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राजा राममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में सुधार

राजा राममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में सुधार

राजा राममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षिक सुधार- (Reforms in the religious, social and educational sector of Raja Ram Mohan Roy)

राजा राममोहन राय ने धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक क्षेत्र में उन सुधारों के लिए कार्य किया जिससे आधुनिक स्वस्थ भारत का निर्माण हुआ। उन्होंने इन सुधारों के लिए कठिन प्रयास किये –

राजा राममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षिक क्षेत्र में सुधार

राजा राममोहन राय के धार्मिक सुधार

राजा राममोहन राय ने हिन्दू धर्म में अनेक अंधविश्वास एवं कुरीतियाँ देखी। उन्होंने धर्म में सत्य की तलाश की। उन्होंने ईसाई धर्म, इस्लाम धर्म और हिन्दू धर्म का अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सभी धर्मों में एकेश्वरवाद का सिद्धांत प्रचलित था। राजा राममोहन राय सभी धर्मों को आदर की दृष्टि से देखते थे। वे किसी धर्म के प्रति कोई द्वेष नहीं रखते थे। मुसलमान उनको एक मुसलमान समझते, ईसाई उनको एक ईसाई समझते थे तथा हिन्दू वेदांती समझते थे। राजा राममोहन राय वास्तव में मौलिक सत्य एवं सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे।

राजा राममोहन राय कोई पैगंबर नहीं थे, वह तो केवल एक धर्म सुधारक थे जो सत्य तथा शुद्ध धर्म को संरक्षित रखना चाहते थे तथा झूठ व अंधविश्वास को दूर करना चाहते थे।

राजा राममोहन राय ने धार्मिक में निम्नलिखित सुधार किये

हिन्दू धर्म में सुधार करने का प्रयत्न – राजा राममोहन राय हिन्दू धर्म की बुराइयों को दूर करके उसे प्रगतिशील बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने मूर्तिपूजा, अवतारवाद, बहुदेववाद, तीर्थयात्रा आदि का विरोध किया और एकेश्वरवाद का प्रचार किया। उन्होंने निर्गुण एवं निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया।

धार्मिक सहिष्णुता पर बल देना – राजा राम मोहन राय ने धार्मिक सहिष्णुता के बल दिया। वे धार्मिक कट्टरता के विरोधी थे। वे सभी धर्मों का सम्मान करते थे। वे न केवल वेदान्त का, अपितु कुरान तथा बाइबल का भी सम्मान करते थे। उनकी मान्यता थी कि सभी धर्मों में सत्य है तथा अच्छाइयाँ हैं। उन्होंने एक विश्व-धर्म की स्थापना पर बल दिया।

ईसाइयत का विरोध – राजा राममोहन राय ईसाई धर्म से प्रभावित थे, परंतु वे ईसाइयत के विरुद्ध थे। उन्होंने ईसाई धर्म की केवल श्रेष्ठ और व्यावहारिक शिक्षाओं को अपनाने की प्रेरणा दी। वे हिन्दू धर्म को आधुनिक समय के अनुकूल बनाना चाहते थे ताकि ईसाइयत का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया जा सके।

राजा रामोहन राय का कहना था कि यह स्वाभाविक बात है कि जब एक जाति दूसरी जाति पर विजय प्राप्त करती है, तो उसका अपना धर्म चाहे कितना ही हास्यास्पद हो परंतु वह पराजित जाति के धर्म का उपहास करती है। इसलिए यदि आज ईसाई धर्म प्रचारक भारतीयों के धर्म की निन्दा करते हैं, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

मूर्ति पूजा का विरोध – राजा राममोहन राय ने मूर्ति पूजा का घोर विरोध किया। उन्होंने मूर्ति पूजा की कटु आलोचना की। उनका कहना था कि मूर्ति पूजा को वेदों तथा उपनिषदों में भी कोई मान्यता नहीं है।

ब्रह्म समाज की स्थापना – राजा राममोहन राय ने हिन्दू समाज एवं धर्म में फैली हुई कुरीतियों को दूर करने के लिए तथा अपने विचारों का प्रचार करने के लिए 20 अगस्त, 1828 को कलकत्ता में ब्रह्म समाज की स्थापना की। ब्रह्म समाज भवन के दस्तावेज में यह उल्लेख है कि सभी लोग बिना किसी भेदभाव के शाश्वत सत्ता की उपासना के लिए इस भवन का प्रयोग कर सकते हैं। इसमें न किसी प्रकार की मूर्ति की स्थापना, न किसी प्रकार का बलिदान और न किसी धर्म की निन्दा की जायेगी।

