आधुनिक भारतइतिहासमहात्मा गाँधी

महात्मा गाँधी के विचार(1869-1948ई.)

महात्मा गाँधी के विचार – मुस्लिमों द्वारा एक व्यवसाय संघ की मांग पर 1893 ई. में गांधी दक्षिण अफ्रीका के ट्रांसवाल की राजधानी प्रिटोरिया पहुँचे।

थोरियो के लेख सिविल डिसओबीडियन्स से प्रभावित होकर उन्होंने 1909 ई. में लियो टालस्टाय से पत्राचार शुरू किया। जिनके किंगडम ऑफ गॉड इज विदिन यू से गाँधी काफी प्रभावित थे। जॉन रस्किन की अनटु दिस लास्ट ने भी उन्हें प्रभावित किया।

गाँधी के विचार

1901 ई. में जोहेनबर्ग वकालत करने के लिये गए तथा जल्द ही दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के नेता बन गए उनके द्वारा डर्बन के नजदीक एक फोनीक्स फार्म भी स्थापित किया गया। 1907 ई. में जब ट्रांसवाल विधायिका ने सभी एशिया निवासियों को पंजीकरण कार्ड की आवश्यकता का कानून पारित किया तो इसके विरोध में उन्होंने अभियान शुरू किया, जिसे सत्याग्रह का नाम दिया गया।

उनके द्वारा 1910 ई. में इस आंदोलन में भाग लेने वालों के लिये तालस्टाय फार्म की स्थापना की गयी।

उन्होंने अपने विचारों का प्रसार इंडियन ओपीनीयन से करना शुरू किया जिसकी स्थापना उन्होंने 1903 ई. में की थी। पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों के जिस शांतिपूर्ण मार्च का ट्रांसवाल तक उन्होंने नेतृत्व किया था, वह विलक्षण था।

शुरू की दमनकारी गितविधियों के बाद सरकार को झुकना पङा। गांधी स्मट्स समझौते (जून 1914ई.)के द्वारा समस्या का समाधान हुआ जिसके बाद गांधी वापस भारत आए।

स्वदेश वापस लौटते समय गांधी ने इंग्लैण्ड में एक भारतीय अस्पताल इकाई स्थापित की, जिसके लिये वापस आने पर उन्हें केसर-ए -हिन्द का स्वर्ण पदक किया गया। भारत वापस आने के बाद उन्होंने अहमदाबाद के नजदीक साबरमती के तट पर सत्याग्रह आश्रम बनाया।

अगले दो वर्षों (1916-18 ई.) के दौरान उन्होंने चंपारण (बिहार) तथा खैंरा (गुजरात) में किसान आंदोलन संगठित किया।

रौलेट एक्ट, जलियांवाला बाग हत्याकांड तथा खिलाफत द्वारा उत्पन्न परिस्थिति में कांग्रेस ने गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन शुरू किया। 1922 ई. में एक मुकदमे में उन्हें 6 साल का कारावास हुआ, लेकिन फरवरी 1924 ई. में उन्हें छोङ दिया गया। अगले पांच वर्षों तक गाँधी द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम पर अपना ध्यान केन्द्रित किया गया कताई तथा खादी, हिन्दू-मुसलमान एकता, मद्य-निषेध, ग्रामीण सुधार इत्यादि।

गांधी-इरविन समझौते द्वारा अस्थायी तौर पर उनके द्वारा शुरू किया गया सविनय अवज्ञा आंदोलन समाप्त हो गया तथा इसी बीच इंग्लैण्ड में गोलमेज सम्मेलन के दूसरे अधिवेशन में उन्होंने भाग लिया। स्वदेश वापस आने पर उन्होंने पुनः आंदोलन की शुरुआत की लेकिन फिर से जेल भेज दिए गए। अगस्त 1932 ई. में कम्युनल एवार्ड की घोषणा के समय उनके द्वारा अनशन शुरी किया गया तथा पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए गए। जेल से छूटने के बाद उन्होंने एक साप्ताहिक पत्रिका हरिचन (1933ई.)शुरू की जिसने उनके पहले समाचार पत्र यंग इंडिया (1919-1932 ई.)का स्थान ले लिया।

उन्होंने 1934 ई. में औपचारिक रूप से कांग्रेस छोङ दी लेकिन उनकी मृत्यु तक उन्हें पार्टी का प्रेरणास्रोट माना जाता रहा। उनके द्वारा वर्धा के नजदीक सेवाग्राम में एक नए आश्रम की स्थापना की गई जिसमें अपने रचनात्मक कार्यक्रमों तथा अन्य कार्यों के अलावा प्राथमिक शिक्षा की सक्रिय योजना भी शामिल थी, 1940 ई. में उन्होंने अल्प समय के लिये कांग्रेस का नेतृत्व संभाला लेकिन अगले वर्ष इसे छोङ दिया।

