इतिहासतुगलक वंशदिल्ली सल्तनतमध्यकालीन भारत

गयासुद्दीन तुगलक (1320-1398ई.) का इतिहास

गयासुद्दीन तुगलक – गाजी मलिक अथवा तुगलुक गाजी सन् 1320 में गयासुद्दीन तुगलुक के नाम से दिल्ली का सुल्तान बना। इसी शासक के नाम से तुगलक वंश का प्रारंभ हुआ। गाजी मलिक सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक शाह खलजी के राज्य काल में उत्तर प्रश्चिम सीमाप्रांत का शक्तिशाली गवर्नर (वार्डन ऑफ दी मार्चेस) नियुक्त हुआ था। इस कठिन कार्य को उसने बङी योग्यता से निभाया था तथा मंगोलों के विरुद्ध सीमावर्ती क्षेत्रों को सुरक्षा प्रदान की थी। समकालीन स्त्रोतों में गाजी मलिक की मंगोलों के विरुद्ध उपलब्धियों का वर्णन मिलता है, जिसके अनुसार उसने मंगोलों के विरुद्ध उनतीस बार विजय प्राप्त की थी। अमीर खुसरो ऐसी अठारह तथा जियाउद्दीन बरनी बीस विजयों का वर्णन करते हैं, हो सकता है कि इन विजयों में कुछ केवल नाममात्र की रही हो किंतु यह सत्य है कि मंगोलों के निरंतर बढते हुए आक्रमणों के कारण उत्तर-पश्चिम सीमाप्रांत को एक ऐसे गवर्नर के अधीन रखना जरूरी था जो योग्य होने के साथ शक्तिशाली सेनापति भी हो। ऐसे गवर्नर प्रायः सुल्तान की दुर्बलता अथवा उसके विरुद्ध विद्रोहों का लाभ उठाते थे तथा शक्तिशाली होने के कारण ऐसे अवसर की खोज में रहते थे, जिससे वे स्वयं सुल्तान बन सकें। इस दृष्टि से गाजी मलिक जैसे योग्य सेनापति का उत्थान भी एक ज्वलंत उदाहरण है।

