हुरङा सम्मेलन (hurrah conference) –
मालवा, गुजरात और बुन्देलखंड में मराठों को रोकने में मुगल सरकार की असफलता तथा राजस्थानी राज्य के आंतरिक झगङों में मराठों के इस प्रथम हस्तक्षेप ने राजस्थान के समस्त विचारशील शासकों की आँखें खोल दी। राजपूत शासकों ने अनुभव किया कि मराठों के बढते हुये प्रभाव को रोकने के लिये उन्हें सामूहिक प्रयास करने चाहिएँ अन्यथा राजस्थान की भी वही दशा हो जायेगी जो मालवा और गुजरात की हुयी है।
वस्तुतः राजस्थान के सभी शासकों को मराठों से समान भय था। मेवाङ के महाराणा संग्रामसिंह को इस बात का भय था कि मालवा पर मराठों का अधिकार हो जाने से, वे मेवाङ के पङौस में होने के कारण यहाँ की शांति भंग कर सकते हैं। सवाई जयसिंह मराठों को मालवा से दूर रखकर मालवा का कुछ भाग रामपुरा में मिलाकर अपने छोटे पुत्र माधोसिंह के लिये अलग राज्य बनाना चाहता था, ताकि भावी उत्तराधिकार के संघर्ष को टाला जा सके। साथ ही वह अपनी मंदसौर पराजय का बदला भी लेना चाहता था।
जोधपुर के महाराजा अभयसिंह को गुजरात की सूबेदारी के समय पिलाजी गायकवाङ की हत्या के प्रश्न पर मारवाङ-मराठा संबंध कटु हो चुके थे। अभयसिंह गुजरात को मराठों से सुरक्षित कर, गुजरात के कुछ भाग को अपने राज्य में मिलाना चाहता था। चूँकि कोटा, अन्य राजपूत राज्यों की अपेक्षा शक्तिहीन था, अतः उसे मराठों का अत्यधिक खतरा था।
मराठों को मालवा से निकालने के लिये मेवाङ के स्वर्गीय महाराणा संग्रामसिंह ने शाहू के पास अपना प्रतिनिधि भेजकर बातचीत द्वारा समस्या को हल करने के कई प्रयत्न किये थे, किन्तु सभी प्रयत्न असफल रहे। तब मराठों को प्रलोभन देकर मालवा से निकालने की नीति अपनायी गयी।
महाराणा के धायभाई नगराज ने मराठों को 5 लाख रुपया देकर मालवा खाली करना चाहा, किन्तु धन लेकर भी मराठे मालवा को छोङने को तैयार नहीं हुए। इस प्रकार राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों से मराठों को निकालने हेतु, राजपूतों की साम-दाम की नीति असफल हो चुकी थी। अतः अब मराठों के विरुद्ध राजस्थानी शासकों को अपनी संगठित शक्ति का सहारा लेने के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं था।
मराठों का सफलतापूर्वक सामना कर सकने के आवश्यक उपाय सोच निकालने के लिये सवाई जयसिंह ने राजस्थान के सारे शासकों को हुरङा (उत्तरी मेवाङ में अजमेर की सीमा के निकट) में एकत्रित करने का आयोजन किया। हुरङा सम्मेलन के कुछ दिन पूर्व मेवाङ के एक प्रमुख उमराव ने मालवा के विभाजन की एक रूपरेखा तैयार की थी, जिसके अनुसार प्रान्त के दो भाग मेवाङ को, एक-एक भाग जोधपुर व जयपुर को और आधा भाग बून्दी और कोटा को देने की बात कही गयी थी।
मेवाङ के महाराणा संग्रामसिंह ने मराठों के विरुद्ध, राजस्थान के अपने ही साधनों पर आधारित प्रत्याक्रमण की योजना तैयार कर ली थी, किन्तु जनवरी 1734 ई. में महाराणा की मृत्यु हो जाने से, उस योजना की भी अकाल मृत्यु हो गयी। कुछ मूल स्रोतों से यह भी पता चलता है कि हुरङा सम्मेलन आरंभ होने से पूर्व मई 1734 ई. में ही राजस्थानी शासकों के बीच कूटनीतिक वार्ता आरंभ हो गयी थी तथा सम्मेलन में विचारणीय विषय निश्चित कर लिये गये।
तत्पश्चात् 16 मई, 1734 ई. को पूर्व निश्चित स्थान हुरङा में सम्मेलन आरंभ हुआ, जिसकी अध्यक्षता मेवाङ के नये महाराणा जगतसिंह द्वितीय ने की। सम्मेलन में सवाई जयसिंह के अलावा, जोधपुर का अभयसिंह, नागौर का बख्तसिंह, बीकानेर का जोरावरसिंह, कोटा का दुर्जनसाल, बून्दी का दलेलसिंह, करौली का गोपालदास, किशनगढ का राजसिंह आदि सारे ही छोटे-बङे नरेश उपस्थित हुए।