स्वतंत्रता प्राप्ति की उनकी मांग ने एक नारे का रूप ले लिया लेकिन भारत छोङो आंदोलन शुरू करने के पहले ही उन्हें जेल भेज दिया गया। जब वह पूना के आगा खान महल में बंदी थे, उन्हीं दिनों उनकी पत्नी कस्तूरबा का निधन हो गया। 1944 ई. में जेल से छूटने के बाद वे राजनैतिक समझौते के लिये जिन्ना के साथ अर्थहीन बातचीत में लगे रहे। सन् 1945 ई. के बाद कांग्रेस के नेताओं पर गांधी का प्रभाव बहुत कम हो गया।

गांधी का जनमानस को प्रभावित करने का तरीका

सत्याग्रह की नीति और कार्य

सत्याग्रह सत्या और अहिंसा पर आधारित था। यह थोरू, एमर्शन तथा टॉलस्टाय के विचारों से प्रभावित था। सत्याग्रह का शाब्दिक अर्थ सत्य का पकङना था। गांधी इस बात से चिंतित थे कि सत्याग्रह को कैसे निष्क्रिय प्रतिरोध से अलग किया जाए क्योंकि सत्याग्रह एक एलग तकनीक पर आधारित था जिसमें आवास, हिजरत, बंदी तथा हङताल प्रमुख था।

भारत में गांधी ने पहली बार बिहार के चंपारण जिले में 1917 में सत्याग्रह का प्रयोग किया। दूसरी बार उन्होंने इसका प्रयोग 1918 में अहमदाबाद में किया। उसी साल सत्याग्रह का तीसरा प्रयोग गुजरात के खेङा जिले में किया गया। ये सभी सत्याग्रह वहां की स्थानीय समस्याओं के समाधान के लिये किए गए थे किन्तु इन सारे सत्याग्रह आंदोलनों ने गांधी को बाद में अखिल भारतीय स्तर पर आंदोलन करने में सहायता प्रदान की।

सत्याग्रह की तकनीक अहिंसा पर आधारित थी जिसके कारण जनमानस आसानी से इसकी ओर आकर्षित होता था।लेकिन एक राजनीतिज्ञ के रूप में गांधी ने बहुत कम बार सत्याग्रह का प्रयोग, अहिंसा से थोङा कम उद्देश्य प्राप्ति के लिये किया था। गांधी की यह तकनीक काफी सफल रही क्योंकि इसमें समाज में विभाजित लोगों के हितों और भावनाओं का ख्याल रखा गया। गांधी का यह मॉडल व्यापारी वर्ग तथा स्थानीय स्तर पर प्रभुत्वशाली लोगों को भी पसंद आया, क्योंकि ने जनाते थे कि राजनैतिक आंदोलन में कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पङता है और अगर ऐसा नहीं किया गया तो आंदोलन और उग्र हो सकता था जिससे उनकी परेशानी बढ सकती थी, घट नहीं सकती थी। इसी कारण से अहिंसा के सिद्धांतों को गांधी और गांधी समर्थक लोगों ने अपनाया।

असहयोग तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन

गांधी का मानना था हरेक सभ्य आदमी का यह कर्तव्य बनता है कि गलत करने वालों के साथ असहयोग करे। गांधी इसे कम दबाववाला आंदोलन मानते थे और उसका प्रयोग उन्होंने 1921-22 में किया। इस तकनीक का आम जनता ने स्वागत किया।

गाँधी के अनुसार किसी अराजक तथा अन्यायी प्रशासन के खिलाफ सविनय अवज्ञा करना प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है। इस तकनीक का प्रयोग काफी खतरनाक तथा शक्तिशाली हो सकता है यदि इसकी तुलना सशस्र विद्रोह से की जाए। इसलिए इसका प्रयोग सबसे अंत में किया जाना चाहिये।

1920 के दशक में आर्थिक मंदी के कारण किसानों की स्थिति सभी सीमाओं को पार कर चुकी थी। ऐसी हालत में उनकी समस्याओं को दूर करने के लिये गांधी ने इस तकनीक का प्रयोग किया।

गांधी के सकारात्मक कार्यक्रम

  • खादी का कार्यक्रम किसानों तथा शिल्पकारों के लिये एक बहुत बङा आकर्षण था।
  • गाँव के पुननिर्माण के कारण उनको ग्रामीणों का समर्थन मिला।
  • हरिजनों के कल्याण के लिये कल्याणकारी योजना का निष्पादन, ताकि उनकी स्थिति में सुधार हो सके। इस कारण से वे उनके चहेते बन गए।
  • हिन्दू-मुस्लिम एकता कार्यक्रम ने दोनों ही समुदायों को आकर्षित किया।

असहयोग तथा खिलाफत आंदोलन

रौलेट एक्ट (1919 ई.)

