इतिहासराजस्थान का इतिहास

राजस्थान में स्थापत्य कला का विकास

राजस्थान में स्थापत्य कला

राजस्थान में स्थापत्य कला – राजस्थान की स्थापत्य कला का इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मानव का इतिहास। मुसलमानों के भारत आने से पहले यहाँ स्थापत्य कला की एक शैली विकसित हो चुकी थी। इस स्थापत्य की विशेषता शिल्प-सौष्ठव तथा अलंकृत पद्धति और विषयों की विविधता है।

यह हिन्दू स्थापत्य शैली कहलाती थी, जो अपनी सम्पन्नता, अलंकरण एवं विविधता के लिये प्रसिद्ध थी। हिन्दू निर्माण शैली में स्तंभों व सीधे पाटों का महत्त्व था, हिन्दू मंदिरों में ऊँचे शिखर बनाये जाते थे, पत्थर में सुन्दर अलंकृत आकृतियाँ बनाई जाती थी, हिन्दू कला के मुख्य प्रतीक कमल और कलश थे और इसमें मजबूती व सुन्दरता का समन्वय था।

श्री एच.एस. कोटियाल ने लिखा है कि गुप्तोत्तर काल के पहले के भी हमें नमूने उपलब्ध होते हैं। जयपुर से लगभग 85 किलोमीटर दूर स्थित बैराठ नगर राजस्थान की स्थापत्य कला का सुन्दर प्रतीक है। बैराठ के भग्नावशेषों से, जो सैन्धव सभ्यता के समकालीन है, यह स्पष्ट है कि राजस्थानी स्थापत्य में जैन, बौद्ध और हिन्दू विचारों को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था।

चित्तौङ से आठ मील उत्तर में बेङच नदी पर स्थित मध्यमिका, जिसे आजकल नगरी कहते हैं, में इन विविध प्रवृत्तियों को सुन्दर नमूने उपलब्ध होते हैं। पुरमंडल, हाङौती, शेखावाटी तथा जंगल प्रदेश में भी स्थापत्य के सुन्दर नमूने देखने को मिलते हैं। राजस्थान की इस कला को न केवल राजकीय संरक्षण प्राप्त था, बल्कि उसे जनप्रिय बनने का भी सौभाग्य प्राप्त था।

राजस्थान में स्थापत्य कला का विकास

गुप्तोत्तर कालीन राजस्थान में, बंगाल, उङीसा व गुजरात की भाँति हिन्दू मंदिरों का निर्माण अधिक हुआ। जोधपुर में ओसिया नामक गाँव में गुप्तोत्तर कालीन कला के अवशेष मिले हैं। यहाँ हिन्दू और जैन मंदिर प्राप्त हुए हैं। इन मंदिरों के निर्माण में कल्पना तथा मौलिकता मूल रूप से झलकती है। धीरे-धीरे राजस्थान के मंदिर भी भुवनेश्वर के मंदिरों की भाँति विशाल आकार ग्रहण करते गये तथा वे शिखरों से अलंकृत एवं सुसज्जित होते गये।

राजपूत शासक शौर्य को प्रधानता देते थे, अतः राजस्थान के स्थापत्य में शौर्य की भावना स्पष्ट दिखाई देती है। राजपूत शासकों के रहने के लिये भव्य प्रासाद, उस काल की हिन्दू कला के प्रतीक हैं। जब भारत के उत्तर-पश्चिम से तुर्कों के निरंतर आक्रमण होने लगे, तब राजपूत शासकों ने अपनी स्थापत्य शैली में शौर्य के साथ-साथ सुरक्षा की भावना का भी समावेश किया और विशाल एवं सुदृढ दुर्ग बनवाने आरंभ कर दिये।

सुरक्षा की दृष्टि से अब राजपूत शासकों ने अपने निवास भी दुर्ग के भीतर बनवाने आरंभ कर दिये तथा सामरिक दृष्टि से दुर्ग के भीतर जल की व्यवस्था के लिये जलाशय भी बनवाये। चूँकि राजपूत शासकों में धर्म के प्रति अगाध श्रद्धा थी, अतः दुर्ग के भीतर मंदिरों का निर्माण भी करवाया। इस प्रकार राजस्थान के दुर्ग स्थापत्य कला के सुन्दर केन्द्र बन गये।

