इतिहासराजस्थान का इतिहास

बप्पा रावल कौन था

बप्पा रावल  मेवाड़ राज्य में गुहिल राजपूत राजवंश के संस्थापक राजा थे।  

बप्पा की ऐतिहासिकता –

मेवाङ के इतिहास में बापा (जिसे बापा, बप्पक, बाप्प आदि नामों से भी पुकारा जाता है) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। फिर भी, प्रामाणिक साक्ष्यों के अभाव में उसके जीवन की मुख्य घटनाओं तथा उसका तिथिक्रम निर्धारित करना दुष्कर काम है।

ख्यात लेखकों ने इस चमत्कारी व्यक्ति के संबंध में अनेक प्रकार की कपोल – कल्पित घटनाएँ लिखकर उसकी ऐतिहासिकता को और भी अधिक रहस्यमय बना दिया है। कर्नल टॉड ने इसी प्रकार की जन-श्रुतियों के सहारे विवरण प्रस्तुत किया है – ईडर के गुहिलवंशी राजा नागादित्य की हत्या के बाद उसकी विधवा पत्नी अपने तीन वर्षीय पुत्र बप्पा को बङानगरा (नागर) जाति की कमलावाती के वंशजों के पास ले गयी।

कमलावती ने गोह के जीवन को बचाकर शिलादित्य के राजवंश की रक्षा की थी और तब से उसके वंशज गुहिल राजवंश के कुल पुरोहित थे। भीलों के आतंक के फलस्वरूप कमला के वंशधर ब्राह्मण बप्पा को लेकर भांडेर नामक दुर्ग में चले गये। इस स्थान को निरापद न समझकर ब्राह्मण लोग बप्पा को लेकर नागदा के समीप के जंगल में स्थित पराशर नामक स्थान में आ गये। यहाँ बप्पा ब्राह्मणों के पशुओं को चराने लगा।

बप्पा के बचपन के संबंध में अनेक अद्भुत बातें सुनने और जानने को मिलती हैं। इनमें से एक है – नागदा के सोलंकी राजा की कन्या का जंगल में खेल-खेल में बप्पा के साथ विवाह और बप्पा का भागकर पहाङों में शरण लेना। दूसरी है – बप्पा जिन गायों को चराता था उनमें से एक बहुत अधिक दूध देने वाली थी परंतु संध्या के समय जब वह गाय वापस आती थी तो उसके थनों में दूध नहीं मिलता था।

रहस्य जानने के लिये बप्पा का गाय के पीछे-पीछे जाना गाय का नर्जन कन्दरा में जाना – शिवलिंग तथा उसके सामने तपस्या करने वाले हारीत ऋषि को दूध की धारा प्रदान करना – बप्पा द्वारा भक्तिभाव से हारीत की सेवा करना – हारीत द्वारा बप्पा के लिये महादेव भगवान से मेवाङ राज्य माँगना – स्वर्ग प्रस्थान करते समय हारीत के मुँह से बप्पा के पैरों पर पीक का गिरना आदि बातों का विवरण है।

नैणसी ने भी इसी प्रकार का वृत्तांत लिखा है। नैणसी ने यह भी लिखा है कि हारीत ऋषि ने बप्पा को किसी स्थान से 15 करोङ रुपये मूल्य की स्वर्ण मुद्राएँ निकालने का आदेश दिया और यह भी कहा कि इस धन से सेना का संगठन कर मोरियों से चित्तौङ का राज्य ले ले। बप्पा ने ऐसा ही किया।

बप्पा

इसी प्रकार की अन्य कथाएँ। सभी रोमांचक और काल्पनिक प्रीतत होती हैं। परंतु एक बात निश्चित प्रतीत होती है कि बप्पा के भाग्योदय में हारीत का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा।

बप्पा नाम अथवा विरुद ?

