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पानीपत का तृतीय युद्ध के कारण एवं परिणाम

पानीपत का तृतीय युद्ध के कारण

पानीपत का तृतीय युद्ध के कारण एवं परिणाम –

अहमदशाह अब्दाली का भारतीय राजनीति में प्रवेश – ईरान के शासक नादिरशाह के मरणोपरांत उसके एक प्रमुख सेनानायक अहमदशाह अब्दाली ने 1747 ई. में काबुल तथा कंधार पर अधिकार करके अफगानिस्तान में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित की। वह एक महत्वाकांक्षी शासक था। अफगानिस्तान में अपनी सत्ता सुदृढ करने के बाद उसने भारत की ओर ताकना शुरू कर दिया।

पानीपत का तृतीय युद्ध

अहमदशाह अब्दाली के भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य निम्नलिखित थे –

  • वह पंजाब, मुल्तान, कश्मीर आदि भारतीय भू-भागों को, जो कि नादिरशाह के अधीन रह चुके थे, अपने अधिकार में लाना चाहता था।
  • भारत से धन प्राप्त करना,
  • लूटमार के द्वारा अपने अफगान सैनिकों को संतुष्ट करना
  • नवीन विजयों द्वारा अपनी प्रतिष्ठा एवं शक्ति को बढाना।

उसे भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने का शीघ्र ही बहाना मिल गया। 1748 ई. में पंजाब के सूबेदार जकरियाखाँ की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों – यहियाखाँ और शाहनवाजखाँ में उत्तराधिकार का संघर्ष छिङ गया। मुगल सम्राट के वजीर ने यहियाखाँ का पक्ष लिया। अतः शाहनवाजखाँ ने अब्दाली को सहयोग के लिए आमंत्रित किया।

1748 ई. में अब्दाली पंजाब में आ पहुँचा। इसी बीच मुगल वजीर ने शाहनवाजखाँ को अपने पक्ष में कर लिया। अतः अब्दाली ने पहले शाहनवाजखाँ को परास्त किया, फिर लाहौर पर अधिकार कर लिया। इसी समय मुगल वजीर के नेतृत्व में दिल्ली से शाही सेना आ गयी, जिसने भानपुर के युद्ध में अब्दाली को परास्त किया।

अतः अब्दाली वापिस लौट गया, किन्तु 1752 ई. में उसने पुनः आक्रमण किया। विवश होकर मुगल सम्राट ने पंजाब और मुल्तान अब्दाली को सौंप दिये।अब्दाली, मुइन-उल-मुल्क को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर वापिस अफगानिस्तान लौट गया।

मराठों का दिल्ली की राजनीति में हस्तक्षेप

1748 ई. में मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद अहमदशाह नया सम्राट बना, जिसने अवध के सूबेदार सफदरजंग को अपना वजीर बनाया। अवध के पङौस में रोहिलखंड के रोहिल्लों ने धीरे-धीरे अपना राज्य बढाना आरंभ किया और अवध के इलाकों में लूटमार करने लगे। सफदरजंग ने मराठों की सहायता से रोहिल्लों को कई बार परास्त किया।

परास्त रोहिल्लों ने अब्दाली से सहायता माँगी। अतः 1752 ई. के आरंभ में अब्दाली के संभावित आक्रमण की सूचना मिली। इस पर सम्राट की ओर से वजीर सफदरजंग ने अप्रैल, 1752 ई. में मराठों से समझौता किया, जिसके अनुसार मराठों को पंजाब, सिन्ध और दोआब से चौथ वसूल करने का अधिकार दिया गया तथा मराठों को पंजाब, सिंध और दोआब से चौथ वसूल करने का अधिकार दिया गया तथा मराठों ने बाह्य व आंतरिक संकटों से मुगल साम्राज्य की रक्षा करने का वचन दिया।

इस प्रकार मराठा मुगल साम्राज्य के संरक्षक बन गये तथा दिल्ली दरबार की राजनीति में भी उन्हें उलझना पङा। इस बीच अब्दाली ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया और मुगल सम्राट ने पंजाब और मुल्तान अब्दाली को सौंप दिये।

