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भारत में चिकित्सा शास्त्र का प्रारंभ

भारत में चिकित्सा शास्त्र का प्रारंभ

चिकित्सा शास्त्र में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धियां अधिक महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है। भारत में चिकित्सा अथवा औषधिशास्त्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है, और यह वैदिक काल तक जाता है। ऋग्वेद में अश्विन को देवताओं का कुशल वैद्य कहा गया है, जो अपने औषधों से रोगों को दूर करने में निपुण थे। वे बीमार पङे लोगों को रोग मुक्त करते थे। अथर्ववेद में आयुर्वेद के सिद्धांत तथा व्यवहार संबंधी बातें मिलती हैं।

रोग, उनके प्रतिकार तथा औषध संबंधी अनेक उपयोगी तथा वैज्ञानिक तथ्यों का विवरण इसमें दिया गया है। विविध प्रकार के ज्वरों, यक्ष्मा, अपचित (गण्डमाला), अतिसार, जलोदर जैसे रोगों के प्रकार एवं उनकी चिकित्सा का विधान प्रस्तुत किया गया है। प्रतीकार संबंधी वर्तमान शल्य क्रियाओं का भी यत्र-तत्र निर्देश मिलता है। उल्लेखनीय है, कि इसी पद्धति पर आधुनिक होमियोपैथी चिकित्सा आधारित है, जिसका मूल सिद्धांत सम से सम की चिकित्सा है।

इसी को लैटिन भाषा में सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरेन्टर कहा जाता है। प्राचीन भारतीयों ने इस सिद्धांत को अपनाया था। महाभारत में विवरण मिलता है, कि एक बार भीम को दुर्योधन ने विष खिलाकर गहरे जल में फेंक दिया तथा वह अचेतनावस्था में नाग लोक जा पहुँचा। वहां सांपों के काटने से उसके शरीर से विष का प्रभाव दूर हो गया तथा वह तत्काल स्वस्थ हो गया।

बुद्धकाल में औषधि शास्त्र का व्यापक अध्ययन होता था। जातक ग्रंथों से पता चलता है, कि प्रसिद्ध विश्वविद्यालय तक्षशिला में वैद्यक के ख्याति प्राप्त विद्वान थे, जहां दूर-दूर से विद्यार्थी आयुर्वेद का अध्ययन करने के लिये आते थे। इन्हीं में जीवक का नाम मिलता है। वह मगध नरेश बिम्बिसार के पुत्र अभय द्वारा तक्षशिला पहुंचाया गया।

वहां सात वर्षों तक निवास कर उसने विविध औषधियों का अध्ययन किया तथा वैद्यक का प्रसिद्ध विद्वान बन गया। उसका शुल्क 1600 काषार्पण था। बिम्बिसार ने उसे अपना राजवैद्य बनाया तथा उसने बिम्बिसार, प्रद्योत तथा महात्मा बुद्ध तक की चिकित्सा कर उन्हें रोगमुक्त किया था। अर्थशास्त्र से पता चलता है, कि मौर्यकाल में चिकित्सा शास्त्र विकसित था।

साधारण वैद्यों, चीङ-फाङ करने वाले भिजषों एवं चीङ-फाङ में प्रयुक्त होने वाले यंत्रों, परिचारिकाओं, महिला चिकित्सकों आदि का उल्लेख मिलता है। शव-परीक्षा भी किया जाता था। शवों को विकृत होने से बचाने के लिये तेल में डूबोकर रखा जाता था। अकाल मृत्यु के विभिन्न मामलों जैसे फांसी, विषपान आदि की जांच कुशल चिकित्सक करते थे।

आयुर्वेद में मुनि आत्रेय का वही स्थान है, जो यूनानी चिकित्सा में हिपोक्रेटीस का है। यूनानी संहिता में वर्णित है, कि रोगों के कई वर्ग हैं – साध्य रोग, असाध्य रोग, तंत्र-मंत्र द्वारा साध्य रोग, तथा वह रोग जिनके उपचार की संभावना काफी क्षीण है। ज्वर, अतिसार, पेचिश, क्षय, रक्तचाप आदि के उपचार की विशेष चर्चा की गयी है। इस ग्रंथ में जल चिकित्सा का भी वर्णन है।

चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति ईसा पूर्व प्रथम शती से ही हुई, जबकि चरक तथा सुश्रुत जैसे सुप्रसिद्ध आचार्यों ने आयुर्वेद विषयक अपने ज्ञान से संपूर्ण विश्व को आलोकित किया। चरक को कार्यचिकित्सा का प्रणेता कहा जा सकता है। वे कुषाण नरेश कनिष्क प्रथम के राजवैद्य थे।

उनकी कृति चरक संहिता काय चिकित्सा का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रंथ है और महर्षि आत्रेय के उपदेशों पर आधारित है। अलबरूनी ने इसे औषधि शास्त्र का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है। चरक संहिता में 120 अध्याय है। इसमें आठ खंड हैं, जिन्हें स्थान कहा गया है – सूत्र, निदान, विमान, शरीर, इन्द्रिय, चिकित्सा, कल्प तथा सिद्धि। इसमें शरीर रचना, गर्भ स्थिति, शिशु का जन्म तथा विकास, कुष्ठ, मिरगी, ज्वर जैसे प्रमुख आठ रोग, मन के रोगों की चिकित्सा, भेदोपभेद आहार, पेथ्यापथ्य, रुचिकर स्वास्थवर्धक भोज्यों, औषधीय वनस्पतियों आदि का वर्णन किया गया है।

प्राचीन वनस्पति एवं रसायन के अध्ययन का भी यह एक उपयोगी ग्रंथ है। इसमें चिकित्सकों के पालनार्थ जो व्यवसायिक नियम दिये गये हैं, वे हिप्पोक्रेटस के नियमों का स्मरण कराते हैं तथा प्रत्येक समय तथा स्थान के चिकित्सक के लिये अनुकरणीय हैं। इनमें एक वैद्य को दिये गये निर्देश जो वह अपने शिष्यों को प्रशिक्षण समाप्ति के समय देता था उल्लेखनीय है –

यदि तुम अपने कार्य में सफलता, धुन, सम्मान तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हो, तो तुम्हें प्रतिदिन प्रातः उठने पर और सोने से पहले से पहले सभी प्राणियों विशेषकर गो एवं ब्राह्मणों के कल्याण के लिये प्रार्थना करनी चाहिये।तुम्हें सच्चे ह्रदय से रोगी के स्वास्थ्य के लिये प्रयास करना चाहिये।

अपने स्वयं के जीवन के मूल्य पर भी तुम अपने रोगी के साथ धोखा न करो, मद्यपान मत करो, पाप न करो, तुम्हारे मित्र बुरे न हों, तुम मृदुभाषी एवं विचारवान बनो तथा सदैव अपने ज्ञान की वृद्धि के लिये प्रयत्नशील रहो।यदि तुम्हें किसी रोगी के घर जाना पङे तो तुम्हें अपने वचन, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों को उसकी चिकित्सा के अलावा अन्यत्र कही नहीं लगना चाहिये, रोगी के घर की बातों की चर्चा बाहर नहीं करनी चाहिये और न ही रोही की दशा के विषय में उस व्यक्ति को बताना चाहिये जिससे रोगी को कोई हानि पहुंच सके।

चरक संहिता का न केवल भारतीय अपितु संपूर्ण विश्व चिकित्सा के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसका अनुवाद की विदेशी भाषाओं में हो चुका है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र का तो यह विश्वकोश ही है। इसके द्वारा निर्देशित सिद्धांतों के आधार पर ही कालांतर में आयुर्विज्ञान का विकास हुआ।

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चरक के कुछ समय बाद सुश्रुत का आविर्भाव हुआ। यदि चरक कार्य चिकित्सा के प्रणेता थे, तो सुश्रुत शल्य चिकित्सा के। उनके ग्रंथ सुश्रुत संहिता में उपदेष्टा धन्वंतरि हैं और संपूर्ण संहिता सुश्रुत को सम्बोधित करके कही गयी है। इसमें विविध प्रकार की शल्य एवं छेदन क्रियाओं का अतिसूक्ष्म विवरण दिया गया है।

