इतिहासमध्यकालीन भारत

उत्पल राजवंश का इतिहास कैसा था

उत्पल राजवंश का इतिहास – कश्मीर में नवीं शताब्दी में उत्पन्न वंश प्रभुत्व में आ गया । इस वंश की स्थापना अवंतिवर्मन ने की थी। राजा अवंतिवर्मन ने लोक कल्याण के कार्यों में अपना जीवन अर्पित कर दिया। उसने कृषि के विकास के लिये नहरों का निर्माण कराया तथा अनेक नगरों की स्थापना का श्रेय भी प्राप्त किया। राजा के मन में ललित कलाओं के प्रति बङा आदर भाव था। इस भावना से अपने साहित्य तथा कला को भी काफी प्रोत्साहन दिया। उसके उत्तराधिकारी शंकरवर्मन की साम्राज्य विस्तार में रुचि थी। उसने झेलम तथा चेनाब के बीच के इलाके तथा पंजाब और उत्तरी गुजरात को अपनी अधीनता में ले लिया। उसे इतना होने पर भी उद्भभांडपुर के लल्लिय शाही के विरुद्ध अभियान में विशेष सफलता नहीं मिली। किंतु प्रतिहार महेंद्रपाल से उसने पंजाब के कुछ इलाके छीन लिए। लगातार युद्ध के कारण उसे धन की कमी का सामना करना पङा। इस समस्या को हल करने के लिये व धन की कमी को पूरा करने के लिये उसने प्रजा पर कई प्रकार के कर लगाए। इन करों ने उसे प्रजा में अत्यंत अलोकप्रिय बना दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसका लङका गोपालवर्मन 900 ई. के लगभग शासक हुआ। उसके काल से ही कश्मीर में सत्ता के लिये घोर कलह प्रारंभ हो गई। अंत में ब्राह्मणों की सभा ने शंकरवर्मन तथा गोपालवर्मन के ब्राह्मण मंत्री प्रभाकर देव के लङके यशस्कार को कश्मीर का शासक चुना। इस प्रकार उत्पल वंश का 939 ई. में अंत हो गया।

यशस्कर ने अपने नौ वर्षों (939-948 ई.) के शासनकाल में कश्मीर में शांति व्यवस्था स्थापित करने का कार्य किया था। उसके मंत्री पर्वगुप्त ने उसके उत्तराधिकारी संग्रामदेव का वध कर दिया और यह स्वयं शासक बन बैठा। एक वर्ष के बाद उसका पुत्र क्षेमगुप्त (950-958 ई.) शासक हुआ। इसी प्रख्यात क्षेमगुप्त का विवाह लोहर वंश की राजकुमारी दिद्दा से हुआ। क्षेमगुप्त के बाद कश्मीर की सत्ता व्यावहारिक रूप से पचास वर्षों तक दिद्दा के हाथ में रही। वह अत्यंत महत्वाकांक्षी थी और अपने विरोधियों का निस्संकोच वध करा डालती थी। 1003 ई. में उसकी मृत्यु के बाद लोहर वंश का संग्रामराज शासक हुआ।

लोहर वंश के इस शासक ने हिंदू शाही त्रिलोचन पाल को महमूद गजनवी के विरुद्ध सहायता दी। इस वंश में कोई भी योग्य शासक नहीं हुआ। कश्मीर में यह काल गृह कलह, सत्ता के लिये संघर्ष तथा प्रजा पर अत्याचार का काल रहा। परिणामतः चौदहवीं शताब्दी के चौथे दशक के अंत में यहाँ तुर्की शासन स्थापित हो गया।

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