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अलाउद्दीन के समय में सल्तनत का विस्तार

अलाउद्दीन के समय में सल्तनत का विस्तार – अलाउद्दीन के सामने सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या यह थी कि वह स्वतंत्र राज्यों पर कैसे आधिपत्य स्थापित करे। सल्तनत काल की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि किसी नवीन वंश के उदय के साथ ही विजय का कारण एक बार फिर दोहराना होता था। अलाउद्दीन के राज्यारोहण के सयम अधिकांश उत्तर भारत और पूरा दक्षिण भारत मुस्लिम आधिपत्य की परिधि के बाहर था। ऐसी स्थिति में हिंदुस्तान की विजय सुल्तान की सबसे बङी समस्या और सर्वोच्च महत्वाकांक्षा थी। मुल्तान और सिंध पर जलालुद्दीन फिरोज खलजी का पुत्र अर्कली खाँ स्वतंत्र रूप से राज्य कर रहा था। गुजरात पर बघेल राजपूतों का राज्य था। राजपूताना के विभिन्न राज्य आपस में एक दूसरे से जूझ रहे थे और दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र थे। वास्तव में राजपूताना को आधिपत्य में लाना एक कसौटी थी जिसके द्वारा दिल्ली के प्रत्येक शासक का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। कोई भी मुस्लिम शासक राजपूत राज्यों में किसी को भी पूर्णतः पराजित करने और अधीन करने में सफल नहीं हुआ। चित्तौङ और रणथंभौर जैसे राज्यों का अस्तित्व सल्तनत की शक्ति को खुली चुनौती था। मध्य भारत में मालवा, धार, उज्जैन और बूंदेलखंड का विस्तृत प्रदेश अभी पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। आधुनिक बिहार, बंगाल, उङीसा का सारा प्रदेश हिंदू राजाओं या स्वतंत्र मुसलमानों के हाथ में था। दोआब, अवध, वाराणसी और गोरखपुर के प्रदेश पर भी दिल्ली का प्रभुत्व नहीं था। विंध्याचल पर्वतों के दक्षिण में भी स्वतंत्र राज्य थे। अलाउद्दीन ने देवगिरी पर सोच समझकर आक्रमण किया किंतु जैसे ही वह उत्तर लौटा, यादव पुनः अपनी शक्ति प्राप्त करने में सफल हो गए। यह वह समय था जबकि यादव, काकतीय, होयसल एवं पांड्य के शक्तिशाली राज्यों ने किसी मुस्लिम आक्रमणकारी का नाम एक तक नहीं सुना था।

अपने अनवरत युद्धों से अलाउद्दीन ने अपनी सल्तनत का प्रभावशाली विस्तार किया। उत्तर भारत में आधुनिक पंजाब, सिंध और उत्तर प्रदेश केंद्रीय शासन के सीधे नियंत्रण में थे। यद्यपि राजपूताना की विभिन्न रियासतों का कभी भी पूर्णतः विलय नहीं किया जा सकता था तथापि उन्हें कर देने वाला राज्य सरलतापूर्वक माना जा सकता है। अधिकांश मध्य भारत जिसमें चंदेरी, एलिचापुर, धार, उज्जैन और मांडू जैसे महत्त्वपूर्ण स्थान थे, केंद्रीय सरकार द्वारा नियुक्त प्रांतपतियों के सीधे नियंत्रण में थे। गुजरात सल्तनत का एक प्रांत था। यादव, होयसल व काकतीय राज्य करद राज्य थे। उन पर मुस्लिम प्रांतपतियों का अधिकार नहीं था। केवल देवगिरि को मलिक काफूर ने कुछ समय के लिये अपना मुख्यालय बनाया। द्वारसमुद्र के आगे मलिक काफूर ने आक्रमण किए, किंतु पांड्य राजाओं ने अलाउद्दीन का कभी आधिपत्य स्वीकार नहीं किया और न कोई कर दिया। भारत के पूर्व में तुर्की साम्राज्य वाराणसी और अध से आगे बढा प्रतीत नहीं होता। बिहार और बंगाल पर क्रमशः हरिसिंह और शम्सुद्दीन फिरोज का शासन था, जो दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र थे। उङीसा और पूर्वी राज्यों पर भी अलाउद्दीन की सेनाएँ नहीं पहुँची।

