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कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष

आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष

आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष(Anglo-French conflict in Karnataka) – व्यापार से आरंभ होकर अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी कंपनियां भारत की राजनीति में अपरिहार्य रूप से उलझ गई थी। जब मुगल सत्ता कमजोर हो गयी तथा दक्कन के सूबेदार कंपनियों की रक्षा करने में असमर्थ हो गये तो कंपनियों ने रक्षा के लिए स्वयं ही कमर कसी। इन दोनों कंपनियों का उद्देश्य व्यापार से अधिकाधिक लाभ उठाना था। यह तभी संभव था जब उन्हें एकाधिकार प्राप्त हो जाए तथा दूसरी कंपनी मार्ग से हट जाए अर्थात वे अपना माल सस्ते से सस्ता खरीद सकें। यह सब तभी संभव था जब देश पर कुछ न कुछ राजनैतिक नियंत्रण प्राप्त हो जाए।
17 वीं तथा 18 वीं शताब्दियों में आंग्ल-फ्रांसीसी शाश्वत शत्रु थे तथा ज्यों ही यूरोप में उनका आपसी युद्ध आरंभ होता, संसार के प्रत्येक कोने में जहां ये दो कंपनियां कार्य करती थी, आपसी युद्ध आरंभ हो जाते थे। भारत में ऐंग्लों-फ्रेंच युद्ध, आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध से आरंभ हुआ। उस समय फ्रांसीसियों का मुख्य कार्यालय पांडीचेरी में था तथा मसौलीपट्म, कारिकल, माही, सूरत तथा चंद्रनगर में उनके उपकार्यालय थे। दूसरी ओर अंग्रेजों की मुख्य बस्तियां मद्रास, बंबई और कलकत्ता में थी तथा अनेक कार्यालय उपकार्यालय थे।

कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष
  • कर्नाटक का प्रथम युद्ध(1746-48ई.)
  • कर्नाटक का दूसरा युद्ध(1749-54ई.)
  • कर्नाटक का तीसरा युद्ध(1758-63ई.)

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.)

यह युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध का जो 1740 में आरंभ हुआ था, विस्तार मात्र ही था। गृह सरकारों की आज्ञा के विरुद्ध ही दोनों दलों में 1746 में युद्ध आरंभ हो गया। बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जल पोत पकङ लिए। डूप्ले ने जो 1741 से पाण्डीचेरी का फ्रेंच गवर्नर-जनरल था, मॉरीशस स्थित फ्रांसीसी गवर्नर ला बूर्डोने से सहायता मांगी। ला बूर्डोने 3000 सैनिक लेकर कोरोमंडल तट (मद्रास के पास का तट) की ओर चल पङा। रास्ते में उसने अंग्रेजी नौसेना को परास्त किया। मद्रास को जल तथा थल दोनों ओर से फ्रांसीसियों ने घेर लिया। 21 सितंबर को मद्रास ने आत्मसमर्पण कर दिया। युद्ध बंदियों में क्लाइव भी था। ला बूर्डोने का विचार इस नगर से फिरौती लेने का था परंतु डूप्ले नहीं माना। ला बूर्डोने ने एक अच्छी राशि के बदले नगर लौटा दिया। परंतु डूप्ले ने इसको स्वीकार नहीं किया तथा नगर पुनः जीत लिया। परंतु वह फोर्ट सेन्ट डेविड जो पाण्डीचेरी से केवल 18 मील दक्षिण में स्थित था उसे जीतने में असफल रहा। दूसरी ओर एक अंग्रेजी स्क्वाड्रन ने, रीयर एडमिरल बोस्कावे के नेतृत्व में पॉण्डीचेरी को घेरने का असफल प्रयत्न किया।
कर्नाटक का प्रथम युद्ध सेन्ट टोमे के युद्ध के लिए स्मरणीय है। यह युद्ध फ्रांसीसी सेना तथा कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन (1744-49) के नेतृत्व में भारतीय सेना के बीच लङा गया। झगङा फ्रांसीसियों द्वारा मद्रास की विजय पर हुआ। नवाब ने दोनों कंपनियों को लङते हुए देखकर उन्हें आज्ञा दी कि वे युद्ध बंद करें तथा देश की शांति भंग न करें। डूप्ले ने मद्रास को जीत कर नवाब को दे देने का प्रस्ताव किया था। परंतु जब डूप्ले ने अपना वचन पूरा नहीं किया तो नवाब ने अपनी मांग स्वीकार कराने के उद्देश्य से अपनी सेना भेजी। कैप्टिन पेराडाइज के अधीन एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने जिसमें 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थे, महफूज खां के नेतृत्व में 10,000 भारतीय सेना को अदयार नदी पर स्थित सेन्ट टोमे के स्थान पर पराजित कर दिया। कैप्टिन पेराडाइज की इस विजय ने विदेशी यूरोपीय अनुशासित सेना की ढीली तथा असंगठित भारतीय सेना पर श्रेष्ठता को स्पष्ट कर दिया।
यूरोप में युद्ध बंद होते ही कर्नाटक का प्रथम युद्ध समाप्त हो गया। ए ला शापेल की संधि (1748) से ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया तथा मद्रास अंग्रेजों को पुनः प्राप्त हो गया।
युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे। स्थल पर फ्रांसीसी श्रेष्ठ रहे। डूप्ले ने अपनी साधारण दक्षता तथा राजनीति का प्रदर्शन किया। यद्यपि अंग्रेज पाण्डीचेरी को नहीं जीत सके तो भी युद्ध से नौसेना का महत्त्व स्पष्ट हो गया।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध(1749-54ई.)