इसमें केवल ऐसे ही उपदेश दिए जायेंगे जिनसे सभी धर्मों के बीच एकता, सद्भभाव की वृद्धि हो। ब्रह्म समाज मूलतः भारतीय था और इसका आधार वेद तथा उपनिषद थे।

सामाजिक सुधार

राजा राममोहन राय ने सामाजिक क्षेत्र में भी अनेक सुधार किए। उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए अनेक कार्य किये।

स्त्रियों की दशा में सुधार

अ.) सती प्रथा का अंत – राजा राम मोहन राय ने सामाजिक क्षेत्र में सबसे अधिक सुधार कार्य स्त्रियों की दशा में किया। स्त्रियों की दशा उस समय बहुत गिरी हुई थी। विवाहिता स्त्रियों को उनके पति की मृत्यु होने पर उसके पति के साथ ही चिता पर जीवित जला दिया जाता था। इसे सती प्रथा कहते थे। इस प्रथा के अनुसार पत्नी की इच्छा के विरुद्ध पत्नी को जबरन पति की चिता पर रख कर अग्नि को समर्पित कर दिया जाता था।

पत्नी के रोने चिल्लाने की आवाज को दबाने के लिए ढोल-नगारे बजाये जाते थे। उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए मंच तथआ समाचार पत्र दोनों के माध्यम से प्रचार किया, लेकिन राम मोहनराय के इन विचारों का इतना विरोध किया गया कि उनका स्वयं का जीवन ही खतरे में पङ गया, परंतु राजा राममोहन राय अपने विरोधियों के कार्यों से तनिक भी विचलित नहीं हुए।

परिणामस्वरूप लार्ड विलियम बैंटिक ने सन 1829 में सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रतिबंध के विरोधास्वरूप रूढिवादी लोगों ने इंग्लैण्ड की प्रिवी काउन्सिल में अपील की, लेकिन वहाँ यह अपील रद्द कर दी गयी। इस प्रकार सती प्रथा का अंत कराकर राजा राममोहन राय विश्व के मानव सुधारकों की प्रथम पंक्ति में आ गये।

ब.) बहु विवाह का विरोध – पुरुष पर कोई प्रतिबंध नहीं था, चाहे वह कितनी ही स्त्रियों से शादी कर ले। इसने स्त्रियों की दशा को बहुत ही दयनीय बना दिया था। स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार तो था नहीं। स्त्रियाँ प्रायः शादी के बाद पति पर ही उसकी इच्छाओं के अनुकूल रहने के लिए बाध्य थी। राजा राममोहन राय ने बहुविवाह के विरुद्ध आवाज उठाई जिससे धीमे-धीमे इस प्रकार का वातावरण तैयार हुआ जिसमें बहुविवाह हतोत्साहित किए गए।

स.) विधवा विवाह का समर्थन – राजा राममोहन राय के समय में तो पत्नी को पति की मृत्यु पर उसकी चिता में उसके साथ ही जला दिया जाता था। अतः विधवा की उपस्थिति तथा उसके पुनः विवाह का कोई प्रश्न ही नहीं था। सती प्रथा की समाप्ति पर विधवाओं की समस्याएँ सामने आई। राजा राममोहन राय ने देखा कि विधवाओं का पुनः विवाह करके उनकी सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है। अतः उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह की आवाज उठाई।

बाल-विवाह का विरोध तथा अन्तर्जातीय विवाह की वकालत करके भी राजा राममोहन राय ने भारतीय नारियों की दशा सुधारने के लिए कार्य किया।

स्त्री शिक्षा की वकालत – स्त्रियों में शिक्षा के अभाव होने के कारण ही स्त्रियों की ऐसी हीन दशा थी। उन्होंने लङकियों तथा स्त्रियों की शिक्षा के प्रसार के लिए पर्याप्त कदम उठाये।

स्त्रियों के पैतृक संपत्ति के अधिकार के समर्थन में आवाज उठाने वाले राजा राममोहन राय पहले व्यक्ति थे। यद्यपि राजा राममोहन राय सती प्रथा की समाप्ति कराने का ठोस कार्य नहीं कर पाये थे तथापि उन्होंने स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के लिए प्रयत्न करके, इस प्रकार के सुधारों को आगे ठोस रूप देने के लिए उन्होंने उपयुक्त वातवारण एवं मार्ग तैयार किया।