क्या बप्पा नाम का कोई राजा हुआ है। अथवा बप्पा किसी राजा का विरुद है – इस संबंध में इतिहासकारों में भारी विवाद है। कविराजा श्यामलदास के अनुसार बप्पा किसी राजा का नाम नहीं, किन्तु उपाधि है। यदि उनके मत को स्वीकार कर भी लिया जाय तो यह प्रश्न उठता है किय यह उपाधि किस राजा की थी।

कर्नल टॉड के अनुसार यह शील नामक राजा की थी। श्यामलदास के अनुसार यह शील के पोते महेन्द्र की थी। डॉ.डी.आर.भंडारकर के मतानुसार यह खुम्माण की थी और ओझा के अनुसार यह उपाधि कालभोज नामक राजा की थी। सभी विद्वानों ने अपने-अपने मत के पक्ष में वजनदार तर्क भी प्रस्तुत किये हैं। परंतु अभी तक किसी का भी मत सर्वमान्य नहीं हो पाया।

बप्पा का समय

बप्पा का समय भी विवादास्पद है। कर्नल टॉड का गणित इस प्रकार है – वल्लभी संवत् 205 में वल्लभी पुर का पतन हुआ और उसके 190 वर्ष बाद बापा का जन्म हुआ। बल्लभी संवत् विक्रम संवत् के 375 वर्ष पीछे प्रचलित हुआ अर्थात् 205+375=580 विक्रम संवत् अथवा 524 ई. में वल्लभीपुर का पतन हुआ।

580+190=770 वि.सं. में बप्पा का जन्म होना चाहिये। उनके अनुसार चित्तौङ का मोरी राजा मान 770 वि.सं. में मौजूद था। परंतु डॉ. गोपीनाथ का कहना है कि वल्लभी का विनाश वि.सं.826 (769 ई.) में हुआ था और इसमें 190 जोङने से बप्पा का समय बहुत आगे बढ जाता है, जो ठीक नहीं है।

श्यामलदास के अनुसार बापा ने 734 ई. में चित्तौङ का किला जीता था, इसलिये उसका समय 8 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध मानना अधिक उचित रहेगा। भंडारकर भी इस समय को सही मानते हैं। परंतु ओझा बापा की चित्तौह विजय का समय 713 ई. के बाद तथा बापा के संन्यास का समय 753 ई. मानते हुए बापा का समय 734 से 753 ई. निर्धारित करते हैं।

डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार बापा द्वारा चित्तौङ दुर्ग की विजय और बापा के सन्यास लेने की दोनों तीथियाँ (727ई. और 753ई.) निर्मूल हैं। उन्होंने कुछ अन्य तर्क देकर बापा का समय सातवीं शताब्दी के तृतीय चरण के आस-पास मानना उचित ठहराया है।

बप्पा की चित्तौङ विजय

जनश्रुति के अनुसार 8 वीं सदी में बप्पा रावल ने मेवाङ क्षेत्र में एक स्वतंत्र राजवंश की नींव रखी जो गुहिल नाम से विख्यात हुआ। जनश्रुति के अनुसार बापा ने मौर्यवंशी राजा मान मोरी को परास्त कर चित्तौङ पर अधिकार किया था।

परंतु इस जनश्रुति में विशेष वजन हीं है, क्योंकि शिलालेखों से पता चलता है, कि मौर्यवंशी शासक नौंवीं सदी में चित्तौङ पर शासन कर रहे थे। अबुल फजल ने भी बापा द्वारा चित्तौङ लेने का उल्लेख नहीं किया है। डॉ. राय चौधरी के अनुसार बापा ने चित्तौङ पर अधिकार नहीं किया था। वस्तुतः चित्तौङ विजय के साथ बापा के नाम का उल्लेख बाद के काल की रापजप्रशस्ति अथवा ख्यातों में ही देखने को मिलता है।

चित्तौङ विजय का कार्य बापा के बाद किसी गुहिलवंशी राजा ने किया होगा। मेवाङ के गुहिल शासक तो अपनी स्वतंत्र सत्ता को भी कायम नहीं रख पाये थे। उन्हें कई सदियों तक क्रमशः चित्तौङ के मौर्यों, कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहारों, अन्हिलवाङा के चालुक्यों, मालवा के परमारों तथा साँभर के चौहानों के करद् सामंतों के रूप में शासन करना पङा था।

गुहिलों ने जब कभी उनकी अधीनता से स्वतंत्र होने का प्रयास किया तो उनके प्रयास को कुचल दिया गया।

बप्पा रावल की मृत्यु

कर्नल टॉड के अनुसार पचास वर्ष की आयु में बापा खुरासान राज्य में चले गये और उधर के राज्यों को जीता और वहाँ की बहुत सी मलेच्छ स्रियों के साथ विवाह किया जिनसे बहुत से पुत्र और पुत्रियाँ हुई। एक सौ वर्ष की पूर्ण आयु के बाद वहीं पर बापा की मृत्यु हुई।

