अलाउद्दीन खिलजीइतिहासखिलजी वंशमध्यकालीन भारत

अलाउद्दीन खिलजी की द्वारसमुद्र की विजय

द्वारसमुद्र की विजय – वारंगल से लौटने पर काफूर दक्षिणी प्रायद्वीप से भली-भाँति परिचित हो चुका था। धीरे-धीरे उसने द्वारसमुद्र और मावर की धन संपन्नता की जानकारी प्राप्त की। होयसल राज्य पर बल्लाल तृतीय का शासन था। उसके राज्य का विस्तार कांगू प्रदेश, कोंकण के क्षेत्र और समस्त वर्तमान मैसूर राज्य तक था। उन्हीं दिनों होयसल और यादवों में घोर संघर्ष जारी था और वे एक दूसरे के विनाश के लिये उतावले थे। इसी भावना ने दोनों को शक्तिहीन भी बना दिया। जब काफूर की सेना ने होयसल राज्य पर आक्रमण किया उस समय वीर बल्लाल पांड्य राज्य के गृहयुद्ध में वीर पांड्य की सहायता करने के लिये दक्षिण की ओर गया हुआ था। इधर सुल्तान अलाउद्दीन की महत्वाकांक्षा दक्षिण में प्राप्त हुई अन्य सफलताओं से बहुत बढ चुकी थी। वह सुदूर दक्षिण में भी प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। इसीलिए 1310 ई. में मलिक काफूर को होयसल राज्य पर आक्रमण के लिये भेजा गया। लगभग ढाई महीने के सफर के बाद वह देवगिरि पहुँचा। रामचंद्र ने अपने धन-धान्य से उसकी पूरी सहायता की। हर प्रकार की सामग्री दिल्ली सेना को दी गयी और अपने सैनिकों के द्वारा सुल्तान की सेना का मार्ग प्रशस्त किया। बरनी तथा फरिश्ता के अनुसार रामचंद्र उस समय मर चुका था और उसके बेटे ने सुल्तान की सेना को सहायता दी थी।किंतु अमीर खुसरो और इसामी स्वीकार करते हैं कि यादव राजा रामचंद्र जीवित था। इसामी के कथनानुसार रामचंद्र को अलाउद्दीन ने अलप खाँ की पुत्री के साथ खिज्र खाँ के विवाह में आमंत्रित किया। इस अवसर पर रामचंद्र उपस्थित भी हुआ था। रामचंद्र का काफूर को सहायता देने का अन्य कारण यह भी था कि होयसल शासक (बल्लाल तृतीय) ने कई बार यादव राज्य पर आक्रमण किया और उसे हानि पहुँचाई। काफूर के आक्रमण की सूचना पाकर बल्लाल राजधानी लौट आया, उसने युद्ध में हार जाने पर वार्षिक कर देने के आधार पर संधि की और मलिक काफूर ने माबर के मार्ग की जानकारी भी प्राप्त की। अमीर खुसरो के अनुसार बल्लाल ने अपने राज्य का थोङा सा भाग सुल्तान को भी दिया। कुछ लेखकों का यह भी मत है कि मलिक काफूर की इस विजय से इस्लाम दक्षिण प्रदेश में पूरी तरह स्थापित हो गया और द्वारसमुद्र में एक मस्जिद भी बनवाई। किंतु आज यह तथ्य कल्पित जान पङता है क्योंकि वह द्वारसमुद्र में केवल दो सप्ताह ही ठहरा था और इतने थोङे समय में मस्जिद बन जाना संभव ही नहीं था।

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