प्राचीन भारतइतिहासगुप्त काल

गुप्तों का सामाजिक जीवन

गुप्तयुगीन सामज में वर्ण व्यवस्था पूर्णरूपेण प्रतिष्ठित थी। भारतीय समाज के परंपरागत चार वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र के अतिरिक्त कुछ अन्य जाति भी अस्तित्व में आ चुकी थी। चारों वर्णों की सामाजिक स्थिति में विभेद किया जाता था। वाराहमिहिर के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के घर क्रमशः पांच, चार, तीन तथा दो कमरों वाले होने चाहिए। न्याय व्यवस्था में भी विभिन्न वर्णों की स्थिति के अनुसार भेद-भाव करने का विधान मिलता है। परंतु इस समय जाति व्यवस्था उतनी अधिक जटिल नहीं हो पाई थी, जितनी कि परवर्ती कालों में देखने को मिलती है।

चार वर्ण व्यवस्था।

समाज के सभी वर्णों एवं जातियों में ब्राह्मणों का प्रतिष्ठित स्थान था। यद्यपि उनका मुख्य कर्म धार्मिक एवं साहित्यिक था, तथापि कुछ ब्राह्मणों ने अपने जातिगत पेशों को छोङकर अन्य जातियों की वृत्ति को अपना लिया था।

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मृच्छकटिकम, जो गुप्तकालीन रचना है, में चारुदत्त नामक ब्राह्मण को सार्थवाह (व्यापारी) कहा गया है। इस ग्रंथ से पता चलता है, कि उसका परिवार पिछली तीन पीढियों से व्यापार तथा वाणिज्य का कार्य करते थे। स्मृति ग्रंथों में भी इस वृत्ति को ब्राह्मण वर्ण का आपद्धधर्म कहा गया है। यह इस काल में व्यापार वाणिज्य के बढते हुए प्रभाव का सूचक है। कुछ ब्राह्मण शिल्पकार का काम करते थे। जबकि कुछ युद्ध एवं सैनिक कार्यों में भी निपुण थे। इसी प्रकार क्षत्रिय जाति के लोगों ने भी व्यापार एवं औद्योगिक वृत्ति अपना ली थी।

इस प्रकार सभी वर्णों की वृत्तियों में शिथिलता आती जा रही थी। कृषक, पशुपालक, धातुकार, तैलकर, जुलाहे, माली आदि की समाज में विशिष्ट जातियाँ गठित हो चुकी थी। अनेक मिश्रित (संकर) जातियाँ भी अस्तित्व में आ चुकी थी। स्मृतियों में मूर्धावसिक्त, अंबष्ट, पारशव, उग्रकरण आदि मिश्रित जातियों का उल्लेख हुआ है।

समकालीन अभिलेखों में कायस्थ नामक पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है, जो पेशेवर लेखक थे तथा उनकी कोई विशिष्ट जाति नहीं बन पाई थी। गुप्तकालीन स्मृतियाँ शूद्रों को व्यापार, शिल्प एवं कृषि करने की अनुमति प्रदान करती हैं। बृहस्पति केअनुसार प्रत्येक प्रकार की वस्तुओं की बिक्री करना शूद्र का सामान्य धर्म है। उनमें से कुछ सेना में भी भर्ती होते थे।

मृच्छकटिकम से पता चलता है, कि उज्जियिनी में कुछ शूद्र अधिकारी थे। अब उन्हें महाकाव्यों तथा पुराणों के श्रवण का अधिकार भी मिल गया । यह समाज में शूद्रों के प्रति बदलते हुए दृष्टिकोण का परिचायक है। स्मृति ग्रंथों एवं फाहियान के विवरण से पता चलता है, कि समाज में अस्पृश्यता प्रचलित थी। फाहियान अछूतों को चाण्डाल कहता है, जो गाँवों एवं नगरों के बाहर निवास करते थे। वे ही आखेट करते एवं मांस बेचते थे। गाँवों तथा नगरों में प्रवेश करते समय वे लकङी पीटते हुए चलते थे, ताकि लोग मार्ग से हट जायें और उनके स्पर्श से बच जायें।