इसके कुछ समय बाद मुगल सम्राट और उसके वजीर के बीच मतभेद उत्पन्न हो गया तथा दिल्ली दरबार में दो परस्पर विरोधी दल बन गये। दोनों पक्षों ने मराठों से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। मराठों ने सम्राट का साथ दिया तथा मुगल वजीर को कई बार परास्त किया। बार-बार परास्त होकर वजीर अपने सूबे को लौट गया।

13 मई, 1754 ई. को सम्राट ने इन्तिजामउद्दौला को अपना नया वजीर बनाया। लेकिन निजाम के बङे लङके गाजीउद्दीन ने, जो अत्यधिक महत्वाकांक्षी एवं षङयंत्रकारी था, सम्राट अहमदशाह को पदच्युत कर आलमगीर द्वितीय को नया सम्राट बनाया और खुद वजीर बन गया। नया वजीर गाजीउद्दीन अपनी स्वार्थ पूर्ति हेतु कभी मराठों से, कभी रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ से और कभी अब्दाली से साँठ-गाँठ करता रहा।

नवम्बर, 1753 ई. में पंजाब के सूबेदार मीर मन्नू की मृत्यु के बाद उसकी विधवा मुगलानी बेगम अपने शिशु पुत्र के नाम पर शासन चलाने लगी। लेकिन गाजीउद्दीन ने, एक स्त्री का शासन पसंद न करते हुए, फरवरी, 1756 ई. में ससैन्य पंजाब पर आक्रमण कर मुगलानी बेगम व उसकी संपत्ति पर अधिकार कर लिया और उन्हें दिल्ली ले आया। गाजीउद्दीन ने शाही परिवार की स्त्रियों को भी काफी परेशान किया।

परेशान बेगमों ने रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ से सहायता माँगी। नजीब का मानना था कि गाजीउद्दीन मराठों की शक्ति पर उछल रहा है, अतः मराठों की शक्ति को समाप्त करने के लिये उसने अब्दाली को आमंत्रित किया। उधर मुगलानी बेगम ने भी अब्दाली से साँठ-गाँठ कर उसे भारत आने का निमंत्रण दिया। अतः 1757 ई. के आरंभ में अब्दाली ससैन्य भारत आ पहुँचा और लाहौर पर अधिकार कर लिया। उसके बाद वह दिल्ली आ पहुँचा और उसने दिल्ली के नागरिकों एवं बङे-बङे अमीरों को लूटा, फिर मथुरा के आस-पास के क्षेत्रों में भयंकर लूटमार की।

लेकिन इसी समय अब्दाली की सेना में महामारी फैल गई, फलस्वरूप वह वापिस अपने देश लौट गया। लौटते समय उसने नजीबखाँ को मुगल साम्राज्य की सुरक्षा का भार लेने वाले मराठे इस समय राजस्थान के शासकों से धन बटोरने में व्यस्त रहे।

अब्दाली के लौटने के बाद रघुनाथराव और मल्हारराव होल्कर सेनाएँ लेकर मई, 1757 ई. में आगरा पहुँचे। नजीबखाँ ने मराठों व अब्दाली के मध्य समझौता कराने का प्रयास किया, लेकिन गाजीउद्दीन व मुगल सम्राट के विरोध के कारण समझौता न हो सका, क्योंकि वे दोनों नजीबखाँ को दंड देना चाहते थे।

मराठों ने नजीबखाँ को बंदी बना लिया, किन्तु होल्कर के अनुरोध पर उसे पुनः मुक्त कर दिया। यह कार्यवाही मराठों के लिये आत्मघाती सिद्ध हुई थी। उसके बाद मराठों ने लाहौर पर धावा मारकर तैमूरशाह को वहाँ से भगा दिया। मराठों ने अटक तक धावे मारे और वापसी के पूर्व अदीना बेग को लाहौर का सूबेदार नियुक्त कर दिया।