यह कहा जा जाता है कि अलाउद्दीन स्वयं एक महान सेनानायक नहीं था और उसकी विजय आलम खाँ और मलिक काफूर जैसे योग्य सेनानायकों के कारण होती थी। परंतु यह मत त्रुटिपूर्ण है। इस तथ्य पर गहराई से सोचने पर पता चलता है कि जिन परिस्थितियों ने उसे सिंहासन प्राप्त करने के लिए उत्साहित किया था, वे सिद्ध करती हैं कि वह एक योग्य सेनानायक था। सुल्तान बनने से पहले ही उसने मलिक छज्जू के सात युद्ध में और विदिशा के आक्रमण में अपनी योग्यता का परिचय दिया था। वह देवगिरि की शक्तिशाली मराठा सेना को पराजित करने में काफी हद तक सफल हुआ था। सुरक्षा संबंधी कारणों से वह राजधानी नहीं छोङ सकता था, यही कारण है कि उसने उलूग खाँ और नुसरत खाँ को मुल्तान और गुजरात पर अधिकार करने भेजा। किंतु 1299 ई. में उसने सफलतापूर्वक कुतुलुग खाँ को हटाया और 1303 ई. में तरगी की मंगोल सेनाओं को पीछे ठेल दिया। इस अवसर पर उसने अपनी रक्षा के लिये जो किलेबंदी की थी, वह युद्ध कौशल में उसकी दक्षता का प्रमाण है। अत्यंत महत्त्वपूर्ण और दुर्भाग्यपूर्ण युद्ध मंगोलों के विरुद्ध या राजपूताना में लङे गए जिनमें अलाउद्दीन स्वयं उपस्थित था। इन युद्धों में उसने अपनी कूटनीति व युद्ध संबंधी ज्ञान का पूर्ण परिचय दिया। रणथंभौर को पराजित करने में सफल हुआ, जिसे कोई भी पूर्ववर्ती सुल्तान नहीं जीत सका था। 1308 ई. में काफूर ने दक्षिण की ओर प्रस्थान किया। इससे पूर्व 1290 ई. से 1308 ई. तक अलाउद्दीन निरंतर युद्ध करता रहा और सफलतापूर्वक विजय प्राप्त करता गया। अलाउद्दीन ने अपने सेनानायकों से जिस प्रकार अपने आदेशों का पालन करवाया और अपने लिए विजय हासिल की, वह उसकी सैन्य कुशलता का स्पष्ट प्रमाण है और वह भी ऐसे युग में, जब प्रत्येक सैनिक नेता सिंहासन प्राप्त करने की आकांक्षा रखता था। अलाउद्दीन का सौभाग्य यह था कि उसे उलुग खाँ, नुसरत खाँ, मलिक काफूर और गाजी मलिक जैसे योग्य सेनानायकों की स्वामिभक्ति प्राप्त थी। यह सब विद्रोहों और कलह के युग में अलाउद्दीन की सेना संबंधी योग्यता और योग्य नेतृत्व को प्रदर्शित करता है, साथ ही यह बताता है कि वह सेनापतियों का सेनापति था। उसकी प्रभावशाली दूरदर्शिता करता है, साथ ही यह बताता है कि वह सेनापतियों का सेनापति था। उसकी प्रभावशाली दूरदर्शिता से भारतवासी अत्यंत प्रभावित हुए। जोधपुर के संस्कृत शिलालेख में कहा गया है कि अलाउद्दीन के देवतुल्य शौर्य से पृथ्वी अत्याचारों से मुक्त हो गयी। एक हिंदू लेखक कक्क सूरी कहता है, उसके द्वारा अधिकृत किए गए किलों की कौन गणना कर सकता है? इससे स्पष्ट है कि अलाउद्दीन के शौर्य और उसकी सैनिक सफलता ने उसके समकालीनों के सभी वर्गों को आश्चर्यचकित कर दिया था।