प्रारंभ में राजस्थान की स्थापत्य कला शैली, हिन्दू शैली ही रही, किन्तु मुगलों के संपर्क में आने के बाद हिन्दू और मुस्लिम कला का पारस्परिक साक्षात्कार हुआ, जिससे हिन्दू और मुस्लिम स्थापत्य शैलियों में समन्वय हुआ। फलस्वरूप एक नई स्थापत्य शैली का विकास हुआ, जिसे हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य शैली कहा गया।

नगर निर्माण

राजस्थान के राजपूत शौर्य के प्रतीक थे। उन्होंने अपने पराक्रम और शैन्यशक्ति से नये राज्यों की स्थापना की तथा उनकी सीमाओं का विस्तार किया। अतः इस काल की स्थाप्तय कला में शौर्य एवं सुरक्षा की भावना स्पष्ट दिखाई देती है। पहाङों की घाटियों अथवा जंगलों से आच्छादित स्थानों में बसाये गये कस्बों तथा नगरों में वे सभी साधन उपलब्ध कराये गये जो युद्धकालीन स्थिति में उपयोगी सिद्ध हो सके।

मुसलमानों के संपर्क में आने से पूर्व नगर निर्माण की स्थापत्य कला का प्रमुख आधार महाभारत, अर्थशास्र, कामसूत्र आदि ग्रन्थों में दिये गये सिद्धांतों के अनुरूप था। नगरों को परकोटों तथा खाइयों से सुरक्षित रखने पर बल दिया जाता था और नगर की बस्तियों को पेशे के अनुसार बाँटा जाता था। आमेर नगर को भी एक विशेष परिस्थिति के अनुकूल बसाया गया था। दोनों और पहाङियों की ढलान में हवेलियाँ और ऊँचे भवन, राजपरिवार की सुरक्षा के लिए ऊँची पहाङी पर राजप्रासाद तथा नीचे के समतल भाग में पानी के कुण्ड, मंदिर, सङकें, बाजार आदि बनाये गये।

मुगलों से मैत्री संबंध स्थापित होने के बाद जब आमेर के कछवाहों को बाह्य आक्रमण का भय नहीं रहा तब खुले मैदानी भाग में वर्तमान जयपुर नगर बसाया गया तथा नगर के चारों ओर सुरक्षात्मक सुदृढ परकोटे बनाये गये। नगर के एक सिरे पर ऊँची पहाङी पर नाहरगढ दुर्ग को सैनिक शक्ति से सुसज्जित कर मैदानी भाग की चौकसी का प्रबंध किया गया। नगर में जगह-जगह जलाशय, फव्वारे, चौङी सङकें, चौपङ आदि बनवा कर मुगल स्थापत्य का समावेश किया गया। बूँदी के स्थापत्य में पहाङी स्थिति और जल की पर्याप्तता का बङा हाथ था।

जोधपुर तथा बीकानेर को बसाने में दुर्ग निर्माण, परकोटे तथा भवन निर्माण भौगोलिक परिस्थितियों से संबंधित हैं। उदयपुर का संपूर्ण नगर झील के किनारे-किनारे बसाया गया तथा चारों ओर पहाङी घेराव, खाई तथा सुदृढ द्वारों से सुरक्षा प्रदान की गयी थी।

दुर्ग-निर्माण

राजस्थान शूरवीरों की भूमि रही है। अतः इस प्रदेश में अनेक छोटे-मोटे दुर्ग देखने को मिलते हैं। राजस्थान में अत्यन्त प्राचीन काल से ही दुर्ग निर्माण का कार्य होता रहा है। राजा हो अथवा सामंत, दुर्गों का निर्माण सामरिक, प्रशासनिक एवं सुरक्षा की दृष्टि से कराते थे। राजाओं का अनुकरण करते हुए राजाओं के सामंतों ने भी अपनी-अपनी जागीरों में दुर्गों का निर्माण करवाया था। प्राचीन लेखकों – मंडन एवं सदाशिव ने दुर्ग को राज्य का अनिवार्य अंग बताया है। दुर्ग में रहना तथा अधिक दुर्ग अपने अधिकार में रखना शासकों के लिये प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी।

दुर्गों के निर्माण में राजस्थान के शासकों ने भारतीय दुर्ग निर्माण कला की परंपरा का निर्वाह किया था। अलग-अलग उद्देश्यों के लिये विभिन्न प्रकार के दुर्गों का निर्माण किया जाता था।