अभयसिंह द्वारा लगवाये गये एक बङे शामियाने में सम्मेलन आरंभ हुआ और काफी विचार विमर्श के बाद 17 जुलाई को सभी शासकों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये। समझौते के अनुसार सभी शासक एकता बनाये रखेंगे, एक का अपमान सभी का अपमान समझा जायेगा, कोई राज्य, दूसरे राज्य के विद्रोही को अपने राज्य में शरण नहीं देगा, मराठों के विरुद्ध वर्षा ऋतु के बाद कार्यवाही आरंभ की जायेगी जिसके लिये सभी शासक अपनी सेनाओं के साथ रामपुरा में एकत्रित होंगे और यदि कोई शासक किसी कारणवश उपस्थित होने में असमर्थ होगा तो वह अपने पुत्र अथवा भाई को भेजेगा।
हुरङा सम्मेलन में, मराठों के कारण उत्पन्न स्थिति पर सभी शासकों द्वारा विचार-विमर्श करना और सामूहिक रूप से सर्वसम्मत निर्णय लेना, इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। खानवा-युद्ध के बाद पहली बार राजस्थानी शासकों ने अपने शत्रु के विरुद्ध मोर्चा तैयार किया था। किन्तु यह राजस्थान का दुर्भाग्य ही था कि हुरङा सम्मेलन के निर्णय कार्यान्वित नहीं किये जा सके।
क्योंकि इन राजपूत शासकों का इतना घोर नैतिक पतन हो चुका था और वे ऐश्वर्य विलास में इतने डूबे हुए थे कि अपने आपसी जातीय झगङों को भूलकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं लाभ को छोङना तथा अपने शारीरिक सुखों का त्याग कर विपति से बचने के लिये संगठित होकर मराठों का सामना करना उनके लिये असंभव था। इसके अतिरिक्त राजस्थान में प्रभावशाली और क्रियाशील नेतृत्व के अभाव में निर्णय कार्यान्वित नहीं हो सके।
यद्यपि मेवाङ के महाराणा को सभी शासक श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे, किन्तु महाराणा जगतसिंह सर्वाधिक योग्य था किन्तु जयसिंह, महाराणा जगतसिंह के इस विचार से सहमत नहीं था कि मराठों को मालवा से निकालकर प्रान्त को आपस में बाँट लें। सवाई जयसिंह मराठों की सैनिक क्षमता देख चुका था।
1728 ई. तक मराठों की अजेयता की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी और स्वयं मुगल सरकार भी मराठों का सफलतापूर्वक सामना करने में असफल ही रही थी। अतः जयसिंह जानता था कि राजपूत शासकों की सामूहिक शक्ति भी मराठों को मालवा से नहीं निकाल पायेगी।
फिर मालवा को ऊपर लिखे अनुपात में बाँट लेना भी तत्कालीन परिस्थितियों में संभव नहीं था, क्योंकि राजपूत शासक अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ को छोङने के लिये तैयार नहीं थे। कुछ विद्वानों ने तो यहाँ तक लिख दिया है कि अपनी योग्यता के आधार पर जयसिंह राजस्थानी शासकों का नेतृत्व प्राप्त करने को उत्सुक था और जब उसे सम्मेलन में नेतृत्व का सम्मान नहीं मिला तो वह सम्मेलन के निर्णय के प्रति उदासीन हो गया।
वस्तुतः सवाई जयसिंह, महाराणा जगतसिंह द्वितीय और अभयसिंह के बीच सद्भावना का अभाव था। प्रत्येक शासक की अपनी महत्वाकांक्षाएँ थी, जो प्रायः सार्वजनिक हितों के विरुद्ध थी। कोई भी शासक सार्वजनिक हित के लिये अपने स्वार्थों को त्यागने के लिये तैयार नहीं था। संभवतः इसीलिए 1734 ई. की वर्षा ऋतु के बाद राजपूत शासकों ने रामपुरा में एकत्र होने की बजाय मुगल सरकार द्वारा आयोजित मराठों के विरुद्ध अभियान में सम्मिलित होना अधिक लाभप्रद समझा। इस समय दिल्ली में इस अभियान की जोर शोर से तैयारी हो रही थी।
References : 1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
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