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भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विभिन्न चरण-

अन्य संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य-

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की नींव 1757 के प्लासी के युद्ध बाद पङी, जिसका प्रारंभिक उद्देश्य यहां के उन साधनों को अपने कब्जे में लेना था, जिससे प्राप्त माल इंग्लैण्ड तथा अन्य यूरोपीय देशों में सरलता से बेचा जा सके।

प्लासी के युद्ध से पूर्व जहाँ ब्रिटेन को भारत से वस्तुओं को क्रय करने हेतु भुगतान सोने और चांदी में करना होता था, वहीं इस युद्ध के बाद ब्रिटेन को भुगतान के लिए सोने,चांदी की आवश्यकता नहीं रही, अब वह भुगतान यहीं से वसूले गये धन से करता था।

उपनिवेशवाद का मूल तत्व आर्थिक शोषण में निहित है, परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि एक उपनिवेश पर राजनीतिक नियंत्रण रखना आवश्यक नहीं है, अपितु उपनिवेशवाद का मूल स्वरूप ही आर्थिक शोषण के विभिन्न तरीकों में लक्षित होता है।

प्रसिद्ध विद्वान रजनीपाम दत्त ने अपनी ऐतिहासिक कृति इंडिया टुडे में भारतीय औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का उल्लेखनीय चित्रण किया है जिसमें उन्होंने कार्लमार्क्स के ( भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद और आर्थिक शोषण) तीन चरणों वाले सिद्धांत को आधार बनाया है।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद मुख्यतः तीन चरणों से गुजरा है जो इस प्रकार है-

  • वाणिज्यिक चरण-1757-1813
  • औद्यौगिक मुक्त व्यापार- 1813-1858
  • वित्तीय पूँजीवाद-1860 के बाद

उपनिवेशवाद के प्रथम चरण जिसकी शुरुआत प्लासी के युद्ध के बाद होती है, में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय व्यापार पर पूर्ण रूप से कब्जा कर लिया।

उपनिवेशवाद के प्रथम चरण में कंपनी ब्रिटेन तथा यूरोप के अन्य देशों को कम कीमत पर तैयार भारतीय माल का निर्यात कर अच्छी कीमत वसूलती थी।

उपनिवेशवाद के इस चरण में बंगाल व अन्य प्रांतों से वसूले गये भू-राजस्व के बचे हुए हिस्से से भारतीय माल को खरीदा जाता था और उसे अन्य देशों को अच्छी कीमत पर निर्यात पर निर्यात किया जाता था।

1757 के बाद कंपनी द्वारा भारत से निर्यात किये जाने वाले माल के बदले कुछ भी नहीं लौटाया गया, इस तरह प्रतिवर्ष भारतीय माल और संपत्ति का दोहन होता रहा,परिणाम स्वरूप इंग्लैण्ड अधिक अमीर और भारत अधिक गरीब होता गया।

भारत की लूट और इंग्लैण्ड में पूंजी संचय का ही प्रत्यक्ष परिणाम था कि इंग्लैण्ड औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजरा।

आर.पी.दत्त के अनुसार कंपनी ने 1757 और 1765 के बीच बंगाल के नवाबों से करीब 40 लाख पौण्ड वार्षिक उपहार प्राप्त किया।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद का कृषि पर प्रभाव-

औपनिवेशिक काल से पूर्व भारतीय अर्थव्यवस्था कृषिजन्य अर्थव्यवस्था थी।लेकिन अंग्रेजों ने यहां के परंपरागत कृषि ढांचे को नष्ट कर दिया और अपने फायदे के लिए भू-राजस्व निर्धारण और संग्रहण के नये तरीके लागू किये गये।

प्लासी के युद्ध के पश्चात् बंगाल की दीवानी प्राप्त करने के बाद कंपनी के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 में बंगाल में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर फार्मिंग सिस्टम (इजारेदारी प्रथा) की शुरुआत भू-राजस्व की वसूली के लिए की। क्लाइव के समय में भू-राजस्व का वार्षिक बंदोबस्त होता था जिसे हेस्टिंग्स ने बढकर पांच वर्ष का कर दिया।