सन् 1917 ई. में सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में क्रांतिकारी गतिविधियों की देख-रेख के लिये एक समिति गठित की गयी।इस समिति की सिफारिशों पर एनार्किकल एंड रिवोल्यूशनरी क्राइम एक्ट 1919 (अराजकता तथा क्रांतिकारी अपराध विधेयक) लागू किया गया। जिसका लोकप्रिय नाम रौलेट एक्ट था। समिति ने सभी गैरकानूनी तथा खतरनाक गतिविधियों के दमन के लिये सरकार को शक्तिशाली बनाने की सिफारिश की। इस समिति की रीपोर्ट के आधार पर सरकार ने आंतकवादी गतिविधियों को रोकने के लिये कानून की लंबी प्रक्रिया को छोटा करने में स्वयं को समर्थ बनाने का एक बिल पास किया।

केन्द्रीय विधायी परिषद में सभी दलों के चुने गए 22 भारतीय सदस्यों ने इस बिल का विरोध किया, हालांति 35 सरकारी सदस्यों के इसके पक्ष में मत देने से यह बिल पास हो गया जिनमें एकमात्र भारतीय शंकर नायर थे, जो वायसराय के कार्यकारी परिषद के सदस्य थे।

काला विधेयक (ब्लैक एक्ट) के रूस में धोषित इसका सभी जगह विरोध किया गया। 6 अप्रैल, 1919 ई. को एक अखिल भारतीय हङताल का आह्वान किया गया जो सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत का संकेत था। पूरे देश में इस विधेयक की जन अस्वीकृति पाने के लिये बैठकें की गयी।

लेकिन दुर्भाग्यवश पंजाब, गुजरात तथा बंगाल में कई हिंसक घटनाएँ हो गई। अत्यंत दुःखी होकर गांधी ने स्वीकार किया कि बिना पूर्व तैयारी के इस आंदोलन को शुरू करने में उन्होंने हिमालय के समान भूल की थी तथा इसे वापस लेने का निश्चय किया लेकिन इस रौलेट सत्याग्रह ने इससे जुङी हुई कई घटनाओं को जन्म दिया जिसके कारण जलियांवाला बाग हत्याकांड तथा उसके बाद की घटनाएं हुई।

जलियांवाला बाग हत्याकांड

महाराजा रणजीत सिंह के दरबारी पंडित जाला द्वारा जलियांवाला बाग को एक बगीचे के रूप में विकसित किया गया । जो उनके नाम से जाना जाने लगा। कांग्रेस द्वारा 8 अप्रैल 1919 ई. को एक हङताल का आह्वान किया गया जिसे अभूतपूर्व समर्थन मिला। हिंसक स्थिति को देखते हुए असैनिक सरकार ने प्रशासन की बागडोर ब्रिगेडियर जनरल डायर के अधीन सैनिक अधिकारियों के सुपुर्द कर दी।

डायर ने न केवल सार्वजनिक बैठकों पर ही रोक लगाई बल्कि महत्त्वपूर्ण राजनैतिक नेताओं को जेल में बंद कर दिया। इस अशांत परिस्थिति में नियमों की खुले आम अवज्ञा की करते हुये जलियांवाला बाग में 23 अप्रैल को एक सार्वजनिक बैठक का आयोजन किया गया जिसमें बाग में काफी संख्या में लोग एकत्रित हुए। स्थिति की सूचना मिलते ही डायर वहां पहुँचा तथा बिना किसी पूर्व चेतावनी के भीङ पुर गोली चलाने का आदेश दे दिया।

लोगों की व्यग्र भीङ भागने के प्रयास में सभी निकास द्वारों की तरफ बढी लेकिन उन पर सामने से गोली चलाई जा रही थी, करीब 20,000 लोग गोलियों की चपेट में आ गए। गोलियां लगभग 10 से 15 मिनट तक चलाई गई। गोलियां तभी रुकी जब वे समाप्त हो गयी।

यह नरसंहार एक अकेली घटना नहीं थी, बल्कि थोङा कम परिणाम के समान नृशंसता पंजाब में कई स्थानों पर दोहराई गयी। दूसरी तरफ इससे स्वतंत्रता संग्राम को आश्चर्यजनक प्रोत्साहन मिला। हजारों निरक्षर निष्पक्ष जनता राजनैतिक आंदोलन के भंवर में कूद पङी। इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले लिया।

खिलाफत आंदोलन

आंदोलन के कारण

  • ओटोमन तुर्क साम्राज्य की प्रथम विश्व युद्ध में हार के कारण मुसलमानों का नाराज होना इस आंदोलन का पहला कारण था।
  • सेवर की संधि (1920ई.) में तुर्कों के साथ कठोर शर्तों ने आग में घी का काम किया।
  • अंग्रेजों द्वारा सुल्तान के विरुद्ध उकसाए जाने से अरब में विद्रोह हुआ जिससे भारत में मुस्लिमों की भावना आहत हुई। यह आंदोलन मुस्लिमों के इस विश्वास पर आधारित था कि खलीफा पूरे मुस्लिम जाति का धार्मिक तथा लौकिक प्रमुख था।

भूमिका

मुस्लिम लीग के 1918 ई. के दिल्ली में वार्षिक अधिवेशन में एम.ए. अंसारी ने अरब भूमि का खलीफा को वापस करने की मांग की। गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अंसारी की भावना को दुहराया तथा मुस्लिमों के उद्देश्य को पूरा समर्थन दिया। सितंबर 1919 ई. में लखनऊ के एक सम्मेलन में अखिल भारतीय खिलाफत समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष बंबई के सेठ छोटानी तथा सचिव मौलाना शौकत अली थे।

