इतिहासप्राचीन भारत

भारत एवं मध्य एशिया के बीच संबंध

चीन, भारत तथा ईरान के बीच स्थित प्रदेश को मध्य एशिया अथवा चीनी तुर्किस्तान कहा जाता है, जो पहले काशगर से लेकर चीन की सीमा तक फैला हुआ था। इसके अंतर्गत काशगर (शैलदेश), यारकंद (कोक्कुक), खोतान (खोतुम्न), शानशान, तुर्फान (भरुक), कुची (कूचा), करसहर (अग्निदेश) आदि राज्यों की गणना की जाती है। चतुर्थ शती ईस्वी तक यह संपूर्ण क्षेत्र एक प्रकार से वृहत्तर भारत के रूप में परिणत हो गया था। मध्य एशिया के उत्तर में कूची तथा दक्षिण में खोतान भारतीय संस्कृति के प्रमुख केन्द्र थे, जहाँ से इसका व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। मध्य एशिया के दक्षिणी राज्यों तथा भारत के उत्तरी-पश्चिमी भाग के बीच व्यापारिक संपर्क होने के कारण वहाँ भारतीय उपनिवेशों की स्थापना हुई। शीघ्र ही व्यापार का स्थान धर्म प्रचार ने ग्रहण कर लिया। मौर्य शासक अशोक के धर्म प्रचार ने भारतीय संस्कृति को मध्य एशिया में फैला दिया। उत्तरी-पश्चिमी सीमा से हिन्दूकुश पार कर अनेक भारतीय बौद्ध प्रचारक मध्य एशिया में जा पहुँचे। गुप्तकाल के प्रारंभ तक बौद्ध धर्म मध्य एशिया के सभी भागों में पूरी तरह प्रतिष्ठित हो गया था। बौद्ध धर्म के माध्यम से भारतीय लिपि तथा भाषा का मध्य एशिया में प्रवेश हुआ। ब्राह्मी लिपि को वहाँ के राज्यों ने अपनाया तथा कुलीन वर्ग के लोगों ने संस्कृत भाषा को ग्रहण किया। विभिन्न स्थानों से संस्कृत में लिखी हुई बौद्ध रचनाओं की प्रतिलिपियाँ भी प्राप्त होती हैं। फाहियान हमें बताता है, कि वहां के निवासी भारतीय भाषा का अध्ययन करते थे। मध्य एशिया से प्राप्त भारतीय ग्रंथों में धम्मपद, उदानवर्ग, सारिपुत्रप्रकरण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। धर्म के साथ ही साथ भारतीय चिकित्सा एवं कला का भी मध्य एशिया में प्रचार हुआ। भारतीय कला की गंधार शैली का प्रभाव यहाँ की मूर्तियों, स्तूपों आदि पर स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। विभिन्न स्थानों से भारतीय चिकित्सा संबंधी कई ग्रंथ भी प्राप्त किये गये हैं।

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मध्य एशिया के दक्षिणी क्षेत्र में स्थित खोतान का राज्य भारतीय संस्कृति का सर्वप्रमुख केन्द्र था। बौद्ध परंपरा के अनुसार अशोक के पुत्र कुणाल ने यहाँ जाकर हिन्दू राज्य की स्थापना की थी। तिब्बती साहित्य में भारतीय शासकों की एक लंबी सूची मिलती है। कुणाल को कुस्तन भी कहा गया है। उसका पुत्र येउल तथा पौत्र विजितसम्भव हुआ। इसके पश्चात खोतान के सभी राजाओं के नामों का प्रारंभ विजित से ही मिलता है। विजितसंभव के शासनकाल के पांचवें वर्ष (द्वितीय शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ) में वैरोचन नामक आचार्य ने खोतान में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसके बाद सभी राजाओं ने इस धर्म के प्रचार में योगदान दिया। ईसा की चौथी शती तक खोतान में महायान बौद्ध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार हो चुका था।

