इतिहासराजस्थान का इतिहास

कुम्भा की कठिनाइयाँ

कुम्भा की कठिनाइयाँ – मोकल की हत्या के बाद अपने स्वामिभक्त सरदारों की सहायता से कुम्भा मेवाङ का राणा तो बन गया, परंतु उसके सामने अनेक आंतरिक तथा ब्राह्य कठिनाइयाँ उपस्थित थी। राणा मोकल के समय ही मालवा, गुजरात और नागौर के मुस्लिम शासकों ने मेवाङ के क्षेत्र को हथियाने के प्रयास शुरू कर दिये थे और पङौसी राजपूत शासकों ने भी मेवाङ के सीमान्त क्षेत्रों को हङपना शुरू कर दिया था। मोकल की हत्या तथा कुम्भा की अवयस्कता का लाभ उठाते हुए मेवाङ के कुछ सरदारों ने भी राणा की प्रभुसत्ता से मुक्त होने का प्रयास शुरू कर दिया था। वस्तुतः मेवाङ के सरदारों में दलबंदी उत्पन्न हो गयी थी।

कुम्भा की कठिनाइयाँ

महाराणा क्षेत्रसिंह की अवैध संतान – चाचा व मेरा तीन पीढियों से मेवाङ के शासकों के समय में बङे शक्तिशाली बनते जा रहे थे। महपा पंवार तथा कुछ अन्य सरदार भी उनके साथ मिल गये थे। परंतु वंश परंपरा से सम्मानित पुराने सरदारों को चाचा-मेरा-महपा गठबंधन की बढती हुई शक्ति नापसंद थी। किसी कारणवश वे प्रकट रूप में इस गठबंधन का विरोध करने में हिचकते रहे। परंतु जब इस गिरोह द्वारा मोकल की हत्या कर दी गयी तो महाराणा कुम्भा को इस दल के विरुद्ध कदम उठाना आवश्यक हो गया। क्योंकि इस दल के मुख्य नेता अपने अनुयायियों सहित दक्षिण के पाई के पहाङों की ओर छिप गये और गुप्त रूप रूप से उस क्षेत्र के भीलों को अपनी ओर मिलाने का प्रयास करने लगे थे। अब यदि कुम्भा तत्काल कोई कदम नहीं उठा पाता तो मेवाङ के सरदारों के कई दलों में विभाजित हो जाने तथा चाचा-मेरा-महपा गठबंधन की शक्ति के बढ जाने की संभावना थी। परंतु कुम्भा तत्काल कोई कदम नहीं उठा पाया। कुम्भा के पिता का मामा रणमल भी इस समय अपनी राजधानी मंडौर छोङने की स्थिति में न था क्योंकि गुजरात का सुल्तान अहमदशाह इस समय मारवाङ के क्षेत्र में से होकर नागौर जा रहा था। नागौर से अहमदशाह की वापसी के बाद ही रणमल चित्तौङ जा सका और तब कुम्भा और रणमल ने मिलकर चाचा और मेरा के विरुद्ध कदम उठाने की योजना बनाई होगी। इससे स्पष्ट है कि कुछ समय तक मोकल के हत्यारों को परेशान नहीं होना पङा। रणमल के नेतृत्व में राठौङ सेना और राघवदेव के नेतृत्व में सिसोदिया सेना दोनों को संयुक्त रूप से चाचा और मेरा के विरुद्ध भेजा गया। इस संयुक्त सेना ने चाचा और उसके साथियों को घेर लिया परंतु छः महीने की घेराबंदी के बाद भी संयुक्त सेना को उल्लेखनीय सफलता नहीं मिल पाई। अंत में गमेती भील के पुत्रों की सहायता से सफलता हाथ लगी। चाचा और मेरा मारे गये परंतु महपा और चाचा का लङका अक्का भाग निकले। रणमल ने उसका पीछा किया परंतु वे लुकते-छिपते मालवा की सल्तनत में पहुँच गये जहाँ चूण्डा और अज्जा पहले से ही सेवारत थे। भविष्य में महपा और मक्का मांडू के सुल्तान को मेवाङ के विरुद्ध उकसाने के साधन अवश्य बने, परंतु इनके कुकृत्यों से उत्पन्न भय समाप्त हो गया। चाचा के शिविर से मुक्त कराई गयी 500 लङकियों के भाग्य को लेकर रणमल और राघवदेव में तनाव उत्पन्न हो गया जिसके परिणामस्वरूप कुम्भा के दरबार में राठौङों और सिसोदियों के परस्पर विरोधी गुट बन गये और दोनों एक दूसरे के विरुद्ध षड्यंत्रों में उलझते गये।

