इतिहासराजस्थान का इतिहास

जालौर और दिल्ली सल्तनत का इतिहास

जालौर और दिल्ली सल्तनत जालौर का छोटा सा राज्य चौहनों का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा था। कीर्तिपाल द्वारा इसको स्थापना से लेकर इसके अंतिम शासक कान्हङदे के समय तक इस छोटे से राज्य ने राजस्थान के इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।

यहाँ के कई शासकों को अपने राज्य की स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिये अपने समकालीन दिल्ली सुल्तानों से कई बार लोहा लेना पङा। रणथंभौर की भाँति इस चौहान राज्य का अंत भी अलाउद्दीन खिलजी के शासन में हुआ था।

जानकारी के स्रोत

जालौर के चौहानों और दिल्ली सल्तनत के मध्य लङे गये संघर्ष की जानकारी हमें विभिन्न ऐतिहासिक स्रोतों से उपलब्ध होती है। इनमें भी पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हङदे-प्रबंध हमें विस्तृत जानकारी प्रदान करता है, परंतु पद्मनाभ ने परंपरागत राजपूत दृष्टिकोण को अपना कर अंतिम चौहान शासक कान्हङदे की उपलब्धियों का इतनी अतिशयोक्ति के साथ विवरण दिया है कि उसे सहज रूप में स्वीकार करना बहुत कठिन है।

नैणसी की ख्यात से भी हमें जालौर के चौहान शासकों तथा कान्हङदे के संबंध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। फरिश्ता तथा अमीर खुसरो की रचनाओं में भी मुस्लिम दृष्टिकोण से दोनों पक्षों के आपसी संबंध तथा संघर्ष के बारे में जानकारी मिलती है। मकराना शिलालेख से भी जालौर के चौहानों तथा दिल्ली के सुल्तानों के आपसी संघर्ष की महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

प्राचीन अभिलेखों में जालौर का नाम जाबालीपुर और इसके दुर्ग का नाम सुवर्णगिरि (सोनगढ) मिलता है। जालौर दो शब्दों जाल और लौर से मिलकर बना है। जाल एक पेङ का नाम है जो इस क्षेत्र में बहुत अधिक मात्रा में पाया जाता है और लौर का अर्थ सीमा से है अर्थात् जाल के पेङों के क्षेत्र की सीमा वाला क्षेत्र ।

जालौर क्षेत्र राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। दसवीं सदी के अंत में धार के परमार शासक मुंज ने इस क्षेत्र पर अधिकार किया था और उसके बाद उसके उत्तराधिकारियों ने पिस्थिति के अनुकूल कभी स्वतंत्र और कभी गुजरात के चालुक्यों के सामंत के रूप में शासन किया। जालौर के परमारों का अंतिम शासक कुन्तपाल था।

उसने गुजरात के चालुक्य नरेश की अधीनता स्वीकार कर ली थी। नैणसी की ख्यात के अनुसार इस समय जालौर और सिवाणा पर क्रमशः परमार कुन्तपाल और वीरनारायण का शासन था। इनके दहिया सरदार ने इनके साथ विश्वासघात करके इन्हें कीर्तिपाल चौहान के द्वारा समाप्त करवा दिया।

कीर्तिपाल जिसे कीतू भी कहा जाता था। नाडौल के चौहान राजा अल्हण का सबसे छोटा पुत्र था। वि.सं. 1218 के पूर्व उसे अपने पिता से बारह गाँव जागीर में मिले थे। परंतु वह एक महत्वाकांक्षी, उद्यमी और कर्मठ व्यक्ति था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उसने मेवाङ में अपना भाग्य आजमाने का निश्चय किया।

इन दिनों मेवाङ पर सामंतसिंह का शासन था और उसके व्यवहार से मेवाङ के अधिकांश सामंत तथा गुजरात के चालुक्य उसके शत्रु बन चुके थे। कीर्तिपाल ने गुजरात के चालुक्यों की सहायता से सामन्तसिंह को खदेङ कर मेवाङ पर अपना अधिकार जमा लिया। परंतु मेवाङ के सामंतों को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने सामंतसिंह के छोटे भाई कुमारसिंह को मेवाङ का राजा घोषित कर दिया। इसके बाद मेवाङी सरदारों ने चालुक्यों का सहयोग प्राप्त करके कीर्तिपाल को मेवाङ से खदेङ दिया।