क्लाइव के समय में भू-राजस्व का वार्षिक बंदोबस्त होता था जिसे हेस्टिंग्स ने बढकर पांच वर्ष का कर दिया।

फार्मिंग सिस्टम का भूमि को लगान वसूली हेतु ठेके पर दिये जाने की प्रथा का कालांतर में बंगाल पर बुरा प्रभाव पङा,किसानों का शोषण बढा और वे भुखमरी तक पहुंच गये।

गवर्नर जनरल कार्नवालिस के समय एक दस साला बंदोबस्त लागू किया गया, जिसे 1793 में स्थायी बंदोबस्त में परिवर्तित कर दिया गया।

बंगाल,बिहार,उङीसा में प्रचलित स्थायी भूमि बंदोबस्त जमींदारों के साथ किया गया, जिन्हें अपनी जमींदारी वाले भू – क्षेत्र का पूर्ण भू-स्वामी माना गया।

स्थायी भूमि बंदोबस्त या जमींदारी प्रथा –

इसके अंतर्गत समूचे ब्रिटिश भारत के क्षेत्रफल का लगभग 19प्रतिशत हिस्सा शामिल था। यह व्यवस्था बंगाल,बिहार,उङीसा तथा उत्तर प्रदेश के वाराणसी तथा उत्तरी कर्नाटक के क्षेत्रों में लागू था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदार जिन्हें भू-स्वामी के रूप में मान्यता प्राप्त थी, को अपने क्षेत्रों में भू-राजस्व की वसूली कर उसका दसवां अथवा ग्यारहवां हिस्सा अपने पास रखना होता था और शेष हिस्सा कंपनी के पास जमा कराना होता था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत जमींदार काश्तकारों से मनचाहा लगान वसूल करता था और समय से लगान न देने वाले काश्तकारों से जमीन भी वापस छीन ली जाती थी, कुल मिलाकर काश्तकार पूरी तरह से जमींदारों की दया पर होता था।

इस व्यवस्था के लाभ के रूप में कंपनी की आय का एक निश्चित हिस्सा तय हो गया, जिस पर फसल नष्ट होने का कोई असर नहीं पङता था।

दूसरा लाभ स्थायी भूमि बंदोबस्त से यह हुआ कि जमींदार के रूप में कंपनी को एक ऐसे वर्ग का सहयोग मिला जो लंबे समय तक कंपनी के प्रति निष्ठावान बना रहा।

स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था के अंतर्गत जमींदारों की स्थिति अत्यधिक मजबूत हो गई क्योंकि उन्हें भूमि का पूर्णस्वामी स्वीकार कर लिया गया था साथ ही भूमि पर जनसंख्या का दबाव इतना बढ गया था कि लोगों के सामने खेती के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था।

रैय्यतवाङी व्यवस्था-

अंग्रेजों द्वारा भारत में भू-राजस्व वसूली हेतु लागू की गई यह दूसरी व्यवस्था थी जिसका जन्मदाता थामस मुनरो और कैप्टन रीड को माना जाता है।

1792ई. में कैप्टनरीड के प्रयासों से रैय्यतवाङी व्यवस्था को सर्वप्रथम तमिलनाडु के बारामहल जिले में लागू किया गया।

तमिलनाडु के अलावा यह व्यवस्था मद्रास,बंबई के कुछ हिस्से,पूर्वी बंगाल,आसाम,कुर्ग के कुछ हिस्से में लागू की गई।इस व्यवस्था के अंतर्गत कुल ब्रटिश भारत के भू-क्षेत्र का 51 प्रतिशत हिस्सा शामिल था।

रैय्यतवाङी व्यवस्था के अंतर्गत रैय्यतों को भूमि का मालिकाना और कब्जादारी अधिकार दिया गया था जिसके द्वारा ये प्रत्यक्ष रूप से सीधे या व्यक्तिगत रूप से सरकार को भू-राजस्व का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे।

रैय्यतवाङी व्यवस्था में कृषक ही भू-स्वामी होता था जिसे भूमि की कुल उपज का 55 प्रतिशत से 33 प्रतिशत के बीच लगान कंपनी को अदा करना होता था।