अब्दाली के अधिकारियों को पंजाब से निष्कासित कर देने से अब्दाली क्रुद्ध हो उठा और ससैन्य भारत पर चढाई कर दी। पेशवा ने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव को एक विशाल सेना के साथ उत्तर-भारत की ओर भेजा। सदाशिव के नेतृत्व में मराठा सेना और अब्दाली के नेतृत्व में अफगान सेना के बीच पानीपत का तीसरा युद्ध हुआ था।

पानीपत के तृतीय युद्ध के कारण

पानीपत के युद्ध की घटनाओं का वर्णन करने से पहले हम आपको उन कारणों के बारे में बतायेंगे, जिनके परिणामस्वरूप पानीपत का युद्ध हुआ था-

भारत में राजनीतिक शून्यता

एक लंबे समय तक, दिल्ली के शासक भारत की राजनीति पर छाये रहे। दिल्ली के बादशाह की प्रभुता, भारत की अन्य शक्तियाँ स्वीकार करती थी। जब तक केन्द्रीय सत्ता शक्तिशाली रही, भारत के उत्तर पश्चिम से आक्रमणों का भय नहीं रहा। सीमा सुरक्षा की अग्रगामी नीति अपना कर मुगलों ने काबुल तक अपना अधिकार बनाये रखा। किन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल सत्ता कमजोर हो गई और शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता के अभाव में सारा देश एक ऐसा अजायबघर बन गया जिसके सभी पिंजरों के द्वार खोल दिये हों। अतः देश में राजनीतिक शून्यता दिखाई देने लगी।

राजनीति का यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि ऐसी शून्यता भरने का अन्य शक्तियाँ प्रयास करती हैं। 18 वीं शताब्दी के मध्य में दो शक्तियों ने इस शून्यता को भरने तथा अपना वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास किया। ये दो शक्तियाँ थी – मराठे और अहमदशाह अब्दाली।

दिल्ली पर प्रभाव जमाने हेतु संघर्ष

औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल सम्राट शक्तिहीन अवश्य हो गया था, किन्तु उसकी प्रभुता को वैधानिक तौर पर सभी शक्तियाँ मुगल सम्राट पर अपना प्रभाव बनाये रखना चाहती थी, ताकि मुगल सम्राट पर अपने प्रभाव का उपयोग अपने हित में कर सकें। 1749ई. से वजीर तथा मीर बख्शी की नियुक्तियों में हैदराबाद का निजाम, अवध के नवाब, मराठे तथा अब्दाली रुचि लेने लगे। 1749 ई. में अवध का नवाब सफदरजंग वजीर था।

जब अब्दाली ने उसे हटाकर निजाम के पुत्र नासिरजंग को वजीर बनाना चाहा तो सफदरजंग के बीच वैमनस्य उत्पन्न हुआ तब मराठों ने सफदरजंग के विरोधी गुट की सहायता की और उसे अपदस्थ करवाकर इन्तिजामउद्दौला को वजीर बनवाया। उसके बाद निजामका पुत्र गाजीउद्दीन मराठों के समर्थन से वजीर बन गया। 1757 ई. में अब्दाली ने भारत पर आक्रमण किया और वापिस लौटते समय नजीबखाँ को मीर बख्शी नियुक्त कर गया।

अब्दाली के लौटने के बाद मराठों ने नजीबखाँ को अपदस्थ कर अहमदशाह बंगश को मीर बख्शी नियुक्त कर दिया। इन घटनाओं से स्पष्ट हो जाता है कि मराठों ने दिल्ली दरबार में अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए अब्दाली का विरोध किया, क्योंकि वे मुगल सम्राट पर अब्दाली का प्रभाव सहन करने को तैयार नहीं थे।

अब्दाली का भारत की राजनीति में हस्तक्षेप

1745 ई. से ही अब्दाली भारत की राजनीति में हस्तक्षेप कर प्रबल होने का प्रयास करने लगा था। 1752 ई. में उसने मुइन-उल-मुल्क को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया। 1756 ई. में उसने दिल्ली तक धावा मारा और मथुरा व वृन्दावन को बुरी तरह लूटा। लौटते समय वह नजीबखाँ को मीर बख्शी व अपने पुत्र तैमूरशाह को पंजाब का सूबेदार नियुक्त कर गया।

