इतिहासराजस्थान का इतिहास

चित्तौङ का दुर्ग कहाँ स्थित है

चित्तौङ का दुर्ग – अजमेर-खंडवा रेलमार्ग पर स्थित चित्तौङगढ रेलवे स्टेशन से लगभग दो मील दूर ऊँची पहाङी पर मेवाङ राज्य का प्रसिद्ध दुर्ग बना हुआ है जिसे चित्रकूट अर्थात् चित्तौङगढ कहते हैं। यह दुर्ग मेवाङी वीरों और वीरांगनाओं के बलिदान की भावना का प्रतीक है,

जो समुद्र की सतह से लगभग 1850 फुट ऊँचा, लगभग तीन मील लंबा और लगभग आधा मील चौङा है। इस दुर्ग में बस्तियाँ, मंदिर और महलों के भग्नावशेष दिखाई देते हैं। इसमें जलाशय और खेती योग्य भूमि भी है ताकि शत्रु द्वारा दुर्ग को घेर लेने पर खाद्य सामग्री का अभाव न रहे।

इस दुर्ग का निर्माता कौन था, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना निश्चित है कि 8 वीं शताब्दी के प्रारंभ में यह दुर्ग मोरीवंशी राजा भीम के अधिकार में था। इस भीम का उत्तराधिकारी मान हुआ जिसे चित्रंगमोरी भी कहते हैं और इसी के नाम से यह दुर्ग चित्रकूट कहलाया। बाद में यह दुर्ग गुहिल राजवंश के अधिकार में आ गया था।

चित्तौङ का दुर्ग

संपूर्ण किला चारों ओर सुदृढ दीवारों से घिरा हुआ है तथा उसकी सुरक्षा के लिये मुख्य मार्ग तथा सात द्वार बने हुए हैं। महाराणा कुम्भा ने सुरक्षा की दृष्टि से दुर्ग को सुदृढ प्राचीरों से युक्त बनाया तथा संपूर्ण प्राचीर और द्वारों को आवश्यकतानुसार परिवर्तित कर नये ढंग से बनवाया। कीर्तिस्तंभ प्रशस्ति में रामपोल, भैरवपोल, हनुमानपोल, चामुण्डपोल, तारापोल, लक्ष्मीपोल आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है।

दुर्ग पर जाने के लिये मार्ग का निर्माण भी महाराणा कुम्भा ने करवाया था। प्रथम द्वार पांडनपोल के बाहर एक वर्गाकार चबूतरे पर प्रतापगढ के रावत बाघसिंह का स्मारक बना हुआ है, जो 1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह के आक्रमण के समय दुर्ग की रक्षा करते हुए इसी पांडनपोल के पास मारा गया था। इसके आगे बढने पर भैरवपोल आती है, जहाँ कल्ला और वीर जयमल राठौङ की छतरियाँ बनी हुई हैं।

ये दोनों वीर 1567 ई. में अकबर के आक्रमण के समय दुर्ग की रक्षा करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए थे। इन छतरियों से आगे बढने पर गणेशपोल, लक्ष्मणपोल और जोडनपोल आते हैं। इन सभी पोलों को सुदृढ दीवारों से इस प्रकार जोङा गया है कि बिना इन द्वारों को तोङे दुर्ग में प्रवेश करना असंभव है।

इस स्थल की ऊँचाई, दुदृढ दीवारों का घुमाव और मार्ग का सँकरापन दुर्ग की सुरक्षा के अच्छे साधन थे तथा मध्ययुगीन दुर्ग स्थापत्य की प्रमुख विशेषता कहे जा सकते हैं। इनसे आगे रामपोल से दुर्ग की समतल स्थिति आरंभ होती है। रामपोल के एक तरफ पत्ता सिसोदिया का स्मारक दिखाई देता है, जो अकबर के आक्रमण के समय लङता हुआ यहीं मारा गया था।

इसके थोङा आगे बढने पर दाहिनी ओर तुलजा माता का मंदिर बना हुआ है। इससे आगे बनवीर द्वारा निर्मित नवलख भंडार, तोपखाने का दालान, महासानी और पुरोहितों की हवेलियाँ, भामाशाह की हवेली और श्रृंगार चँवरी का मंदिर आता है। मंदिर के चारों ओर तक्षण कला का सुन्दर ढंग से प्रदर्शन किया गया है।