इस व्यवस्था के अंतर्गत लगान की वसूली कठोरता से की जाती थी तथा लगान की दर भी काफी ऊंची थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि कृषक महाजनों के चंगुल में फंसता गया जो कालांतर में महाजन और किसानों के मध्य संघर्ष का कारण बना।

रैय्यतवाङी व्यवस्था के मुक्य दो उद्देश्य थे। एक भू-राजस्व की नियमित वसूली और दूसरी रैय्यतों की स्थिति में सुधार, पहला उद्देश्य अवश्य पूरा हुआ लेकिन दूसरा नहीं।

1836ई. के बाद रैय्यतवाङी व्यवस्था में विंगेर और गोल्डस्मिथ द्वारा कुछ सुधार किया गया, अब खेत की उर्वरता और खेती के लिए उपलब्ध साधनों के आधार पर खेती का लगान निश्चित किया गया जिसका रैय्यत और कंपनी दोनों पर अनुकूल प्रभाव पङा।

महालवाङी बंदोबस्त-

स्थायी एवं रैय्यतवाङी व्यवस्था की असफलता के बाद महालवारी व्यवस्था को लागू किया गया।

इस व्यवस्था में भू-राजस्व का निर्धारण महाल या समूचे ग्राम के उत्पादन के आधार पर किया जाता था और महाल के समस्त कृषक भू-स्वामियों के भू-राजस्व का निर्धारण संयुक्त रूप से किया जाता था, जिसमें गांव के लोग अपने मुखिया या प्रतिनिधियों के द्वारा एक निर्धारण समय सीमा के अंदर लगान की अदायगी की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते थे।

महालवारी व्यवस्था ब्रिटिश भारत के कुल क्षेत्रफल के तीस प्रतिशत हिस्से पर लागू थी।इस व्यवस्था के अंतर्गत दक्कन के कुछ जिले,उत्तर भारत (संयुक्त प्रांत) आगरा,अवध,मध्य प्रांत तथा पंजाब के कुछ हिस्से शामिल थे।

महालवारी व्यवस्था बुरी तरह असफल हुई,क्योंकि इसमें लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था, और इसकी विसंगतियों का लाभ उठाकर कंपनी के अधिकारी अपनी जेब भरने लगे, कंपनी को लगान वसूली पर लगान से अधिक खर्च करना पङता था।

इस व्यवस्था का परिमाम ग्रामीण समुदाय के विखंडन के रूप में सामने आया। सामाजिक दृष्टि से यह व्यवस्था विनाशकारी और आर्थिक दृष्टि से विफल हुई।

बंगाल में जूट, पंजाब में गेहूँ, बनारस, बिहार,मध्य भारत व मालवा में अफीम के व्यापार के लिए पोस्ते की खेती बर्मा में चावल जैसे वाणिज्यिक फसलों को कंपनी के शासन काल में उगाया जाता था।

वाणिज्यिक फसलों से जहां व्यापारी वर्ग तथा सरकारी कंपनी को अनेक तरह के लाभ मिलते थे वहीं किसान की इससे गरीबी और बढ गई।

व्यापारी वर्ग खङी फसलों को खेत में ही कम कीमत पर क्रय कर लेता था,किसान अपनी तात्कालिक जरूरतों को पूरा करने के लिए अपनी फसल मंडी में न ले जाकर कटाई के समय खेत में ही बेच देता था।वही अनाज जिसे किसना खेत में ही बेच देता था, को 6महीने बाद वह अधिक कीमत देकर बाजार से क्रय करता था, जो उसकी तबाही का कारण बनता था।

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में चूंकि भारत में औद्योगिक आवश्यकताओं (ब्रिटेन की ) को ही ध्यान में रखकर फसलें उगाई जाती थी, इसलिए खाद्यान्नों की भारी कमी होने लगी, अकाल पङने लगे, जिससे व्यापक तबाही हुई।

कंपनी शासन से पूर्व भारत में पङने वाले अकाल का कारण धन का अभाव न होकर यातायात के साधनों का अभाव होता था,लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में पङने वाले अकाल के लिए ब्रिटिश औद्योगिक एवं कृषि नीति जिम्मेदार थी।