पंजाब पर उसका पहले ही अधिकार था, अब उसने रोहिल्लों पर भी अपना प्रभाव स्थापित किया। यद्यपि रोहिल्ला सरदार नजीबखाँ और अवध का नवाब सफदरजंग एक-दूसरे के शत्रु थे, किन्तु अब्दाली ने अपनी कूटनीति से न केवल नजीबखाँ को अपनी ओर मिलाया, बल्कि अवध के नवाब सफदरजंग को भी अपनी ओर मिला लिया। मराठे, अब्दाली की इस प्रगति को रोकना चाहते थे, अतः दोनों में युद्ध अवश्यम्भावी था। मराठा इतिहासकार टी.एस.शोजवलकर का मत है कि पानीपत के इस युद्ध का प्रमुख कारण यह था कि मराठे इस विदेशी को भारत से बाहर कर देना चाहते थे।

अब्दाली की सैन्य सफलताएँ

1752 ई. से 1757 ई. के बीच अब्दाली को भारत में लगातार सैन्य सफलताएँ मिलती गयी। अब्दाली की बढती हुई शक्ति से अन्य शक्तियाँ अत्यधिक प्रभावित हुई और यह समझा जाने लगा कि अब्दाली की सेनाएँ अजेय हैं। उत्तरी भारत के किसी राज्य को यह विश्वास नहीं रहा कि मराठों की सेना अब्दाली की सेना के विरुद्ध सफल हो सकती है।

यही कारण है कि किसी भी प्रमुख भारतीय राज्य ने पानीपत के युद्ध में मराठों का साथ नहीं दिया। वस्तुतः इस समय तक मराठा शक्ति केवल लूटमार करने वाली शक्ति बन चुकी थी और उनकी इस प्रवृत्ति के कारण राजपूत, जाट, रुहेले, अवध के नवाब आदि मराठों से नाराज हो चुके थे। ऐसी परिस्थितियों में मराठों का मनोबल गिरा। इसके विपरीत अब्दाली की सैन्य सफलताओं के कारण अफगान सेना का मनोबल सदा ऊँचा रहा।

उत्तर भारत की अस्थिर राजनीति

उत्तर भारत की अस्थिर राजनीति के कारण कोई भी पक्ष यह अनुमान नहीं लगा सका कि कौन सी शक्तियाँ किसका साथ देंगी। अगस्त, 1760 ई. में अब्दाली और मराठों के बीच कूटनीतिक युद्ध आरंभ हुआ जिसमें दोनों पक्षों ने स्थानीय शक्तियों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। अब्दाली ने घोषणा की कि उसका उद्देश्य भारत में रहने का नहीं है, बल्कि उत्तर भारत को मराठों के प्रभुत्व से मुक्त कराकर मुगल बादशाह शाहआलम को, जो इस समय अवध में था, दिल्ली के सिंहासन पर बैठाने का है।

इसके विपरीत मराठा सेना का नेतृत्व करने वाले सदाशिवराव भाऊ ने यह प्रचार करना आरंभ कर दिया कि यह युद्ध भारतीयों का विदेशियों के विरुद्ध है। भाऊ की इस घोषणा से उसे मुसलमानों का सहयोग प्राप्त नहीं हो सकी। नजीबखाँ तो मराठों का कट्टर शत्रु था ही, लेकिन नजीबखाँ व अवध के नवाब शुजाउद्दौला के बीच भी शत्रुता थी और यह आशा की जाती थी कि वे दोनों किसी एक पक्ष की ओर से युद्ध नहीं करेंगे। किन्तु भाऊ के प्रचार से शुजाउद्दौला भी अब्दाली के पक्ष में चला गया। इससे अब्दाली का हौसला बढ गया।

पंजाब में अफगान-मराठा संघर्ष

मुगल सम्राट ने मराठों को पंजाब से चौथ वसूल करने का अधिकार दे दिया था। किन्तु इसके बाद अब्दाली ने पंजाब पर अधिकार करके अपने पुत्र तैमूरशाह को वहाँ का सूबेदार नियुक्त कर दिया। 1758 ई. में मराठों ने तैमूरशाह को वहाँ से भगा दिया। यह अब्दाली को प्रत्यक्ष चुनौती थी।