कर्नाटक के प्रथम युद्ध से डूप्ले की राजनैतिक पिपासा जाग उठी तथा उसने फ्रांसीसी राजनैतिक प्रभाव के प्रसार के उद्देश्य से भारतीय राजवंशों के परस्पर झगङों में भाग लेने की सोची। मालेसन ने इस स्थिति का वर्णन यों किया है, महत्वाकांक्षाएं जाग उठी, परस्पर द्वेष बढ गए। जब बढते हुए प्रभाव की आकांक्षाएं द्वार खटखटा रही थी तो उन्हें (यूरोपीय) शांति से क्या लेना-देना। यह सुअवसर हैदराबाद तथा कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण प्राप्त हुआ।

आसफजाह जिसने दक्कन में लगभग स्वायत्ततापूर्ण राज्य बना लिया था, 21 मई, 1748 को स्वर्ग सिधार गया। उसका पुत्र नासिरजंग (1748-50) उसका उत्तराधिकारी बना। परंतु उसके भतीजे (आसफजाह के पौत्र) मुजफ्फरजंग ने इस दावे को चुनौती दी। दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उसके बहनोई चंदा साहिब के बीच विवाद था। शीघ्र ही ये दोनों विवाद एक बङे विवाद में परिवर्तित हो गए और हमें दलों के बनने तथा टूटने की क्रिया का प्रदर्शन मिला।

डूप्ले ने इस अनिश्चित अवस्था से राजनैतिक लाभ उठाने की सोची तथा मुजफ्फरजंग को दक्कन की सूबेदारी तथा चंदा साहिब को कर्नाटक की सूबेदारी के लिए समर्थन देने की बात सोची। अपरिहार्य रूपेण अंग्रेजों को नासिरजंग तथा अनवरुद्दीन का साथ देना पङा। डूप्ले को अद्वितीय सफलता मिली। मुजफ्फरजंग चंदा साहिब तथा फ्रेंच सेनाओं ने 1749 के अगस्त मास में वैल्लौर के समीप अम्बूर के स्थान पर अनवरुद्दीन को हराकर मार दिया। दिसंबर 1750 में नासिरजंग भी एक संघर्ष में मारा गया। मुजफ्फरजंग दक्कन का सूबेदार बन गया तथा उसने अपने हितकारियों को बहुत से उपहार दिए। डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिणी भाग में मुगल प्रदेशों का गवर्नर नियुक्त कर दिया। उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को दे दिए। इसके अलावा मुजफ्फरजंग की प्रार्थना पर एक फ्रेंच सेना की टुकङी बुस्सी की अध्यक्षता में हैदराबाद में तैनात कर दी गयी। 1751 में चंदा साहिब कर्नाटक के नवाब बन गए। डूप्ले इस समय अपनी राजनैतिक शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया था।