खाद्यान्नों की कमी के कारण 1866-67 में उङीसा में पङे भयंकर अकाल को 19वी. शता.के अकालों में आपदा का महासागर कहा जाता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि कृषि के वाणिज्यिकीरण से भारत में गरीबी बढी, अकाल पङे,कुछ हद तक अर्थव्यवस्था को मौद्रीकरण हुआ, गांवों का शहरों से संपर्क बढा और नयो शोषणपूर्ण श्रम-संबंधों की शुरुआत हुई।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रथम चरम को पर्सीवल स्पीयर ने खुली और बेशर्म लूट कहा ।

वणिकवाद के अंतिम चरण की महत्त्वपूर्ण घटना थी, 1813 के चार्टर अधिनियम द्वार कंपनी के व्यापारिक अधिकार को समाप्त कर देना।

1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट,1784 के पिट्स इंडिया एक्ट और एडम स्मिथ की पुस्तक वेल्थ ऑफ नेशन्स में व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर ब्रिटेन के उभरते हुए नये औद्योगिक वर्ग ने 1813 में कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त करके मुक्त व्यापार के द्वारा खोल दिये, जिसके परिणामस्वरूप भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद का दूसरा चरण प्रारंभ हुआ।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दूसरे चरण में जिसे औद्योगिक मुक्त व्यापार(1813-1858) का चरण कहा जाता है, में भारत को ब्रिटिश माल के आयात का मुक्त बाजार बना दिया गया।

1813 में कंपनी का भारत में व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया तथा 1833 में कंपनी की समस्त वाणिज्यिक गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया।

1833 के बाद भारत के सभी शहर,कस्बे,गांव, जंगल, खाने, कृषि उद्योग तथा जनसंख्या का विशाल समुदाय ब्रिटिश संसद द्वारा ब्रिटिश पूंजिपतियों के मुक्त प्रयोग के लिए खुला छोङ दिया गया।

ब्रिटिश उपनिवेशवाद के इस चरण में भारत का उपयोग ब्रिटेन की मशीन निर्मित वस्तुओं के एक बाजार के रूप में तथा ब्रिटेन पर निर्भर एक ऐसे उपनिवेश के रूप में करना चाहता था जो ब्रिटेन के उद्योगों के लिए कच्चे माल और खाद्यान्नों का उत्पादन एवं पूर्ति करे।

अनौद्योगीकरण-(औद्योगिक मुक्त व्यापार)

भारत में 1800 से 1850 के बीच के समय को अनौद्योगीकरण या विऔद्योगिकरण के नाम से जाना जाता है। अनौद्योगिकरण के इस दौर में जहां ब्रिटेन औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहा था वहीं भारत में औद्योगिक पतन का दौर चल रहा था।

औद्योगिक क्रांति के इस दौर में भारतीय परंपरागत हस्तशिल्प उद्योग का हास हुआ। जिसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था अधिकाधिक विदेशी अर्थव्यवस्था के आधिपत्य में आ गई।

अमरीकी अर्थशास्री मॉरिश डी.मॉरिस के अनुसार औद्योगिक क्रांति के बाद का यह बदलाव अपरिहार्य था, जहाँ औद्योगिक क्रांति के बाद इंग्लैण्ड के पतनशील हस्तशिल्प उद्योग बङे कारखाने और उद्योगों में अपने को खपा कर स्वयं की क्षतिपूर्ति कर ली वहीं भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ, 1856-60 के दशक में भारत में कारखानों का अस्तित्व ही नहीं था।

1765-1785 के बीच इंग्लैण्ड में हरग्रीब्ज ने कताई की मशीन,जेम्सवाट ने भाप का इंजन,आर्कराइट ने वाटरफ्रेंम क्रॉम्पटन ने म्यूल तथा कार्टराइट ने पावरलूम का आविष्कार किया।

18वी.शता.के यह सभी आविष्कार अपेक्षित शक्ति के अभाव में तब तक अपेक्षित थे, जब तक कि भारत की लूट से संचित पूंजी व्यापक पैमाने पर इंग्लैण्ड नहीं पहुंच जाती।