चीनी यात्री फाहियान खोतान में बौद्ध धर्म के प्रचार का सुन्दर विवरण प्रस्तुत करता है। वह हमें बताता है, कि यहाँ के नागरिकों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था तथा महायान भिक्षुओं की संख्या अधिक थी। प्रत्येक नागरिक अपने घर के सामने एक छोटा पगोडा बनाता था, जिसमें सबसे छोटा लगभग 20 फीट का होता था। गोमती विहार बौद्धशिक्षा का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ 3000 भिक्षु निवास करते थे। ये सब महायानी थे। उस समय खोतान में 14 विहार थे। प्रतिवर्ष भारतीय रथ-यात्राओं के समान वहाँ भी प्रतिमाओं का जुलूस निकाला जाता था। इसमें एक सजे हुये रथ के ऊपर बुद्ध की विशाल प्रतिमा रखी जाती थी। और उसके दोनों और बोधिसत्वों की मूर्तियां स्थापित की जाती थी। उनको लेकर भिक्षुदल गाते-बजाते निकलते थे। जब प्रतिमा नगर द्वार से 100 कदम दूर रह जाती तो राजा अपना मुकुट उतारकर नंगे पैर उसके पास जाता, भूमि पर अपना मस्तक टेकता, उस पर फूल चढाता तथा सुगंधित द्रव्य जलाता था। खोतान के गोमती विहार में अनेक योग्य भारतीय विद्वान रहते थे। फाहियान खोतान में राजा के नये विहार का उल्लेख करता है, जिसका निर्माण तीन पीढी के राजाओं ने 80 वर्षों में कराया था। इसकी ऊँचाई 250 फीट थी तथा इसे स्वर्ण और रजत द्वारा आलंकारिक ढंग से सजाया गया था। इस प्रकार फाहियान के विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है, कि खोतान में राजा तथा प्रजा दोनों ही निष्ठावान बौद्ध थे। यहाँ के विहार शिक्षा के प्रख्यात केन्द्र थे। भारत से चीन जाने वाले तत्कालीन बौद्ध विद्वानों के विवरण से पता चलता है, कि खोतान के विहारों में संस्कृत बौद्ध ग्रंथों की कुछ ऐसी दुर्लभ पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित थी, जो भारत तक में अप्राप्य थी। 433 ईस्वी में धर्मक्षेप नामक बौद्ध विद्वान चीन से महापरिनिर्वाणसूत्र की पाण्डुलिपि की खोज में खोतान आया था। खोतान से प्राप्त पाण्डुलिपियों, मूर्तियों तथा चित्रकिरियों से यह स्पष्ट हो जाता है, कि आठवीं शती तक यहाँ भारतीय बौद्ध संस्कृति व्याप्त थी। गुप्त काल में यह विकास की चोटी पर थी। यहीं से शानशान होती हुयी भारतीय सभ्यता चीन की सीमा तक फैली।

मध्य एशिया के उत्तर में स्थित कूची, खोतान के समान ही बौद्ध सभ्यता का प्रमुख केन्द्र था। वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार अत्यन्त प्राचीन काल में ही हो चुका था। कूची के प्राचीन नरेश सुवर्णपुष्प, हरिपुष्प, हरदेव, सुवर्णदेव जैसे भारतीय नाम धारण करते थे। राजा तथा प्रजा दोनों ही बौद्ध धर्म के कट्टर अनुयायी थे।चीनी साक्ष्यों से पता चलता है, कि चतुर्थ शती के प्रारंभ में यहां के स्तूपों तथा मंदिरों की संख्या दस हजार के लगभग थी। यहाँ के विहारों में संस्कृत की शिक्षा दी जाती थी। भारतीय संगीत तथा चिकित्सा का भी वहाँ के निवासियों को ज्ञान था।संभव है, कुछ भारतीय परिवार कूची में जाकर बस गये हों तथा वहाँ के स्थानीय लोगों के साथ अपने वैवाहिक संबंध भी स्थापित कर लिये हों। इस प्रकार का एक उदाहरण भारतीय विद्वान कुमारायण का है। वे अपनी प्रतिभा के बल पर वहाँ के राजा के गुरु बन गये। कूची रहते हुये उन्होंने जीवा नामक कन्या से अपना विवाह कर लिया। इन दोनों से कुमारजीव का जन्म हुआ, जिन्होंने अपनी विद्वता से भारत, मध्य एशिया तथा चीन में समान यश अर्जित किया।

खोतान तथा कूची के अलावा करसहर तथा बजक्लिक भी मध्य एशिया में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। इन सभी स्थानों में भारतीय धर्म, साहित्य, कला आदि का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार हुआ।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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