फरवरी, 1920 ई. को मौलाना अबुल कलाम आजाद के नेतृत्व में शिलाफत सम्मेलन कलकता में हुआ जिसमें असहयोग आंदोलन के पक्ष में एक प्रस्ताव पारित हुआ तथा एक खिलाफत दिन मनाने का निर्णय लिया गया। अगले कुछ महीनों में कई अन्य बैठकें हुई। जब 15 मई, 1920 को तुर्कों के साथ सेवर की संधि की घोषणा हुई, तब केन्द्रीय आंदोलन शुरू करने का निण्य लिया।

घटनाक्रम

दिसंबर 1920 ई. को कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में खिलाफत आंदोलन के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया गया। कांग्रेस तथा खिलाफत समिति के त्रिपक्षीय उद्देश्यों पंजाब की शिकायतों को दूर करना, खिलाफत की गलतियों को संशोधित करना तथा स्वराज्य की स्थापना।

यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया जिस पर थोङी बहुत ब्रिटिश प्रतिक्रिया हुई। परिणामस्वरूप 8 जुलाई, 1921 ई. में अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन कराची में हुआ जिसमें भारतीय सेना में मुस्लिम सैनिकों को अपनी नौकरी छोङ देने का आह्वान किया गया।

गांधी द्वारा 1922 ई. के शुरू में असहयोग आंदोलन को समाप्त करने के निर्णय ने खिलाफतियों को विभाजित कर दिया। 1922 ई. में टर्की में केमलीस्ट विद्रोह के आंदोलन से ध्यान भंग कर इसे निर्थक बना दिया।

असहयोग आंदोलन (1921-22ई.)

कारण

रौलेट एक्ट को रद्द करना तथा पंजाब में हुई गलतियों में सुधार अर्थात् अमृतसर में हुई घटनाओं पर ब्रिटिश सरकार द्वारा खेद प्रकट किया गया।

खिलाफत के दौरान हुई गलतियां का सुधार करना अर्थात् अंग्रेजों को टर्की के साथ सौम्य व्यवहार करना चाहिये, जो प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हारे हुये देशों में से एक था।

नए महत्त्वपूर्ण तथा अर्थपूर्ण सुधारों द्वारा राष्ट्रवादियों की स्वराज्य की मांग को पूरा करना।

शुरूआत

अंग्रेजों द्वारा कांग्रेस की मुख्य मांगों में से किसी की भी स्वीकृति नहीं दिए जाने के कारण जून 1920 ई. में एक सर्वदलीय सम्मेलन का आयोजन इलाहाबाद में किया गया जिसके अंतर्गत सरकारी स्कूलों, कॉलेजों तथा विधि न्यायालयों के बहिष्कार करने की एक योजना पारित की गयी।

सितंबर, 1920 ई. में कांग्रेस द्वारा एक विशेष अधिवेशन हुआ जिसमें अंग्रेजों द्वारा मांगों की पूर्ति नहीं किए जाने पर असहयोग आंदोलन शुरू करने का प्रस्ताव पारित किया गया बाद में, दिसंबर1920 ई. में हुए नागपुर अधिवेशन में इस निर्णय क स्वीकृति दी गई। इस प्रकार जनवरी, 1921 ई. में कांग्रेस द्वारा गांधी के नेतृत्व में ईमानदारीपूर्वक असहयोग आंदोलन प्रारंभ किया गया।

कार्यक्रम

  • आंदोलन में कुछ खास सकारात्मक तथा नकारात्मक कार्यक्रम शामिल थे। नकारात्मक कार्यक्रम शामिल थे। नकारात्मक कार्यक्रम निम्न थे
  • सरकारी या अर्द्धसरकारी स्कूलों, कॉलेजों, न्यायालयों द्वारा 1919 ई. के सुधारों पर आधारित परिषदों के चुनाव तथा अंततः विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना था।
  • उपनामों तथा अवैतनिक कार्यालयों का समर्पण करना तथा स्थानीय संस्थाओं की मनोनीत सीटों से त्यागपत्र देना।
  • सरकारी या अद्धसरकारी कार्यक्रमों में शामिल होने से इनकार करना।
  • सैनिक, लिपिकीय तथा मजदूर वर्ग द्वारा मेसोपोटिमिया में स्वयं को बहाल किए जाने से इनकार करना।

इन नकारात्मक कार्यक्रमों द्वारा भारतीयों द्वारा अंग्रेजों को प्रशासन तथा अपनी मातृभूमि के शोषण करने में सहायता करने से इनकार कर दिया गया।

