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मुहम्मद बिन तुगलक का खुरासान अभियान

मुहम्मद बिन तुगलक का खुरासान अभियान – मुहम्मद बिन तुगलक ने लगभग तीन लाख सत्तर हजार घुङसवारों की एक विशाल सेना इकट्ठी की ताकि उसे खुरासान विजय के लिये भेजा जा सके। इस सेना में दोआब के राजपूत तथा कुछ मंगोल भी शामिल थे। यह अभियान तरमाशरीन के साथ मैत्री का परिणाम था। कहते हैं कि एक त्रि-मैत्री संगठन (मुहम्मद बिन तुगलक, तरमाशरीन तथा मिस्त्र के सुल्तान) भी खुरासान के सुल्तान अबू सैयद के विरुद्ध बनाया गया था। किंतु जब भारतीय सेना तैयार हुई तो ट्रांस-आक्सियाना में राजनीतिक खलबली होने से तरमाशरीन को शासक पद से हटा दिया गया। इस प्रकार यह अभियान कभी भी प्रारंभ न हो सका। इब्न बतूता तथा अरबी ग्रंथ मसालिक-उल-अबसार भी खुरासान के विरुद्ध किसी भी लङाई का उल्लेख नहीं करते। सुल्तान के समक्ष बङा प्रश्न यह था कि इस विशाल सेना का क्या किया जाए? यदि इसे पूर्णतया हटाया जाता है तो ये सैनिक कानून व्यवस्था भंग करके उत्पात मचा सकते थे। ऐसी स्थिति में सुल्तान ने यही बेहतर समझा कि इस सेना के कुछ भाग को उत्तरी भारत की पर्वतीय श्रृंखला में सीमाओं को दृढ करने के लिये भेजा जाए।

कराचिल प्रदेश के बारे में कुछ विवाद है। गार्डनर ब्राउन के अनुसार यह प्रदेश मध्य हिमालय में बसे कुल्लू तथा कांगङा के बीच में था जब कि मेहँदी हुसैन इसे गढवाल कुमाऊँ प्रदेश के साथ जोङते हैं। यदि हम इब्नबतूता तथा फरिश्ता के विवरण को देखें तो पता चलता है कि मुहम्मद बिन तुगलक के काल में चीनियों ने हिमालय के इस हिस्से में राजपूत राजाओं को परेशान किया हुआ था, इसलिए भी सुल्तान इस सीमा को सुदृढ करना चाहता था। महत्त्वपूर्ण बात यह हि कि जब दक्षिण की सुरक्षा पूर्ण हो गई तब उसका ध्यान पर्वतीय सीमा की तरफ गया ताकि उत्तर में किलों की श्रृंखला को पूर्ण किया जा सके। इस नीति को कार्यान्वित करने के लिये खुरासान के विरुद्ध तैयार की गयी कुछ सेना उपयोगी हो सकती थी। लेकिन कुछ कारणों से यह अभियान भी अंततः विफल हुआ। यद्यपि मैदानी इलाकों में सफलता प्राप्त होती गयी तथापि सेना में पहाङों की चढाई तथा कठिनाइयों को बरदाश्त करने की क्षमता नहीं थी। पर्वतीय स्थानों पर सैनिक, वर्षा तथा बीमारी का सामना न कर सके। परिणाम यह हुआ कि पहाङी लोगों का साहस बढ गया। उन्होंने पत्थर फेंकने शुरू कर दिए। सेना को निराश होकर वापस लौटना पङा।

इन प्रयोगों के निराशाजनक परिणामों तथा खुरासान अभियान के लिये बनाई गयी सेना की बरखास्तगी ने सुल्तान के लिये कई परेशानियाँ उत्पन्न कर दी। बेरोजगार सैनिकों की नाराजगी को उलेमा वर्ग, विशेषतः शेखों तथा सूफियों ने अपने हितों के लिये काम में लिया। उलेमा वर्ग पहले से ही सुल्तान से नाराज था क्योंकि मुहम्मद तुगलक के धार्मिक एवं प्रशासनिक विस्तार उनके विचारों के अनुरूप नहीं होते थे। उलेमा अपने परंपरागत विशेषाधिकारों में कोई कमी नहीं चाहते थे। सुल्तान की उनके प्रति लापरवाही तथा संदेहपूर्ण रवैया उन्हें हमेशा खटकता रहता था। खोजबीन करने पर पता चलता है, कि मुल्तान में बहराम ऐबा किशलू खाँ को सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह करवाने में कई सैयदों का हाथ था। सुल्तान ने कई उलेमाओं की निर्दयता से हत्या करवा दी तथा दूसरों को बङी-बङी सजाएँ दी। सुल्तान किसी भी विद्रोही को क्षमा करने के लिये तैयार न था। परिणाम यह हुआ कि उसके इस राजनीतिक कार्य से सारे उलेमा वर्ग में रोष की लहर दौङ गई। उनकी सहानुभूति सताए हुए सैयदों के प्रति बढती गयी। इसके अलावा सुल्तान ने हिंदुस्तानी सूफियों की जगह पर बाहर से आकर बसे सूफियों को अधिक अनुदान किए। ऐसी स्थिति में भारत में रह रहे सूफियों तथा सैयदों ने इसे अपना अनादर समझा तथा सुल्तान के विरुद्ध लोकमत तैयार करना प्रारंभ कर दिया।

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