जाति प्रथा का विरोध – राजा राममोहन राय ने जाति प्रथा का घोर विरोध किया। वे जातीय भेद भाव तथा ऊंच-नीच की भावना को समाज के पतन के लिए उत्तरदायी मानते थे। अतः उन्होंने जाति प्रथा तथा ऊंच-नीच के भेद भाव का विरोध किया और सामाजिक समानता पर बल दिया।

शिक्षा के क्षेत्र में सुधार

शिक्षा के क्षेत्र में राजा राममोहन राय ने अकथनीय एवं प्रशंसनीय कार्य किये। वह शिक्षा में आधुनिकता लाने के प्रबल समर्थक थे। वे हिन्दू शिक्षा को यूरोपीय शिक्षा के वैज्ञानिक आदर्श पर संगठित करना चाहते थे। उनका विश्वास था कि पश्चिमी राष्ट्रों की उन्नति का कारण उनकी गणित, रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र, जीवशास्त्र आदि उपयोगी विज्ञानों में उनकी शिक्षा थी।

अतः उन्होंने इस बात पर बल दिया कि भारतवासियों को भी अपनी शिक्षा पद्धति को आधुनिक विज्ञान के अनुकूल बनाना चाहिए। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा के अध्ययन पर बल दिया क्योंकि उनका विश्वास था कि अंग्रेजी भाषा के अध्ययन से भारतीयों का दृष्टिकोण उदार तथा विस्तृत होगा और उन्हें परंपरागत रूढियों तथा अंधविश्वासों से मुक्ति मिलेगी। सन 1817 ई. में पाश्चात्य शिक्षा को अपना समर्थन प्रदान करने के लिये कलकत्ता में हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। इसके अलावा उन्होंने इंग्लिश स्कूल तथा वेदांत कॉलेज की भी स्थापना की।

राजनीतिक क्षेत्र में सुधार

राजनीतिक क्षेत्र में देशवासियों के लिए स्वतंत्रता की माँग करके उन्होंने अपने को एक देशभक्त के रूप में प्रदर्शित किया। सन 1819 में उन्होंने एक बंगाली समाचार पत्र प्रारंभ किया जो कि भारतीय समाचार पत्रों का जनक है। उन्होंने अपने देश के जनमत को शिक्षित किया। 1831 से 1833 तक अपने इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान राजा राममोहन राय ने ब्रिटिश भारत में प्रशासनिक सुधारों के लिए आंदोलन किया। उन्होंने भारतीय प्रशासन के सभी विभागों के लिए व्यावहारिक सुझाव दिए। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को भी शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने के सुझाव दिए।

राजा राममोहन राय भारत की स्वतंत्रता के समर्थक थे। विपिनचंद्र पाल का कथन है कि राजा राम मोहन राय पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता का संदेश दिया। वे चाहते थे कि भारत में शीघ्र ही प्रजातंत्रात्मक शासन की स्थापना हो और वह विश्व के अन्य स्वतंत्र राष्ट्रों के समक्ष खङा हो सके।

सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार राजा राम मोहन राय भारत में संवैधानिक आंदोलन के जनक थे।

राजा राम मोहन राय ने भारत से धन निष्कासन का भी विरोध किया और सुझाव दिया कि भारत से पूँजी इक्ट्ठी करने वाले यूरोपियनों को भारत में ही बस जाना चाहिए।

उन्होंने प्रेस तथा भाषण की स्वतंत्रता बनाए रखने पर बल दिया। उन्होंने शिक्षित भारतीयों को उच्च पदों पर नियुक्त करने, न्याय और प्रशासन विभागों को अलग-अलग करने, लगान कम करने, प्रशासनिक व्यय कम करने आदि पर बल दिया।

साहित्यिक क्षेत्र में सुधार

राजा राम मोहन राय ने साहित्यिक क्षेत्र में भी अपना योगदान दिया। वह कई भाषाओं के ज्ञाता थे तथा कई भाषाओं में उन्होंने प्रचुर मात्रा में लिखा। उनको आधुनिक बंगाली गद्य के जनकों में से एक माना जाता है। उन्होंने संक्षिप्त वेदान्त नामक पुस्तक में वेदांत का संग्रह प्रकाशित किया और चार उपनिषदों ईश, केन, मुण्डक तथा कठ का अनुवाद अंग्रेजी तथा बंगाली दोनों भाषाओं में प्रकाशित किया। उन्होंने फारसी भाषा में तुहफतुल मुवाहिदीन नामक पुस्तक की रचना की।

1849 में उन्होंने सम्वाद कौमुदी के नाम से बंगला भाषा में साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन किया।

इस प्रकार राजा राममोहन राय के धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षिक सुधार कार्यों के कारण भारतीय समाज में काफी क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलते हैं।

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