मेवाङी ख्यातकार कुछ भी कहें, इसमें कोई संदेह नहीं है कि चाचा और मेरा का दमन रणमल के सहयोग से ही किया जा सका था, अतः मेवाङ की राजनीति में रणमल का प्रभाव बढना स्वाभाविक ही था। इसके अलावा रणमल एक निपुण राजनीतिज्ञ भी था। उसने अनुभव किया था, कि मेवाङ की समृद्धि से वह स्वयं अपनी शक्ति को सुदृढ बना सकता है। अतः प्रारंभ में उसने सिसोदियों के नेता राघवदेव की खुल्लमखुल्ला आलोचना करना उचित नहीं समझा। उसने अपनी स्थिति को मजबूत बनाने की दृष्टि से चित्तौङ के महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को नियुक्त करना शुरू किया। इस कार्य में उसने महाराणा कुम्भा की दादी हंसाबाई की सम्मानित स्थिति का भी पूरा-पूरा लाभ उठाया। परंतु इसके साथ यह मानना पङेगा कि रणमल ने कुम्भा की महत्त्वपूर्ण सेवा भी की। गुजरात और मालवा के मुस्लिम शासकों के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्यवाही करने के पूर्व रणमल ने मेवाङ के शत्रु राजपूत शासकों का दमन करना उचित समझा। तदनुसार सर्वप्रथम सिरोही के देवङा चौहान शासक सहसमल पर आक्रमण किया गया। सिरोही पर आक्रमण करने का एक कारण तो देवङा चौहानों का मेवाङ के प्रति शत्रुतापूर्ण व्यवहार था और दूसरा कारण सिरोही की भौगोलिक स्थिति थी। पंजाब से गुजरात और दक्षिण के मार्ग सिरोही राज्य से होकर जाते थे। इस दृष्टि से इस क्षेत्र का नियंत्रण मेवाङ की सुरक्षा एवं समृद्धि दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्णथा। सिरोही के देवङा चौहान रणमल के अन्तर्गत मेवाङी सेना का सामना न कर सके और उन्हें पराजय का सामना करना पङा। पराजित सिरोही नरेश सहसमल को अपने राज्य के बहुत से क्षेत्र आबू, बसंतगढ, भूला और पूर्वी सिरोही कुम्भा को सौंपकर समझौता करना पङा। रणमल के सुझाव पर महाराणा कुम्भा ने आबू शिखर पर अचलगढ दुर्ग का निर्माण कार्य शुरू करवाया। इसके बाद हाङौती पर आक्रमण किया गया। इस क्षेत्र में हाङा चौहानों ने अपनी शक्ति को काफी सुदृढ बना लिया था। इतना ही नहीं, हाङाओं ने मेवाङ के शत्रु मालवा के सुल्तान के साथ भी साँठ-गाँठ कर रखी थी जो निश्चय ही मेवाङ के विरुद्ध रही होगी। 1435-36 ई. में महाराणा कुम्भा ने रणमल को बूँदी पर आक्रमण करने का आदेश दिया। बूंदी के शासक बेरीसाल ने आत्मसमर्पण कर दिया और माण्डलगढ क्षेत्र मेवाङ को वापस लौटा दिया। इसके बाद ही उसने कुम्भा की प्रभुसत्ता स्वीकार करते हुये वार्षिक खिराज चुकाना भी स्वीकार किया। फिर भी, वह मेवाङ के प्रति कभी निष्ठावान नहीं रहा।