परंतु अलाउद्दीन प्रादेशिक विस्तार करने में ही सफल नहीं हुआ। उसके विस्तार का एक नवीन पक्ष भी था जो उसकी विजयों को एक विशेष स्थान प्रदान करता है। विजयों में और शत्रु को मित्र बनाने की नीति का पालन करने में उसकी तुलना अकबर से की जाती है। अकबर के समान वह यह मानता था कि शासक को सदा युद्धरत रहना चाहिए वरना उसके पङोसी उसके विरुद्ध शस्त्र उठा लेते हैं या उठा सकते हैं। वह शक्ति प्रदर्शन के सिद्धांत में विश्वास करता था और उसका राज्यकाल प्रभावशआली सैनिक उपलब्धियों का काल था। एक चतुर कूटनीतिज्ञ की भाँति अलाउद्दीन ने शत्रुओं को मित्र बनाने की नीति अपनाई, हालाँकि अलाउद्दीन की राजपूताना संबंधी नीति अधिक स्पष्ट नहीं है। वहाँ पर साम्राज्य में विलय की योजना धीरे-धीरे कार्यान्वित की गई और बाद में उसे अव्यावहारिक समझकर अलाउद्दीन ने त्याग दिया। रणथंभौर के राज्य का सल्तनत में विलय कर लिया गया परंतु राजपूताना के अन्य प्रदेशों को शाही कानूनों के अंतर्गत लाने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया। जहाँ राजपूताना के प्रति अलाउद्दीन ने किसी निश्चित नीति का निर्धारण नहीं किया वहाँ पहले दक्षिण राज्यों के किसी भी अंश को सल्तनत में शामिल नहीं करना चाहता था। वह अधिराजत्व में विश्वास करता था न कि प्रभुसत्ता में। वह वार्षिक कर वसूल कर लेने पर उनके आंतरिक शासन प्रबंध में कोई हस्तक्षेप करना पसंद नहीं करता था। वह अपनी सर्वसत्ता की स्वीकृति कम से कम जनहानि के द्वारा प्राप्त करना चाहता था। अपने इन दोनों उद्देश्यों में वह सफल हुआ। इसका मुख्य कारण तो यही था कि उसने इन विवेकपूर्ण और दूरदर्शी नीतियों का पालन किया।

कुछ राजपूत राज्य (जिन्होंने सदैव ही भारत में मुस्लिम शासकों से युद्ध किया था) अकबर के सर्वोत्तम सहायक बने थे। इसी प्रकार कुछ दक्षिणी शासक, जिनके प्रांतों में अलाउद्दीन के सेनानायकों ने युद्ध किए थे और वहाँ अग्नि तथा तलवार का तांडव किया था वे भी उसके विश्वासी तथा सहायक हो गए। अलाउद्दीन संभवतः पहला शासक था जिसने हिंदू राजाओं को उनकी पूर्व स्थिति में रहने दिया और केवल कर वसूल किया। देवगिरि के द्वितीय अभियान के बाद व्यक्तिगत रूप से सुल्तान के प्रति भक्ति प्रकट करने के लिये रामदेव का यथोचित स्वागत किया और उसके लिए राजधानी में राजसी सुविधाओं की व्यवस्था की। छह मास के निवास के बाद रामदेव को अपने राज्य में लौटने की अनुमति दी गयी और उसे राजरायन की पदवी और एक चँदोबा देकर सम्मानित किया गया। उसे एक लाख सोने के टंके दिए गए और नवसारी का जिला उसके राज्य में शामिल कर दिया गया। अपने इस व्यवहार से अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत में एक विश्वासपात्र मित्र बना लिया। इतिहासकारों का एक वर्ग मानता है कि रामदेव के प्रति किया गया व्यवहार उसकी एक महान कूटनीतिक चाल थी। अब दक्षिण में उसका एक अटूट मित्र था जो सुल्तान को उसकी भावी योजनाओं में सहायता दे सकता था। यह अनुमान पूर्णतः सत्य निकला भी, क्योंकि रामदेव ने सुदूर दक्षिण के अभियान के समय मलिक काफूर को अमूल्य सहायता दी। अमीर खुसरो व इसामी इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि जब काफूर द्वारसमुद्र जाते समय देवगिरी से होकर गुजरा, उस समय रामदेव जीवित था। यादव राजा द्वारा मलिक काफूर को दी गयी सहायता का खुसरो ने विस्तार से वर्णन किया है। उसने शाही सेना की यथासंभव सहायता की। उसने आज्ञा दी कि सेना को जिन वस्तुओं की आवश्यकता हो वह बाजार में उपलब्ध हो जानी चाहिए, जैसा की उसने वारंगल के आक्रमण के समय किया था। रामदेव ने दक्षिण की ओर बढने में तुर्की सेना की सहायतार्थ परशुराम दलावे को दक्षिणी सीमांत का मुख्य सेनापति नियुक्त किया। परशुराम ने द्वारसमुद्र और वीर पांड्य के विरुद्ध अलाउद्दीन की सेना को पूरी सहायता प्रदान की।

