इतिहासराजस्थान का इतिहास

जैत्रसिंह का इतिहास(1213-1252ई.)

जैत्रसिंह का इतिहास

जैत्रसिंह – 13 वीं सदी के आरंभ में मेवाङ के इतिहास में एक नया मोङ आता है। इस समय तक अजमेर के चौहानों की शक्ति का पतन हो चुका था और राजस्थान का एक विस्तृत भू-भाग तुर्क सेनाओं द्वारा पदाक्रान्त किया जा चुका था। संयोग से मेवाङ के गुहिल शासकों को मुहम्मद गौरी तथा कुतुबुद्दीन ऐबक के आक्रमणों का सामना नहीं करना पङा।

फिर भी, ऐसे कई साक्ष्य मिलते हैं जिनसे पता चलता है, कि भारत पर तुर्कों के प्रारंभिक काल में उन्हें मुसलमानों के साथ संघर्ष करना पङा था। इसका मुख्य कारण चित्तौङ की सामरिक एवं भौगोलिक स्थिति रही। 1213 ई. में जैत्रसिंह मेवाङ के सिंहासन पर बैठा और उसने 1252 ई. तक शासन किया।

उसने अपनी सैनिक विजयों से न केवल मेवाङ को सुदृढ ही बनाया अपितु उसकी सीमाओं का विस्तार करके उसके राजनैतिक प्रभाव को भी बढाया।

जैत्रसिंह

पङौसी राज्यों के प्रति नीति

जालौर के चौहान राज्य के संस्थापक कीर्तिपाल (कीतू) ने गुहिल राजा सामंतसिंह को परास्त करके चित्तौङ पर अधिकार कर लिया था। मेवाङ के सिंहासन पर बैठने के बाद जैत्रसिंह ने गुहिलों की इस पराजय का बदला लेने तथा आस-पास के राज्यों पर मेवाङ का प्रभाव बढाने का निश्चय किया और अपने समकालीन चौहानवंशीय राजा उदयसिंह के नाडौल राज्य पर आक्रमण कर दिया।

चौहान नरेश उदयसिंह ने अपने राज्य को बचाने के लिये अपनी पौत्री रूपादेवी का विवाह जैत्रसिंह के पुत्र तेजसिंह के साथ करके मेवाङ के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित किया। डॉ.ओझा का मानना है कि जैत्रसिंह ने मालवा के परमारों को भी परास्त किया। उनके अनुसार जैत्रसिंह ने परमार नरेश देवपाल को परास्त किया था।

जैत्रसिंह और गुजरात के सोलंकियों के आपसी संबंधों के बारे में निश्चित तौर पर कहना कठिन है। जैत्रसिंह के पूर्व गुजरात के शासकों ने मेवाङ में अपना प्रभुत्व कायम कर लिया था। जैत्रसिंह उनके प्रभाव से कब और कैसे मुक्त हुआ – यह विवादास्पद है।

ओझा के विवरण से इतना ही पता चलता है कि गुजरात के भीमदेव (द्वितीय) के अल्पवयस्क होने के कारण शासन की बागडोर बघेलवंशीय लवणप्रसाद और उसके पुत्र वीरधवल के हाथों में चली गयी थी। वास्तुपाल और तेजपाल नामक मंत्रियों ने उनकी स्थिति को काफी सुदृढ बना दिया। ये दोनों मंत्री तुर्कों की बढती हुयी शक्ति से लोहा लेने के लिये गुजरात और मेवाङ के मध्य मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित करना चाहते थे।

परंतु जैत्रसिंह ने उनकी स्थिति को काफी सुदृढ एवं संगठित कर लिया था।

जैत्रसिंह और दिल्ली सल्तनत

इस समय तक भारत में तुर्की राज्य की जङें मजबूत हो चुकी थी और दिल्ली का सुल्तान इल्तुतमिश मेवाङ पर आक्रमण करके उसे अपनी अधीनता में लाने का निश्चय कर चुका था। संभवतः उसने 1222 से 1229 ई. के मध्य मेवाङ पर आक्रमण किया था। जैत्रसिंह को इसी इल्तुतमिश की सेनाओं से संघर्ष करना पङा। जयसिंह सूरी कृत हम्मीर मदमर्दन से पता चलता है कि दिल्ली सुल्तान ने मेवाङ पर आक्रमण किया।