कौटिल्य ने छः प्रकार के दुर्गों का उल्लेख करते हुए कहा है कि राजा को चाहिए कि वह अपने राज्य की सीमाओं पर युद्ध की दृष्टि से दुर्गों का निर्माण करे। राज्य की सुरक्षा के लिये औदक दुर्गों (पानी ने मध्य स्थित दुर्ग अथवा चारों ओर जलयुक्त नहर के मध्य स्थित दुर्ग) व पर्वत दुर्गों अथवा गिरि दुर्गों (जो किसी पहाङी पर स्थित हो) का निर्माण किया जाय।

आपातकालीन स्थिति में शरण लेने हेतु धवन दुर्गों (रेगिस्तान में निर्मित दुर्ग)तथा वन दुर्गों (वन्य प्रदेश में स्थित)का निर्माण किया जाय। मनुस्मृति और मार्कण्डेय पुराण में भी दुर्गों के प्रायः ये ही प्रकार बताये गये हैं। राजस्थान के शासकों एवं सामंतों ने इसी दुर्ग निर्माण परंपरा का निर्वाह किया था।

भारत में मुस्लिम सत्ता स्थापित होने के बाद दुर्ग निर्माण कला में एक नया मोङ आता है। अब ऊँची-ऊँची पहाङियों, जो ऊपर से चौङी होती थी और जहाँ खेती और सिंचाई के साधन हों, दुर्ग बनाने के काम में प्रयोग में लायी जाने लगी और यदि ऐसी पहाङियों पर प्राचीन दुर्ग बने हुए थे, तो उन्हें फिर से नया रूप दिया गया।

चित्तौङ, कुम्भलगढ, माण्डलगढ आदि प्राचीन दुर्गों में मध्ययुगीन युद्ध शैली को ध्यान में रखकर परिवर्तन किये गये। महाराणा कुम्भा ने चित्तौङ के दुर्ग को प्राचीर, द्वारों की श्रृंखला तथा बुर्जों को अधिक सुदृढ बनाया। कुम्भलगढ के किले के भीतर ऊँचे भाग का प्रयोग राजमहलों के लिए, नीचे भाग का प्रयोग जलाशयों के लिए तथा समतल भाग को खेती के लिए रखा गया।

जोधपुर के दुर्ग में जलाशय न होने के कारण विशाल टंकियाँ बनवायी गयी ताकि वर्षा का पानी उनमें एकत्रित हो सके। रसद आदि के संग्रह के लिये बङे-बेङे कोठे बनवाये गये। इसी प्रकार नागौर के दुर्ग में भी पहले इल्तुतमिश ने और बाद में मुगलों ने तथा जालौर एवं रणथंभौर दुर्गों में पहले खलजियों ने और बाद में मुगलों ने परिवर्तन किये, जिससे इन दुर्गों के स्थापत्य में मुस्लिम पद्धति का समावेश हुआ।

राजप्रसादों का निर्माण

राजस्थान के स्थापत्य में राजप्रासादों का एक विशिष्ट रूप दिखाई देता है। नगर निर्माण में अथवा दुर्ग निर्माण में राजप्रासाद का होना अनिवार्य माना जाता था। प्रसिद्ध शिल्पी मंडन ने राजप्रासाद बनाने का स्थान या तो नगर के बीच में या नगर के एक कोने में ऊँचे स्थान पर ठीक माना है। राजप्रासादों के निर्माण में जो भव्यता को प्रधानता दी गयी, वह राजपूत शासकों की बढती हुई शक्ति को प्रदर्शित करती है।

राजप्रासादों के मुख्य रूप से दो भाग जनानी ड्योढी व मर्दानी ड्योढी – अनिवार्यतः बनायी जाती थी तथा दोनों को सुगम मार्ग से जोङने की भी व्यवस्था होती थी। मर्दानी ड्योढी में दरबार लगाने, आम जनता तथा दरबारियों से मिलने, राजकुमारों के निवास आदि की व्यवस्था होती थी।

जनानी ड्योढी में राजपरिवार की महिलाओं के निवास व रसोङे आदि की व्यवस्था होती थी। राजप्रासाद के इन सभी अंगों को जोङकर एक पूर्ण इकाई का रूप दिया जाता था तथा दुर्ग स्थापत्य के समान बुर्ज आदि भी बनवाये जाते थे। राजस्थान के राजपूत शासकों के राजप्रासादों के स्थापत्य में काफी साम्यता पायी जाती है।

