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गंधार कला शैली कैसी थी

यूनानी कला के प्रभाव से देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कला की जिस नवीन शैली का उदय हुआ, उसे गंधार शैली कहा जाता है। पाश्चात्य विद्वानों की धारणा है, कि सर्वप्रथम गंधार शैली में ही बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया गया। किन्तु इस संबंध में कोई ठोस प्रमाण हमें प्राप्त नहीं होता है।

वी.एस.अग्रवाल ने काफी अच्छे ढंग से यह सिद्ध कर दिया कि सर्वप्रथम बुद्ध मूर्ति का आविष्कार मथुरा के शिल्पियों द्वारा किया गया था। चूँकि मथुरा के शिल्पी बहुत पहले से ही यक्ष तथा नाग की सुंदर-2 मूर्तियाँ बना रहे थे, अतः हम बुद्ध मूर्तियों की रचना का प्रथम श्रेय मथुरा के शिल्पियों को दे सकते हैं।

गंधार शैली में भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया है। इस पर रोमन कला का भी प्रभाव स्पष्ट है। इसका विषय केवल बौद्ध है, और इसी कारण इस कला को कई बार यूनानी-बौद्ध (ग्रीको-बुद्धिस्ट), इंडो -ग्रीक अथवा ग्रीको-रोमन (यूनानी-रोमीय) कला भी कहा जाता है। इस शैली की मूर्तियाँ अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान के अनेक स्थलों से मिलती हैं। इसका प्रमुख केन्द्र गंधार ही था, और इसी कारण यह गंधार कला के नाम से ही ज्यादा लोकप्रिय हुई।

गंधार शैली में बनाई गई बौद्ध मूर्तियों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • गंधार कला के अंतर्गत बुद्ध एवं बोधिसत्वों की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण हुआ। कुषाण तथा जैन धर्मों से संबंधित मूर्तियां इस कला में प्रायः नहीं मिलती। कुषाण काल में कला एवं स्थापत्यजैन धर्म के अनुसार संसार के 6 द्रव्य।
  • मूर्तियाँ काले स्लेटी पाषाण, चूने तथा पकी मिट्टी से बनी हैं। ये ध्यान, पद्मासन, धर्मचक्र-प्रवर्तन, वरद तथा अभय आदि मुद्राओं में हैं।
  • इन मूर्तियों के साथ ही साथ बुद्ध के जीवन तथा पूर्व जन्मों से संबंधित विविध घटनाओं के दृश्यों जैसे – माया का स्वप्न, उनका गर्भधारण करना, माया का कपिलवस्तु से लुंबिनी उद्यान में जाना, बुद्ध का जन्म, लुंबिनी से कपिलवस्तु वापस लौटना, अस्ति द्वारा कुण्डली फल बताना, सिद्धार्थ का बोधिसत्व रूप, पाठशाला में बोधिसत्व की शिक्षा, लिपि विज्ञान में सिद्धार्थ की परीक्षा, उनकी मल्ल तथा तीरंदाजी में परीक्षा, यशोधरा से विवाह, देवताओं द्वारा संसारत्याग हेतु सिद्धार्थ से प्रार्थना, सिद्धार्थ का कपिलवस्तु छोङना, कंथक से विदा लेना, बुद्ध के दर्शन हेतु मगधराज बिम्बिसार का जाना, संबोधि प्राप्त के पहले की विविध स्थितियां, देवताओं द्वारा बुद्ध से धर्मोपदेश के लिये प्रार्थना करना, धर्मचक्रपर्वतन, बुद्ध का कपिलवस्तु आगमन तथा राहुल को भिक्षु की दीक्षा देना, नंद सुंदरी कथानक, बुद्ध पर देवदत्त के प्रहार, श्रावस्ती में अनाथपिण्डक द्वारा विहार का दान, नलगिरि हाथी को वश में करना, अंगुलिमाल का आत्मसमर्पण, किसी स्री के मृत शिशु की घटना, आनंद को सान्त्वना देना, इंद्र और पंचशिख गंधर्व द्वारा बुद्ध का दर्शन, आम्रपाली द्वारा बुद्ध को आम्रवाटिका प्रदान करना, कुशीनगर में महापरिनिर्वाण , धातुओं का बंटवारा तथा धातु पात्र का हाथी की पीठ पर ले जाया जाना, धातु पूजा, त्रिरत्न पूजा सहित 61 दृश्यों का अंकन इस शैली में किया गया है।
  • तपस्यारत बुद्ध का एक दृश्य, जिसमें उपवासरत तपस्वी के शरीर का यथार्थ अत्यंत कमजोर हो गया है, गंधार कला के सर्वोत्तम नमूनों में से है।
  • बुद्ध से विदा लेते हुए उनके कन्थक नामक प्रिय अश्व का दृश्य काफी प्रभावोत्पादक है।
  • गंधार शैली की मूर्तियां लाहौर तथा पेशावर के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं।
  • इन मूर्तियों में मानव शरीर के यथार्थ चित्रण की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। मांस-पेशियों, मूंछों, लहरदार बालों का अत्यंत सूक्ष्म ढंग से प्रदर्शन हुआ है।
  • बुद्ध की वेश-भूषा यूनानी है, उनके पैरों में जूते दिखाये गये हैं। प्रभामंडल सादा तथा अलंकरणरहित है और शरीर से अत्यंत सटे अंग-प्रत्यंग दिखाने वाले झीने वस्रों का अंकन हुआ है।
  • बुद्ध के सिर पर घुंघराले बाल देखाये गये हैं।
  • ये सभी मूर्तियां यूनानी देवता अपोलो की नकल प्रतीत होती हैं।
  • बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियों के अलावा गंधार शैली की कुछ देवी-देवताओं की मूर्तियां भी मिली हैं। इनमें हरीति तथा रोमा अथवा एथिना देवी की मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं।
  • महात्मा बुद्ध की मूर्तियां अपने सूक्ष्म विस्तार के बावजूद मशीन से बनाई गई प्रतीत होती हैं। इनमें वह सहजता तथा भावनात्मक स्नेह नहीं है, जो भरहुत, साँची, बोधगया अथवा अमरावती की मूर्तियों में दिखाई देता है। इसी कारण यह कहा जाता है, कि इस शैली के कलाकार के पास यूनानी का हाथ परंतु भारतीय का ह्रदय था।