होयसल राजा बल्लाल देव ने भी अलाउद्दीन के प्रति इसी प्रकार की नीति अपनाई। उसने मलिक काफूर के माबर अभियान के समय काफूर की सहायता की और माबर के विनाश में योगदान दिया। उसके बाद वह मलिक काफूर के साथ दिल्ली आया। सुल्तान उसकी सहायता व स्वामिभक्ति से बहुत प्रसन्न हुआ। उसने उसे एक विशेष खिलअत, एक मुकुट और छत्र दिया और दस लाख टंकों की थैली भेंटस्वरूप दी। होयसल राजा कुछ समय तक दिल्ली में रहा। जब अलाउद्दीन ने उसका राज्य वापस कर दिया तो वह द्वारसमुद्र लौट गया। अमीर खुसरो तथा बरनी ने बल्लाल देव का उल्लेख नहीं किया परंतु इसामी ने यह बताया है कि अलाउद्दीन ने किस प्रकार बल्लाल का स्वागत किया था। अतः यह स्पष्ट है कि जिस प्रकार दो वर्ष पूर्व यादव राजा रामदेव दिल्ली गया था उसी प्रकार बल्लाल भी दिल्ली गया था।

इस प्रकार अलाउद्दीन दक्षिणी राजाओं की सहायता प्राप्त करने में सफल हुआ। परंतु उसकी सफलता के पीछे एक और तत्व था और वह था दक्षिण राजाओं की पारस्परिक शत्रुता। उत्तर की राजपूत रियासतों के समान दक्षिण के देवगिरि, तेलंगाना, होयसल और पांड्य राज्य निरंतर परस्परर युद्धों में लगे रहते थे। 1296 ई. में जब अलाउद्दीन देवगिरी गया था तब सिंघनदेव अपनी सेना के सात होयसल राज्य की ओर गया था। जब काफूर होयसल राज्य के विरुद्ध गया तो वहाँ का शासक पांड्य देश का कुछ भाग छीनने के उद्देश्य से सुदूर दक्षिण गया हुआ था। पांड्य राज्य में सुंदर पांड्य और वीर पांड्य परस्पर घोर शत्रु थे। इसका परिणाम यह हुआ कि वे विदेशी शत्रु के विरुद्ध आपस में एक नहीं हुए और उन्होंने एक दूसरे की कोई सहायता नहीं की। आश्चर्य की बात तो यह है कि उन्होंने अपने ही पङोसी राज्य के विरुद्ध मुस्लिम आक्रमणकारी की सहायता की। उदाहरणार्थ रामदेव ने तेलंगाना की विजय में मलिक काफूर की सहायता की और वीर बल्लाल ने माबर के विरुद्ध उसका साथ दिया। सुंदर पांड्य ने अपने सौतेले भाई के विरुद्ध मलिक काफूर से सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। इससे यह स्पष्ट है कि दक्षिणी राज्यों के शासक परस्पर शत्रु होने के कारण यह नहीं चाहते थे कि उसमें से किसी भी एक की शक्ति बढ जाए। एक दूसरे की शक्ति पर अंकुश रखने के लिये वे अपने पङोसी के विरुद्ध तुर्की सेनाओं की सहायता करने में संकोच नहीं करते थे। संभवतः अन्य किसी हिंदू पङोसी की अधीनता स्वीकार करने की अपेक्षा वह अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार करने के अधिक इच्छुक थे। मुस्लिम सेना की शक्ति व सामर्थ्य का आतंक भी उनके ह्रदयों को भयभीत करता था। यही कारण है कि अपनी रक्षा के लिये उन्होंने अलाउद्दीन के सेनापति से समझौता करने में शीघ्रता दिखाई।