सकारात्मक कार्यक्रम निम्न प्रकार थे

  • राष्ट्रीय स्कूलों, कॉलेजों तथा निजी मध्यस्त न्यायालयों की, जिसे पंचायत कहा जाता था, पूरे देश में स्थापना करना।
  • हाथ से सूत कताई एवं बुनाई को पुनर्जीवित कर स्वदेशी तथा खादी को लोकप्रिय बनाना।
  • हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच एकता का विकास करना।
  • हरिजन तथा मुसलमानों के बीच एकता का विकास करना।
  • हरिजन कल्याण के लिये अस्पृश्यता समाप्त कर अन्य सुधार करना।
  • महिलायओं का उत्थान तथा विकास करना।

इनमें से प्रथम दो कार्यक्रमों से जन समुदाय के कष्ट को खत्म करना था तथा अन्य तीन कार्यक्रम द्वारा आंदोलन की सफलता के लिये मुसलमानों, हरिजनों तथा महिलाओं की भागेदारी को सुनिश्चित करना था।

विभिन्न चरण

प्रथम चरण (जनवरी-मार्च, 1921 ई.) की विशेषताएँ थी –सरकारी स्कूलों, कॉलेजों के शिक्षकों एवं छात्रों द्वारा तथा न्यायलयों के वकीलों द्वारा बहिष्कार करना।

दूसरे चरण (अप्रैल-जून, 1921 ई.) की विशेषता के अंतर्गत तिलक स्वराज कोष के लिये पैसा इकट्ठा (एक करोङ रुपए)करना, सामान्य व्यक्ति को कांग्रेस का सदस्य बनाना, तथा बङी संख्या में चरखा लगाना था।

तीसरे चरण (जुलाई-नवम्बर, 1921 ई.) की विशेषता थी, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार तथा प्रिंस ऑफ वेल्स के आगमन के समय राष्ट्रीय स्तर पर हङताल करने के लिये स्वयंसेवी मंडियों का संगठन करना।

चौथे (नवंबर, 1921 ई. से फरवरी 1922 ई.) की कुछ खास घटनाओं ने सरकार को इसके घुटनों पर ला दिया। कुछ अतिवादी वर्ग ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों से क्रोधित थे, पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे तथा अहिंसा के सिद्धांत को छोङ दिने के पक्ष में थे। जनता की मनोदशा भी उग्र रूप में आ चुकी थी। लेकिन, उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में 5 फरवरी, 1922 ई. में क्रोधी किसानों द्वारा 22 पुलिस वालों को जिंदा जला देने के समाचार सुनकर गांधी ने 11 फरवरी, 1922 ई. में आंदोलन अचानक वापस ले लिया।

महत्त्व

  • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में पहली बार भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों जैसे – किसानों, मजदूरों, छात्रों तथा शिक्षकों, महिलाओं तथा व्यापारियों इत्यादि के इस आंदोलन में भाग लेने से इसको एक विशाल वास्तविक जन समर्थन मिला था, यद्यपि बङे उद्योगपति, पूंजीपति तथा जमींदार अभी भी विदेशी बने रहे।
  • आंदोलन ने राष्ट्रवाद को देश के सुदूर प्रदेशों तक फलै दिया।
  • इस आंदोलन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक विमर्शी सभा से क्रियात्मक संस्थान में परिवर्तित कर दिया जासे कि इसके कार्यक्रमों से प्रतीत होता है।
  • यह आंदोलन हिन्दू-मुस्लिम एकता की चरम सीमा को प्रदर्शित करता है जो खिलाफत आंदोलन के मिलने से स्पष्ट हो जाता है। अंततः यह आंदोन राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिये जनता की कठिनाई तथा त्यादग करनी की इच्छा एवं योग्यता को दर्शाता है। हालांकि यह आंदोलन अपने तीन मुख्य उद्देश्य में से किसी भी एक को पाने में असफळ रहा तथापि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में इस आंदोलन का अपना बहुत बङा योगदान था।

सविनय अवज्ञा आंदोलन

साइमन कमीशन (1927ई.)

8 नवंबर, 1927 ई. को ब्रिटिश सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में भारतीय वैधानिक आयोग (इंडियन स्टेचुरटी कमीशन) के गठन की घोषणा की। इस आयोग में अध्यक्ष के अलावा छह सदस्य थे, जिनमें चार कंजरवेटिव एक लिबरल तथा दो लेबर पार्टी के सदस्य थे।

यह श्वेत आयोग, जिसमें कोई भारतीय प्रतिनिधि नहीं था, ब्रिटिश भारत में सरकार की कार्यों की जांच तथा विश्वसनीय सरकार की वांछनीयता एवं सीमा निर्धारण करने के सिद्धांत पर रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पूर्व ही बङे विवाद के घेरे में आ गया।

इसके भारत आगमन पर इसका राजनैतिक तथा सामाजिक बहिष्कार किया गया। सभी प्रमुख राजनैतिक पार्टियां – कांग्रेस, अखिल भारतीय उदारवादी संघ, मुस्लिमी लीग, हिन्दू महासभा, भारतीय वाणिज्य मंडल संघ तथा मिल मालिक संघ इत्यादि द्वारा आयोग के बहिष्कार विवरण पर हस्ताक्षर किए गए जिन लोगों ने इसका स्वागत किया था वे विभाजित वर्ग, जैसे मुस्लिम लीग का एक वर्ग या साम्प्रदायिक स्वार्थ वाले जैसे – यूरोपीय, एंग्लों इंडियन तथा शोषित लोग थे।

