पेशवाओं का विवरण (Description of Peshwas)– मराठा साम्राज्य के प्रधानमन्त्रियों को पेशवा कहते थे। ये राजा के सलाहकार परिषद अष्टप्रधान के सबसे प्रमुख होते थे। राजा के बाद इन्हीं का स्थान आता था। छत्रपती शिवाजी महाराज के अष्टप्रधान मन्त्रिमण्डल में प्रधानमन्त्री अथवा वजीर का पर्यायवाची पद था। ‘पेशवा’ फारसी शब्द है जिसका अर्थ ‘अग्रणी’ है।

पेशवा पद का प्रारंभ
पेशवा का पद मूलरूप से शिवाजी द्वारा नियुक्त अष्टप्रधानों में से एक था। पेशवा को ‘मुख्य प्रधान’ भी कहते थे। उसका कार्य सामान्य रीति से प्रजाहित पर ध्यान रखना था। मराठा साम्राज्य में पेशवा का पद पहले वंशगत नहीं था,लेकिन बालाजी बाजीराव ने 1749 ई. में महाराज शाहू की मृत्यु के बाद पेशवा पद को वंशागत बना दिया था। बालाजी बाजीराव ने इस पद को मराठा साम्राज्य में सर्वोच्च स्थान का दर्जा दिलवाया था।
प्रारंभ में, पेशवा मर्यादा में अन्य सदस्यों के बराबर ही माना जाता था। छत्रपति राजाराम महाराज के समय में पन्त-प्रतिनिधि का नवनिर्मित पद, राजा का प्रतिनिधि होने के नाते पेशवा से ज्येष्ठ ठहराया गया था।
पेशवाई सत्ता के वास्तविक संस्थापन का, तथा पेशवा पद को वंशपरम्परागत रूप देने का श्रेय पेशवा, बालाजी विश्वनाथ को है। किन्तु, यह परिवर्तन श्रीमंत छत्रपति शाहू महाराज के सहयोग और सहमति द्वारा ही सम्पन्न हुआ, उनकी असमर्थता के कारण नहीं। पेशवा साम्राज्य के सत्ताधीश तो बन चुके थे किंतु, प्रजा और सरदार छत्रपति को ही सर्वाधिक सम्मान देती थी। साम्राज्य मे अंतिम निर्णय छत्रपति ही लेते थे। यद्यपि बालाजी विश्वनाथ के उत्तराधिकारी बाजीराव ने मराठा साम्राज्य के सीमा विस्तार के साथ – साथ अपनी सत्ता को भी सर्वोपरि बना दिया, तथापि वैधानिक रूप से पेशवा की स्थिति में क्रान्तिकारी परिवर्तन शाहू की मृत्यु के बाद, बाजीराव के पुत्र बालाजी के समय में हुआ।
अल्पवयस्क छत्रपति रामराजा की अयोग्यता के कारण समस्त राजकीय शक्ति संगोला के समझौते (25 sitambar 1750) के अनुसार, पेशवा को हस्तांतरित हो गई, तथा शासकीय केन्द्र सातारा की अपेक्षा पुणे निर्धारित किया गया। किन्तु पेशवा माधवराव के मृत्युपरान्त जैसा सतारा राजवंश के साथ हुआ, वैसा ही पेशवा वंश के साथ हुआ। माधवराव के उत्तराधिकारियों की नितान्त अयोग्यता के कारण राजकीय सत्ता उनके अभिभावक नाना फडनवीस के हाथों में केंद्रित हो गई। किन्तु आँग्ल शक्ति के उत्कर्ष के कारण इस स्थिति में भी शीघ्र ही महान परिवर्तन हुआ। अंतिम पेशवा बाजीराव द्वितीय को वसई की संधि के अनुसार (31 disambar 1802) अंग्रेजों का प्रभुत्व स्वीकार करना पड़ा, 13 joon 1817, की सन्धि के अनुसार मराठा संघ पर उसे अपना अधिकार छोड़ना पड़ा, तथा अन्त में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध की समाप्ति पर, मराठा साम्राज्य के विसर्जन के बाद, पदच्युत होकर अंग्रेजों की पेंशन ग्रहण करने के लिये विवश होना पड़ा।
