इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य और उसके परिणाम

राजस्थान पर ब्रिटिश आधिपत्य – 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मुगलों की केन्द्रीय सत्ता पतनोन्मुख हो गयी थी। अतः राजस्थानी रियासतों पर नियंत्रण रखने वाली कोई सार्वभौम सत्ता नहीं रही जो इन रियासतों की महत्वाकांक्षा और अनाधिकार चेष्टाओं के लिये होने वाले पारस्परिक युद्धों को रोक सकती तथा एक ही राजवंश के राजकुमारों के पारस्परिक झगङों को सुलझा सकती। अब तक तो व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएँ और रियासतों की पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धाएँ रुकी हुई थी, वे अब बाधा प्राप्त प्रबल स्रोत की तरह फूट पङी। समस्त राजस्थान में अत्यन्ज जघन्य पाशविक प्रवृत्तियाँ जागृत हो उठी। जमीन और राज्य की उत्कट भूख के कारण पिता, पुत्र की हत्या कर देता था और पुत्र-पिता की। सर्वोच्च घराने की स्रियाँ अपने ही खून के संबंधियों और विश्वसनीय रिश्तेदारों की हत्या करने में संकोच नहीं करती थी। राजपूत चरित्रहीनता के दुर्गुणों में डूब गये और अपने ही घर में एक दूसरे पर तलवार खींचकर खङे होने लगे। इन गृह कलहों में पङौसी रियासतें भी विरोधी पक्षों की सहायता के लिये युद्ध में शामिल होने लगी। चूँकि राजस्थान की ये रियासतें पूर्णतः निर्बल हो चुकी थी, अतः अपने पारस्परिक झगङों में उन्होंने मराठों को सहायता के लिए आमंत्रित किया। फलस्वरूप राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रवेश हुआ और धीरे-धीरे मराठों ने राजस्थान में अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित कर लिया। अब मराठे और पिण्डारी असहाय राजस्थानी राज्यों को लूटने लगे और राजस्थानी राज्य इस लूट खसोट को मूक दर्शक की भाँति देखते रहे। यह दयनीय स्थिति लगभग अस्सी वर्ष तक चलती रही। इस अंधकारपूर्ण युग में राजस्थान में अराजकता, लूट-खसोट, आर्थिक विनाश और नैतिक पतन का ताण्डव नृत्य सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा था। अंत में, जब राजस्थानी रियासतों ने अँग्रेजों से संधियाँ कर ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार किया, तब कहीं जाकर शांति एवं व्यवस्था स्थापित हो सकी। जब घरेलू और विदेशी लङाइयाँ समाप्त हो गयी तब राजपूताने का सैनिक पौरुष अफीम की शांत निद्रा में डूब गया।

ब्रिटिश आधिपत्य के लिये उत्तरदायी परिस्थितियाँ

इस विवेचन से स्पष्ट है कि 18 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजस्थानी राज्यों में भीषण अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी। इस शताब्दी में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गयी, जिससे विवश होकर राजस्थानी नरेशों ने ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया। ये परिस्थितियाँ निम्नलिखित थी-