मुस्लिम सेना मेवाङ की राजधानी नागदा तक पहुँच गयी। उसने आसपास के कस्बों, गाँवों और राजधानी को लूटा तथा कई भवनों से बाहर चला गया और उसने छापामार युद्ध पद्धति से स्थान-स्थान पर मुस्लिम सेना का डटकर सामना किया और अंत में तुर्कों को मेवाङ से वापिस लौटना पङा। इससे स्पष्ट है कि इल्तुतमिश को स्थायी सफलता न मिल सकी।

तुर्कों के पलायन के बारे में हम्मीर मदमर्दन में जो विवरण दिया गया है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण एवं कपोल-कल्पित प्रतीत होता है। उसके अनुसार गुजरात के वीरधवल के सेना सहित मेवाङ की सहायता को आने की अफवाह से तुर्क भाग खङे हुए।

इसकी आलोचना करते हुये डॉ.गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है, यह पूर्णतया असंगत मालूम होता है कि वीरधवल की, जिसके साथ मैत्री संबंध रखने में जैत्रसिंह अपनी मान-हानि समझता था और जिसका स्तर एक सामंत के रूप में था, दुहाई का मेवाङ पर ऐसा प्रभाव पङे कि तुर्की सेना उसके नाम के भय से भाग खङी हो।

डॉ. ओझा और डॉ. दशरथ शर्मा की मान्यता अधिक उचित प्रतीत होती है कि जैत्रसिंह के प्रबल प्रतिरोध के कारण ही तुर्कों को मेवाङ से वापस लौटना पङा था। परंतु मजे की बात यह है कि मुस्लिम इतिहासकारों ने इल्तुतमिश के मेवाङ अभियान का उल्लेख तक नहीं किया है।

डॉ.के.एल.लाल का मत है कि मुस्लिम इतिहासकारों की इस चुप्पी का कारण सुल्तान इल्तुतमिश की राजय हो सकती है और सुल्तानों के विफल अभियानों का उल्लेख करना उनकी परंपरा रही है। राजपूत अभिलेखों में इल्तुतमिश के आक्रमण, मुस्लिम सेना की लूटमार, नागदा के विनाश तथा मुसलमानों की पराजय का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है।

नागदा के विनाश के बाद ही गुहिलों ने चित्तौङ को अपनी राजधानी बनाया और फिर आने वाली कई सदियों तक चित्तौङ को मेवाङ की राजधानी बने रहने का गौरव मिला। चीरवा शिलालेख से भी इस बात की पुष्टि होती है कि सुल्तान के सैनिकों से साथ युद्ध में नागदा का शहर नष्ट हो गया और उस नगर का दुर्गपाल मारा गया।

डॉ. दशरथ शर्मा ने लिखा है कि जैत्रसिंह ने तुर्कों को तो पीछे खदेङ दिया परंतु मेवाङ को और विशेष रूप से नागदा को जो मेवाङ की राजधानी थी, इस अभियान से काफी हानि उठानी पङी। ऐसा प्रतीत होता है, कि गुहिलों के ऊपर तुर्कों की विजय क्षणिक सिद्ध हुई और गुहिल सरदारों ने शीघ्र ही खोये हुए क्षेत्रों पर पुनः अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

परंतु इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इल्तुतमिश के इस अभियान ने दिल्ली के सुल्तानों की भावी विजय योजनाओं का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

सिन्ध के नासिरुद्दीन से संघर्ष

आबू शिलालेख के आधार पर डॉ.ओझा का मानना है कि जैत्रसिंह का सिन्ध के शासक नासिरुद्दी कुबाचा की सेना के सात भी युद्ध हुआ था। नासिरुद्दीन मुहम्मद गौरी का एक प्रमुख दास तथा सेनानायक था। अपने स्वामी की मृत्यु के बाद उसने सिन्ध पर अपना अधिकार जमा लिया।

