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बर्मा के प्रति ब्रिटिश नीति क्या थीःप्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध

19 वी. शता. के आरंभ में कंपनी रांज्य की पूर्वी सीमा चटगाँव से लेकर उत्तर में पहाङियों तक तथा बंगाल की खाङी के पूर्व में सौ मील तक चली गई थी। इस सीमा रेखा के पूर्व में स्थित असम प्रदेश में कुछ रियासतें स्वाधीन थी तो कुछ अर्द्ध स्वाधीन। बंगाल और असम के बीच कोई प्राकृतिक सीमा रेखा नहीं थी। अतः कंपनी की पूर्वी सीमा अत्यंत अनिर्धारित एवं अस्थिर थी।

असम के पूर्व में बर्मा का राज्य था जिसके बारे में अंग्रेजों को अधिक ज्ञान नहीं था तथा कुछ अंग्रेज अधिकारी तो इस रहस्यमय प्रदेश को असीम शक्तिशाली माने हुए थे।

कंपनी और बर्मा के प्रारंभिक संबंध

1795 ई. से 1823 ई. के बीच कंपनी ने बर्मा के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का कई बार प्रयास किया। 1795 ई. में सर जॉन शोर ने केप्टिन साइम्स को बर्मा भेजा जिसने बर्मा के राजा के समक्ष कूटनीतिक संबंध स्थापित करने तथा बर्मा से मैत्री-संधि करने का प्रस्ताव रखा।

किन्तु बर्मा के राजा ने इसका कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। अतः एक वर्ष बाद ही सर जॉन शोर ने एक दूसरा प्रतिनिधि हीरमन कॉक्स को बर्मा भेजा। लेकिन उसे भी अपने उद्देश्यों में सफलता नहीं मिली। तत्पश्चात् कंपनी ने तीन बार – 1803ई.,1809ई.,1811ई. में केप्टिन केनिंग को बर्मा भेजा, किन्तु कंपनी के ये मिशन भी असफल रहे, क्योंकि बर्मी सरकार कंपनी से किसी प्रकार के कूटनीतिक संबंध स्थापित करने को तैयार नहीं थी।

ऐसा भी कहा जा सकता है कि बर्मी सरकार ने इन राजदूतों के साथ कङा दुर्व्यवहार किया । इसी बीच अराकान की सीमा के प्रश्न को लेकर विवाद उत्पन्न हो गये। बर्मा के राजा ने माँग की कि जो अराकान के उपद्रवकारी भारतीय क्षेत्र में जाकर शरण लें, उन्हें बंदी बनाकर बर्मी अधिकारियों को सौंप दिया जाय, किन्तु कंपनी ने इसे स्वीकार नहीं किया।

1811 ई. के बाद कंपनी ने अपना कोई प्रतिनिधि भी बर्मा नहीं भेजा। दूसरी ओर बर्मा की सरकार का रवैया भी दिन-प्रतिदिन कठोर होता जा रहा था। 1814 ई. में बर्मा सरकार ने गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्ज को एक पत्र लिखा जिसमें ढाका, चटगांव,मुर्शिदाबाद और कासिम बाजार के क्षेत्रों की माँग की गई और कहा गया कि ये चारों प्रदेश कंपनी के अधीन होने के पूर्व अराकान को वार्षिक कर देते थे और चूँकि अराकान पर अब बर्मी सत्ता स्थापित हो गई है इसलिए ये चारों प्रदेश बर्मा के अधीन कर दिये जायँ। लेकिन लार्ड हेस्टिंग्ज ने बर्मा सरकार के इस पत्र को कोई महत्त्व नहीं दिया।