आपसी झगङे व मराठों का हस्तक्षेप

इस अंधकारपूर्ण युग में प्रत्येक राजपूत शासक अपने पङौसी राज्यों अथवा उसकी भूमि हङपने अथवा उस पर अपना राजनैतिक वर्चस्व स्थापित करने को लालायित हो उठा। जोधपुर के महाराजा अभयसिंह ने बीकानेर पर आक्रमण किया तो जयपुर के सवाई जयसिंह ने बूँदी राज्य पर अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया। केन्द्रीय सत्ता के सहयोग के अभाव में इन शासकों को पुनः अपने सामंतों की सहायता व सहयोग पर निर्भर होना पङा, जिससे सामंतों की शक्ति और वर्चस्व में पुनः वृद्धि होने लगी और शासकों पर उनके सामंतों का दबाव दिन-प्रतिदिन बढने लगा। अतः सामंतों के बढते हुए दबाव से मुक्त होने, पारस्परिक संघर्षों को सफलतापूर्वक संचालित करने तथा अपने निरंकुश अधिकारों को बनाये रखने के लिये राजपूत शासकों ने मराठों का सैनिक सहयोग प्राप्त किया। इस प्रकार राजस्थान में मराठों का प्रवेश एक आक्रमणकारी की अपेक्षा एक भाङैत सैनिक सहयोगी के रूप में हुआ। जयपुर-बूँदी संघर्ष में, बूँदी के पदच्युत राजा बुद्धसिंह की रानी ने होल्कर को अपनी सहायता के लिये आमंत्रित किया, जिससे राजस्थान की राजनीति में मराठों का प्रथम प्रवेश हुआ। तदुपरांत तो राजपूत शासक मराठों की सैनिक सहायता प्राप्त करने को लालायित हो उठे। 1743 ई. में जयपुर के सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों – ईश्वरीसिंह और माधोसिंह के बीच उत्तराधिकार संघर्ष हुआ। इस उत्तराधिकार संघर्ष के आरंभ में ईश्वरीसिंह ने मराठों से सैनिक सहायता प्राप्त कर ली, लेकिन बाद में माधोसिंह ने अधिक धन का प्रलोभन देकर मराठों से सैनिक सहायता प्राप्त कर ली। जोधपुर में अभयसिंह के पुत्र रामसिंह ने अपने चाचा बख्तसिंह और बाद में चचेरे भाई विजयसिंह के विरुद्ध मराठों की सैनिक सेवाएँ प्राप्त की। इसी प्रकार मेवाङ में महाराणा अङसी और उसके भतीजे रतनसिंह के बीच उत्तराधिकार संघर्ष में दोनों ही पक्षों ने मराठों की सैनिक सहायता क्रय की। मराठों द्वारा राजपूत शासकों को सैनिक सहायता देने का मुख्य उद्देश्य उनसे अधिक धन प्राप्त करना था। कभी-कभी तो एक ही मराठा सरदार पहले एक पक्ष का और बाद में उसके विरोधी पक्ष का समर्थन करने को तैयार हो जाता था। प्रश्न केवल इतना था कि मराठों को उनकी सैनिक सेवाओं का अधिक मुल्य कौन दे सकता था ? किन्तु आगे चलकर जब राजपूत शासक अपने वायदे के अनुसार मराठों को धन नहीं चुका सके, तब मराठों को सैनिक शक्ति द्वारा धन वसूल करने का मार्ग अपनाना पङा। फलस्वरूप राजस्थान में मराठों की लूटमार आरंभ हो गयी।

आर्थिक दुर्दशा

1751 ई. तक बीकानेर और जैसलमेर राज्यों को छोङकर राजस्थान के प्रायः सभी राज्यों में मराठों का प्रवेश हो चुका थआ। चौथ, टाँके अथवा पुराने कर्जे के नाम से वे बहुत सा धन मेवाङ, जयपुर, कोटा, बूँदी आदि राज्यों से प्रतिवर्ष वसूल कर लेते थे। वायदे के अनुसार निश्चित रकम वसूल करने तथा राजपूत शासकों की गतिविधियों पर कङी दृष्टि रखने के लिये मराठों ने राजस्थानी राज्यों की विभिन्न राजधानियों, महत्त्वपूर्ण नगरों या केन्द्रों में अपने अधिकारी तैनात कर दिये थे। किन्तु राजस्थान में कोई स्थायी मराठा सेना नहीं थी। अतः निश्चित धनराशि वसूल करने के लिये प्रमुख मराठा सेनानायकों को समय-समय पर इन राज्यों में ससैन्य चढाई करनी पङती थी। राजस्थान की भूमि पहले भी अधिक उपजाऊ नहीं थी और यहाँ का वाणिज्य-व्यापार भी नगण्य था, अब मराठों के निरंतर आक्रमणों तथा उनकी लूटमार के कारण आर्थिक स्थिति दिनों दिन बिगङती जा रही थी। मराठों की कभी समाप्त न होने वाली आर्थिक माँगों के कारण राजपूत शासक त्रस्त हो उठे। सर्वथा शक्तिहीन राजस्थानी राज्यों के समक्ष, मराठों को बार-बार द्रव्य देकर संतुष्ट करने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था। राजपूत शासकों ने मराठों को वार्षिक खिराज तक देना स्वीकार कर लिया था। किन्तु स्वेच्छा से उन्होंने वार्षिक खिराज की रकम कभी नियमित रूप से अदा नहीं की। फलस्वरूप मराठों को बार-बार सैनिक शक्ति और लूटमार का सहारा लेना पङा। ज्यों-ज्यों वर्ष बीतते गये राजपूत नरेशों और राजस्थानी समाज के प्रति मराठों का अशिष्ट व्यवहार और तिरस्कारपूर्ण दमन बढता ही गया और राजस्थानी राज्य दिनों दिन बर्बाद होते गये।