आयोग ने फिर भी अपना कार्य पूरा किया तथा 1930 ई. में रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा देने की बात दूर तक नहीं थी। केन्द्र में सत्ता के हस्तांतरण को अस्वीकार कर दिया गया। मौंटफोर्ड की द्वैध शासन व्यवस्था के स्थान पर प्रांतों की स्वायत्ता में कोई नई बात नहीं थी।

अनुमानतः मुस्लिमी लीग सहित देश के सभी प्रमुख राजनैतिक दलों द्वारा इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया गया, यहां तक कि लॉर्ड इरविन ने इसकी रिपोर्ट में कल्पनाशक्ति की कमी पाई तथा आगे आने वाले गोलमेज सम्मेलन की स्वतंत्र भूमिका की तरफ ध्यान बंटाना चाहा। इसके अलावा आयोग की उपलब्धायं, नेहरू रिपोर्ट तथा भविष्य में भारत को स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा दिए जाने की 31 अक्टूबर, 1929 ई. की वायसराय की घोषणा के आगे कमजोर पङ गई।

साइमन कमीशन की नियुक्ति के विरोध में दिल्ली में 12 फरवरी, 1928 ई. को सर्वदलीय सम्मेलन हुआ जिसमें 29 संगठनों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। 19 मई, 1928 ई. बंबई के सर्वदलीय सम्मेलन में भारत के सिद्धांतों पर विचार करने एवं इसे निर्धारित करने के लिये नेहरू की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गयी।

नेहरू समिति ने अपनी रिपोर्ट सर्वदलीय सम्मेलन के चौथे अधिवेशन में अगस्त, 1928 लखनऊ में प्रस्तुत समिति की सिफारिशों का केन्द्रीय मूल विषय देश के नए संविधान का स्वतंत्र उपनिवेश पर आधारित होने की मान्यता थी।

रिपोर्ट की महत्त्वपूर्ण बातें

  • विवेक, व्यवसाय तथा धर्म की स्वतंत्र व्यवस्था।
  • केन्द्रीय विधायिका तथा प्रांतीय परिषदों के अंदर सदन में संयुक्त मिश्रित निर्वाचन के तहत मुस्लिमों तथा हिन्दुओं को उनके अल्पसंख्यक निर्वाचन क्षेत्रों में आरक्षण के आधार पर सदस्यों का चुनाव करना।
  • पंजाब तथा बंगाल में मुस्लमों के लिये कोई आरक्षण नहीं ।
  • सीटों का आरक्षण जनसंख्या के आधार पर तथा 10 वर्षों के नियत समय तक।
  • युवा सर्वव्यापक मताधिकार की व्यवस्था

कलकत्ता के सर्वदलीय सम्मेलन में जब इस रिपोर्ट की प्रस्तुति हुई तब जिन्ना (मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि) तथा एम.आर.जयकर (हिन्दू महासभा के प्रतिनिधि)के बीच हिंसात्मक रवैया अपनाया गया।

जिन्ना केन्द्रीय विधायिका की प्रस्तावित सीटों का एक तिहाई भाग मुस्लिमों के लिये मांग कर रहे थे जबकि दूसरी तरफ जयकर द्वारा जिन्ना की अधिकारिता पर सवाल उठाया गया तथा रिपोर्ट पर सम्मेलन को चेतावनी दी गयी। परिणामस्वरूप जिन्ना द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को मतदान में पराजित कर दिया गया। इस प्रकार रिपोर्ट उपयोगी साबित नहीं हुई तथा केवल एक ऐतिहासिक कागजात बनकर रह गई।

सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) – आंदोलन की शुरूआत के पूर्व गांधी द्वारा ब्रिटिश सरकार से ग्यारह सूत्री अंतिम मांग पत्र जिसमें पूर्ण स्वतंत्रता की मांग शामिल नहीं थी, प्रस्तुत किया गया। इस अंतिम पत्र में भारतीयों की अन्य महत्त्वपूर्ण मांगों की प्रस्तुति की गई जो इस प्रकार थे-

  • भूमि कर में 50 प्रतिशत की कमी ।
  • नमक कर तथा सरकार द्वारा नमक पर एकाधिकार की समाप्ति ।
  • तटीय संचार पर भारतीयों के लिये आरक्षण
  • रुपया स्टर्लिंग विनिमय अनुपात को कम करना।
  • देशी कपङा उद्योगों को संरक्षण देना।
  • सैनिक खर्च पर 50 प्रतिशत की कमी।
  • सिविल प्रशासन पर 50 प्रतिशत खर्च की छूट (कमी)।
  • मादक द्रव्यों पर पूर्णतया रोक।
  • सभी राजनैतिक कैदियों की रिहाई।
  • सी.आई.डी. में परिवर्तन।
  • आर्म्स एक्ट में परिवर्तन जिससे नागरिक अपनी सुरक्षा के लिये हथियार रख सकें।