अतः अफगान सेनाओं ने नवंबर, 1759 में पुनः पंजाब पर आक्रमण कर मराठों को पीछे धकेल दिया। इस समय पेशवा, पंजाब पर अब्दाली के अधिकार को स्वीकार करके कोई कूटनीतिक समझौता कर सकता थआ। किन्तु ऐसा करने से मराठों के प्रभुत्व एवं प्रतिष्ठा को धक्का लग सकता था। अतः पेशवा ने सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में एक सेना उत्तर भारत की ओर भेजी। ऐसी परिस्थितियों में मराठों व अब्दाली के बीच संघर्ष हो गया।

पानीपत की ओर

मराठों द्वारा पंजाब की विजय और उस प्रांत से अब्दाली के अधिकारियों को निष्कासित किये जाने पर अहमदशाह आग बबूला हो गया। उसने पुनः आक्रमण की तैयारियाँ शुरू कर दी। उधर पेशवा ने उत्तर भारत की व्यवस्था को ठीक करने का दायित्व सिन्धिया परिवार को सौंपा और मल्हारराव होल्कर को सिन्धिया की सहायता करने को कहा गया। परंतु न जाने किस कारण से मल्हारराव होल्कर ने पेशवा के आदेश का पालन नहीं किया और वह दत्ताजी सिन्धिया की पराजय तथा मृत्यु के बाद ही दिल्ली गया।

दत्ताजी सिन्धिया ने दिल्ली पहुँचने के बाद नजीबउद्दौला को पकङने का प्रयास किया। नजीब को पुनः अब्दाली से सहायता की माँग की। अब्दाली ने पेशावर में डेरा लगाया और जहानखाँ को लाहौर पर अधिकार जमाने के लिये भेजा। लेकिन साबाजी सिन्धिया ने उसे परास्त करके वापस खदेङ दिया। इसी समय 30 नवम्बर, 1759 ई. को वजीर गाजीउद्दीन ने सम्राट आलमगीर द्वितीय और भूतपूर्व वजीर इन्तिजामउद्दौला तथा अन्य मुगल अमीरों का वध करा दिया, जिससे अब्दाली और भी क्रुद्ध हो उठा। वह पंजाब की तरफ बढा।

उसके आगमन का समाचार सुनकर दत्ताजी ने नजीब का पीछा छोङकर अब्दाली की तरफ प्रयाण किया। परंतु अब्दाली दत्ताजी को चकमा देकर, दिल्ली पहुँच गया। नजीब भी अपनी सेना सहित अब्दाली से जा मिला। जनवरी, 1760 ई. में बरारी घाट के युद्ध में दत्ताजी सिन्धिया परास्त हुआ और मारा गया।

वजीर गाजीउद्दीन सूरजमल जाट की शरण में चला गया। अब्दाली ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। नजीब के विशेष अनुरोध पर अब्दाली ने कुछ समय और भारत में रहना स्वीकार कर लिया। दत्ताजी की मृत्यु के बाद मल्हारराव होल्कर ने दिल्ली की तरफ प्रस्थान किया, परंतु उसे अफगानों के हाथों बुरी तरह परास्त होकर राजस्थान की ओर भागना पङा।

अब्दाली के हाथों मराठों की दुर्दशा से पेशवा को बहुत अधिक दुःख हुआ और उसने अपने चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ को एक विशाल सेना के साथ दिल्ली अभियान के लिए भेजा। इस अभियान का औपचारिक नेतृत्व पेशवा के बङे लङके विश्वासराव को सौंपा गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि सदाशिवराव एक योग्य एवं पराक्रमी सैनिक था। परंतु उसमें दंभ की मात्रा अधिक थी और कूटनीति का पर्याप्त ज्ञान नहीं था।