शासकों और सामंतों के आपसी झगङे

राजस्थानी राज्यों में मराठों के हस्तक्षेप के फलस्वरूप यहाँ के शासकों और उनके सामंतों के आपसी संबंधों में भी परिवर्तन आया। राजपूत शासकों द्वारा मुगल संरक्षण स्वीकार करने के बाद वे अपने सामंतों की उपेक्षा कर उनकी परंपरागत शक्ति को कुचल सकते थे। अतः मुगल संरक्षण काल में राजपूत सामंतों की शक्ति क्षीण हुई थी। लेकिन मराठों के हस्तक्षेप के बाद राजपूत सामंत पुनः शक्तिशाली होने लगे तथा शासकों और सामंतों के आपसी संबंधों में तनाव पैदा हो गया, क्योंकि अब सामंतों को भी भाङैत मराठा सेना का सहयोग उपलब्ध हो सकता था। 1794 ई. में जोधपुर के शासक भीमसिंह और उसके सामंत पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के बीच तनाव उत्पन्न हुआ, तब सवाईसिंह ने मराठा सरदार लकवा दादा को जोधपुर पर चढाई करने हेतु आमंत्रित किया। इसी प्रकार, 1788 ई. में मेवाङ में सलूम्बर के रावत भीमसिंह ने तुकोजी होल्कर से समझौता किया। 1795-96 ई. में जयपुर नरेश और उसके शेखावत सामंतों में झगङा उठ खङा हुआ, तब शेखावतों ने मराठों के यूरोपियन सेनानायक जॉर्ज टामस को सैनिक सहयोग के लिये आमंत्रित किया। फरवरी, 1798 ई. में जॉर्ज टामस ने जयपुर की सेनाओं को बुरी तरह पराजित किया तथा जयपुर नरेश को, मराठा सेना को द्रव्य देकर संतुष्ट करना पङा। इस अवसर पर बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह ने जयपुर राज्य को सहायता की थी। अतः लौटते समय जॉर्ज टॉमस ने बीकानेर पर चढाई की और वहाँ से दो लाख रुपया पाने का वादा करके लौटा।