प्रथम दो मांगें किसानों की मांगे थी। संख्या तीन से पांच तक बुर्जुवा प्रकृति की मांगे थी जबकि अंतिम छः मांगे भारत की आम जनता द्वारा की गयी थी। गांधी द्वारा 41 दिनों तक सरकार की प्रतिक्रिया का इंतजार किया गया, अंततः दांडी मार्च (12 मार्च,से 6 अप्रैल 1930ई.) में साबरमती से गुजरात के तट दांडी तक का आयोजन कर आंदोलन प्रारंभ किया गया।

दांडी मार्च

सविनय अवज्ञा आंदोलन के विभिन्न चरण

  • प्रथम चरण (मार्च से सितंबर, 1930ई.) में विभिन्न कार्यक्रमों को प्रारंभ किया गया।
  • जैसे – नमक कर नहीं देना, शराब की दुकानों पर धरना देना तथा चौकीदारी कर गैर अदायगी इत्यादि पर रोक लगाना।
  • दूसरा चरण (अक्टूबर 1930 से मार्च 1931 तक) में शहरी व्यापारी तथा उद्योगपति द्वारा आंदोलन में कमी तथा उनके द्वारा सरकार एवं कांग्रेस के बीच समझौता कराने का प्रयास किया गया जिसके परिणामस्वरूप गांधी-इरविन समझौता मार्च 1931ई. में हुआ।
  • तीसरे चरण (जनवरी, 1932 से अप्रैल 1934 ई. तक) में सरकार द्वारा जनता का निष्ठुरतापूर्वक दमन था इसके बाद कांग्रेस द्वारा आंदोलन वापस ले लिया गया।

गांधी-इरविन समझौता

सर तेजबहादुर सप्रू, डॉ. जयकर तथा अन्य लोगों द्वारा लगातार प्रयासों के बाद सरकार तथा कांग्रेस के बीच समझौता हुआ। इसके परिणामस्वरूप गांधी तथा गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन द्वारा मार्च 1931 ई. में एक समझौता पत्र (गाँधी-इरविन समझौता) पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते द्वारा सरकार निम्न शर्तों को मानने पर राजी हुई –

  • सभी अध्यादेशों की वापसी तथा अभियोगों की समाप्ति।
  • हिंसा के दोषी राजनैतिक कैदियों को छोङकर अन्य सभी राजनैतिक कैदियों की रिहाई।
  • सत्याग्रहियों की जब्त संपत्ति को उन्हें वापस करना।
  • शराब तथा विदेशी कपङे की दुकानों पर शांतिपूर्वक धरना देने की अनुमति देना। समुद्री तटों से कुछ दूरी तक रहने वाले लोगों को मुफ्त नमक इकट्ठा करने तथा बनाने की अनुमति देना। इसके बदले में कांग्रेस द्वारा निम्न शर्ते मानी गयी-
  • सविनय अवज्ञा आंदोलन की समाप्ति।
  • द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिये राजी होना।
  • पुलिस ज्यादती पर जांच के लिये दबाव नहीं देना।

इस तरह गांधी द्वारा लंदन में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया गया लेकिन इसकी असफलता तथा सरकार द्वारा दमनकारी नीतियों को फिर से लागू करने के कारण जनवरी1932 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन की पुनः शुरुआत की गयी।

गोलमेज सम्मेलन

भारतीय गोलमेज सम्मेलन के तीन अधिवेशन हुए जिसे प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय गोलमेज सम्मेलन कहा जाता है।

प्रथम गोलमेज अधिवेशन (12 नवंबर, 1930 ई. से 19 जनवरी, 1931 ई.)

साइमन कमीशन (जिसे मिस्टर बाल्डविन के नेतृत्व वाली कंजरवेटिव मंत्रिमंडल ने 1919 ई. के सुधार कार्यों तथा भारत के लिये बाद के संवैधानिक सुधारों पर रिपोर्ट देने के लिये नियुक्त किया था) जिसके अध्यक्ष सर जॉन साइमन थे, ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री सर रैम्से मैकडॉनल्ड (जिनकी लेबर पार्टी 1929 ई. में सत्ता में आई थी)

को 16 अक्टूबर, 1929 ई. को भारत से एक पत्र लिखकर भारत के लिये संवैधानिक सुधारों के प्रश्न पर अंतिम निर्णय लेने के लिये ब्रिटिश भारत तथा भारतीय राज्यों के प्रितिनिधियों का एक सम्मेलन आयोजित करने का आग्रह किया था। उसका सुझाव ब्रिटिश मंत्रीमंडल द्वारा स्वीकार कर लिया गया तथा भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड इरविन ने प्रसिद्ध दीपावली घोषणा (31 अक्टूबर, 1929 ई.)को घोषित किया।

इसके अनुसार ब्रिटिश नीति का उद्देश्य भारत को स्वतंत्र उपनिवेश देना तथा साइमन कमीशन के रिपोर्ट के बाद लंदन में गोलमेज सम्मेलन आयोजित करना था।