अलाउद्दीन के साम्राज्य विस्तार की सर्वोच्च उपलब्धि यह भी थी कि दक्षिणी प्रदेशों को साम्राज्य में विलीन किए बिना ही उसकी महत्वाकांक्षा पूरी हो गयी। वह उन कठिनाइयों से बच गया जिनका सामना मुहम्मद तुगलक को दक्षिण में सुल्तान की विस्तारवादी नीति के फलस्वरूप करना पङा था। अलाउद्दीन की नीति की सफलता के संबंध में के.एस.लाल लिखते हैं, रामदेव और बल्लाल देव जैसे महान राजा दिल्ली आए, उन्होंने सुल्तान के प्रति स्वयं सम्मान प्रकट किया, उनके कोष ले लिए गए, साम्राज्य के गौरव में वृद्धि हुई और सल्तनत का कोष दक्कन की संपत्ति से परिपूर्ण हो गया।

अलाउद्दी के दक्षिण अभियानों के संबंध में यह तथ्य भी रोचक है कि वहाँ की जनता ने मुस्लिम आधिपत्य का विरोध नहीं किया। क्या इसका तात्पर्य यह है कि वह अपने हिंदू शासकों के शासन से असंतुष्ट थी? दक्षिणी राज्यों का राजनीतिक सामाजिक एवं आर्थिक ढाँचा कुछ हद तक इसकी पुष्टि अवश्य करता है। परंतु इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि दक्षिण के हिंदू राजा विलासी, अत्याचारी या क्रूर नहीं थे। वास्तव में जनता के उदासीन व्यवहार का कारण दक्षिण के राजाओं की आपसी कलह और युद्ध आदि थे। मध्यकालीन भारत में जनमत जैसा कोई प्रभावशाली तत्व नहीं था और यदि था तो वह उभरकर सामने नहीं आया थाा। केवल दिल्ली सल्तनत में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर कुछ अवसरों पर जनमत स्पष्ट रूप में प्रकट हुआ। सामान्यतः शासकों के चुनाव, नीति-निर्धारण, अभियानों और योजनाओं पर जनमत का प्रभाव देखने को नहीं मिलता। ऐसी परिस्थिति के कारण दक्षिण की जनता का व्यवहार भी कोई अपवाद नहीं था।