चालुक्यों के विश्वासघात से कीर्तिपाल अत्यधिक खिन्न हुआ और उनसे बदला लेने के लिये उसने गुजरात की सीमा से सटे हुये जालौर क्षेत्र को जीतकर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना का निश्चय किया। इस समय इस क्षेत्र पर परमारों का शासन था और वे गुजरात के चालुक्यों के करद् सामंत थे। कीर्तिपाल ने अपने सामंतों की सहायता से परमारों से जालौर छीन लिया और इसे अपनी राजधानी बनाकर एक स्वतंत्र राज्य की नींव रखी। इशके बाद उसने आसपास के क्षेत्रों को जीतकर अपनी सत्ता को सुदृढ बनाया।

कीर्तिपाल के उत्तराधिकारियों – समरसिंह और उदयसिंह ने सफलतापूर्वक इस छोटे से राज्य का अस्तित्व कायम रखा। समरसिंह ने अपनी राजधानी जालौर की सुरक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया। उसने दुर्ग के चारों तरफ सुदृढ प्राचीर, कोष्ठागार, शस्रागार और विविध प्रकार के यंत्रों का निर्माण करवाया। उसने कई मंदिरों का भी निर्माण करवाया। यह एक कुशल कूटनीतिज्ञ था। उसने गुजरात के चालुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के साथ अपनी पुत्री लीलादेवी का विवाह करके गुजरात के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध कायम किये।

इससे जालौर के चौहानों को थोङे समय के लिये चालुक्यों के आक्रमणों से राहत मिल गई और समरसिंह को अपने राज्य को सुसंगठित करने का समय मिल गया। समरसिंह का उत्तराधिकारी उदयसिंह (1205-1257ई.) पराक्रमी सेनानायक निकला। उसने अपनी शानदार विजयों के द्वारा आसपास के क्षेत्रों को जीत कर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया।

सुंधा शिलालेख से पता चलता है कि उदयसिंह ने मंडौर, नाडौल, बाङमेर, रदाधरा, सामसिन, भीनमाल, खेङा, रतनपुर, सांचौर आदि स्थानों को जीत कर जालौर राज्य की सीमाओं को बढाया। उसने उपर्युक्त स्थानों में से अधिकांश स्थान गुजरात के मंत्री लवणप्रसाद को पराजित करके प्राप्त किये थे।

इससे स्पष्ट है कि समरसिंह ने गुजरात के साथ जो मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किये थे वे समाप्त हो चुके थे और चौहानों तथा चालुक्यों का पुराना संघर्ष पुनः शुरू हो गया था । इतना ही नहीं, उदयसिंह ने गोङवाङ और मेवाङ के कुछ भागों को जीतकर उन्हें भी चौहानों की उभरती हुई शक्ति का परिचय दे दिया था। डॉ.दशरथ शर्मा का मत है कि उदयसिंह अपने समय का शक्तिसम्पन्न शासक था।

रणथंभौर और अजमेर के चौहानों के पतन के बाद दिल्ली सल्तनत की बढती हुई शक्ति को चुनौती देने का साहस इस समय केवल जालौर का उदयसिंह ही कर सकता था। सुंधा शिलालेख से पता चलता है कि उसने तुर्कों की शक्ति को नियंत्रित कर दिया। ताज-उल-मासिर से भी इस कथन की आंशिक पुष्टि होती है।

उदयसिंह और दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश के संघर्ष का वास्तविक कारण क्या था। इस बारे में विश्वसनीय जानकारी नहीं मिल पाई है। परंतु यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी बढती हुई शक्ति को इल्तुतमिश हसन नहीं कर पाया होगा इसलिये उसने इसका दमन करने का निश्चय किया।

जालौर और दिल्ली सल्तनत का इतिहास

ताज-उल-मासिर के अनुसार इल्तुतमिश ने एक शक्तिशाली सेना के साथ जालौर के विरुद्ध अभियान किया। मार्ग में भयंकर गर्मा तथा पानी की कमी के कारण मुस्लिम सेना को भारी कष्टों का सामना करना पङा। उदयसिंह ने अपने सुदृढ दुर्ग के अंदर रहकर शत्रु का सामना करने का निश्चय किया।

मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा है कि जालौर का दुर्ग बहुत अधिक शक्तिशाली था और अभी तक किसी मुस्लिम शासक को दुर्ग के द्वार को लाँघने में सफलता नहीं मिल पाई थी। इल्तुतमिश ने जालौर के दुर्ग को जीतने के लिये हरसंभव उपाय का सहारा लिया परंतु उसको सफलता न मिली। अंत में, दोनों में समझौता हो गया।

मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार उदयसिंह द्वारा द्वारा सुल्तान की अधीनता स्वीकार करने तथा 100 ऊँट तथा 20 घोङे भेंट में देने पर इल्तुतमिश ने उसका राज्य लौटा दिया और वापिस दिल्ली चला गया। इससे स्पष्ट है कि सुल्तान जालौर पर अपना पूर्ण प्रभुत्व स्थापित करने में असफल रहा। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि इस घटना के पाँच वर्ष बाद इल्तुतमिश ने मेवाङ और गुजरात के साथ मिलकर उसकी प्रगति को रोकने का प्रयास किया और इल्तुतमिश को राजपूतों के संयुक्त प्रतिरोध के सामने वापस लौटने के लिये विवश होना पङा।

मंडौर पर दिल्ली सल्तनत का आधिपत्य अधिक दिनों तक कायम नहीं रह पाया, क्योंकि शिलालेखों से पता चलता है कि यह क्षेत्र उदयसिंह के अधिकार में चला गया था। राजस्थानी वृतांत वि.सं. 1310(1253-54ई.) में दिल्ली सल्तनत के एक अन्य आक्रमण का उल्लेख करते हैं जिसमें उसे उदयसिंह के हाथों परास्त होकर वापस लौटना पङा। परंतु अन्य साक्ष्यों से इस अभियान की पुष्टि नहीं होती।

1257 ई. में उदयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र चाचिगदेव (1257-1282 ई.) जालौर का शासक बना। उसने न केवल जालौर राज्य की सीमाओं को कामय ही रखा अपितु बढाने का प्रयास भी किया वह दिल्ली सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद तथा बलबन का समकालीन था और उन दोनों के समय में जालौर मुस्लिम आक्रमण से बचा रहा। गुजरात के चालुक्यों ने भी जालौर की स्वतंत्रता को स्वीकार कर लिया था। परंतु उसके बारे में हमें विस्तृत जानकारी नहीं मिप पाई है।

चाचिगदेव के बाद उसके पुत्र सामंतसिंह ने 1305 ई. तक शासन किया। उसके समय में उत्तरी भारत की राजनीतिक स्थिति में काफी परिवर्तन हो गया था। दिल्ली सल्तनत के सिंहासन पर अलाउद्दीन खिलजी जैसा महत्वाकांक्षी व्यक्ति आ गया था। राजस्थान में भी रणथंभौर और चित्तौङ जैसे राज्यों की शक्ति बढ गयी थी।

अतः जालौर राज्य का पहले जैसा महत्त्व नहीं रह गया था। इसी अवधि में दिल्ली में वृद्ध तथा दुर्बल सुल्तान जलालुद्दीन खलजी ने भी राजस्थान के कुछ क्षेत्रों पर आक्रमण किये। उसका भतीजा और उत्तराधिकारी अलाउद्दीन तो राजपूत राज्यों की स्वतंत्रता का घोर विरोधी था, क्योंकि वह संपूर्ण भारत को अपने शासन के अन्तर्गत लाना चाहता था और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये राजपूत राज्यों की स्वतंत्रता का अंत करना आवश्यक था।

सामंतसिंह ने एक अनुभवी राजनीतिज्ञ की भाँति देश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति तथा स्वयं अपनी शक्ति का अनुमान लगा कर यह अनुभव कर लिया कि उस जैसा वृद्ध शासक मौजूदा चुनौतियों का सामना नहीं कर पायेगा। अतः उसने अपने राज्य की बागडोर अपने युवा पुत्र कान्हङदे के हाथों में सौंप दी।

कान्हङदे और अलाउद्दीन खिलजी

रणथंभौर, जयपुर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में स्थित है। यहाँ का विशाल दुर्ग एक पथरीले पठार पर, जो कि समुद्र की सतह से 1578 फुट की ऊँचाई पर है, बसा हुआ है। दुर्ग के चारों ओर सघन जंगल से आच्छादित पहाङियाँ फैली हुई हैं। सवाई माधोपुर रेलवे जंक्शन से उत्तर-पूर्व में लगभग 5-6 मील की यात्रा के बाद दुर्ग तक पहुँचा जा सकता है। इतिहासकार अमीर खुसरो के अनुसार यह दिल्ली से दो सप्ताह की यात्रा की दूरी पर स्थित था और परिधि में तीन कोल लंबी एक ठोस दीवार से घिरा था। सैनिक तथा सामरिक दृष्टि से दिल्ली सल्तनत की सुरक्षा के लिये अथवा उस पर आक्रमण करने के लिये इस दुर्ग का अत्यधिक महत्त्व था…अधिक जानकारी

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Online References
wikipedia : जालौर दुर्ग

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