प्राचीन भारतइतिहासकनिष्ककुषाण वंश

कुषाण शासक कनिष्क का शासन एवं साम्राज्य विस्तार

अनेक विजयों के द्वारा कनिष्क ने अपने लिये एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। उसके विभिन्न लेखों तथा सिक्कों के आधार पर हम उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण कर सकते हैं। उसका साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पश्चिम में उत्तरी अफगानिस्तान से लेकर पूर्व में पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार तक विस्तृत था।

राजतरंगिणी से जहाँ कश्मीर पर उसका अधिकार सूचित होता है, वहीं सूई-बिहार तथा साँची के लेख सिंध, मालवा, गुजरात, राजस्थान के कुछ भाग तथा उत्तरी महाराष्ट्र पर उसके अधिकार की पुष्टि करते हैं। इसी प्रकार कौशांबी, श्रावस्ती, सारनाथ आदि के लेख पूर्वी उत्तर प्रदेश पर उसके अधिकार की पुष्टि करते हैं।

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यह एक अंतर्राष्ट्रीय साम्राज्य था। पुरुषपुर (पेशावर) इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी।

कनिष्क के शासन-प्रबंध के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त नहीं होती। वह एक शक्ति संपन्न सम्राट था। लेखों में उसे महाराजराजाधिराजदेवपुत्र कहा गया है। देवपुत्र की उपाधि से यह सूचित होता है, कि वह अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था। यह उपाधि उसने चीनी सम्राटों के अनुकरण पर ग्रहण की होगी, क्योंकि चीनी सम्राट भी अपने आप को स्वर्गपुत्र कहते थे।

टामस का विचार है, कि देवपुत्र कुषाणों की शासकीय उपाधि नहीं थी, अपितु यह प्रजा द्वारा प्रदान की गयी थी। इसी कारण इसका सिक्कों पर अंकन नहीं मिलता। आर.एस.शर्मा के अनुसार इसके माध्यम से उन्होंने अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का प्रयास किया। रोमन शासकों के अनुकरण पर कुषाण राजाओं ने भी मृत शासकों की स्मृति में मंदिर तथा मूर्तियाँ बनवाने की प्रथा का प्रारंभ किया था।

राजाधिराज की उपाधि से सूचित होता है, कि कि कुषाण सम्राट के अधीन कई छोटे-2 राजा शासन करते थे। प्रयाग लेख से सूचित होता है,कि कुषाण शासक देवपुत्र के अलावा षाहि तथा षाहानुषाहि की उपाधियाँ भी धारण करते थे। षाहि सामंत तथा षाहानुषाहि स्वामी सूचक उपाधि है।

इस प्रकार प्रशासन में सामंतीकरण की प्रक्रिया का प्रारंभ शक-कुषाण काल से ही होता दिखाई देता है। कालांतर में गुप्त सम्राटों ने इसी प्रकार की विशाल उपाधियाँ ग्रहण की। कनिष्क अपने विस्तृत साम्राज्य का निरंकुश शासक था।

प्रशासन की सुविधा के लिये अपने साम्राज्य को अनेक क्षत्रपियों में विभाजित किया था। बङी क्षत्रपी के शासक को महाक्षत्रप तथा छोटी क्षत्रपी के शासक को क्षत्रप कहा जाता था।उसके अभिलेखों में अनेक क्षत्रपों के नाम मिलते हैं। जिससे ऐसा प्रतीत होता है, कि वह अपने साम्राज्य का शासन क्षत्रपों की सहायता से करता था।

सारनाथ के लेख में महाक्षत्रप खरपल्लान तथा क्षत्रप बनस्पर का उल्लेख मिलता है। खरपल्लान मथुरा में महाक्षत्रप था तथा बनस्पर वाराणसी में क्षत्रप की हैसियत से शासन करता था। उत्तर – पश्चिम में लल्ल तथा लाइक उसके क्षत्रप थे। पश्चिमोत्तर भाग में कपिशा तथा तक्षशिला उसके शासन के केन्द्र रहे होंगे।

क्षत्रप के पद पर अधिकरतर विदेशी व्यक्तियों की ही नियुक्ति होती थी, जैसा कि उनके नाम से ही पता चलता है। कुछ क्षत्रप आनुवंशिक होते थे। कभी-2 एक ही प्रदेश के ऊपर दो क्षत्रप एक साथ शासन करते थे। इस प्रकार एक ही प्रांत पर दो शासक नियुक्त करने की विचित्र प्रथा का प्रारंभ कुषाणों के समय में देखने को मिलता है।

समुद्रगुप्त के प्रयाग लेख से पता चलता है, कि कुषाण राज्य में विषय तथा भुक्ति जैसी प्रशासनिक इकाइयाँ होती थी। सामान्य नागरिकों के समान क्षत्रप भी बुद्ध प्रतिमाओं की स्थापना करते तथा दानादि देते थे।किन्तु उनके वेतन तथा कार्यकाल के विषय में ज्यादा जानकारी प्राप्त नहीं होती है।

मथुरा संभवतः उसके शासन का मुख्य केन्द्र था तथा दूसरा प्रशासनिक केन्द्र वाराणसी में था।

कनिष्क के लेखों में किसी सलाहकारी परिषद् का उल्लेख नहीं मिलता। कुषाण लेखों में हम पहली बार दंडनायक तथा महादंडनायक जैसे पदाधिकारियों का उल्लेख पाते हैं। संभवतः वे सैनिक अधिकारी थे। ग्रामों का शासन ग्रामिक द्वारा चलाया जाता था।जिसका उल्लेख मथुरा लेख में मिलता है। ग्रामिक का मुख्य कार्य राजस्व वसूल करके केन्दीय कोष में जमा करना होता था। किन्तु ऐसा लगता है, कि कनिष्क का शासन अधिकांशतः सैनिक शक्ति पर आधारित था, और इसलिए वह स्थायी नहीं हो सका।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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