किन्तु मुगलों के साथ संपर्क स्थापित होने के बाद राजप्रासादों को चमक-दमक बाले बनाने का क्रम आरंभ हो गया। उनमें फव्वारे, छोटे उद्यान, पतले खंभे और उन पर बेल-बूटों की नक्काशी तथा संगमरमर का प्रयोग होने लगा। राजप्रासादों का अलंकरण विशेष रूप से आरंभ हुआ। बारीक खुदाई, नक्काशी, अलंकृत छज्जे, गवाक्ष आदि राजस्थानी राजप्रासादों की अपनी विशेषता रही है।

उदयपुर के अमरसिंह महल, पिछोला झील में स्थित जगनिवास और जगमंदिर, जोधपुर दुर्ग में स्थित फूल महल, आमेर व जयपुर में दीवाने आम व दीवाने खास, बीकानेर में रंगमहल, शीशमहल व अनूप महल आदि में राजपूत स्थापत्य की प्रधानता होते हुए भी सजावट में मुगल शैली अपनायी गयी है।

ज्यों-ज्यों राजपूत एवं सामंत मुगल दरबार में अधिकाधिक जाने लगे, उनमें मुगलों के वैभव के अनुरूप स्थापत्य में रुचि बढने लगी। मुगलों के पतन के बाद मुगल आश्रित अनेक शिल्पकारों के परिवारों को राजपूत शासकों ने आश्रय दिया। इनके द्वारा न केवल शासकों के महलों के स्थापत्य में, बल्कि सामंतों के राजप्रासादों में भी मुगल शैली प्रगति करने लगी।

मंदिरों का निर्माण

राजस्थान के राजनैतिक परिवर्तनों के साथ-साथ मंदिरों की स्थापत्य कला का विकास भी होता रहा। प्राचीनतम मंदिरों के अवशेषों से यह स्पष्ट होता है कि मंदिरों के निर्माण के द्वारा स्वाभाविक कला की अभिव्यक्ति प्राचीनकाल से ही होती रही है। गुप्तकाल के आस-पास हमें वास्तुविद्या पर स्वतंत्र ग्रन्थ उपलब्ध होने लगते हैं, जिनमें मंदिरों के निर्माण संबंधी समस्त जानकारी मिलती है, यथा – मंदिर निर्माण हेतु उपयुक्त सामग्री, मंदिर की सामान्य योजना, अनुपात के नियम, मंदिर की मूर्तियों का निर्धारण आदि।

जो व्यक्ति इन सिद्धांतों में पारंगत होता था उसे ही मंदिर निर्माण का कार्य सौंपा जाता था। मंदिरों का मुख्य प्रवेश द्वार तोरण द्वार कहलाता था और कई बार अलंकृत तोरण द्वार का निर्माण भी किया जाता था। तोरण द्वार में प्रवेश करते ही उप मंडप आता है, तत्पश्चात विशाल आँगन या चौक आता है जिसे सभा-मंडप कहा जाता है। सभा मंडप के आगे मूल मंदिर का प्रवेश द्वार आता है।

मूल मंदिर को गर्भगृह कहा जाता है, जिसमें मुख्य देवता की प्रतिमा प्रतिष्ठित हो जाती है। गर्भगृह के ऊपर शिखर बना रहता है। गर्भगृह के इर्द-गिर्द एक गलियारा होता है जिसे प्रदक्षिणा पथ कहा जाता है। गुप्तकाल के बाद मंदिर स्थापत्य की – द्राविङ, नागर एवं वासर नामक तीन शैलियाँ विकसित हुई। 11वीं से 13 वीं शताब्दी के मध्य राजपूतों की शक्ति में वृद्धि हुई, अतः शौर्य की भावना मंदिरों के स्थापत्य में भी प्रकट हुई।

यदि कृष्ण का अंकन गौओं के साथ हुआ तो वहाँ पूतना वध भी प्रदर्शित किया गया है। शौर्य के साथ-साथ नारियों के अंकन में नृत्य, श्रृंगार, क्रीङा, प्रेम, आदि की अभिव्यक्ति भी सुन्दर ढंग से की गयी है।

