इतिहासराजस्थान का इतिहास

सवाई जयसिंह की मराठा नीति कैसी थी

सवाई जयसिंह की मराठा नीति

सवाई जयसिंह की मराठा नीति (Maratha policy of Sawai Jai Singh)-

सवाई जयसिंह ने अपनी प्रथम सूबेदारी के काल में मराठों को मालवा से खदेङने के लिये उनके विरुद्ध सैनिक अभियान किये थे। लेकिन 1717 ई. के आसपास उसे मालवा की सूबेदारी से हटा दिया गया और उसके स्थान पर क्रमशः मुहम्मद अमीन खाँ, निजामउलमुल्क, राजा गिरधर बहादुर, भवानीराम आदि को एक के बाद एक मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया।

1729 ई. में सवाई जयसिंह को पुनः मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। 1719 ई. की मुगल-मराठा संधि के अनुसार मराठों को दक्षिण के सूबों से चोथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार मिल गया था। 1723 ई. में निजाम-उल्-मुल्क जो कि दक्षिण में अपने लिये एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना का स्वप्न देखा करता था, ने बाजीराव को गुजरात एवं मालवा में छूट दे दी।

बाद में जब निजाम को दक्षिण की सूबेदारी से हटा दिया गया तो उसने बाजीराव की सहायता से शाही अधिकारियों को परास्त करके दक्षिण में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इस अवसर पर भी उसने मराठों को मालवा एवं गुजरात से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार दिलवाने का आश्वासन दिया।

तब सम्राट ने निजाम से मालवा की सूबेदारी भी छीन ली और राजा गिरधर बहादुर को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया जो नवम्बर, 1728 ई. में मराठों से लङता हुआ मारा गया। उसके बाद उसके भाई भवानी राम को सूबेदार बनाया गया परंतु वह मराठों को मालवा से निकालने में असफल रहा।

सवाई जयसिंह की मराठा नीति

ऐसी स्थिति में सवाई जयसिंह दूसरी बार मालवा का सूबेदार बनकर आया। उसने अनुभव किया कि जर्जरित मुगल साम्राज्य की सहायता से पेशवा बाजीराव के उत्तर की ओर प्रसार को रोकना अत्यधिक कठिन है क्योंकि 1730 ई. तक मराठों ने दक्षिण के सूबों तथा गुजरात से चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था।

अतः सवाई जयसिंह इस समस्या को सैनिक शक्ति के द्वारा हल करने के पक्ष में नहीं था क्योंकि पिछले बारह वर्षों के इतिहास ने यह प्रमाणित कर दिया था कि इस नीति का कोई सुपरिणाम निकलने वाला नहीं है। जयसिंह ने मौजूदा स्थिति में मराठों व मुगल दरबार के बीच एक ऐसे समझौते का प्रयास किया जो मराठा आकांक्षाओं की पूर्ति करने के साथ-साथ मुगल सम्राट के सार्वभौमिक अधिकार की भी रक्षा कर सके।

उसका विचार था कि शाहू की जागीरें तथा मराठा सरदारों को उचित मनसब देकर उन्हें पतनोन्मुख साम्राज्य का प्रमुख आधार बना लिया जाय। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये 1730 ई. के बाद जयसिंह ने लगातार प्रयत्न किये और पूना तथा सतारा से बातचीत जारी रखी। उसने शाहू तथा पेशवा बाजीराव के सामने समझौते की शर्तों का घोर विरोध किया।

सितंबर, 1730 ई. में जयसिंह को मालवा की सूबेदारी से हटा दिया गया और उसके स्थान पर मुहम्मद बंगश को मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया। परिणाम यह निकला कि जयसिंह ने मराठों के साथ समझौता करने के लिये अब तक जो अथक परिश्रम किया था, वह बेकार चला गया।

पेशवा बाजीराव के सेनानायकों ने मुहम्मद बंगश को कई बार परास्त किया। परिणामस्वरूप 1732 ई. में उसे मालवा से वापस बुला दिया गया और सवाई जयसिंह को तीसरी बार मालवा का सूबेदार नियुक्त किया गया।

सवाई जयसिंह को मालवा की सूबेदारी मिलने की सूचना पहले से ही मिल चुकी थी और वह तभी से इस समस्या के समाधान करने पर विचार करने लगा था। उसने अनुभव किया कि मालवा में शांति और व्यवस्था को बनाये रखने तथा मराठों को रोकने के लिये यदि मेवाङ राज्य की सेवाएँ भी उपलब्ध की जा सकें तो अच्छा रहेगा।

अतः सवाई जयसिंह के नेतृत्व में जयपुर एवं मेवाङ राज्यों की संयुक्त व्यवस्था की योजना तैयार की गयी और सवाई जयसिंह ने अपने दीवान राजा अयामल को इस योजना के साथ उदयपुर भेजा, ताकि विस्तार से सभी बातें तय की जा सकें। अंत में दोनों के बीच समझौता सम्पन्न हो गया।

