शीत युद्ध का इतिहास (History of the Cold War)
शीत युद्ध का इतिहास – द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति से लेकर 1991 में सोवियत संघ के विघटन होने तक अमेरिका और रूस और उनके गुट एक विनाशकारी युद्ध के कगार पर बने रहे। दोनों एक दूसरे को कमजोर करने का हर संभव प्रयास करते रहे, पर कोई खुला युद्ध दोनों के बीच नहीं हुआ। इस स्थिति को 1946 से ही शीत युद्ध नाम दिया जाता है।

विश्व युद्ध में रूस ने जर्मनी, इटली और जापान के गुट के विरुद्ध, अमेरिका, ब्रिटेन आदि मित्र राज्यों के साथ मिलकर युद्ध में भाग लिया था। युद्ध समाप्त होने से पूर्व ही रूस और मित्र राज्यों के बीच कटुता और तनाव की स्थिति बनने लगी। रूस साम्यवादी शासन पद्धति के स्थायित्व के लिए तथा अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए इसका सारे संसार में विस्तार करना चाहता था। अमरीका और मित्र राज्यों को साम्यवाद के सिद्धांत में अपनी व्यवस्था के लिए खतरा दिखाई दिया। इस आपसी द्वंद्व के कारण गलाकाट प्रतिद्वंद्विता प्रारंभ हो गयी।
शीतयुद्ध से तात्पर्य
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमरीका और सोवियत रूस के बीच बिना खुले युद्ध के शत्रुता और तनावपूर्ण स्थिति को शीत युद्ध नाम दिया गया।
यह ऐसा युद्ध है जिसमें दो देश राजनयिक संबंध बनाये रखते हुए परस्पर अविश्वास और शत्रुता का भाव रखते हैं तथा खुले युद्ध के स्थान पर अन्य उपायों से एक दूसरे को कमजोर करने का प्रयास करते हैं। इसमें दोनों पक्ष राजनैतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक मोर्चे पर संघर्षरत होते हैं। यह युद्ध हथियारों की जगह प्रचार के माध्यमों, पत्र-पत्रिकाओं व पुस्तकों तथा रेडियो, टेलीविजन आदि के द्वारा लङा जाता है।
विरोधी पक्ष के विचारों, संस्थाओं तथा कार्य की आलोचना की जाती है तथा उसका मनोबल तोङने का प्रयास किया जाता है तथा तर्क द्वारा अपनी व्यवस्था के श्रेष्ठ और न्याय पर आधारित होने का दावा किया जाता है। इस संघर्ष में अपने शस्त्रों और बल की श्रेष्ठता का प्रचार करके प्रतिपक्षी का मनोबल क्षीण करने का प्रयास किया जाता है।
गुप्तचर संस्थाओं के माध्यम से प्रतिपक्ष के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को लालच देकर अपने देश के हितों के विरुद्ध कार्य करने के लिये फुसलाया जाता है। आर्थिक सहयोग देकर तटस्थ राष्ट्रों को अपनी और मिलाने का प्रयास किया जाता है।
शीत युद्ध के कारण
साम्यवादी और पूंजीवादी विचारधाराओं में टकराव
1917 से रूस में हुई साम्यवादी बोल्शेविक क्रांति ने संसार में स्थापित व्यवस्था के लिए युनौती उत्पन्न कर दी। साम्यवादी क्रांति ने संसार भर में वर्ग संघर्ष का खतरा उत्पन्न कर दिया। द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा आक्रमण के कारण रूस, मित्र राज्यों के पक्ष में युद्ध में सम्मिलित हुआ, किन्तु दोनों पक्षों के मध्य गहरे मतभेद थे जो पाटे नहीं जा सकते थे। युद्ध समाप्त होते ही दोनों की शत्रुता खुलकर सामने आ गयी। स्टालिन ने साम्यवाद की दुनिया पर विजय होने तक युद्ध जारी रखने की बात कही और अमेरिका ने दुनिया के किसी भी देश में साम्यवाद की स्थापना के प्रयास को अपने पर आक्रमण घोषित किया।
युद्ध काल में परस्पर अविश्वास की भावना
सोवियत रूस जर्मनी द्वारा आक्रमण किए जाने के कारण ही युद्ध में सम्मिलित हुआ था। जर्मनी के प्रति शत्रुता के अलावा मित्र राज्यों और रूस के हितों में कोई समानता नहीं थी। जब जर्मनी ने रूस पर भीषण आक्रमण किया तो रूस ने मित्र राज्यों से पश्चिम की और से जर्मनी के विरुद्ध दूसरा मोर्चा खोलने को कहा। दूसरा मोर्चा खोलने में महीनों की देर हुई। रूस ने इस देरी को मित्र राज्यों का उसे बर्बाद करने के षङयंत्र के रूप में देखा।
रूस द्वारा पूर्वी यूरोप के देशों और पूर्वी जर्मनी में अपनी कठपुतली सरकारों की स्थापना
पौलेण्ड, हंगरी, रूमानिया, चेकोस्लोवाकिया आदि से जर्मन सेनाओं को रूसी सेना ने खाली करवाया था तथा पूर्वी जर्मन क्षेत्र में जर्मन सेना के सामने हथियार डाले थे। रूस ने इन प्रदेशों में अपने सैन्य अधिकार का लाभ उठाकर वहां साम्यवादी सरकारों की स्थापना कर दी जबकि 1945 में रूस, अमेरिका और ब्रिटेन के राष्ट्राध्यक्षों के याल्टा सम्मेलन में यह निर्णय हुआ था कि युद्ध के बाद जर्मनी के आधिपत्य से मुक्त हुए देशों में जन इच्छा से सरकारों का गठन किया जायेगा। इससे रूस तथा मित्र राज्यों के बीच अविश्वास और गहरा हो गया।
शीतयुद्ध के काल में तनावपूर्ण शांति
युद्ध के समाप्त होते ही अमेरिका और रूस के बीच तनाव का प्रारंभ हो गया। स्टालिन ने फरवरी, 1946 में साम्यवाद की अंतिम विजय होने तक युद्ध जारी रखने की बात कही और अमेरीका के राष्ट्रपति ट्रूमेन ने मार्च 1947 में रूस द्वारा दुनिया के किसी भी देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करके साम्यवाद स्थापित करने के प्रयास को बलपूर्वक रोकने के इरादे की घोषणा की। अमेरिका ने 1947 में रूसी प्रभाव के विस्तार को रोकने के लिए पश्चिमी यूरोप के देशों को मार्शल प्लान के अन्तर्गत सहायता प्रारंभ की। रूस ने पूर्वी यूरोप के देशों को अमेरिकी मदद लेने से रोका तथा इसे डालर साम्राज्यवाद नाम दिया।
रूस ने पूर्वी यूरोप के लिए कोमिन फोर्म तथा कोमेकोन की स्थापना की। इन संस्थाओं का उद्देश्य रूसी पद्धति के साम्यवाद की सर्वोच्चता स्थापित करना, पूर्वी यूरोप का औद्योगीकरण करना तथा रूसी साम्यवाद में आस्था रखने वाले देशों को आर्थिक सहायता देना था।
1948-49 में बर्लिन के घेरे, 1949 में नाटो के गठन, 1956 में मिस्र द्वारा स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण, 1959 में रूस द्वारा क्युबा में प्रेक्षेपास्रों का अड्डा स्थापित करने आदि घटनाओं के कारण दोनों पक्षों के बीच युद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया।