परंपरागत भारतीय हस्तशिल्प उद्योग के पतन का गवर्नर-जनरल बैंटिक की सरकार ने कहा कि इस दुर्दशा का व्यापार के इतिहास में जोङ नहीं,भारतीय बुनकरों की हड्डियां भारत के मैदान में बिखरी पङी हैं।

भारत में हस्तकला और उद्योगों के पतन ने भारी निर्धनता और बेरोजगारी को जन्म दिया,इसलिए 19वी.सदी के अंत तक भारत में आधुनिक आधार पर औद्योगीकरण की आवश्यकता राष्ट्रीय आवश्यकता बन गई।

कार्लमार्क्स के अनुसार यह अंग्रेज घुसपैठिया था जिसने भारतीय खड्डी और चरखे को तोङ दिया।पहले इंग्लैण्ड ने भारतीय सूती माल को यूरोपीय मंडियों से बाहर किया और फिर भारत में जो सूतीमाल की मांग थी, में सूती माल की बाढ ला दी।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि कंपनी तथा ब्रिटिश पूँजीपतियों ने मिलकर भारतीय हस्तशिल्प उद्योग को पूर्णतःनष्ट कर दिया।करघा और चरखा जो पुराने भारतीय समाज की धुरी के रूप में प्रसिद्ध थे,को तोङ डाला तथा भारतीय बाजारों को लंकाशायर और मैनचेस्टर में निर्मित कपङों से भर दिया।

भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के तीन चरण को वित्तीय पूँजीवाद(1860 के बाद) के नाम से जाना जाता है।

1857 का विद्रोह औपनिवेशिक नीतियों के विरुद्ध भारतीय लोगों,विशेष रूप से किसानों के रोष की सशक्त अभिव्यक्ति थी, विद्रोह के बाद ब्रिटेन और भारत के रुढिवादी प्रतिक्रियावादी तत्वों में मेल मिलाप हो गया।

इन तत्वों की वाणिज्यिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सङकों और रेलों, डाक और तार,बैंक तथा अन्य सेवाओं का विकास प्रारंभ हुआ, जिसमें अंग्रेजों को पूंजी निवेश के अवसर मिले।

अंग्रेज पूंजीपति भारत में पूंजीनिवेश के लिए इसलिए आतुर था क्योंकि वह अपनी अतिरिक्त पूंजी को सुरक्षित तरीके से यहां नियोजित कर सकता था,उपनिवेश में मजदूरी सस्ती होने के कारण अच्छा मुनिाफा कमा सकता था।

 साथ ही गृह उद्योग के लिए सस्ता कच्चा माल भी निरंतर प्राप्त कर सकता था,इन्हीं उद्देश्यों से प्रेरित होकर भारत में 1860 के बाद ब्रिटिश उपनिवेश का तीसरा चरण वित्तीय पूंजीवाद प्रारंभ हुआ।

19वी.सदी के मुक्त व्यापार से उत्पन्न अंतर्विरोधों और 1857 के विद्रोह के परिणामों ने अंग्रेजों द्वारा भारत में बङे पैमाने पर पूँजी निवेश की शुरुआत हुई। पूंजी निवेश वाले प्रमुख क्षेत्र थे सरकार को ऋण,रेल-निर्माण, सिंचाई परियोजनाएं,चाय,कॉफी और रबङ के बाग, कोयला,खानें,जूट मिलें,जहाजरानी,बैकिंग आदि।

औपनिवेशिक काल के तृतीय चरण में सर्वाधिक पूंजीनिवेश सार्वजनिक ऋण के क्षेत्र में किया गया।

ब्रिटिश पूंजी निवेश का दूसरा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र भारत  में रेल-निर्माण था। रेलवे का निर्माण लाभ की गारंटी व्यवस्था पर आधारित था अर्थात् रेल निर्माण में ब्रिटेन का कोई पूंजीपति जितनी पूंजी लगाता था उस पर सरकार से पांच प्रतिशत ब्याज की गारंटी मिलती थी।