जैन धर्म से संबंधित मंदिरों में आबू का देलवाङा मंदिर कला का भव्य प्रतीक है। इसके निर्माण में परंपरागत शिल्प सिद्धांतों का पालन तो हुआ ही है, लेकिन मंदिर की मूर्तियाँ बनाने में शिल्पकारों का असीम धैर्य और गाम्भीर्य स्पष्ट दिखाई देता है। 16 वीं से 17 वीं शताब्दी तक की अवधि में स्थापत्य का महत्व सुरक्षा से संबंधित था, अतः दुर्ग स्थापत्य का अंकन मंदिरों के निर्माण में भी दिखाई देता है।

कुम्भलगढ में नीलकंठ का मंदिर, एकलिंगजी का मंदिर, रणकपुर का मंदिर आदि के चारों ओर ऊँची दीवारें, बङे दरवाजे तथा बुर्ज आदि बनाकर दुर्ग स्थापत्य कला का अवलंबन किया गया है। महाराणा कुम्भा के शासन काल तक राजस्थान का स्थापत्य पूर्णतः परिपक्व हो चुका था।

चित्तौङ का कीर्ति-स्तंभ, यद्यपि मंदिर तो नहीं कहा जा सकता किन्तु इसका स्थापत्य मंदिरों के स्थापत्य के निकट है। इसमें अनेक देवी-देवताओं तथा जन जीवन से संबंधित उत्कृष्ट मूर्तियाँ, स्थापत्य की परिपक्वता का ज्वलन्त उदाहरण हैं। पौराणिक देवताओं की समुचित जानकारी के लिये कीर्तिस्तंभ एक अच्छा साधन है, जिसे प्रसिद्ध वास्तुविद् जी.एस. मूरे ने हिन्दू प्रतिमाशास्र की अनुपम निधि कहा है।

मुगल संपर्क के बाद मंदिरों में यद्यपि मोर, तोते, कमल आदि का अंकन हिन्दू पद्धति से होता रहा, लेकिन उप मंडप और सभा मंडप के बीच खुला चौक, गर्भगृह के ऊपर गुम्बद तथा द्वार की सजावट में मुस्लिम शैली दिखाई देने लगी। मंडपों का अधिक खुले रूप से बनाना, गुम्बदों का आकार, मंडपों में नुकीले मेहराब आदि नयी एवं प्राचीन शैली का सम्मिश्रण था। बीकानेर के दुर्ग में देवी का मंदिर इस सामंजस्य का सुन्दर प्रमाण है।

जिन राज्यों पर मुगलों का प्रभाव अधिक था वहाँ सामंजस्य की मात्रा अधिक दिखाई देती है और जहाँ मुगलों का प्रभाव अपेक्षाकृत कम था वहाँ का स्थापत्य परंपरागत शैली के अधिक निकट दिखाई देता है। डूँगरपुर का श्रीनाथजी का मंदिर तथा उदयपुर में जगदीश मंदिर में हिन्दू स्थापत्य की प्रधानता दिखाई देती है तो जोधपुर के घनश्यामजी के मंदिर में तथा जयपुर के जगत शिरोमणि के मंदिर में मुगल शैली की प्रधानता दिखाई देती है।

17 वीं तथा 18 वीं सदी में वैष्णव धर्म से संबंधित मंदिर अधिक संख्या में बने। क्योंकि मुगलों की धार्मिक कट्टरता के कारण उत्तर-भारत के अनेक मठों व मंदिरों के आचार्य राजस्थान के शासकों से आश्रय पाने के लिये अपनी मूर्तियाँ आदि लेकर राजस्थान में चले आये। राजस्थान के शासकों ने उन्हें आश्रय प्रदान कर भूमि आदि भेंट की। इनके मंदिर नाथद्वारा, कांकरोली, डूँगरपुर, कोटा, जयपुर आदि स्थानों में बनाये गये।

इस काल में बने मंदिरों के सामान्य विन्यास में कोई विशेष अंतर नहीं आया, किन्तु जहाँ तक परिसज्जा का प्रश्न है, अब परंपरागत अलंकरण का स्थान सादगी ने ले लिया। सभा मंडप के स्तंभों पर बारीक खुदाई के स्थान पर सादे स्तंभ उपलब्ध होने लगते हैं। अब केवल कमल के फूल अथवा सामान्य रेखाकृतियों से ही अलंकरण किया जाने लगा। 19 वीं शताब्दी में मंदिर, आकार में बङे और खुले बरामदे वाले बनाये जाने लगे।