कंपनी द्वारा अपने प्रतिनिधि को बर्मा भेजने का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम यह निकला कि कंपनी को इस बात की पूरी जानकारी मिल गई कि बर्मी सरकार सैनिक दृष्टि से कमजोर हैं। लार्ड मिण्टो बर्मा के विरुद्ध युद्ध छेङने की स्थिति में नहीं था, क्योंकि वह पंजाब में उलझा हुआ था। तत्पश्चात् लार्ड हेस्टिंग्ज मराठा, पिण्डारियों व नेपाल युद्धों में उलझ गया । किन्तु जब लार्ड एमहर्स्ट आया तब बर्मा के विरुद्ध युद्ध छेङने में जरा भी नहीं हिचकिचाया।

प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध का महत्त्वपूर्ण कारण

लार्ड एमहर्स्ट के काल में बर्मा के साथ अंग्रेजों का झगङा शाहपुरी के छोटे और निर्जन द्वीप को लेकर हुआ। शाहपुरी, अराकान और ब्रिटिश सीमा को विभाजित करने वाली नाफ नदी के किनारे पर स्थित था। चटगाँव के पास कुछ अंग्रेज हाथियों का शिकार कर रहे थे, लेकिन बर्मियों ने उन्हें पकङ लिया। इसी समय उधर से अंग्रेजों की एक नाव गुजरी।बर्मियों ने अंग्रेजों से चुँगी माँगी। अंग्रेजों ने इसका विरोध किया तथा शाहपुरी में अपनी सैनिक चौकी स्थापित कर ली और जनवरी, 1823 ई. में अंग्रेजों ने माँग की कि शाहपुरी का टापू खाली कर दिया जाय।

यद्यपि बर्मियों ने इस जगह को खाली कर दिया, किन्तु वे यह धमकी भी देते गये कि यदि अंग्रेजों ने शाहपुरी पर अधिकार किया तो वे ढाका व मुर्शिदाबाद पर आक्रमण कर देंगे।इस प्रकार शाहपुरी को लेकरदोनों पक्षों में विवाद बढता गया। जब अंग्रेजों ने चटगाँव की सीमा रक्षा के लिए कुछ सेना भेजी तब बर्मा ने माँग की कि शाहपुरी का तटस्थ क्षेत्र घोषित कर दिया जाय। किन्तु अंग्रेजों ने इस माँग को स्वीकार नहीं किया तथा सितंबर,1823 ई. में लगभग एक हजार सैनिक इस ओर भेज दिये। फलस्वरूप फरवरी, 1824 ई. में इस पर बर्मियों ने इस द्वीप पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। इस पर 24फरवरी, 1824 को एमहर्स्ट ने बर्मा के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।

प्रथम आंग्ल-बर्मी युद्ध (5 मार्च 1824 – 24 फरवरी 1826)

दोनों पक्षों के बीच भीषण युद्ध हुआ। बर्मी सेना पहली बार ऐसी सेना से युद्ध कर रही थी जो पश्चिमी ढंग से प्रशिक्षित थी तथा नवीनतम शस्त्रों से सुसज्जित थी। अतः बर्मी सेना की निर्णायक पराजय हुई और 24 फरवरी, 1826 को दोनों पक्षों के बीच याडबू की संधि हो गई।

याडबू की संधि (24 फरवरी, 1826 )

  • इस संधि के अंतर्गत बर्मा के राजा ने असम, कच्छार तथा मणिपुर पर ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया तथा अराकान व तनासरीम के समुद्र तटीय प्रांत कंपनी को दे दिये।
  • अंग्रेज व्यापारियों को रंगून में बसने और व्यापार करने का अधिकार मिल गया। बर्मा के राजा ने एक करोङ रुपया क्षतिपूर्ति के रूप में देने का वादा किया और अपने राज्य में अंग्रेज रेजीडेण्ट रखना स्वीकार कर लिया।

इस संधि से कंपनी का राजनैतिक प्रभाव विस्तृत हुआ तथा मुख्य बर्मा में अंग्रेजों के पैर जम गये जिससे भविष्य में बर्मा पर अधिकार करने का मार्ग प्रशस्त हो गया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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