फ्रांसीसियों के लिए प्रतिकर्ष आने में देर नहीं लगी। स्वर्गीय अनवरुद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली ने त्रिचनापली में शरण ली। फ्रांसीसी तथा चंदा साहिब मिल कर भी त्रिचनापली के दुर्ग को जीत नहीं पाए। अंग्रेजों की स्थिति इस फ्रेंच विजय से डांवा-डोल हो गयी थी। क्लाइव ने जो त्रिचनापली के फ्रांसीसी घेरे को तोङने में असफल रहा था। त्रिचनापली पर दबाव कम करने के लिए कर्नाटक की राजधानी अरकाट को केवल 210 सैनिकों की सहायता से जीत लिया। चंदा साहिब ने 4,000 सैनिक भेजे परंतु अरकाट को पुनः नहीं जीत सके तथा क्लाइव ने 53 दिन तक (23 दिसंबर, से 14 नवम्बर तक) इस सेना का प्रतिरोध किया। फ्रांसीसियों की प्रतिभा को इससे अनन्त क्षति पहुंची। 1752 में स्ट्रिंगर लॉरेन्स के नेतृत्व में एक अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापली को बचा लिया तथा जून 1752 में घेरा डालने वाली फ्रांसीसी सेना ने अंग्रेजों के आगे हथियार डाल दिए। चंदा साहिब की भी धोखे से तंजौर के राजा ने हत्या कर दी।

त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी हार से डूप्ले के भाग्य का सर्वनाश हो गया। फ्रांसीसी कंपनी के डाइरेक्टरों ने इस युद्ध में हुई धन की हानि के लिए डूप्ले को वापिस बुला लिया। 1754 में गोडेहू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गवर्नर जनरल तथा डूप्ले का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया तथा 1755 में दोनों कंपनियों के बीच एक अस्थायी संधि हो गयी।

इस प्रकार झगङे का दूसरा दौर भी अनिश्चित रहा। स्थल पर अंग्रेजी सेना की प्रधानता सिद्ध हो गयी थी तथा उनका प्रत्याशी मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बन गया था। परंतु हैदराबाद में अभी भी फ्रांसीसी सुदृढ अवस्था में थे तथा उन्होंने सूबेदार सालारजंग से और भी अधिक जागीर प्राप्त कर ली थी। (वास्तव में मुजफ्फरजंग एक छोटी सी झङप में फरवरी 1751 में मारा गया था।) उत्तरी सरकारों के महत्त्वपूर्ण जिले जिनकी वार्षिक आय 30 लाख रुपया थी, फ्रांसीसी कंपनी को अर्पण कर दिए थे। इस दूसरे युद्ध से फ्रांसीसियों की प्राथमिकता को कुछ ठेस पहुंची तथा अंग्रेजों की स्थिति सुदृढ हो गयी।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1758-63)

यह युद्ध भी यूरोपीय संघर्ष का ही भाग था। 1756 में सप्तवर्षीय युद्ध के आरंभ होते ही भारत में दोनों कंपनियों के बीच शांति समाप्त हो गयी। फ्रांसीसी सरकार ने अप्रैल 1757 में काऊन्ट लाली को भारत भेजा। लगभग 12 मास की यात्रा के बाद अप्रैल, 1758 में वह भारत पहुंचा। इसी बीच अंग्रेज सिराजुद्दौला को पराजित कर बंगाल पर अपना अधिकार स्थापित कर चुके थे। इसके कारण अंग्रेजों को अपार धन मिला जिससे वे फ्रांसीसियों को दक्कन में पराजित करने में सफल हुए।