उसने अपने एक सेनानायक खवास खाँ को गुजरात पर आक्रमण करने के लिये भेजा। गुजरात जाते समय अथवा गुजरात अभियान से लौटती हुयी इस मुस्लिम सेना के साथ जैत्रसिंह का युद्ध हुआ था और शत्रु सेना भाग खङी हुई। परंतु इस युद्ध की पुष्टि अन्य साक्ष्यों से नहीं हो पाई है।

दिल्ली सुल्तान नासिरुद्दीन से संघर्ष

जैत्रसिंह को अपने शासन के अंतिम वर्षों में दिल्ली सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद के आक्रमण का सामना करना पङा। इस आक्रमण की तिथि और कारण के संबंध में मुस्लिम इतिहासकार एकमत नहीं हैं। फरिश्ता के अनुसार सुल्तान ने अपने भाई जलालुद्दीन को कन्नौज से दिल्ली बुलाया।

जलालुद्दीन को इस निमंत्रण के पीछे अपने प्राणों का भय लगा और वह अपने साथियों सहित चित्तौङ के आस-पास की पहाङियों में जा छिपा। इस पर सुल्तान ने उसका पीछा किया। आठ महीने के प्रयास के बाद भी जब सुल्तान अपने ध्येय में सफल नहीं हो पाया तो वप वापस दिल्ली लौट गया।

संभव है कि इस अवसर पर जैत्रसिंह के कङे प्रतिरोध के कारण सुल्तान को काफी कठिनाइयों का सामना करना पङा हो और अंत में वह वापस लौटने के लिये विवश हो गया हो। फरिश्ता ने इस सैनिक अभियान का समय 1248 ई. के आस-पास बताया है। परंतु तारीखे नासिरी का लेखक मिनहाज एक दूसरे सैनिक अभियान का उल्लेख करता है।

वह लिखता है कि जब उलूग खाँ (बलबन) को सुल्तान नासिरुद्दीन रणथंभौर, बून्दी तथा चित्तौङ तक धावा मारा। बलबन का यह सैनिक अभियान 1253 ई. के आसपास हुआ होगा। इस अभियान का मुख्य ध्येय लूटमार द्वारा धन प्राप्त करने तक ही सीमित था। यही कारण है कि मिनहाज ने इसका विस्तृत विवरण नहीं दिया है।

इसके अलावा यह अभियान जैत्रसिंह की मृत्यु के बाद होना चाहिये। राजस्थान के शिलालेख भी बलबन के इस सैनिक अभियान का उल्लेख करते हैं, परंतु उनके विवरणानुसार इस अभियान के दौरान राजपूतों के कङे प्रतिरोध के कारण बलबन को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।

डॉ. ओझा का मानना है कि फरिश्ता का विवरण सही हो सकता है और जैत्रसिंह ने सुल्तान के भाई जलालुद्दीन और उसके साथियों को शायद आश्रय दिया हो और सुल्तान ने उनका पीछा करते हुये चित्तौङ पर आक्रमण किया हो। कारण जो भी रहा हो, इतना स्पष्ट है कि जैत्रसिंह की सैन्य शक्ति के परिणामस्वरूप मुस्लिम सेना को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली।

जैत्रसिंह का मूल्यांकन

मध्यकालीन मेवाङ के इतिहास में जैत्रसिंह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसके सुयोग्य नेतृत्व में मेवाङ की शक्ति का विस्तार हुआ। मेवाङ के पङौसी राज्य ही नहीं अपितु दिल्ली के तुर्क सुल्तान भी मेवाङ की नवोदित शक्ति से सशंकित हो उठे और उसकी शक्ति को कुचलने का प्रयास करने लगे।

डॉ.ओझा ने लिखा है, दिल्ली के गुलाम सुल्तानों के समय में मेवाङ के राजाओं में सबसे प्रतापी और बलवान राजा जैत्रसिंह ही हुआ, जिसकी वीरता की प्रशंसा उसके विपक्षियों ने भी की है। वस्तुतः जैत्रसिंह के समय में मेवाङ का क्षेत्र चालुक्यों के प्रभुत्व से मुक्त होकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को प्राप्त करता है।