मेवाङ और मारवाङ

दोनों के चारण साहित्य में सारंगपुर के युद्ध में मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी की पराजय का विवरण मिलता है। अंतर केवल इतना ही है कि जहाँ मेवाङी साहित्य में विजय का श्रेय महाराणा कुम्भा को दिया जाता है, वहीं मारवाङी साहित्य में यह श्रेय रणमल को दिया गया है। हकीकत में सारंगपुर का युद्ध हुआ या नहीं, यह कहना कठिन है। क्योंकि समकालीन राजस्थानी तथा फारसी रचनाओं में इसका उल्लेख नहीं मिलता। चारण साहित्य के अनुसार जब मालवा के सुल्तान ने मेवाङ के भगोङे सरदारों महपा और अक्का को सौंपने से इन्कार कर दिया तो कुम्भा और रणमल ने मालवा पर आक्रमण कर दिया। रारंगपुर के युद्ध में मालवा का सुल्तान महमूद खिलजी पराजित हुआ। उसके बाद मेवाङी सेना ने उसे मांडू दुर्ग में घेर लिया। कुछ दिनों बाद महमूद खिलजी ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसे बंदी बनाकर चित्तौङ लाया गया। 6 महीने तक उसे बंदी बनाकर रखा गया और इसके बाद उसे रिहा कर दिया गया। चारणों द्वारा वर्णित सारंगपुर के युद्ध तथा महमूद खलजी के बंदी बनाये जाने की पुष्टि फारसी वृतांतों से नहीं होती है। कर्नल जेम्स टॉड, श्यामलदास और हरविलास शारदा ने चारण साहित्य के आधार पर इस घटना का जो विवरण दिया है, वह भी आधुनिक शोध की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।

सिसोदिया-राठौङ संघर्ष : रणमल की हत्या

बूँदी के हाङाओं का दमन रणमल की शक्ति का चरमोत्कर्ष था। इस समय उसके मार्ग में एक ही व्यक्ति बाधा बना हुआ था। वह था सिसोदिया सरदारों का नेता तथा कुम्भा का निकट संबंधी राघवदेव। अतः रणमल ने उसे हटाने का निश्चय किया और 1437 ई. में उसे षड्यंत्रसे मरवा दिया। इस घटना से क्षुब्ध होकर सिसोदिया सरदारों ने चुपचाप प्रतिशोध की तैयारी की और 1438 ई. में उन्होंने रणमल की हत्या कर दी। इस संपूर्ण प्रकरण के बारे में मारवाङ और मेवाङ के ख्यातकार परस्पर विरोधी विवरण देते हैं। मारवाङी ख्यातकारों के अनुसार राघवदेव कुम्भा के विरोधी सरदारों के साथ मिलकर मेवाङ में अव्यवस्था फैला रहा था और उसे इस कार्य में कुम्भा के ताऊ चूण्डा का सक्रिय समर्थन भी प्राप्त था। रणमल ने एक निष्ठावान सेवक के रूप में राघवदेव का दमन किया, जिसमें राघवदेव मारा गया। मेवाङी वृतान्तों के अनुसार राघवदेव की मृत्यु से कुम्भा को रणमल के प्रति संदेह हो गया। उसने रणमल के विरुद्ध अपने वंश के सिसोदिया गुट का समर्थन करना शुरू कर दिया। सर्वप्रथम, अपने ही पिता के हत्यारों के साथियों – महपा और अक्का को क्षमादान देकर चित्तौङ लौटने की अनुमति दी गयी। वे लोग मांडू से लौट आये और महाराणा की सेवा करने लगे। इसके बाद चूण्डा भी मेवाङ लौट आया। थोङे दिनों में ही महाराणा की सेवा करने लगे। इसके बाद चूण्डा भी मेवाङ लौट आया। थोङे दिनों में ही अक्का ने कुम्भा का विश्वास प्राप्त कर लिया और उसने महाराणा को रणमल के बुरे विचारों से अवगत कराना शुरू किया। उसने कुम्भा को विश्वास दिलाया कि रणमल अपने सैन्य शक्ति के सहारे मेवाङ का सिंहासन हङपना चाहता है और इस संबंध में रणमल की प्रेयसी दासी भारमली की गवाही भी सम्मिलित कर ली गयी। इसी भारमली की सहायता से रणमल को खूब शराब पिलाकर बेसुध कर दिया गया और रणमल को उसी की पगङी से पलंग पर बाँध दिया गया। इसके बाद महपा और उसके साथियों ने वीर रणमल को मौत के घाट उतार दिया।