काऊंट लाली ने 1758 में ही फोर्ट सेन्ट डेविड जीत लिया। इसके बाद उसने तंजोर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे दी क्योंकि उस पर 56 लाख रुपया शेष था। यह अभियान असफल रहा जिससे फ्रांसीसी ख्याति को हानि पहुंची। इसके बाद लाली ने मद्रास को घेर लिया परंतु एक शक्तिशाली नौसेना के आने पर उसे यह घेरा उठाना पङा। फिर लाली ने बुस्सी को हैदराबाद से वापिल बुला लिया। यह उसकी सबसे बङी भूल थी। इसके कारण वहां फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हो गयी। दूसरी ओर पोकॉक के नेतृत्व में अंग्रेजी बेङे ने डआश के नेतृत्व में फ्रांसीसी बेङे को तीन बार पराजित किया तथा उसे भारतीय सागर से लौट जाने पर बाध्य कर दिया। इससे अंग्रेजी विजय स्पष्ट हो गयी तथा 1760 में सर आयर कूट ने वाडिवाश के स्थान पर फ्रांसीसियों को बुरी तरह पराजित किया। बुस्सी युद्धबंदी बना लिया गया। जनवरी, 1761 फ्रांसीसी पूर्ण पराजय के बाद पाण्डीचेरी लौट आए। अंग्रेजों ने इसे भी घेर लिया तथा 8 मास पश्चात फ्रांसीसियों ने इस नगर को भी शत्रु के हवाले कर दिया। शीघ्र ही माही तथा जिंजी भी इनके हाथ से निकल गए। इस प्रकार आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वन्द्विता का नाटक समाप्त हो गया तथा फ्रांसीसी हार गए।

इस प्रकार युद्ध का तीसरा दौर पूर्ण रूपेण निर्णायक सिद्ध हुआ। यद्यपि युद्ध के अंत में (1763 ई. में) पाण्डीचेरी तथा कुछ अन्य फ्रांसीसी प्रदेश उन्हें लौटा तो दिए गए परंतु उनकी किलाबंदी नहीं हो सकती थी तथा भारत से उनका पत्ता कट गया।

फ्रांसीसियों की पराजय के कारण

फ्रांसीसियों ने एक समय में अपनी राजनैतिक विजयों से भारतीय संसार को स्तब्ध कर दिया था। परंतु अन्ततः वे हार गए। इस पराजय के कारण निम्नलिखित थे –

फ्रांसीसियों का यूरोप में उलझना

18 वीं शताब्दी में फ्रांसीसी सम्राटों की यूरोपीय महत्वाकांक्षाओं के कारण उनके साधनों पर अत्यधिक दबाव पङा। ये सम्राट फ्रांस की प्राकृतिक सीमाओं को स्थापित करने के लिए इटली, बेल्जियम तथा जर्मनी में बढने का प्रयत्न कर रहे थे तथा वे उन देशों से युद्धों में उलझ गए। वास्तव में उन्हें इस क्षेत्र में कुछ शत वर्ग मील के क्षेत्र की अधिक चिन्ता थी तथा भारत तथा उत्तरी अमरीका में कई गुना अधिक बङे क्षेत्र की कम। फलस्वरूप ये उपनिवेश तो पूर्णतया हाथ से जाते रहे तथा यूरोप में नहीं के बराबर ही का क्षेत्र उनको मिल सका। इंग्लैण्ड अपने आप को यूरोप से पृथक मानता था तथा उसकी उस प्रदेश में प्रसार की कोई इच्छा नहीं थी। यूरोप में उसकी भूमिका केवल शक्ति संतुलन बनाए रखने की ही थी। वह एकचित होकर अपने उपनिवेशों के प्रसार में लगा हुआ था। उसे निश्चय ही सफलता मिली और उसने भारत तथा उत्तरी अमरीका में फ्रांस को पछाङ दिया।