अंग्रेजों द्वारा भारत में रेल निर्माण का प्रधान उद्देश्य था भारत के कच्चे माल को देश के अंदर के हिस्सों से बंदरगाहों तक ले जाना।

 रेलवे निर्माण का दूसरा उद्देश्य था सेना को दूर-दराज के क्षेत्रों तक पहुंचाना ताकि ब्रिटिश शासकों के प्रति होने वाले किसी भी विद्रोह को सरलता से कुचला जा सके।

भारत में रेल निर्माण की दिशा में प्रथम प्रयास 1846 में लार्ड डलहौजी द्वारा किया गया।प्रथम रेलवे लाइन को 1853 में बंबई से थाणे के बीच डलहौजी के समय में बिछाया गया।

1900 के करीब (कर्जन के समय) भारत में रेलवे लाइन का सर्वाधिक वस्तार हुआ।

अंग्रेजों द्वारा वाणिज्यिक और सामरिक उद्देश्यों से भारत में बिछायी गई रेल को कार्ल मार्क्स ने आधुनिक युग का अग्रदूत कहा उसके अनुसार आप एक बङे देश में रेल का जाल बिछा उसके उद्देश्यों को बढाने का अवसर दिये बिना नहीं बिछा सकते, इसलिए रेलवे व्यवस्था ही भारत के आधुनिक उद्योग का अग्रदूत बन जायेगी।

ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के तृतीय चरण में भारतीयों द्वारा भी कुछ भारतीय उद्योगों में पूंजी लगाई गई।भारतीय उद्योगों में सूतीवस्र पहला उद्योग था जिसमें भारतीयों द्वारा पूंजी लगाई गई।

इस समय गुजरात और बंबई का महत्त्वपूर्ण सूती वस्र के केन्द्र के रूप में विकास हुआ।

सूतीवस्र की प्रथम मिल 1853 में बंबई में कावसजी नानाभाई के प्रयासों से हुई।19004-5 तक भारत में कुल करीब 266 कपङा मिलें स्थापित हो गई।भारत के कपङा उद्योग को 20वी. सदी. के स्वदेशी आंदोलन ने  प्रोत्साहित किया।

बंगाल के सिरसा नामक स्थान पर भारत की पहली जूट मिल की 1855 में स्थापना हुई।भारतीय औद्योगीकरण की दिशा में भारतीय पूँजी से निर्मित टाटा आयरन एण्ड स्टील कंपनी (1907) एक अन्य महत्त्वपूर्ण प्रयास था।

भारतीय पूँजी का प्रयोग ज्वाइंट बैंकों में भी हुआ,जिनका मुख्य उद्देशेय था व्यापारिक तथा अन्य गतिविधियों के लिए पैसा उधार देना। इस क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण बैंक इस प्रकार थी- पंजाब नेशनल बैंक(1895),बैंक ऑफ इंडिया (1906),इंडियन बैंक(1907), सेन्ट्रल बैंक(1911), दी बैंक ऑफ मैसूर (1913) आदि।

प्रथम विश्वयुद्ध (1914) का प्रभाव भारतीय उद्योगों पर अच्छा रहा,युद्ध के दौरान साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा  में कमी आई, क्योंकि वे सभी शक्तियाँ युद्ध में व्यस्त रही।

युद्ध के दौरान देश में बने सामानों को देश के अंदर और देश के बाहर एक बङी मंडी प्राप्त हुई, युद्ध के दौरान ठेके मिले,कच्चामाल सस्ते में मिला तथा उत्पादित माल की ऊंची कीमतें मिली।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान सर्वाधिक लाभ भारतीय बुर्जआजी वर्ग को मिला जिसमें प्रमुख नाम जमशेदजी टाटा का है।

विश्व युद्ध ( प्रथम ) की समाप्ति पर हार्डिंग महोदय 1916 में सर थॉमस हालैण्ड के नेतृत्व में एक भारतीय औद्योगिक आयोग की स्थापना की।

1947 में देश की आजादी के समय भारत की स्थिति, जो एक समय एशिया का अन्न भंडार हुआ करता था आज विश्व का निर्धनतम देश बन गया था।