इन सभी घटनाओं से मेवाङ के सिसोदियों और मारवाङ के राठौङों के बीच आपसी संघर्ष के बीच अंकुरित हो गये और आगामी 75 वर्ष तक दोनों पक्ष किसी न किसी बात को लेकर आपस में लङते रहे। इसका परिणाम दोनों के लिये तो घातक सिद्ध हुआ ही, परंतु दोनों की स्थिति कमजोर हो जाने से मुस्लिम शासकों को लाभ पहुँचा। क्योंकि यह वह समय था जबकि मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासक मेवाङ और मारवाङ के क्षेत्रों पर अधिकार जमाने की ताक लगाये बैठे थे और उनकी कोशिशों को नाकामयाब करने के लिये मेवाङ और मारवाङ के मध्य एकता होना अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बात थी।

रणमल की हत्या के संबंध में चूण्डा और कुम्भा की भूमिका एवं चरित्र-चित्रण का प्रश्न स्वाभाविक रूप से सामने आ खङा होता है। मेवाङी वृतान्तों में चूण्डा को भीष्म पितामह के समान बतलाया गया है। रणमल ने संकट में पङे कुम्भा की सेवा की। उसके पिता के हत्यारों से बदला लिया। मेवाङ राज्य के विद्रोही सरदारों का दमन कर कुम्भा की आंतरिक स्थिति को सुदृढ बनाया और मेवाङ के शत्रु शासकों को पराजित करके न केवल मेवाङ के खोये हुए क्षेत्र वापिस लिए अपितु मेवाङ की भावी सुरक्षा को भी मजबूत बनाया। फिर भी, मेवाङी वृत्तान्तों में रणमल की निन्दा की गयी है। इसके विपरीत चूण्डा ने मोकल के पक्ष में सिंहासन पर से अपने अधिकार को अवश्य त्यागा परंतु वह मोकल की निष्ठापूर्वक सेवा नहीं कर पाया। अन्यथा उसे मेवाङ के शत्रु मालवा के मुस्लिम सुल्तान की सेवा में जाने की क्या आवश्यकता थी ? इसी प्रकार, मोकल की हत्या के बाद भी चूण्डा कुम्भा की सहायता के लिये मेवाङ क्यों नहीं आया ? रणमल तो काफी देर से मेवाङ पहुँचा था। इसके अलावा, मोकल के हत्यारों – महपा और अक्का के साथ चूण्डा की साँठ-गाँठ, चूण्डा के एक दूसरे रूप को उजागर करती है। साथ ही, रणमल की सेवाओं के पुनर्मूल्यांकन की भी आवश्यकता है। इसी प्रकार, कुम्भा की भूमिका का अध्ययन भी जरूरी हो जाता है। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि, महाराणा ने रणमल का प्रकट रूप से तो कोई विरोध नहीं किया परंतु सिसोदिया सरदारों का समय-समय पर समर्थन किया। यह महाराणा की दूरदर्शिता थी।

डॉ. शर्मा के मतानुसार दो पीढियों से राठौङों का प्राधान्य जो मेवाङ राज्य में बढता जा रहा था, उसे समाप्त करने का श्रेय कुम्भा की कूटनीति को है। परंतु यह कूटनीति नहीं अपितु विश्वासघात था। इससे यह पुरानी कहावत चरितार्थ हो जाती है कि राजत्व बंधुत्व को नहीं जानता। कुम्भा ने भी अपने मार्ग को प्रशस्त करने के लिये इसी का सहारा लिया।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : कुम्भा

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