इतिहासतुर्क आक्रमणमध्यकालीन भारत

तुर्कों के आगमन के समय भारत में राजनीतिक संगठन कैसा था?

भारत में राजनीतिक संगठन – राजपूत राजनीति की मुख्य विशेषता यह थी कि सभी गतिविधियों का केंद्र सम्राट था। राजा की प्रथा वंशानुगत थी। भारतीय जनता और भारतीय शास्त्रकार राजा को ईश्वर का अंश मानते थे और उनका यह निश्चित मत था कि अभिषेक की धार्मिक क्रियाओं द्वारा नरत्व में देवत्व प्रस्फुटित हो जाता है। शासक राज्य का भाग्य निर्माता था। उसको श्रीजी, श्रीहुजूर, भानुतेज, देव तथा महादेव आदि से संबोधित किया जाता था। राजा राज्य की न्यायिक व्यवस्था के लिये हर प्रकार की राजनीतिक, सैनिक और फौजदारी शक्ति का प्रयोग कर सकता था। सैनिक तथा प्रशासकीय पदों का नियंत्रण, पदोन्नति आदि उसके ही क्षेत्राधिकार में थे। इसके अलावा वह राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश था। राजा के कार्य तथा नीतियों पर सामंतों का दखल था, किंतु यह अंकुश एक प्रकार का चारित्रिक अंकुश मात्र था, उसकी स्वतंत्रता का अपहरण नहीं था। वह नरंकुश शासक न था। उसके लिये धर्मशास्त्र, स्मृतियों तथा नीतिशास्त्रों के वचनों का पालन करना आवश्यक था।

राजपूतों में उत्तराधिकारी के चुनाव का निश्चित नियम यह था कि अगर कोई राजकुमार अपने पिता के सामने ही वयस्क हो जाए, तो वह पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी माना जाता था। यदि कोई राजा निस्संतान मर जाता था तो वंश परिपाटी के अनुसार सामंतों में से जो परिवार राजकुल से निकटतम संबंध रखता था, उसी का प्रधान व्यक्ति राजा चुन लिया जाता था। अस्तु, राजपूत शासन व्यवस्था में साधारणतः उत्तराधिकार के प्रश्न पर झगङा होने का अधिक अवसर नहीं रहता था।

राजा जमीन का मालिक नहीं था। वह केवल जमीन पर कर लेता था, जिसे भोग के रूप में लिया जाता था। राजा और जोतदार के बीच विद्यमान संबंध को एक प्रसिद्ध राजस्थानी दोहे से समझा जा सकता है-

“भोग रा धनी राज धो, भूमि रा धनी माधो”

अर्थात् – जमीन की उपज राजा की है, परंतु जमीन का स्वामी मैं हूँ।

जिन्हें राजा जमीन देता था उन्हें दो वर्गों में बाँट सकते हैं – 1.) भूमिया वर्ग, जिनकी जमीन पैतृक थी, 2.) गिरसिया, जिन्हें केवल संरक्षण का अधिकार था। यहाँ पर ध्यान रखने की बात यह है कि जमीन पर अधिकार केवल वेतन के रूप में था, पैतृक संपत्ति के रूप में नहीं ।

जमीन का मूलभूत विभाजन इस प्रकार से किया गया था –

खालसा – राजस्व के मामलों में दीवान के अधीन भूमि।

हवाला – इसकी देखभाल हवलदार के हाथ में थी।

जागीर – जागीरदार के अधीन थी जिससे नियमित पेशकश प्राप्त होती थी।

भोग – उस वर्ग के हाथ में थी जो राज्य की महत्व पूर्ण सेवा करते थे और मालिक को निश्चित कर देते थे।

शासन – राजस्व अधिकारियों के नियंत्रण के बाहर थी।

फसल की बँटवारे की प्रणालियाँ निम्नलिखित थी-

बटाई प्रणाली

फसल का बँटवारा सामान्य प्रथा थी जिसके द्वारा किसान और सरकार का हिस्सा निर्धारित होता था।

लाट प्रणाली

उसी समय अनाज से भूसा अलग करना तथा अनाज की सफाई

कूट प्रणाली

जब फसल तैयार हो उसकी उपज का अनुमान लगाना

मुक्त प्रणाली

एक निश्चित दर से किसानों से नकद या फसल वसूल की जाती थी। जोतदार ही जमीन का मालिक था। इस प्रकार की जमीन बापी — पैतृक संपत्ति– के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। जमीन के उत्तराधिकारी को दाखला दस्तावेज में अपना नाम दर्ज करना पङता था।

समस्त राज्य राजस्व के कार्य के लिये प्रदेशों में विभक्त था। केंद्रीय प्रदेश पर राजा का अधिकार था। केंद्र के नीचे की प्रशासकीय इकाई को भुक्ति मंडल या राष्ट्र कहते थे। सबसे छोटी इकाई गाँव की थी जिनकी अपनी पंचायतें थी, जिनमें ग्रामपति, पट्टकिल, ग्रामकूट आदि प्रमुख थे।

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