इसकी मुख्य बातें इस प्रकार थी-

  • मालवा की सुरक्षा के लिये 24000 घुङसवार और 24,000 पदाति सैनिक रखने का निश्चय किया गया। इसमें से 9,000 घुङसवार और इतने ही पदाति सैनिक उदयपुर के होंगे तथा शेष 15,000 घुङसवार और इतने ही पदाति सैनिक जयपुर के होंगे।
  • मालवा सूबा की भूमि से तथा पेशकश से होने वाली आय का हिस्सा उदयपुर को मिलेगा और दो हिस्सा जयपुर को।
  • सूबा के अलावा, दोनों राज्य मनसबदारों से मालवा में स्थित उनकी जागीरों को इजारे पर लेंगे और इजारे की रकम चुकाने के बाद जो मुनाफा होगा वह उपर्युक्त अनुपात में दोनों में विभाजित कर दिया जायेगा।
  • दोनों राज्यों के अधिकारी और कर्मचारी, मालवा में मिल जुलकर काम करेंगे।
  • यदि मराठों को रोकने के लिये और अधिक सैनिकों की आवश्यकता पङेगी तो दोनों राज्य उपर्युक्त अनुपात में सैनिकों तथा सवारों की व्यवस्था करेंगे।

समझौता तो हो गया परंतु इसको कार्यान्वित किया जा सकता उसके पहले ही मराठा मालवा में आ धमके। गुजरात की तरफ से मल्हारराव होल्कर और राणोजी सिन्धिया ने मालवा में प्रवेश किया। आनंदराव पंवार और विठोजी बूले अपने सैनिक दस्तों के साथ पहले से ही मालवा में उपस्थित थे।

11 दिसंबर, 1732 ई. को होल्कर और सिन्धिया ने रामपुरा में नियुक्त सवाई जयसिंह के बख्शी जोरावरसिंह को लिखा कि वह रामपुरा का बकाया रुपया चुकाने की व्यवस्था करे। इस समय जयसिंह बुन्देलखंड की तरफ बढ रहा था। होल्कर और सिन्धिया को ज्यों ही जयसिंह की गतिविधियों की जानकारी मिली, वे तेजी के साथ उस तरफ बढे और मन्दसौर के निकट उन्होंने जयसिंह को चारों तरफ से घेर लिया।

मराठों ने जयसिंह की सेना की इतनी जोरदार नाकेबंदी की कि रसद और पानी मिलना भी कठिन हो गया जिससे उसे भारी कष्ट उठाने पङे। ऐसी स्थिति में, जयसिंह ने कूटनीति से काम लिया। इन दिनों कृष्णाजी पंवार और उदाजी पंवार का पेशवा बाजीराव से तनाव चल रहा था, क्योंकि पेशवा ने मालवा में उन्हें जो हिस्सा प्रदान किया था, उससे वे दोनों ही असंतुष्ट थे। जयसिंह ने इन दोनों असंतुष्ट सरदारों से गुप्त बातचीत चलाई और सहायता की प्रार्थना की।

फलस्वरूप इन दोनों सरदारों ने अपने सैनिक दस्तों को जयसिंह की सेना के साथ मिला देने का प्रयास किया। लेकिन होल्कर भी चोकन्ना था। उसने उदाजी के शिविर पर आक्रमण कर उशकी सैन्य सामग्री को लूट लिया और उसे जयसिंह से मिलने से रोक दिया। चूँकि जयसिंह को दिल्ली से शीघ्र सहायता की आशा न थी अतः उसने मराठों से संधि की बातचीत आरंभ कर दी।

वह मराठों को 6 लाख रुपये बतौर संधि के देना चाहता था परंतु होल्कर अधिक की माँग करने लगा। दोनों पक्षों में लेनदेन की बातचीत बंद कर मराठों पर जोरदार आक्रमण किया और मराठों को पीछे धकेल दिया। इस संघर्ष में जयसिंह की सेना के पिछले भाग का सेनापति मारा गया। मराठों के 10-15 बङे अधिकारी और 150-200 सैनिक मारे गये और होल्कर लगभग 20-30 मील दूर तक पीछे हट गया।

जयसिंह सेना सहित होल्कर के पीछे गया परंतु वह 16 मील ही बढ पाया था कि अचानक होल्कर ने उसे चारों तरफ से घेर लिया। अब जयसिंह में अधिक लङने की शक्ति नहीं रही थी, अतः पुनः समझौता-वार्ता शुरू करनी पङी। इस बार उसको मराठों को 6 लाख रुपये नकद तथा मालवा के 58 परगनों की वसूली देना स्वीकार करना पङा। इसके बाद 18 मार्च, 1733 ई. में मराठों ने मालवा को छोङ दिया।

इसके बाद जयसिंह भी अपनी राजधानी जयपुर लौट आया क्योंकि राजपूताना में उसकी उपस्थिति अधिक जरूरी हो गयी थी। अक्टूबर, 1733 में मेवाङ की सेना भी मालवा से वापस बुला ली गयी। इसी समय एक मराठा सेना ने रामपुरा जाकर जयपुर के अधिकारियों से लगभग सात लाख रुपये वसूल किये। जयसिंह को मराठों के इस व्यवहार से काफी दुःख हुआ, परंतु वह विवश था।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
indiagovtexam : सवाई जयसिंह की मराठों के प्रति नीति

Related Articles

error: Content is protected !!