विदेशी आधिपत्य के विरुद्ध जनता के किसी विद्रोह का अभाव एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर संकेत करता है जिसे मलिक काफूर की विजित जनता के प्रति नीति से समझा जा सकता है। अपने दक्षिण अभियानों में उसने जनता के ऊपर अत्याचार या आतंकित करने की नीति को नहीं अपनाया। काफूर की सबसे बङी समस्या थी मराठा सरदारों को अनुकूल बनाना और इसमें वह सफल हुआ। काफूर के देवगिरी अभियान के वर्णन में इसामी लिखता है, उसने किसी व्यक्ति की न तो हत्या की और न ही किसी को बंदी बनाया। नगर निवासियों ने उसके संरक्षण में स्वतंत्रता का अनुभव किया। जो लोग उसके विरोधी हो गए थे उन्हें शांति का आश्वासन देते हुए उसने पत्र लिखे जिससे समस्त मराठी जनता उसके पक्ष में हो गयी। शासक का किसी प्रदेश पर न्याय ऐसा होता है जैसी बगीचे पर मानसून की वर्षा। मलिक काफूर की नीति का अनुमान फरिश्ता के इस कथन से भी होता है, जब काफूर ने दक्षिण में प्रवेश किया तो उसने जनता को अपनी कृपालु सुरक्षा में ले लिया और एक चींटी की भी हानि नहीं पहुँचने दी। दक्षिण के व्यापारी वर्ग ने भी मुस्लिम सेना का कोई विरोध नहीं किया। जिस समय काफूर वारंगल पर आक्रमण करने जा रहा था तब देवगिरि के शासक रामदेव ने उसकी सेना के लिए आवश्यक वस्तुओं को बाजार में उपलब्ध कराने की आज्ञा दी। अमीर खुसरो इस संबंध में लिखता है – व्यापारियों ने मुस्लिम सैनिकों से झगङा नहीं किया और न सैनिकों से ही कोई फसाद उत्पन्न किया और बाजार में लेन-देन शांतिपूर्वक संपन्न हुए। परंतु जहाँ पर मलिक काफूर ने आवश्यक समझा, शक्ति तथा कठोरता का परिचय दिया। उदाहरणार्थ यादव प्रदेशों पर पुनः अधिकार करने के बाद उसने तेलंगाना और होयसल राज्यों के आसपास कुछ नगरों पर धावा मारा और दक्षिण के निवासियों के ह्रदय में ऐसा आतंक उत्पन्न कर दिया कि दिल्ली के शासन के प्रतिरोध के अवशेष समाप्त हो गये। यह विश्वास भी किया जाता है कि कुछ समय के लिये उसने देवगिरी में अपना मुख्यालय बनाया और वहीं पर रहा भी । अपने निवास काल में जनता को शांति व सुरक्षा प्रदान करके मलिक काफूर जनता के समर्थन को प्राप्त करने में सफल रहा और किसी प्रकार के जन विरोध का सामना उसकी सेनाओं को नहीं करना पङा। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अलाउद्दीन की राज्य-विस्तार की नीति केवल सफलताओं की ही लंबी कहानी है। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि अलाउद्दीन की दक्षिण विजय और मलिक काफूर की सफलता अल्पकालीन सिद्ध हुई। दक्षिण की विजय कभी पूर्ण नहीं हुई। देवगिरि, वारंगल, द्वारसमुद्र व माबर की संपत्ति को लूट लिया गया या संधि की शर्तों द्वारा प्राप्त किया गया। परंतु न तो सिंघन और न ही प्रतापरुद्र देव ने पूर्ण पराजय को स्वीकार किया। सिंघन ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये लगातार कोशिश की और यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वारंगल के किले ने कभी समर्पण किया या नहीं। पांड्य देश के राजा को पराजित करने में काफूर असमर्थ रहा और केवल पांड्य देश का विनाश करके ही उसे संतुष्ट होना पङा। जैसे ही काफूर की विजयी सेनाएँ दक्षिण के पराजित राज्यों को कूच करती थी, दक्षिण के राज्य सल्तनत की सत्ता की अवहेलना करने लगते थे। मुबारक खिलजी और मुहम्मद तुगलक के दक्षिणी युद्धों से स्पष्ट है कि अलाउद्दीन की सफलताएँ दीर्घकालीन नहीं थी। उसे राज्य विस्तार की प्रमुख विशेषता यही थी कि वह दक्षिण में कुछ शासकों को मित्र बनाये और उनसे सहायता प्राप्त करने में सफल हुआ।

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