विद्वान ए.जे.पी.टेलर ने लिखा है कि क्रीमिया के युद्ध ने पवित्र मैत्री की प्राचीन व्यवस्था को नष्ट कर दिया, किन्तु उसके स्थान पर कोई नवीन व्यवस्था स्थापित नहीं की गयी, न तो ब्रिटेन के उदारवादी आदर्शों के आधार पर ही कोई व्यवस्था स्थापित हो सकी और न ही नेपोलियन की क्रांतिकारी कल्पनाएँ ही साकार हो सकी, बल्कि यूरोप में ऐसी अराजकता आरंभ हो गयी, जो पूर्वी समस्या से संबंधित दूसरे संघर्ष तक चलती रही।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : क्रीमिया का युद्ध

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