यद्यपि सुल्तान मुबारक शाह खलजी ने देवगिरी को सल्तनत का अटूट हिस्सा बनाया तथा गुजरात में विद्रोह कुचलकर सुल्तानी प्रतिष्ठा को कायम किया तथापि उसके चार वर्षीय (1316-20ई.) राज्यकाल में लगातार षङयंत्र होते रहे। खुसरो खाँ ने शाही महल में षङयंत्र रचकर मुबारक शाह की हत्या कर दी तथा सल्तनत को बलपूर्वक हथिया लिया। उसने योजनाबद्ध तरीके से अलाउद्दीन खिलजी के पुत्रों को क्रूरता से समाप्त करना शुरू कर दिया। खुसरो खाँ के कारनामे गाजी मलिक के लिये घिनौना अपराध बन गए। कुछ दूसरे अमीरों में भी रोष की लहर दौङ गई और गाजी मलिक के लिये घिनौना अपराध बन गए। कुछ दूसरे अमीरों में भी रोष की लहर दौङ गई और गाजी मलिक ने खुसरो खाँ के विरुद्ध बीङा उठा लिया। मूल प्रश्न यह था कि खुसरो खाँ तथा उसके सभी षङयंत्रकारियों से कैसे निबटा जाए? खुसरो खाँ के पास केंद्रीय शक्ति थी जिसको छोटे-बङे सभी मानने के आदी हो चुके थे क्योंकि अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी नीतियों के अनुसार इन अफसरों को पद तथा वेतन के लिये केंद्रीय सरकार पर निर्भर कर दिया था। अमीर खुसरो ने तुगलकनामा में स्पष्ट रूप से कहा है, कि प्रायः सभी सैनिक अफसरों ने चाहे वे पूर्व में थे या पश्चिम में, तुर्क थे या हिंदू, सभी ने खुसरो खाँ को सुल्तान मान लिया था तथा वे उसे चुनौती नहीं देना चाहते थे। इस संदर्भ में बरनी का यह कथन ध्यान देने योग्य है कि खुसरो केवल एक विशेष हिंदू तबके के समर्थक से ही सुल्तान बन सकता था। इसलिए यह कहना कि उसका सुल्तान बनना हिंदू-मुस्लिम प्रश्न बन गया था, उचित नहीं जान पङता। गाजी मलिक की समस्या यह थी कि वह अकेला किस प्रकार खुसरो खाँ से टक्कर ले। वह डटकर सामने आने से पहले कई योजनाएँ बनाता रहा। हिम्मत जुटाकर उसने तथा उसके लङके जौना खाँ (जो बाद में सुल्तान मुहम्मद तुगलक बना) ने खुसरो खाँ के विरुद्ध अभियान करने का निश्चय किया। गाजी मलिक ने कूटनीतिज्ञता से काम किया। एक ही प्रकार के पाँच पत्र अलग-अलग पङौसी गवर्नरों को लिखे गए तथा एक विशेष पत्र वजीर आइन-उल-मुल्क माहरु को भेजा गया। इन पत्रों में अमीरों से समर्थन माँगा गया तथा गाजी मलिक ने यह दावा किया कि उसने यह कदम इस्लाम के पक्ष में, अलाउद्दीन खलजी के परिवार के प्रति वफादारी तथा दोषियों को सजा देने के लिये उठाया है। अमीरों ने प्रत्यक्ष रूप से समर्थन तो नहीं दिया किंतु उन्होंने, देखो और इंतजार करो की नीति अपनाने की ओर संकेत दिया। गाजी मलिक की अपनी सेना में गिज, तुर्क, मंगोल, रूमी, ताजिक, खुरासानी तथा मेवाती तो थे ही, उनके साथ-साथ दोआब के हिंदू राजपूतों की भर्ती भी की गयी थी। सिंध के गवर्नर द्वारा भेजी गई पेशकश (भेंट) का काफिला तुगलक सेना द्वारा रास्ते में लूट लिया गया। घोङों तथा खजाने को सैनिकों में बाँट दिया गया ताकि वे सुल्तान खुसरो के विरुद्ध संघर्ष के लिये पूर्ण रूप से तैयार हो जाएँ। पहली लङाई सरसुती (सिरसा) के पास जीत ली गयी और सेना ने दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। तुगलकनामा के अनुसार इस सेना ने हाँसी, रोहतक, मंडोती, पालम, कोसाम्बर तथा लहरावत के मार्ग द्वारा दिल्ली में प्रवेश किया। यमुना नदी पार करते ही गाजी मलिक की प्रबल सेना ने खुसरो खाँ को करारी हार दी और इस प्रकार गयासुद्दीन तुगलक दिल्ली का सुल्तान बन गया।

गयासुद्दीन को जो सल्तनत प्राप्त हुई थी, वह विस्तृत होने के कारण समस्याओं से भरी हुई थी। प्रांतों में विद्रोह हो रहे थे। सिंध पर नाममात्र का नियंत्रण रह गया था। यहाँ के गवर्नर ने केंद्रीय गङबङी का लाभ उठाकर थट्टा तथा सिंध के निचले भाग पर कब्जा कर लिया था तथा वह स्वतंत्र सुल्तान बनने के सपने भी देख रहा था। इसी प्रकार आइन-उल-मुल्क की अनुपस्थिति में गुजरात में गङबङ हो रही थी। बंगाल की स्वामिभक्ति भी संदेहपूर्ण थी। उधर राजपूतों ने चित्तौङ, नागोर तथा जालौर के दुर्गों में अपनी शक्ति बढा ली थी। उधर दक्षिण में भी स्थिति कोई बेहतर न थी। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि अलाउद्दीन खलजी ने दक्षिण के प्रदेशों को साम्राज्य में नहीं मिलाया था बल्कि उन राजाओं से बाकायदा भेंट लेकर उन्हें राज्य वापस कर दिये थे और इस प्रकार अपनी सर्वोच्चता बनाए रखी थी। किंतु मुबारकशाह खलजी ने देवगिरी तथा तेलंगाना पर सीधा नियंत्रण करके सुल्तानी शासन लागू कर दिया। तेलंगाना ने भी इससे स्वतंत्र होने का प्रयास प्रारंभ कर दिया। दक्षिण में प्रशासनिक व्यवस्था भी नियंत्रण से बाहर हो रही थी। खुसरो खाँ ने राजनीतिक स्वार्थ के लिये सभी बङे-बङे अमीरों तथा अफसरों को अपने पक्ष में करने के लिये खजाने से पैसा पानी की तरह बहाया था। भू-राजस्व भी सुगमता से प्राप्त नहीं हो रहा था। परिणाम यह हुआ कि सुल्तान आर्थिक संकट से घिर गया था।

Related Articles

error: Content is protected !!