जलाशयों का निर्माण

प्रत्येक गाँव, कस्बे या नगर में जलाशय होना अनिवार्य माना जाता था। यद्यपि जलाशयों का निर्माण आर्थिक दृष्टि से किया जाता था, किन्तु मूल भावना धार्मिक रहती थी, क्योंकि जलाशय निर्माण को बङा पुण्य का काम माना जाता था। एक ओर तो जलाशयों से पीने के पानी की समस्या का समाधान करते थे तो दूसरी ओर बङे जलाशय सिंचाई के श्रेष्ठ साधन भी थे। राजपूत शासकों एवं सामंतों ने जलाशय निर्माण में पर्याप्त रुचि ली थी।

जलाशयों में पाषाण की भित्तियाँ एवं घाटों का निर्माण हुआ करता था। घाटों में विभिन्न रेखाकृतियाँ उभारकर उन्हें कलात्मक बनाया जाता था। इनके ऊपरी भाग में छतरियाँ बनी रहती थी तथा चारों ओर से या एक ओर से सीढियाँ बनी होती थी, जो नीचे तक पहुँचती थी। जलाशय के पास ही एक कलात्मक स्तंभ लगाने की परंपरा रही है, जिसके ऊपरी भाग में शिखर बना रहता था और नीचे चारों ओर ताकों में देव प्रतिमाएँ उभारी जाती थी।

स्तंभ के मूल भाग पर जलाशय निर्माण से संबंधित सूचनाएँ उत्कीर्ण करवायी जाती थी। स्तंभ के मूल भाग पर जलाशय निर्माण से संबंधित उत्कीर्ण करवायी जाती थी। इन्ही परंपराओं का पालन करते हुए जैसलमेर में कौशिकराम का कुण्ड, जेट सागर तथा ब्रह्मसागर, बूँदी में फूलसागर और सूरसागर, जोधपुर में बालसमंद, गुलाब सागर, चौखेलाव तालाब और सरूप सागर, बीकानेर में सूरसागर, अनूपसागर, नाथूसर आदि जलाशय बनाये गये।

17 वीं शताब्दी में उदयपुर में महाराणा राजसिंह द्वारा निर्मित राजसमंद जलाशय निर्माण कला का श्रेष्ठतम उदाहरण है, जिसके तोरण द्वार विशुद्ध हिन्दू शैली के हैं, किन्तु मंडपों में बनी जालियाँ तथा बेल बूटों का अलंकरण मुगल शैली की देन हैं। जलाशय निर्माण की यह पद्धति 19 वीं शताब्दी तक काम में ली गयी, किन्तु बाद में इस पद्धति में धीरे-धीरे परिवर्तन आता गया।

स्मारक निर्माण

राजस्थान में स्थानीय शासकों, सामंतों, धर्माचार्यों तथा सम्पन्न वर्ग के लोगों की स्मृति में स्मारक प्राचीनकाल से चली आयी थी। मध्ययुगीन स्मारक स्तंभों पर संबंधित योद्धा एवं उसके युद्ध संबंधी सामान तथा उसके पीछे होने वाली सतियों का अंकन होता था। मुगलों से संपर्क होने के बाद छतरियाँ बनाने का प्रचलन आरंभ हुआ जिसमें मुगल शैली को प्रधानता दी जाती थी।

17 वीं से 19 वीं शताब्दी तक निर्मित छतरियाँ प्रायः एक वर्गाकार चबूतरे पर बनी हुई हैं, जिस पर एक छोटा वर्गाकार अथवा गोलाकार चबूतरा रहता है और उस पर चार, छः, आठ और बारह खंभों पर आश्रित गोलाकार गुम्बद बना रहता है। इनके खंभे विभिन्न कोणीय अथवा गोलाकृतियों में बने हुए हैं, जिन्हें विभिन्न रेखाकृतियों द्वारा अलंकृत किया जाता था। गुम्बदों की छतें प्रायः सादी हुआ करती थी।

कहीं-कहीं छतरियों में शिवलिंग की आकृतियाँ उपलब्ध होती हैं तो कहीं संबंधित व्यक्ति की आकृति से युक्त पाषाण पट्टियाँ और उस पर लेख भी उत्कीर्ण करा दिया जाता था। मध्यकालीन छतरियों में बीकानेर में बीकाजी की छतरी और रायसिंह की छतरी, जोधपुर में मंडोर उद्यान में स्थित राव मालदेव की छतरी और अजीतसिंह की छतरी तथा उदयपुर के आहङ ग्राम में स्थित अमरसिंह और कर्णसिंह की छतरियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं।