अब्दाली ने घोषित किया कि वह दिल्ली के मुस्लिम राज्यों को दक्षिण के मराठों की लूटमार से बचाने के लिए भारत में रुका हुआ है। इसके विपरीत सदाशिवराव ने विदेशियों को भारत से खदेङने में सभी से सहयोग की माँग की। परंतु मराठों की लूटमार तथा चौथ वसूली ने उत्तरी भारत की सभी शक्तियों को मराठों का शत्रु बना दिया था। सूरजमल जाट को छोङकर सभी की सहानुभूति अब्दाली के साथ थी।

अब्दाली और नजीब की कूटनीति के कारण भारत के अधिकांश मुस्लिम शासक अब्दाली और नजीब की कूटनीति के कारण भारत अधिकांश मुस्लिम शासक अब्दाली के शिविर में उपस्थित हो गये। अवध का शुजाउद्दौला भी अब्दाली के पक्ष में चला गया। शुरू में केवल सूरजमल जाट ने मराठों का साथ दिया परंतु पानीपत के युद्ध के पूर्व वह भी मराठों का साथ छोङकर चला गया।

7 मार्च, 1760 ई. में सदाशिवराव दक्षिण से चला और अगस्त, 1760 ई. में उसने अब्दाली के अधिकारियों से दिल्ली छीन ली। अगस्त से अक्टूबर तक का समय भाऊ ने व्यर्थ ही खो दिया। इस बीच अब्दाली ने मराठों से संधि वार्ता करनी चाही परंतु नजीबखाँ ने रुकावट पैदा कर दी।

इसके बाद भाऊ ने दिल्ली के निकट अफगानों के प्रमुख केन्द्र कंजपुरा पर अधिकार कर लिया। यहाँ से प्राप्त सामग्री से मराठों की स्थिति काफी सुधर गयी। अब्दाली के लिय यह घातक प्रहार था। उसने यमुना को पार कर मराठों पर पीछे से आक्रमण करने की योजना बनाई और सेना सहित सोनीपत जा पहुँचा। सदाशिवराव को इसकी सूचना मिल गयी और वह भी सेना सहित पानीपत जा पहुँचा। नवम्बर, 1760 ई. में दोनों सेनाएँ एक-दूसरे के सामने हो गयी, परंतु दोनों में अंतिम निर्णायक युद्ध 14 जनवरी, 1761 ई. के दिन लङा गया।

घटनाएँ

14 जनवरी, 1761 ई. के दिन प्रातः 9 बजे से युद्ध आरंभ हो गया। कुछ घंटों तक मराठा सेना ने जमकर युद्ध किया। इब्राहीम गार्दी के तोपखाने ने अब्दाली की सेना को बहुत हानि पहुँचाई। सदाशिवराव भाऊ और सिन्धिया ने अनेक भीषण प्रहार किये। परंतु पाँच घंटे के भीषण युद्ध के बाद मराठा सैनिक थक गये। इसी समय अब्दाली ने अपनी सुरक्षा सेना को भी युद्ध में झोंक दिया। संयोगवश पेशवा का पुत्र विश्वासराव शत्रु की गोली से मारा गया, जिससे सदाशिवराव भाऊ अपना संयम खो बैठा और अंधाधुंध लङते हुए मारा गया।

मल्हारराव होल्कर ने शुरू से आखिर तक युद्ध में विशेष भाग नहीं लिया और स्थिति को प्रतिकूल भाँप कर अपनी सेना सहित युद्ध के मैदान से भाग खङा हुआ। मराठों के अनेक प्रसिद्ध सेनानायक जिनमें जसवंतराव पंवार तथा तुकोजी सिन्धिया भी थे, युद्ध में मारे गये। इब्राहीम गार्दी और जनकोजी सिन्धिया घायलावस्था में बंदी बनाये गये और भागते हुए हजारों मराठा सैनिकों को बंदी बना लिया गया। भीषण हत्याकांड के बाद अब्दाली और उसके समर्थकों को मराठों के ऊपर निर्णायक विजय प्राप्त हुई।

