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पल्लव काल में रथ मंदिर, महाबलीपुरम् कला शैली

पल्लवकालीन कला की मामल्लशैली की दूसरी रचना रथ अथवा एकाश्मक मंदिर है। पल्लव वास्तुकारों ने विशाल चट्टानों को काटकर जिन एकाश्मक पूजागृहों की रचना की उन्हीं को रथ कहा गया है। इनकी परंपरा नरसिंहवर्मन प्रथम के समय से प्रारंभ हुई थी। इसके लिये उस समय में प्रचलित समस्त वास्तु के नमूनों से प्रेरणा ली गयी थी। इन्हें देखने से पता चलता है, कि शिला के अनावश्यक भाग को अलग कर अपेक्षित भाग को अलग कर अपेक्षित स्वरूप को ऊपर से नीचे की ओर उत्कीर्ण किया जाता था।रथ मंदिरों का आकार अन्य कृतियों की अपेक्षा छोटा है। वे अधिक से अधिक 42 फुट लंबे, 35 फुट चौङे तथा 40 फुट ऊँचे हैं। इन रथों को पूर्ववर्ती गुहा-विहारों अथवा चैत्यों की अनुकृति पर निर्मित किया गया है।

मामल्ल शैली

मामल्ल कला शैली का विकास पल्लव शासक नरसिंहवर्मन प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। इसके अंतर्गत दो प्रकार के स्मारक थे-

  1. मंडप
  2. एकाश्मक मंदिर

इन स्मारकों को रथ कहा गया है।

इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम् (महाबलिपुरम्) में विद्यमान हैं। यहाँ मुख्य पर्वत पर दस मंडप बनाये गये हैं। इनमें आदिवाराह मंडप, महिषमर्दिनी मंडप, पंचपाण्डव मंडप, रामानुज आदि विशेष प्रसिद्ध हैं। इन्हें विविध प्रकार से अलंकृत किया गया है…अधिक जानकारी

प्रमुख रथ

  1. द्रौपदी रथ,
  2. नकुल-सहदेव रथ,
  3. अर्जुन रथ
  4. भीम रथ
  5. धर्मराज रथ
  6. गणेश रथ
  7. पिडारि (ग्राम्य-देवी) रथ,
  8. वलैयंकुट्टै रथ (वलैयंकुट्टै नामक तालाब के नाम पर इस रथ का नाम पङा।)

इनमें से प्रथम पाँच दक्षिण में तथा अंतिम तीन उत्तर और उत्तर पश्चिम में स्थित हैं। ये सभी शैव मंदिर प्रतीत होते हैं।

द्रोपदी रथ

द्रोपदी रथ सबसे छोटा है। यह सचल देवायतन की अनुकृति है, जिसका प्रयोग उत्सव और शोभा यात्रा के समय किया जाता है, जैसे पुरी का रथ। इसका आकार झोपङी के जैसा है। इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता था, यह एक सामान्य कक्ष की भाँति खोदा गया है। यह सिंह तथा हाथी जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है। अन्य सभी रथ बौद्ध विहारों के समान आयताकार हैं तथा इनके शिखर नागर अथवा द्रविङ शैली में बनाये गये हैं।विमान के विभिन्न तत्वों में – अधिष्ठान, पाद भित्ति, प्रस्तर, ग्रीवा, शिखर तथा स्तूप इनमें स्पष्टतः दिखाई देते हैं।

गणेश रथ का शिखर बेसर शैली में निर्मित है।

धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर बनाया गया है। मध्य में वर्गाकार कक्ष तथा नीचे स्तंभयुक्त बरामदा हैं। कुर्सी में गढे हुये सुदृढ टुकङों तथा सिंहस्तंभयुक्त अपनी ड्योढियों से यह और भी सुन्दर प्रतीत होता है।

पर्सीब्राउन के शब्दों में इस प्रकार की योजना न केवल अपने में एक प्रभावपूर्ण निर्माण है, अपितु शक्तियों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ सुखद रूपों तथा अभिप्रायों का भंडार है। इसे द्रविङ मंदिर शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है।भीम, गणेश तथा सहदेव रथों का निर्माण चैत्यगृहों जैसा है। ये दीर्घकार हैं तथा इनमें दो या अधिक मंजिलें हैं, और तिकोने किनारों वाली पीपे जैसी छते हैं। सहदेव रथ अर्धवृत्त के आकार का है। पिडारि तथा वलैयंकुट्टै रथों का निर्माण अधूरा है।

नीलकंठ शास्त्री के अनुसार इन रथों की दीर्घाकार आयोजना, छोटी होती जाने वाली मंजिलों और कलशों तथा नुकीले किनारों के साथ पीपे के आकार वाली छतों के आधार पर ही बाद के गोपुरों अथवा मंदिरों की प्रवेश बुर्जियों की डिजाइन तैयार की गयी होगी।

मामल्लशैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध हैं। नकुल-सहदेव रथ के अलावा अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी-देवताओं जैसे – दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कंद आदि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं।

द्रोपदी रथ की दीवारों में तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ की दीवारों में बनी शिव की मूर्तियाँ उत्कीर्ण मिलती हैं।

धर्मराज रथ पर नरसिंहवर्मा की मूर्ति अंकित है।

इन रथों को सप्त पगोडा कहा जाता है। इनकी रचना भी अपूर्ण रह गयी है।

References :
1. पुस्तक- प्राचीन भारत का इतिहास तथा संस्कृति, लेखक- के.सी.श्रीवास्तव 

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