दादाभाई नौरोजी को प्रति व्यक्ति आय का अनुमान लगाने वाला प्रथम राष्ट्रवादी नेता माना जाता है।

राष्ट्रीय आय का प्रथम वैज्ञानिक आंकलन डॉ.वी.के.आर.वी.राव ने किया।

धन का बहिर्गमन-

भारत की बढती हुई निर्धनता की कीमत पर अपने को संपन्न बनाने के लिए ब्रिटेन द्वारा भारत के कच्चे माल,संसाधनों और धन को निरंतर लूटमार की पृष्ठभूमि को दादाभाई नौरोजी और रानाडे जैसे राष्ट्रविदों ने धन के बहिर्गमन या निष्कासन की संज्ञा दी।

भारतीय धन के बहिर्गमन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस दिशा में प्रथम प्रयास दादा भाई नौरोजी ने किया।उन्होंने 2मई,1867 को लंदन में आयोजित ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की बैठक में अपने पेपर जिसका शीर्षक था Englands Debt to India को पढते हुए पहली बार धन के बहिर्गमन सिद्धांत को प्रस्तुत किया।

कालांतर में दादाभाई नौरोजी ने अपने कुछ अन्य निबंधात्मक लेखों जैसे पावर्टी एंड अन ब्रिटिश रूल इन इंडिया(1837) द वॉन्ट्स एंड मीन्स ऑफ इंडिया (1870) और ऑन दी कामर्स ऑफ इंडिया (1871) द्वारा धन निष्काशन सिद्धांत की व्याख्या की।

दादा भाई नौरोजी धन के बहिर्गमन के सिद्धांत के सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रखर प्रतिपादक थे।1905 में उन्होंने कहा कि धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जङ है और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण है।

धन का बहिर्गमन के बारे में एक अन्य राष्ट्रवादी नेता महादेव गोविंद रानाडे ने 1872 में पुणे में एक व्याख्यान के दौरान भारतीय पूंजी और संसाधनों के बहिर्गमन की आलोचना करते हुए कहा कि राष्ट्रीय पूँजी का एक तिहाई हिस्सा किसी न किसी रूप में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत के बाहर ले जाया जाता है।

दादाभाई नौरोजी ने धन के निष्कासन को अनिष्टों का अनिष्ट की संज्ञा दी। नौरोजी के अनुसार भारत का धन बाहर जाता है और फिर वही धन भारत में ऋण के रूप में आ जाता है और इस ऋण के लिए और अधिक ब्याज, एक प्रकार का यह ऋण कुचक्र से बन जाता है।

दादाभाई ने भारतीयों को उनके देश में विश्वास तथा उत्तरदायित्वपूर्ण पदों से वंचित करने की ब्रिटिश नीति को नैतिक निकास की संज्ञा दी।

प्रसिद्ध अर्थशास्री तथा राष्ट्रवादी नेता रमेश चंद्र दत्त ने अपनी पुस्तक इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया(1901) में धन के बहिर्गमन का उल्लेख किया। उनके अनुसार भारत के सकल राजस्व का लगभग आधा हिस्सा प्रतिवर्ष बाहर जाता है।

आर.सी.दत्त ने धन के निष्कासन के दुष्परिणामों को नादिरशाह जैसे विदेशी आक्रांताओं द्वारा की गई लूटमार से भी अधिक घातक बताया, उनके अनुसार यह प्रक्रिया अनवरत है और वर्ष दर वर्ष बढती जाती है।

दत्त महोदय ने धन के बर्हिगमन को एक बहते हुए घाव की तरह बताया।

आर.सी.दत्त की पुस्तक इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इंडिया को भारत के आर्थिक इतिहास पर पहली प्रसिद्ध पुस्तक माना जाता है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अपने कलकत्ता अधिवेशन(1896) में सर्वप्रथम धन के निष्कासन सिद्धांत को स्वीकार किया।

1901 में इम्पीरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बजट पर भाषण करते हुए गोपाल कृष्ण गोखले ने धन के बहिर्गमन सिद्धांत को प्रस्तुत किया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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