इसमें ब्रिटेन के तीनों राजनैतिक दलों के 16 प्रतिनिधि भारतीय राज्यों के प्रतिनिधि तथा ब्रिटिश भारत के 57 प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

साइमन कमीशन के रिपोर्ट से असंतुष्ट कांग्रेस ने उस सम्मेलन में भाग नहीं लिया किन्तु अन्य पार्टियों के सदस्यों जैसे – मुस्लिम लीग के मुहम्मद अली, मुहम्मद शफी, जिन्ना, आगा खान तथा फजुल हक, हिन्दू महासभा के मुंजे तथा जयकर, इंडियन लिबरल फेडरेशन के तेज बहादुर सप्रू, सी.वाई. चिंतामणई, एम.आर.जयकर तथा श्रीनिवास शास्री, दलित वर्ग के प्रतिनिधि बी.आर.अंबेडकर थे, ने उसमें भाग लिया।

भारतीय राजाओं द्वारा कमजोर परंतु जिम्मेदार संघीय केन्द्र सरकार की सहमति के बाद इस सम्मेलन की समाप्ति हो गयी। (अंग्रेजों ने यह सुनिश्चित किया कि कंन्द्रीय दायित्व के वादे में कई प्रकार के बंधन हों) लेकिन अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व के प्रश्न पर सांप्रदायिक दलों में कोई समझौता नहीं हुआ।

अंग्रेजों ने भारत के लिये संवैधानिक सुधारों के प्रश्न पर कांग्रेस के प्रतिनिधियों की अनुपस्थिति में सम्मेलन आयोजित करने की निरर्थकता को महसूस किया।

दूसरा अधिवेशन (7 सितंबर, से दिसंबर 1931 ई.

इसमें कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि गांधी (गांधी-इरविन समझौता 1931 के अनुसार) द्वारा अन्य दलों के प्रतिनिधियों के साथ भाग लिया। किसी भी प्रकार के विकास के पूर्व ही अल्पसंख्यकों के प्रश्न पर सम्मेलन में गतिरोध पैदा हो गया। मुस्लिम लीग के अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मांग साथ-साथ दलित वर्ग, भारतीय ईसाई वर्ग, एंग्लो-इंडियन तथा यूरोपीय भी मांग करने लगे।

गांधी द्वारा संवैधानिक प्रगति को साम्प्रदायिक प्रश्न से जोङने के हर प्रयास का विरोध किया गया। उन्होंने मुसलमानों के दावों को स्वीकार करने के लिये यह शर्त रखी कि मुसलमान कांग्रेस द्वारा स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करेंगे। मुस्लिम प्रतिनिधियों द्वारा स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करेंगे।

मुस्लिम प्रतिनिधियों द्वारा इसे अस्वीकृत कर दिया गया जबकि हिन्दू महासभा तथा सिखों द्वारा इसका कङा विरोध किया गया। संघ के प्रश्न पर भारतीय राजा पहले अधिवेशन की अपेक्षा संतुष्ट नहीं थे।

सम्मेलन की समाप्ति रैमसे मैकडॉनाल्ड द्वारा दो नए मुस्लिम बाहुल्य प्रांतों (उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत तथा सिंध)के गठन तथा इंडियन कंसलटेटिव कमेटी एवं तीन विशेषज्ञ समितियों (नागरिकता, अर्थ तथा राज्य) की स्थापना के साथ की गई, उसमें यह भी कहा गया कि भारतीय अल्पसंख्यक के प्रश्न पर सहमत नहीं होते हैं तो ब्रिटिश कम्युनल एवार्ड लागू किया जाएगा। अंग्रेजों द्वारा असंतुष्ट गांधी जी को भारत में आते ही गिरफ्तार कर लिया गया था।

तीसरा अधिवेशन(नवंबर 1932 से दिसंबर17 से 24 दिसंबर तक)

इस अधिवेशन में कांग्रेस के किसी भी प्रतिनिधि द्वारा भाग नहीं लिया गया तथा कुल प्रतिनिधियों की संख्या पहले दो अधिवेशनों से बहुत कम थी। इस अधिवेशन में लगभग सभी विषयों पर प्रतिनिधि सहमत हो गए। ब्रिटिश सरकार ने तीन अधिवेशन पर हुए विचारों के आधार पर भारतीय संविधान के सुधारों का प्रस्ताव प्रस्तुत किया।

जिसको मार्च 1933 ई. में प्रकाशित श्वेतपत्रों में शामिल किया गया। ब्रिटिश संसद के संयुक्त सचिव द्वारा श्वेत पत्र की जांच कर इसकी स्वीकृति (अक्टूबर, 1934 ई.) दी गई। इसकी रिपोर्ट पर आधारित एक बिल ब्रिटिश संसद में पारित किया गया जिसे गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के नाम से जाना जाता है।

References :
1. पुस्तक- भारत का इतिहास, लेखक- के.कृष्ण रेड्डी

Online References
wikipedia : गाँधीजी के विचार

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