पेशवाओं का शासनकाल-
- बालाजी विश्वनाथ पेशवा (1714-1720)
- प्रथम बाजीराव पेशवा (1720-1740)
- बालाजी बाजीराव पेशवा ऊर्फ नानासाहेब पेशवा (1740-1761)
- माधवराव बल्लाल पेशवा ऊर्फ थोरले माधवराव पेशवा (1761-1772)
- नारायणराव पेशवा (1772-1774)
- रघुनाथराव पेशवा (अल्पकाल)
- सवाई माधवराव पेशवा (1774-1795)
- दूसरे बाजीराव पेशवा (1796-1818)
- दूसरे नानासाहेब पेशवा (सिंहासन पर नहीं बैठ पाए)
पेशवा पद का महत्त्व
शाहू (1708-48 ई.) के राज्यकाल में बालाजी विश्वनाथ ने इस पद का महत्त्व बहुत अधिक बढ़ा दिया था। वह 1713 ई. में पेशवा नियुक्त हुआ और 1720 ई. में मृत्यु होने तक इस पद पर बना रहा। उसने सेनापति तथा राजनीतिज्ञ, दोनों ही रूपों में जो सफलता प्राप्त की, उससे दूसरे प्रधानों की अपेक्षा पेशवा के पद की मर्यादा बहुत ही बढ़ गई।
1720 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र बाजीराव प्रथम पेशवा नियुक्त हुआ। उसने निजाम पर विजय प्राप्त करके तथा उत्तरी भारत में विजय यात्राएँ करके पेशवा के पद का महत्त्व और भी बढ़ा दिया।
1740 ई. में बाजीराव प्रथम की मृत्यु होने पर उसका पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा बना। 1749 ई. में महाराज शाहू की नि:संतान ही मृत्यु हो गई। इसके फलस्वरूप पेशवा का पद वंशगत होने के साथ ही मराठा राज्य में सर्वोच्च मान लिया गया। पेशवा मराठा राज्य की राजधानी सतारा से हटाकर पूना ले गया और राज्य का वास्तविक इतिहास पेशवाओं के इतिहास से जाना जाने लगा।
बाजीराव ने 1740 से 1761 ई. तक शासन किया और वह इतना शक्तिशाली हो गया, कि मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय (1754-59 ई.) और शाहआलम द्वितीय (1759-1806 ई.) अहमदशाह अब्दाली के हमले से अपनी रक्षा करने के लिए उस पर आश्रित रहे। बालाजी बाजीराव के पिता ने हिन्दू पद पादशाही की स्थापना अपना उद्देश्य बनाया था। परन्तु उसने पिता की इस नीति का त्याग कर मुगल साम्राज्य के स्थान पर मराठा साम्राज्य की स्थापना करना अपना उद्देश्य बना लिया और हिन्दू तथा मुसलमान राज्यों को समान रूप से लूटना आरम्भ कर दिया। इसके फलस्वरूप महाराष्ट्र के बाहर के सभी प्रदेशों के लोगों की सहानुभूति वह खो बैठा। 1761 ई. में अब्दाली की सेना से उसकी जबरदस्त हार का कारण यह भी एक था। इस लड़ाई में मराठों को भयंकर क्षति उठानी पड़ी और उसका परिणाम उनके लिए अत्यन्त ही घातक सिद्ध हुआ। इस लड़ाई के छ: महीने के बाद ही पेशवा बालाजी बाजीराव शोकाभिभूत होकर मर गया।