मोतियाबिन्द, पथरी जैसे कई रोगों का शल्योपचार बताया गया है। शविविच्छेदन का भी वर्णन है। सुश्रुत ने शल्य क्रिया में प्रयुक्त होने वाले लगभग 121 उपकरणों के नाम गिनाये हैं, जो अच्छे लोहे के बने होते थे। वे चिकित्सा तथा शल्य विज्ञान में दीक्षित होने वाले छात्रों का विवरण भी प्रस्तुत किया गया है। वे सूइयों तथा पट्टी बांधने की विविध विधियों का भी उल्लेख करते हैं।

चरक के समान सुश्रुत की ख्याति भी विश्वव्यापी थी। गुप्तकाल में भी चरक तथा सुश्रुत के सिद्धांतों को मान्यता मिलती रही तथा उन्हें अत्यन्त सम्मान के साथ देखा जाता था। उनके ग्रंथों को व्यवस्थित करके छठीं शताब्दी के लेखक बाणभट्ट प्रथम ने एक संग्रह प्रस्तुत किया। मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं की चिकिस्ता पर भी ग्रंथ लिखे गये। इसका एक अच्छा उदाहरण पालकाप्य कृत हस्त्यायुर्वेद है। इस विस्तृत ग्रंथ के 160 अध्यायों में हाथियों के प्रमुख रोगों, उनकी पहचान एवं चिकित्सा का वर्णन किया गया है. अनेक शल्य क्रियाओं का भी उल्लेख है।

भारतीय चिकित्सा पद्धति तीन रसों – कफ, वात तथा पित्त के सिद्धांत पर आधारित थी। इनके संतुलित रहने पर ही मनुष्य स्वस्थ रहता था। तीनों रस जीवनी शक्ति माने जाते थे। आहार-विहार के संतुलन पर भी विशेष बल दिया जाता था। स्वच्छ वायु तथा प्रकाश के महत्त्व को भी भली भाँति समझा गया था।

प्राचीन भारतीयों का औषधकोश अत्यन्त विस्तृत था और इसमें पशु, वनस्पतियों तथा खनिज उत्पादन सभी सम्मिलित थे। अनेक एशियाई जङी-बूटियां यूरोप में पहुँचने के पहले से ही यहाँ ज्ञात थी। इनमें विशेष उल्लेखनीय छौलमुग्र वृक्ष का तेल है। जिसे कुष्ठ रोग की औषधि माना जाता था। आज भी इस रोग की चिकित्सा का यही आधार है।

भारत में परोपकारी शासकों एवं धार्मिक संस्थाओं के संरक्षण में चिकिस्ता शास्त्र की यथेष्ठ प्रगति हुई। अशोक जैसा शासक इस बात पर गर्व करता है, कि उसने अपने राज्य में मानव तथा पशु जाति, दोनों की चिकित्सा की अलग-अलग व्यवस्था करवाया था। चीनी यात्री फाह्यान लिखता है, कि यहां धार्मिक संस्थाओं द्वारा औषधालय स्थापित किये गये थे, जहां मुफ्त दवायें वितरित की जाती थी। भारतीय चिकित्सक विविध रोगों के विशेषज्ञ थे।

यद्यपि शवों के संपर्क पर निषेध के कारण शरीर विज्ञान एवं जीव विज्ञान के क्षेत्र में यथेष्ठ प्रगति नहीं हो सकी तथापि भारतीयों ने एक प्रयोगाश्रित शल्य शास्त्र का विकास कर लिया था। प्रसवोत्तर शल्य क्रिया विदित थी, अस्थि संधान में निपुणता प्राप्त कर ली गयी थी तथा चिकित्सक नष्ट, युद्धक्षत अथवा दंड स्वरूप विकृत किये गये नाक, कान एवं होठों को पुनः जोङकर ठीक कर सकते थे।

इस दृष्टि से भारतीय शल्य विज्ञान यूरोपीय शल्य विज्ञान से अठारहवीं शती तक आगे रहा तथा तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी के चिकित्सकों ने भी भारतीयों से इस विद्या को सीखने में गर्व का अनुभव किया।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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