समाज की सभी जातियों में ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी। ब्राह्मणों के साथ-२ क्षत्रियों को भी उपनयन संस्कार एवं वेदाध्ययन के अधिकार प्राप्त थे। कुछ वैश्य जाति के लोग भी इन अधिकारों का उपभोग करते थे। वे ब्राह्मणों एवं विहारों को मुक्तहस्त से दान देते थे। अस्पताल खुलवाते तथा उनके निर्वाह की व्यवस्था करते थे। वैश्यों की श्रेणियाँ थी, जो व्यापार वाणिज्य का संचालन करती थी। समाज में उनकी काफी प्रतिष्ठा थी।

दास प्रथा

स्मृति ग्रंथों से समाज में दास प्रथा के प्रचलन का भी प्रमाण मिलता है। युद्ध में बंदी बनाये गये तथा ऋण न चुका सकने वाले लोग प्रायःदास बनाये जाते थे। मृच्छकटिकम से पता चलता है, कि दास के शरीर पर उसके स्वामी का पूर्ण नियंत्रण होता था। किन्तु यहाँ दास प्रथा पाश्चात्य देशों की दास प्रथा के समान जटिल नहीं थी। एक निश्चित अवधि तक सेवा करने तथा ऋण चुका देने पर दास स्वतंत्रता प्राप्त कर सकने का अधिकारी था। उसके साथ व्यवहार में मानवीय आचरण किया जाता था।

स्त्रियों की दशा

गुप्तकाल में स्रियों को प्रतिष्ठित स्थान दिया गया था। सजातीय विवाह होते थे। ऐसे भी उदाहरण देखने को मिलते हैं – निम्न वर्ण की कन्या का विवाह उच्च वर्ण में हो जाता था। ऐसे विवाह को अनुलोम विवाह कहा जाता था। स्मृति ग्रंथ इसकी मान्यता देते हें। नारद एवं पारशर की स्मृतियों से विधवा विवाह का समर्थन मिलता है। विधवा विवाह का भी विधान था।

आठ प्रकार के विवाह।

गुप्त युग में कन्याओं का विवाह सामान्यतः १२-१३ वर्ष की अवस्था में होता था, अतः उनका उपनयन संस्कार बंद हो गया। याज्ञवल्क्य-स्मृति कन्या के लिये उपनयन एवं वेदाध्ययन का निषेध करती है।

सती प्रथा का उल्लेख केवल510 ईस्वी के भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है, जिसके अनुसार उसके मित्र गोपराज की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी सती हो गयी थी। परंतु ऐसा प्रतीत होता है,कि यह प्रथा न तो समाज में लोकप्रिय हो पाई थी और न ही कोई शास्रीय मान्यता ही मिल चुकी थी।

समाज में वेश्याओं के अस्तित्व का भी प्रमाण मिलता है। कामसूत्र में गणिकाओं को दिये जाने वाले प्रशिक्षण का विवरण दिया जाता है। इससे यह मालूम होता है, कि व्यवसाय काफी प्रचलित था। मुद्राराक्षस से पता चलता है, कि उत्सवों के समय बङी संख्या में वेश्यायें सङकों पर निकलती थी। मंदिरों में कन्यायें देवदासी के रूप में नृत्यगान करने वाली देवदासियों का विवरण दिया है।

पर्दा प्रदा पर्था का प्रचलन नहीं था तथा स्रियाँ स्वतंत्रतापूर्वक विचरण कर सकता थी। किन्तु कुलीनवर्ग की महिलायें बाहर निकलते समय अपने मुँह पर घूँघट डालती थी। गुप्तकालीन स्मृतियों में स्री के सम्पत्ति संबंधी अधिकार को मान्यता प्रदान की गयी तथा स्रीधन का दायरा अत्यंत विस्तृत कर दिया गया। पुत्र के अभाव में पति की संपत्ति पर पत्नी का अधिकार होता था। नारद तथा कात्यायन आदि स्मृतिकार कन्या को भी पिता की संपत्ति का अधिकारिणी मानते हैं। कात्यायन ने तो यह व्यवस्था दी है, कि स्त्री का अधिकार होता, और वह स्रीधन के साथ इसे भी बेच सकती अथवा बंधक रख सकती है।

समाज के उच्च वर्गों का जीवन सुखी तथा आमोदपूर्ण था। संगीत, नृत्य, नाटक आदि के द्वारा लोग आनंद लेते थे। युवकों को प्रणयकला की शिक्षा दी जाती थी। कामसूत्र में इस प्रकार के सुख-संपन्न नागरिकों की दिनचर्या का वर्णन मिलता है। किन्तु यही स्थिति समाज के निम्नवर्गों की नहीं थी।

Reference : https://www.indiaolddays.com

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