जैत्रसिंह ने अपनी केन्द्रीय शक्ति को सुसंगठित करके उसकी सीमाओं का विस्तार किया। उसी ने चित्तौङ दुर्ग की सामरिक उपयोगिता को समझ कर उसकी सुरक्षा के लिये सुदृढ प्राचीरों का निर्माण राजनीतिक दूरदर्शिता की कमी थी। कुछ विद्वानों का मानना है कि उसने वास्तुपाल एवं तेजपाल के सुझावानुसार यदि वीरधवल के साथ तुर्कों के विरुद्ध संयुक्त कार्यवाही करना स्वीकार कर लिया होता तो मेवाङ को विनाश से बचाया जा सकता था और दिल्ली के सुल्तानों की प्रसारवादी नीति पर भी अंकुश लगाया जा सकता था।

जैत्रसिंह के उत्तराधिकारी

जैत्रसिंह के बाद उसका पुत्र तेजसिंह उसका उत्तराधिकारी बना और उसने अपने आपको योग्य पुत्र सिद्ध कर दिखाया। तेजसिंह के शासन का समय तय करना थोङा दुष्कर कार्य है।

उसके समय का अंतिम शिलालेख वि.सं. 1324 (1267ई.)का मिला है। उसके उत्तराधिकारी समरसिंह का प्रथम शिलालेख वि.सं. 1330 (1273ई.) का है अर्थात् तेजसिंह के शासन का अंत 1267-1273 ई. के मध्य हुआ होगा। परंतु यह लंबी अवधि है। साक्ष्यों के अभाव में निश्चित तिथि तय करना संभव नहीं है। तेजसिंह को सिंहासन पर बैठते ही धोलका के राजा वीरधवल के आक्रमण का सामना करना पङा।

यह वही वीरधवल है जिसने कि 1243 ई. के आस-पास त्रिभुवन से गुजरात का राज्य छीन लिया था और अब अपने प्रभाव को बढाने के लिये मेवाङ की ओर बढना चाहता था। जैत्रसिंह ने उसके साथ संधि न करके उसको असंतुष्ट बना दिया था। अब जैत्रसिंह की मृत्यु होते ही वह मेवाङ पर चढ आया।

बघेल सेनाओं ने मेवाङ के कई इलाकों में लूटमार तथा हत्याएँ की परंतु तेजसिंह उनका सामना करता रहा। अंत में गुजरात की सेना को बिना किसी प्रादेशिक लाभ के वापस जाना पङा। परंतु बघेलों के इस आक्रमण से मेवाङ राज्य को भारी जन-धन की हानि उठानी पङी। जैत्रसिंह की भाँति तेजसिंह को भी तुर्कों से संघर्ष करना पङा।

राजस्थानी और मुस्लिम दोनों ही साक्ष्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि 1253-54 ई. में बलबन ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया था और उसे असफल होकर वापस लौटना पङा। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि जैत्रसिंह 1253 ई. तक जीवित रहा होगा और उसके अंतिम दिनों तथा तेजसिंह के शासन के प्रारंभ में ही बलबन ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया होगा। बलबन ने केवल एक बार ही मेवाङ पर आक्रमण किया था।

तेजसिंह भी कला और साहित्य का आश्रयदाता था। उसके समय में कई मंदिरों तथा भवनों का निर्माण हुआ। अपने पिता की भाँति उसने भी योग्य व्यक्तियों को उच्च पदों नियुक्त किया तथा मेवाङ की ख्याति को बढाने का प्रयास किया।

तेजसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र समरसिंह मेवाङ का शासक बना। कुम्भलगढ प्रशस्ति, आबू शिलालेख, चीरवे के लेख तथा साहित्यिक रचनाओं के आधार पर उसे अपने समय का एक शक्तिसम्पन्न शासक माना जा सकता है। उसे भी दिल्ली सल्तनत की सेना से लोहा लेना पङा।