दोनों देशों की प्रशासनिक भिन्नताएं

वास्तव में फ्रांसीसी इतिहासकारों ने अपने देश की असफलता के लिए अपनी घटिया शासन प्रणाली को दोषी ठहराया है। फ्रांसीसी सरकार स्वेच्छाचारी थी तथा सम्राट के व्यक्तित्व पर ही निर्भर करती थी। महान सम्राट लुई चौदहवें (1648-1715) के काल से ही इस प्रशासन की कमजोरियां स्पष्ट हो रही थी। उस काल के अनेक युद्धों के कारण वित्तीय परिस्थिति बिगङ गई थी। उसकी मृत्यु के बाद यह अवस्था और भी बिगङ गई। उसके उत्तराधिकारी लुई पन्द्रहवें ने अपनी रखैलों, कृपापात्रों तथा ऐश्वर्य साधनों पर और भी धन लुटाया। दूसरी ओर इंग्लैण्ड में एक जागरुक अल्पतंत्र राज्य कर रहा था। ह्विग दल के अधीन उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था की ओर कदम बढाए और देश एक प्रकार से अभिषिक गणतंत्र बन गया था। यह व्यवस्था उत्तम थी तथा इसने देश को दिन प्रतिदिन शक्तिशाली बना दिया। आल्फ्रेड लायल ने फ्रांसीसी व्यवस्था के खोखलेपन को ही दोषी ठहराया है। उसके अनुसार, डूप्ले की वापिसी, ला बेर्डोने तथा डआश की भूलें, लाली की अदम्यता, इत्यादि से कहीं अधिक लुई 15 वें की भ्रांतिपूर्ण नीति तथा उसके अक्षम मंत्री फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे।

दोनों कंपनियों के गठन में भिन्नता

फ्रांसीसी कंपनी सरकार का एक विभाग था। कंपनी 55 लाख लीव्र (फ्रैंक) की पूंजी से बनाई गई थी जिसमें से 35 लाख लीव्र सम्राट ने लगाए थे। इस कंपनी के डाइरेक्टर सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते थे तथा लाभांश सरकार द्वारा प्रत्याभूत था अतएव उन्हें कंपनी की समृद्धि में कोई विशेष अभिरुचि नहीं थी। उदासीनता इतनी थी कि 1725 और 1765 के बीच कंपनी के भागीदारों की एक भी बैठक नहीं हुई। तथा कंपनी का प्रबंध सरकार ही चलाती रही। फलस्वरूप कंपनी की वित्तीय अवस्था बिगङती चली गयी। एक समय में उनकी यह दुर्दशा हो गयी कि उन्हें अपने अधिकार सेन्ट मालो के व्यापारियों को वार्षिक धन के बदले देने पङे। 1721 से 1740 तक कंपनी उधार दिए धन से ही व्यापार करती रही। कंपनी को समय-समय पर सरकार से सहायता मिलती रही तथा वह तंबाकू के एकाधिकार तथा लॉटरियों के सहारे ही चलती रही। ऐसी कंपनी डूप्ले की महंगी महत्वाकांक्षाओं तथा युद्धों की पूर्ति नहीं कर सकती थी।