भट्ट ग्रन्थों पर आधारित टॉड का यह वृत्तान्त कपोल-कल्पित है। इसमें सच्चाई नहीं है, क्योंकि बापा का देहान्त नागदा में हुआ था। ओझा ने लिखा है कि आज भी बापा का समाधि स्थाल बप्पा रावल के नाम से प्रसिद्ध है।

बापा के बाद

भट्ट ग्रन्थों में बापा रावल के उत्तराधिकारियों के बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती। टॉड ने जिन उत्तराधिकारियों का वर्णन किया है, वह डॉ.गोपीनाथ शर्मा की सूची से मेल नहीं खाता। डॉ. शर्मा ने बापा के उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः इस प्रकार दिये हैं – भोज, महेन्द्र, नाग, शिलादित्य, अपराजित, कालभोज, खुमान प्रथम, मत्तट, भर्तृभट्ट, सिंह, खुमान द्वितीय, महायक, खुमान तृतीय, भर्तृभट्ट द्वितीय, अल्लट, नरवाहन, शक्तिकुमार, अम्बा प्रसाद और उसके बाद लभग 10 शासक ऐसे हुए जिनके बारे में विशेष जानकारी नहीं मिलती।

भोज के समय में शांति बनी रही परंतु मेवाङ के भीलों ने महेन्द्र से उसकी भूमि छीन ली और उसकी हत्या कर दी। नाग केवल नागदा के आस-पास के क्षेत्रों पर ही अपना अधिकार कायम रख पाया। शिलादित्य पराक्रमी निकला। उसने भीलों को परास्त कर उनकी भूमि को अपने अधिकार में ले लिया।

अपराजित ने शिलादित्य की विजयों के कार्यों को आगे बढाया और गुहिलों की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया। कालभोज के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती। संभवतः उसने यशोवर्मन को उसके दक्षिण अभियान में सहयोग दिया हो।

खुम्मान प्रथम को मुस्लिम आक्रन्ताओं के विरुद्ध सफलतापूर्वक संघर्ष करने का श्रेय दिया जाता है, परंतु ये आक्रान्ता कौन थे – विवादास्पद है। खुम्मान प्रथम के बाद मत्तट से लेकर महायक तक के शासकों का समय पराभव का काल माना जाता है। शायद वे लोग राष्ट्रकूटों और प्रतिहारों की बढती हुई शक्ति को रोक नहीं पाये और उनके सामन्तों की हैसियत से उन्हें शासन करना पङा।

खुम्मान तृतीय (877-926ई.) ने गुहिल राजवंश को पुनः प्रतिष्ठा दिलाई और उसने अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार भी किया। भर्तृभट्ट द्वितीय ने यथास्थिति को बनाये रखा। परंतु उसके बाद मेवाङ के गुहिल वंश को पुनः ग्रहण लग जाता है। शक्तिकुमार के शासनकाल में परमार नरेश मुंज ने चित्तौङ दुर्ग और उसके आस-पास के इलाकों पर अधिकार कर लिया।

सिद्धराज और उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के समय में मेवाङ पर चालुक्यों का अधिकार कायम रहा। शक्तिकुमार के उत्तराधिकारी अम्बाप्रसाद को चौहानों का भी सामना करना पङा। एक घमासान युद्ध में वाक्पतिराज चौहान के हाथों परास्त होकर युद्ध में मारा गया।

उसके बाद के दस शासकों में से कोई भी ऐसा नहीं निकला जो कि गुहिल वंश की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित कर सके। वैरिसिंह और उसके उत्तराधिकारी विजयसिंह के समय में गुहिलों ने आहङ क्षेत्र पर पुनः अधिकार करके अपनी स्थिति को अवश्य सुदृढ किया। 1171 ई. में सामंतसिंह सिंहासन पर बैठा। 1174 ई. के आस-पास सामंतसिंह ने चालुक्य नरेश अजयपाल के संस्थापक कीर्तिपाल (कीतू) के हाथों पराजित होकर भागना पङा।

कीर्तिपाल ने चित्तौङ को अपने अधिकार में ले लिया। परंतु सामंतसिंह के छोटे भाई कुमारसिंह ने चालुक्यों तथा सिसोदिया सरदार भुवनपाल की सहायता से कीर्तिपाल को परास्त करके चित्तौङ को अधिकृत कर लिया। कुमारसिंह के बाद पद्मसिंह और उसके बाद जैत्रसिंह सिंहासन पर बैठा।

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास
Online References
wikipedia : बप्पा

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