बालाजी बाजीराव की मृत्यु के बाद पेशवाओं का और उनके साथ-साथ मराठा राज्यशक्ति का पतन आरम्भ हो गया। माधवराव प्रथम ने पानीपत की हार से मराठों को उभारने का भरपूर प्रयास किया। उसके इन्हीं प्रयासों से मराठा शक्ति एक बार फिर से बढ़ने लगी थी। ऐसा प्रतीत होता था कि पानीपत में जो कुछ भी मराठों ने खोया था, उससे कहीं अधिक उन्होंने प्राप्त कर लिया है। लेकिन अचानक ही माधवराव प्रथम की 1772 ई. में मृत्यु हो गई। अगला पेशवा नारायणराव (1772-73 ई.) में अपने चाचा राघोवा के संकेत पर मार डाला गया। उसके बाद 1773 ई. में कुछ समय के लिए राधोवा पेशवा रहा, परन्तु उसे विवश होकर पेशवाई नारायणराव की मृत्यु के बाद जन्मे उसके पुत्र माधवराव नारायण को सौंपनी पड़ी। माधवराव नारायण (अथवा माधवराव द्वितीय) 1774 ई. से 1795 ई. तक पेशवा रहा। परन्तु राधोवा पेशवा कुल कलंक साबित हुआ। अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए उसने पेशवा को पहले अंग्रेज-मराठा युद्ध में फँसा दिया, जो 1775- से 1782 ई. तक चलता रहा। इस युद्ध के फलस्वरूप मराठा संघ पर पेशवा का नियंत्रण और शिथिल पड़ गया।
नाना फड़नवीस इस समय पेशवा का प्रधान अमात्य था। उसकी नीतिकुशलता तथा योग्यता के कारण अगले 18 सालों तक दक्षिण में पेशवाओं की राज्यशक्ति अखण्डित रही, किन्तु उत्तर भारत में मराठा राज्यशक्ति स्थापित करने के सारे प्रयत्न त्याग दिये गये। 1800 ई. में नाना फड़नवीस की मृत्यु के साथ पेशवा को बुद्धिमत्तापूर्ण सलाह देने वाला कोई नहीं था।
1802 ई. में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने, जो 1796 ई. में धोखेबाजी और चालाकी से पेशवा बना था, अपने मराठा सरदारों, विशेष रूप से मल्हारराव होल्कर और महादजी शिन्दे के चंगुल से अपने को बचाने के लिए बसई भाग गया, और वहाँ पर उसने अंग्रेजों के साथ स्वेच्छा से बसई की सन्धि कर ली। उसने अंग्रेजों की आश्रित सेना रखना स्वीकार करके एक प्रकार से अपनी स्वतंत्रता बेच दी। बाजीराव द्वितीय ने अंग्रेजों के साथ भी अपना वचन नहीं निभाया, जिससे अंग्रेज भी उसके दुश्मन हो गए। उसके साथ कायरतापूर्ण आचरण पर मराठा सरदारों में भारी आक्रोश उत्पन्न हो गया। फलस्वरूप दूसरा मराठा युद्ध (1803-06 ई.) आरम्भ हुआ, और मराठा राज्य शक्ति और मजबूती से अंग्रेजों के फौलादी पंजों में कस गई।
अंग्रेजों का जुआ अपने पर लाद लेने पर बाजीराव द्वितीय को शीघ्र ही पछतावा होने लगा था, कि उसने एक बहुत भारी गलती की है। उसके द्वारा उस जुए को उतार फेंकने की कोशिश करने पर तीसरा मराठा युद्ध (1817-19 ई.) छिड़ गया। इस युद्ध में कई लड़ाईयों में पेशवा की निर्णायात्मक हार हुई और उसे गद्दी से उतार दिया गया और पेशवाई समाप्त कर दी गई, फिर भी बाजीराव द्वितीय को 8 लाख रुपये की वार्षिक पेंशन पर कानपुर के निकट बिठूर जाकर रहने की इजाजत दे दी गई। 1853 ई. में बिठूर में ही उसकी मृत्यु हो गई। अंग्रेजों ने उसके गोद लिये हुए लड़के नाना साहब को पेंशन देने से इन्कार कर दिया। इसके फलस्वरूप उसने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में प्रमुख भाग लिया और अंत में पराजित हो गया।