प्रमुख बुद्ध मूर्तियाँ निम्नलिखित हैं

आरंभिक बुद्ध मूर्ति पेशावर के पास शाहजी की ढेरी से प्राप्त कनिष्क चैत्य की अस्थिमंजूषा पर बनी है। विरमान की अस्थिमंजूषा पर भी बुद्ध को मानव रूप में दिखाया गया है।शाहजी की ढेरी से प्राप्त मंजूषा के ढक्कन पर बुद्ध पद्मासन में विराजमान हैं। उनके दायें तथा बायें क्रमशः ब्रह्मा तथा इंद्र की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।

बुद्ध के कंधों पर संघाटी तथा ढक्कन के किनारे उङते हुए हंसों की पंक्ति है। मंजूषा के किनारे कंधों पर माला उठाये हुए यक्षों की आकृतियाँ हैं। उत्कार्ण लेख में कनिष्क तथा अगिशल नामक वास्तुकार का उल्लेख मिलता है।

मार्शल महोदय के अनुसार गंधार की पाषाण कला का प्रारंभ 25-60 ई. के मध्य पल्लव शासन काल में हुआ, द्वितीय शती. में कुषाण काल में उसका पूर्ण विकास हुआ तथा ससैनियन आक्रमण के परिणामस्वरूप इस कला का चतुर्थ शता. ईस्वी के प्रारंभ में पतन हो गया। कुषाण, विशेषकर कनिष्क का काल ही इसमें चर्मोत्कर्ष का काल रहा। इस कला के पतन के साथ ही उसका स्थान अत्युत्कृष्ट गचकारी और मृण्मय कला ने ग्रहण कर लिया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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