1299 ई. में सुल्तान अलाउद्दीन खलजी ने अपने दो सेनानायकों – उलूगखाँ और नुसरतखाँ का गुजरात पर आक्रमण करने का आदेश दिया। उलूगखाँ उस समय सिन्ध में था। सिन्ध से अपनी यात्रा के दौरान उसने जैसलमेर पर आक्रमण किया और उसके बाद चित्तौङ के निकट नुसरतखाँ की सेना से जा मिला।

नुसरतखाँ दिल्ली से चलकर पहले ही वहाँ पहुँच गया था। दोनों की संयुक्त सेनाएँ चित्तौङ क्षेत्र से होकर आगे बढी और बनास नदी को पार कर मडोसा के किले पर अधिकार कर लिया। इसके बाद वे आगे बढ गयी। कान्हङदे प्रबंध का लेखक पद्मनाभ इस घटना की पुष्टि करता है।

जैन ग्रन्थ तीर्थकल्प तथा रणकपुर मंदिर का शिलालेख यह जानकारी देते हैं कि गुहिल नरेश समरसिंह ने सुल्तान अलाउद्दीन को परास्त कर चित्तौङ की रक्षा की। तीर्थकल्प में लिखा है कि समरसिंह ने मुस्लिम सेनानायकों से दंड लेकर आगे बढने दिया। डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने लिखा है कि, समरसिंह की सीमा से निकलने के कारण मेवाङ को इस सैनिक प्रस्थान से हानि की संभावना थी, अतएव उसने उससे दंड लेकर आगे बढने दिया।

समरसिंह ने समय पर अपनी शक्ति का प्रदर्शन भी किया और अवसर की आवश्यकता को समझ कर मेल-जोल की नीति भी अपना ली। इस प्रकार का विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण प्रतीत होता है। ऐसा लगता है, कि चूँकि उलूगखाँ और नुसरतखाँ को गुजरात पर आक्रमण करने के लिये भेजा गया था, इसलिए शायद उन्होंने समरसिंह से संघर्ष मोल लेना उचित न समझा हो और मेवाङ को अधिक क्षति पहुँचाये बिना आगे बढ गये हों।

परंतु प्रशस्तिकारों एवं कवियों ने इस सामान्य घटना को अतिरंजित करके समरसिंह को अनावश्यक सम्मान दे डाला। इसके बाद समरसिंह को दिल्ली सल्तनत के आक्रमण का सामना नहीं करना पङा। चीरवे के लेख में उसे शत्रुओं का संहार करने में सिंह के सदृश्य और अत्यन्त शूर कहा है।

इससे यही अनुमान लगाना उचित होगा कि उसने अपने राज्य में अपने सामन्तों तथा अधिकारियों को अनुशासन में रखा। उसका शासनकाल अपेक्षाकृत शांत रहा। शिलालेखों तथा साहित्यिक रचनाओं से यह जानकारी उपलब्ध होती है कि उसने सभी धर्मों तथा सम्प्रदायों के प्रति सहिष्णुतापूर्ण व्यवहार किया।

उसने कला और साहित्य को भी प्रोत्साहन दिया। उसके समय में पद्मसिंह, केलसिंह, कल्हण, कर्मसिंह जैसे शिल्पकार और रत्नप्रभू सूरि, पार्श्वचंद्र, भावशंकर, वेदशर्मा, शुभचंद्र जैसे विद्वान विद्यमान थे।

प्रश्न एवं उत्तर

प्रश्न : गुहिल के पिता का नाम क्या था
उत्तर
: शिलादित्य

प्रश्न : जैत्रसिंह ने जिस मुस्लिम सुल्तान को पराजित किया था, वह था
उत्तर
: नासिरुद्दीन

प्रश्न : तेजसिंह के समय मेवाङ पर वीरधवल ने आक्रमण किया, लेकिन उसे वापिस लौटना पङा, क्योंकि
उत्तर
: तेजसिंह के प्रबल प्रतिरोध के कारण।

प्रश्न : सुल्तान बलबन ने 1253-54 ई. में मेवाङ पर आक्रमण किया, परंतु
उत्तर
: उसे असफल होकर वापिस लौटना पङा।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

Online References
wikipedia : जैत्रसिंह

Related Articles

error: Content is protected !!