इतिहासप्राचीन भारत

प्राचीन काल में गुरु-शिष्य संबंध कैसे थे

प्राचीन भारतीय समाज में गुरु को अत्यन्त आदरपूर्ण स्थान दिया गया था। उसे देवता माना जाता था। गुरु-शिष्य संबंध अत्यन्त मधुर एवं सौहार्दपूर्ण थे। प्राचीन युग में सार्वजनिक शिक्षण संस्थायें, जहां प्रबंध समिति द्वारा नियुक्त अध्यापक शिक्षण कार्य करते थे, बहुत कम थी। अधिकतर ख्यातिप्राप्त आचार्य अपने निजी शिक्षण-केन्द्र स्थापित करके विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करते थे। इनमें आचार्य तथा उसके विद्यार्थी के बीच सीधा संबंध होता था। विद्यार्थी योग्य विद्वान आचार्य के समीप शिक्षा ग्रहण करने के लिये जाते थे तथा आचार्य भी सच्चे जिज्ञासु विद्यार्थी को ही अपना शिष्य बनाता था। शिष्य उसके घर के सदस्य के रूप में रहते हुये शिक्षा ग्रहण करता था। दोनों के संबंध पिता-पुत्रवत् हो जाते थे। निरुक्त में कहा गया है, कि शिष्य अपने आचार्य को पिता और माता के समान समझे तथा उसके प्रति कभी द्रोह न करें। मनुस्मृति में कहा गया है, कि उपनयन संस्कार के बाद विद्यार्थी का दूसरा जन्म होता है, और गायत्री उसकी माता तथा आचार्य उसका पिता होता है। शिष्य को अपना लेने के बाद गुरु उससे कोई शुल्क नहीं लेता था, बल्कि स्वयं उसे भोजन, वस्त्रादि देकर उसकी सहायता किया करता था। शिष्य के बीमार होने पर गुरु उसकी सेवा करता तथा औषधि द्वारा उपचार किया करता था। शिष्य गुरु के परिवार के सदस्य की भाँति निवास करता था। गृह कार्यों में उसकी सहायता किया करता था। वह गुरु के लिये भिक्षा माँगता था तथा उसकी आज्ञाओं का पालन करने के लिये सदा उद्यत रहता था। वह गुरु की निन्दा नहीं कर सकता था और न निन्दा सुन सकता था। आपस्तम्ब का मत है, कि गुरु की त्रुटियों को शिष्य एकान्त स्थान में उससे बताये। गौतम ने व्यवस्था दी है, कि धर्मविहीन गुरु की आज्ञा मानने से शिष्य इन्कार कर सकता है।

प्रायः सभी ग्रंथों में गुरु की सेवा शुश्रूषा को शिष्य का पुनीत कर्त्तव्य बताया गया है। वह गुरु के निमित्त प्रतिदिन जल, दातून, आसन आदि प्रदान करता था, ईंधन की व्यवस्था करता, घर की सफाई करता तथा गायों की सेवा करता था। मनु के अनुसार शुश्रूषा से ही विद्या की प्राप्ति होती है। शिष्य प्रायः एक आचार्य को छोङकर दूसरे के यहाँ नहीं जाता था। पतंजलि ने ऐसे शिष्यों को तार्थकाक बताया है, जो एक आचार्य का परित्याग कर दूसरे आचार्य के पास जाते थे। जातक ग्रंथों से विदित होता है,कि कभी-कभी आचार्य अपनी कन्या का विवाह अपने योग्य शिष्य से कर दिया करते थे। कुछ ग्रंथ गुरु-कन्या के साथ विवाह का निषेध करते हैं। शिष्य अपने शील, गुण एवं प्रतिभा के कारण गुरु का ह्रदय जीत लेते थे। शिष्य के कार्य-अकार्य के लिये गुरु ही उत्तरदायी होता था। गुरुपत्नी भी शिष्य के प्रति मधुरता एवं कोमलता का बर्ताव करती थी। वह उसकी आवश्यकताओं तथा सुख – दुःख का सदैव ध्यान रखती थी। गुरु अपने सभी शिष्यों में समभाव रखता था तथा उन्हें शिक्षा देता था। राजा रंक सभी गुरुकुल में साथ-साथ शिक्षा प्राप्त करते थे। विद्यार्थी अत्यन्त निष्ठापूर्वक गुरुकुल के नियमों का पालन करते थे। उसे कठोर अनुशासन में रहना पङता था। अनुशासनहीन तथा उदंड विद्यार्थियों को गुरु द्वारा प्रताङित किये जाने के भी उदाहरण मिलते हैं। इनमें गुरुकुल से हटाया जाना, उपवास कराया जाना अथवा यदि आवश्यक हुआ तो शारीरिक दंड दिया जाना भी शामिल था। जातक ग्रंथ उद्दंड विद्यार्थियों के लिये कठोर दंड दिये जाने का विधान करते हैं। तिलमुत्थि जातक से पता चलता है, कि काशी के एक राजकुमार को उसके गुरु ने शारीरिक दंड दिया था।

समावर्तन संस्कार के बाद शिष्य गुरु-गृह से वापस जाता था। उसके बाद भी उसका अपने गुरु के साथ संपर्क बना रहता था। वह प्रायः अपने गुरु के पास जाता था उसे उपहारादि प्रदान करता था। गुरु भी अपने शिष्य के यहां जाते थे, तथा यह देखते थे, कि शिष्य अपने स्वाध्याय का पालन कर रहा है, या नहीं। समावर्तन संस्कार के समय ही गुरु-शिष्य को जो संबोधन करता था, उसमें स्वाध्याय का क्रम जारी रखने को कहा जाता था।
हिन्दू धर्म के 16 संस्कार

इस प्रकार प्राचीन भारत में गुरु-संबंध, पारस्परिक स्नेह तथा सौहार्द पर निर्भर थे।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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