यदि एक ओर सामंतों ने मराठों का सैनिक सहयोग क्रय किया तो दूसरी ओर राजपूत शासकों ने भी मराठों का सैनिक सहयोग क्रय करके अपने सामंतों को कुचलने का प्रयास किया क्योंकि वे अपनी स्वयं की शक्ति से अपने सामंतों की शक्ति को कुचलने में असमर्थ हो चुके थे। जयपुर के शासक पृथ्वीसिंह (1768-1778ई.) की अल्पव्यस्कता और राजमाता चूँडावतजी के निर्बल शासन के कारण राजावत और नाथावत सरदारों में पारस्परिक संघर्ष अत्यधिक बढ गया तथा शेखावत सरदार भी विद्रोही हो गये। अतः राजमाता चूँडावतजी ने सिन्धिया के सेनानायक अम्बाजी इंगले की सहायता से इन सामंतों का दमन करने का प्रयास किया। इसी प्रकार मेवाङ में महाराणा भीमसिंह (1778-1828 ई.) के शासन काल में चूँडावतों और शक्तावतों का पारस्परिक संघर्ष अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। चूँडावतों ने मेवाङ राज्य के प्रधान और शक्तावतों के पक्षपाती सोमचंद गाँधी की हत्या कर दी और चित्तौङ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अतः महाराणा भीमसिंह ने महादजी सिन्धिया से समझौता किया। महादजी ने चूँडावतों से चित्तौङ का दुर्ग खाली करवाया। किन्तु इसके फलस्वरूप मेवाङ पर महादजी का प्रभुत्व स्थापित हो गया। राजपूत राजाओं और सामंतों को मराठों का सहयोग तभी मिलता था जबकि वे मराठों को धन देने का वायदा करते थे। वायदे के अनुसार धन न मिलने पर मराठे, राज्यों में लूटमार तथा आतंक फैलाकर धन वसूल करने लगते थे। मराठों ने खालसा क्षेत्र और जागीर क्षेत्रों में समान रूप से लूटमार की। कई बार तो जब शासक, मराठों की वित्तीय माँग पूरी नहीं कर पाते तो वे मराठों को जागीरदारों से धन वसूल करने की स्वीकृति दे देते थे। 1791 ई. में मेवाङ के महाराणा ने महादजी को चूँडावत सरदारों से 64 लाख रुपया वसूल करने की स्वीकृति दी थी। इसी प्रकार 1786 ई. में जयपुर के शासक ने सिन्धिया को 63 लाख रुपया देने का वायदा किया, इसमें से 22 लाख रुपये जागीरदारों से वसूल करने का अधिकार मराठों को दे दिया। इसके अलावा राजपूत शासक बकाया रकम का भुगतान करने के लिये अनेक परगने मराठों के पास गिरवी रख देते थे। परगने गिरवी इस शर्त पर रखे जाते थे कि बकाया रकम की अदायगी होते ही उन्हें वापिस लौटा दिया जायेगा। किन्तु एक बार कोई भू-क्षेत्र ले लेने के बाद मराठे उन्हें लौटाते ही नहीं थे। 1769 ई. में मेवाङ के महाराणा ने नीमच, जावद, जीरण और मोरवण के परगने सिन्धिया के पास गिरवी रखे थे, जो वापिस नहीं लौटाये गये। इसी प्रकार, 1774 ई. में महाराणा ने रतनगढ, खेङी, सिंगोली, अरण्या, जाठ और नन्दवाय के परगनों की आय मराठों के पास गिरवी रखी थी। 1791 ई. में जोधपुर के शासक विजयसिंह ने साँभर, मारोठ, नावाँ, परबतसर, मेङता और सोजत की आय मराठों के पास गिरवी रखी थी। किन्तु मराठों की कभी न शांत होने वाली वित्तीय माँगें ज्यों की त्यों बनी रहती थी।

जब मराठों ने जागीर क्षेत्रों में लूटमार की तो सामंतों ने खालसा भूमि में लूटमार कर अथवा खालसा क्षेत्र अधिकृत करके अपनी क्षतिपूर्ति करने का प्रयास किया। 1769 ई. में मेवाङ में देवगढ के राघवदेव और भींडर के मोहकसिंह ने खालसा क्षेत्रों में लूटमार की। 1791 ई. में देवलिया प्रतापगढ के रावत सामंतसिंह ने खालसा के परगने धरियाबाद और डाँगल पर अधिकार कर लिया। 1793 ई. में जयपुर राज्य के अंतर्गत सीकर
ठिकाने के राव देवीसिंह ने खालसा के कई गाँवों पर अधिकार कर लिया। इतना ही नहीं, उणियारा जैसे बङे ठिकाने के राव ने तो जयपुर राज्य से संबंध विच्छेद कर स्वतंत्र होने का प्रयास किया। मराठों की निरंतर लूटमार या सामंतों की धमा-चौकङी के फलस्वरूप समस्त प्रदेश बर्बाद हो गया और साधारण नागरिकों का जीवन सामंतों के प्रति कोई प्रेम नहीं रह गया था और न सामंतों के मन में अपने शासकों के प्रति कोई सम्मान ही रह गया था। ऐसी परिस्थितियों में राजपूत शासकों ने मराठों के नियंत्रण से मुक्त होने के प्रयास आरंभ कर दिये।

अँग्रेजों के साथ संधियों के प्रारंभिक प्रयास

ब्रिटिश आधिपत्य के परिणाम

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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