स्मारक स्तंभों एवं छतरियों के निर्माण के साथ ही राजस्थान में लोक-मूर्तिकला का भी उद्भव हुआ। लोक प्रतिमाओं के अंगों की सुडौलता तथा अंग-प्रत्यंग के अनुपात की ओर ध्यान नहीं दिया जाता था, बल्कि ये लोक प्रतिमाएं स्थानीय लोगों की भावनाएँ प्रदर्शित करती हैं। शासकों एवं सामंतों के स्मारकों में पाषाण पट्टिका पर संबंधित व्यक्ति की प्रतिमा के साथ-साथ उसके साथ सती होने वाली नारी प्रतिमाएँ भी उत्कीर्ण की जाती थी। ये लोक-प्रतिमाएँ स्थानीय वेश भूषा एवं शस्राशस्र की जानकारी के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

इस प्रकार राजस्थान में स्थापत्य कला प्रत्येक युग में पल्लवित होती रही तथा प्रत्येक युग की राजनैतिक हलचल से प्रभावित होती रही। यद्यपि राजस्थान की विभिन्न रियासतों में पल्लवित होने वाली स्थापत्य कला में कोई मौलिक भेद दिखाई नहीं देता, फिर भी प्रत्येक रियासत अपनी कुछ न कुछ अलग विशेषता लिये हुए है।

राजस्थान के प्रसिद्ध दुर्ग

अन्य विख्यात दुर्ग

राजस्थान के अन्य महत्त्वपूर्ण दुर्गों में अचलगढ, तारागढ, सिवाणा और जालौर के दुर्ग उल्लेखनीय हैं। मेवाङ के महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित माउण्ट आबू में स्थित अचलगढ का दुर्ग इस समय बिल्कुल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। दुर्ग की तलहटी में अचलेश्वर महादेव का मंदिर है, जो चारों ओर से बुर्जदार परकोटे से घिरा हुआ है। तारागढ का दुर्ग, अजमेर के पास बीहङी पहाङी पर स्थित है।

ऐसी मान्यता है कि अजमेर के चौहान शासक अजयपाल ने यह दुर्ग बनवाया था, जो अजमेरू के नाम से पुकारा जाता था। मेवाङ के महाराणा रायमल रायमल के पुत्र पृथ्वीराज ने इसमें कुछ राजप्रासाद बनवा कर अपनी पत्नी ताराबाई के नाम पर इसका नाम तारागढ रखा था। बाद में शाहजहाँ के एक सेनानायक विट्ठलदास गौङ ने इसका जीर्णोद्धार करवाया तब से इसे गढ बीठङी भी कहा जाता है।

इसका बुलंद दरवाजा, आँगन और बरामदा 16 वीं शताब्दी के स्थापत्य का सुन्दर नमूना है। जोधपुर से लगभग 54 मील दूर पश्चिम में सिवाणा का दुर्ग स्थित है जिसका निर्माण पंवार शासक वीरनारायण ने करवाया था। बाद में यह मारवाङ के शासकों के अधिकार में आ गया, जिन्होंने इसमें दरवाजे, कोट, महल आदि बनवाये। ये सभी उस समय के स्थापत्य का अच्छा प्रदर्शन करते हैं।

इसी प्रकार जालौर का दुर्ग भी मारवाङ का ही सुदृढ दुर्ग है। यह दुर्ग परमार शासकों द्वारा बनवाया गया था। दुर्ग व कस्बे में बने हुए प्राचीन महल, मस्जिद, शाह की दरगाह, बीरमदेव की चौकी आदि उस काल की स्थापत्य कला के अच्छे नमूने हैं । इसके अतिरिक्त कान्हङदेव द्वारा बनवायी गयी बावङी तथा बीरमदेव द्वारा बनवाया गया दरवाजा भी कलात्मक हैं। यहां के भव्य जैन मंदिर तो विशेष कलात्मक हैं।

राजस्थान के प्रसिद्ध मंदिर

राजस्थान का प्रसिद्ध विजयस्तंभ
राजस्थान का प्रसिद्ध जलाशय राजसमंद

References :
1. पुस्तक - राजस्थान का इतिहास, लेखक- शर्मा व्यास

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