परिणाम

पानीपत के तीसरे युद्ध के परिणामों के बारे में इतिहासकारों में भारी मतभेद है। सुप्रसिद्ध मराठा इतिहासकार सरदेसाई का मत है कि इसमें संदेह नहीं कि जहाँ तक जनशक्ति का संबंध है, उन्हें इस युद्ध से भारी क्षति पहुँची, पर इसके अलावा मराठों के भाग्य पर इस विपत्ति का वस्तुतः कोई प्रभाव न पङा।

नई पीढी के लोग शीघ्र ही, पानीपत में होने वाली क्षति की पूर्ति करने के लिये उठ खङे हुए। अतः यह सोचना कि पानीपत के युद्ध ने मराठों की उठती हुई शक्ति को पूरी तरह से कुचल दिया, ठीक नहीं होगा। इसके विपरीत यदुनाथ सरकार की मान्यता है कि भारतीय इतिहास का एक निरपेक्ष सर्वेक्षण यह दिखा देगा कि बिना किसी प्रमाण पर आधारित वीरता तथा गौरव का यह दावा कितना कमजोर हे। इस भयंकर संघर्ष में मराठों को बुरी तरह से मार खानी पङी।

संपूर्ण महाराष्ट्र में शायद ही कोई ऐसा सैनिक परिवार बचा हो, जिसने पानीपत के इस पवित्र संघर्ष में अपना एक सदस्य न खोया हो। अनगिनत सैनिक और गैर-सैनिकों के साथ-साथ पेशवा की आशाओं का केन्द्र विश्वासराव, महान सेनानायक सदाशिवराव भाऊ, योग्य एवं पराक्रमी सेनानायक जसवंतराव पंवार, तुकोजी सिन्धिया, इब्राहीम गार्दी आदि को खोने से पेशवा बालाजी का ह्रदय भी टूट गया और 23 जून, 1761 ई. को वह स्वर्ग सिधार गया।

इतने लोगों को एक ही चपेट में खो देने से महाराष्ट्र अचानक ही अपने चुने हुए व्यक्तियों से वंचित हो गया। इससे मराठों की सैनिक एवं राजनैतिक प्रतिष्ठा में भारी कमी आ गयी। पेशवा की मृत्यु से मराठा सरदारों पर नियंत्रण रखने वाला कोई न रहा और वे पुनः अपने-अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये आत्मघात षङयंत्रों एवं कुचक्रों में लीन हो गये। मराठों की इस आपसी फूट के कारण उत्तर भारत में उनकी प्रगति अवरुद्ध हो गयी।

निस्संदेह मराठों ने अपेक्षाकृत कुछ समय में अपनी इन सभी कमियों को पूरा कर लिया। 1769 ई. में उन्होंने पुनः नर्बदा को पार किया और राजपूत शासकों, रोहिल्लों, जाटों आदि से कर वसूल किया और बाद में सिन्धिया कुछ समय के लिये मुगल सम्राट का संरक्षक बन गया। परंतु फिर भी, वे उत्तरी भारत की राजनीति में अपना स्थायी प्रभाव जमाने में सफल नहीं हो पाये। जहाँ तक अफगानों का संबंध है, उन्हें भी इस विज से कोई लाभ न हुआ। अहमदशाह इस विजय का लाभ उठाए बिना ही स्वदेश लौट गया और इसके बाद उसने फिर कभी भारतवर्ष के मामलों में कोई भाग नहीं लिया।

पानीप के युद्ध का महत्त्व एक भिन्न दिशा में निहित है। 18 वीं शता. के मध्य में दो शक्तियाँ – मराठे और अफगान, भारत में सर्वोच्च सत्ता को हस्तगत करने के लिये संघर्षरत थी।

पानीपत में जहाँ मराठा शक्ति को जबरदस्त धक्का लगा, वहीं लङखङाते मुगल साम्राज्य का भी अंत हो गया। दोनों शक्तियों के पराभव ने अंग्रेजों के लिये मैदान साफ कर दिया। भारत की प्रमुख शक्ति (मराठा) के पराभव ने अंग्रेजों का मार्ग अधिक सरल बना दिया, जिस पर चलकर वे भारत में शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण कर पाये। इस दृष्टि से पानीपत का युद्ध भारतीय इतिहास में एक मोङ-बिन्दु प्रमाणित हुआ।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  


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