दूसरी ओर अंग्रेजी कंपनी एक निजी व्यापारिक कंपनी थी। उसके प्रबंध में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। प्रशासन इस कंपनी के कल्याण में विशेष रुचि दर्शाता था। वित्तीय अवस्था अधिक सुदृढ थी। व्यापार अधिक था तथा व्यापारिक प्रणाली भी अधिक अच्छी थी। कंपनी के डाइरेक्टर सदैव व्यापार के महत्व पर बल देते थे। पहले व्यापार फिर राजनीति। यह कंपनी अपने युद्धों के लिए प्रायः पर्याप्त धन स्वयं अर्जित कर लेती थी। आंकङों से यह स्पष्ट है कि 1736-65 के बीच अंग्रेजी कंपनी ने 412 लाख पाऊंड और फ्रांसीसी कंपनी ने 114.5 लाख पाऊंड का माल बेचा। वित्तीय अवस्था से अंग्रेजी कंपनी इतनी धनाढ्य थी कि डर था कि कहीं संसद लोभ में न आ जाए। हुआ भी यही 1767 में संसद ने कंपनी को आदेश दिया कि वह 4 लाख पाऊंड वार्षिक अंग्रेजी कोष में दिया करे। एक बार यह भी सुझाव था कि कंपनी की सहायता से राष्ट्रीय ऋण का भुगतान किया जाए।

नौसेना की भूमिका

कर्नाटक के युद्धों ने यह स्पष्ट कर दिया कि कंपनी के भाग्य का उदय अथवा अस्त नौसेना की शक्ति पर निर्भर था। 1746 में फ्रांसीसी कंपनी को पहले समुद्र में फिर थल पर विशिष्टता प्राप्त हुई । इसी प्रकार 1748-51 तक भी जो सफलता डूप्ले को मिली वह उस समय थी जब अंग्रेजी नौसेना निष्क्रिय थी। सप्तवर्षीय युद्ध के दिनों में यह पुनः सक्रिय हो गयी। उसकी वरिष्ठता के कारण काऊंट लाली, डूप्ले जितनी सफलता प्राप्त नहीं कर सका और जब डआश भारतीय समुद्रों से चला गया तो मार्ग अंग्रेजों के लिए बिल्कुल साफ था तथा अंग्रेजों की विजय में कोई संदेह नहीं रह गया था। वॉल्टेयर के अनुसार ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार के युद्ध में फ्रांस की जल शक्ति का इतना पतन हुआ कि सप्तवर्षीय युद्ध के समय उसके पास एक भी जल पोत नहीं था। बङे पिट ने इस वरिष्ठता का पूर्ण लाभ उठाया। न केवल भारतीय व्यापार मार्ग खुले रहे अपितु बंबई से कलकत्ता तक जल मार्गों द्वारा सेना का लाना ले जाना अबाध रूप से चलता रहा। फ्रेंच सेना का पृथक्करण पूर्ण रहा। यदि शेष कारण बराबर भी होते तो भी यह जल सेना की वरिष्ठता फ्रांसीसियों को परास्त करने के लिए पर्याप्त थी।

बंगाल में अंग्रेजी सफलताओं का प्रभाव

अंग्रेजों की बंगाल में विजय एक महत्त्वपूर्ण कारण था। न केवल इससे इनकी प्रतिष्ठा बढी, अपितु इससे बंगाल का अपार धन तथा जनशक्ति उन्हें मिल गयी। जिस समय काऊंट लाली को अपनी सेना को वेतन देने की चिन्ता थी, बंगाल कर्नाटक में धन तथा जन दोनों भेज रहा था। दक्कन इतना धनी नहीं था कि डूप्ले तथा लाली की महत्वाकांक्षाओं को साकार कर सकता। यद्यपि उत्तरी सरकार बुस्सी के पास थी परंतु वह केवल डेढ लाख रुपया ही भेज सका अधिक नहीं।

वास्तव में अंग्रेजों की वित्तीय वरिष्ठता का बहुत महत्व था जैसा कि स्मिथ ने कहा है कि न अकेले तथा न मिलकर ही डूप्ले अथवा बुस्सी जल में वरिष्ठ तथा धन में गंगा की घाटी के वित्तीय स्त्रोतों के स्वामी अंग्रेजों को परास्त कर सकते थे। पांडीचेरी से आरंभ करके सिकंदर महान तथा नेपोलियन भी बंगाल तथा समुद्री वरिष्ठता प्राप्त शक्ति को परास्त नहीं कर सकते थे। मेरियट ने ठीक ही कहा है कि डूप्ले ने मद्रास में भारत की चाबी खोजने का निष्फल प्रयत्न किया। क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में खोजी तथा प्राप्त कर ली।