श्रृंगार चँवरी से आगे बढने पर त्रिपोलिया नामक द्वार आता है, जहाँ पास में ही कुम्भा के दर्शनीय महल हैं। ये महल संभवतः प्राचीन थे जिन्हें कुम्भा के जनाना और मर्दाना महल, शिलेखाना, राजकुमार के महल, सभा-भवन आदि बने हुए हैं। त्रिपोलिया द्वार के आस-पास दो बुर्ज बने हुए हैं। इसके बाद एक खुला मैदान आता है, जहाँ हाथीखाना बना हुआ है।

कुम्भा के महलों में गवाक्ष, खंभे, दालान की छत को रोकने की विधि, राजमहलों को जोङने वाले सँकरे मार्ग, छोटे दालान आदि में उस समय के स्थापत्य की प्रमुख विशेषताएं दिखाई देती हैं।

कुम्भा के महलों के आगे कुम्भश्याम का मंदिर आता है, जो छठी सदी का है तथा महाराणा कुम्भा ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मंदिर के उतरंग भाग पर सुन्दर नक्काशी की हुई है। सभा मंडप में 20 विशाल स्तंभ बने हैं तथा एक शिला पट्टिका पर कृष्णलीला की झाँकी उत्कीर्ण है।

मंदिर के बाहरी भाग पर मूर्तियाँ उत्कीर्ण की हुई हैं, जैसे – दक्षिणी भाग के ऊपर की तरफ गरुङगामी विष्णु की प्रतिमा, पीछे की तरफ दीवार में घंटा, कर्णी, शिव, हस्ती आदि की प्रतिमाएँ हैं। इसके पास ही छोटे दो मंदिर हैं। इनमें से एक को मीराबाई का मंदिर कहा जाता है और दूसरा जैन मंदिर है।

इस जैन मंदिर में गुजरात की तक्षण कला स्पष्ट झलकती है। इससे आगे बढने पर गौमुख कुण्ड और उसके पास त्रिभुवन नारायण का मंदिर आता है। यह मंदिर के पास नौ मंजिल का विशाल कीर्तिस्तंभ है, जिसकी स्थापत्य कला एवं मूर्तिकला प्रसिद्ध है।

कीर्तिस्तंभ से आगे चलने पर जयमल राठौङ की हवेली मिलती है जिसमें बने हुए कमरे, बरामदे आदि हिन्दू स्थापत्य कला के श्रेष्ठ नमूने हैं, लेकिन सीधे व सादे स्तंभ तथा सपाट छतों में मुस्लिम शैली दिखाई देती है। हवेली के आगे पद्मिनी महल और कालिका मंदिर आता है जो पहले सूर्य मंदिर था। यहाँ से दुर्ग के एक छोर पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से पुनः मुङकर दाहिनी ओर रास्ते पर आगे बढने पर एक जैन विजय स्तंभ आता है।

इस विजय स्तंभ की तक्षण कला गुजरात की जैन तक्षण कला के अनुरूप दिखाई देती है। इसी मार्ग पर अद्भुतजी का मंदिर, लक्ष्मीजी का मंदिर, नीलकंठ का मंदिर, अन्नपूर्णा और लक्ष्मी का मंदिर, कुकङेश्वर का मंदिर और कुण्ड, रत्नसिंह के महल आदि दर्शनीय स्थल हैं। इन महलों व मंदिरों में पश्चिमी भारतीय स्थापत्य शैली दिखाई देती है जो मुस्लिम स्थापत्य शैली से प्रभावित थी।

इस प्रकार यह चित्तौङ का गिरि दुर्ग अपने आप में एक पूर्ण इकाई है। 1303 ई. के पूर्व वर्तमान चित्तौङ का कस्बा नहीं था, सभी लोग किले के भीतर रहते थे। परंतु किले पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने के बाद लोगों ने किले की तलहटी में बसना शुरू कर दिया था। इसे राजस्थान का दक्षिणी-पूर्वी द्वार भी कहा जाता है।

चूँकि यह किला मालवा और गुजरात के मार्ग में पङता था, इसलिए इसका सामरिक महत्त्व भी अधिक था। रणबाँकुरे राजपूतों के रक्त से इस दुर्ग की मिट्टी का एक-एक कण सिंचित है तथा यहाँ के खंडहार राजपूती वीरांगनाओं के जौहर की धधकती हुई ज्वाला के साक्षी हैं। अतः चित्तौङ दुर्ग की रेणुका भारतीयों के तीर्थ स्थल की मिट्टी से भी अधिक पवित्र है।

अपनी ऐतिहासिक परंपराओं के कारण राजस्थान में ही नहीं अपितु समस्त भारत में यह दुर्ग अपना विशेष स्थान रखता है। इस दुर्ग के बारे में गढ़ तो चित्तौड़गढ़ और सब गढ़ैया कहा गया है।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : चित्तौङगढ का दुर्ग

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