दोनों कंपनियों का राजनैतिक नेतृत्व

अंग्रेजी कंपनी का राजनैतिक तथा सैनिक नेतृत्व फ्रांसीसी कंपनी की अपेक्षा अधिक उत्तम था। डूप्ले तथा बुस्सी व्यक्तिगत रूप से क्लाइव, लॉरेन्स तथा सॉण्डर्स से कम नहीं परंतु वे सैनिकों में क्लाइव की तरह जोश नहीं उत्पन्न कर सके। दूसरे, उनके अधीन कार्यकर्त्ताओं में भी वह दक्षता नहीं थी। काऊंट लाली एक बहुत उग्र स्वभाव का व्यक्ति था। वह पांडीचेरी में कंपनी के सभी कार्यकर्त्ताओं को धूर्त तथा बेईमान समझता था। उसे यह विश्वास था कि वह डरा धमका कर सबको ठीक कर लेगा। उसने अपने साथियों को नाराज कर लिया तथा जब लाली परास्त हो गया तो वे लोग स्पष्ट रूप से बहुत प्रसन्न हुए। दूसरी ओर अंग्रेजों के पास अच्छे सैनिक नेता था तथा उनके अधीनस्थ लोग भी डूप्ले तथा बुस्सी के अधीन लोगों से उत्तम थे। मालेसन के अनुसार लॉरेन्स, सॉण्डर्स,केलिऑड, फोर्ड इत्यादि अनेक अंग्रेजी पदाधिकारी डूप्ले के लॉज,दान्त्यूल ब्रेनियर इत्यादि फ्रांसीसी अफसरों से कई गुणा वीर, साहसी तथा उत्तम थे।

डूप्ले का उत्तरदायित्व

डूप्ले एक उत्तम नेता होते हुए भी फ्रांसीसियों की हार के लिए उत्तरदायी है। वह राजनैतिक षङयंत्रों में इतना उलझ गया कि उसने इन झगङों के कुछ पक्षों की ओर ध्यान ही नहीं दिया। उसने कंपनी के व्यापार तथा वित्तीय पक्षों की अवहेलना की। अतः उनका व्यापार जो पहले भी बहुत अधिक नहीं था, और भी कम होना आरंभ हो गया। यह एक बहुत ही आश्चर्यपूर्ण बात है कि डूप्ले जैसे प्रतिभाशाली व्यक्ति ने यह समझा कि दक्षिण में अनुसरण की नई नीति राजनैतिक रूप से उचित है। 1751 में मुजफ्फरजंग द्वारा डूप्ले को कृष्णा नदी के पार के मुगल क्षेत्रों के गवर्नर नियुक्त किए जाने को अंग्रेज सुगमता से स्वीकार नहीं कर सकते थे। दूसरे, वह भी यह नहीं समझ पाया कि भारत में दोनों कंपनियों का झगङा वास्तव में यूरोप तथा अमरीका में दोनों राष्ट्रों के झगङे का ही एक अंग है। इसके अलावा उसे अत्यधिक आत्म-विश्वास था और उसने पैरिस में अपने अफसरों को कुछ अति महत्त्वपूर्ण सैनिक तथा सामुद्रिक सामरिक महत्वपूर्ण दुर्बलताओं तथा कठिनाइयों के विषय में नहीं बतलाया और यदि उसे सामयिक सहायता नहीं मिली तो यह केवल उसका अपना ही दोष था।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारत, एंग्लो-फ्रेंच औपनिवेशिक झगङे के भिन्न युद्धस्थलों में से एक था तथा उसमें अंग्रेज निश्चय ही अधिक भाग्यशाली तथा सफल सिद्ध हुए।

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