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राष्ट्र संघ के कार्य

राष्ट्र संघ के कार्य

राष्ट्रसंघ के कार्य

राष्ट्रसंघ का मुख्य कार्य विश्व शांति को बनाए रखना तथा अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की वृद्धि करना था। अपने इस मूल कार्य की पूर्ति के संबंध में राष्ट्रसंघ को जो विभिन्न कार्य करने पङते थे, वे इस प्रकार थे-

  • प्रशासनात्मक कार्य
  • मेंडेट अथवा संरक्षण-प्रथा संबंधी कार्य
  • अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा संबंधी कार्य
  • आर्थिक, सामाजिक और मानवता संबंधी कार्य
  • अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा संबंधी कार्य
राष्ट्रसंघ के कार्य

प्रशासनात्मक कार्य

वर्साय की संधि के अनुसार जर्मनी की सारघाटी का प्रशासन 15 वर्ष की अवधि के लिये राष्ट्रसंघ को सौंपा गया था। राष्ट्रसंघ ने पाँच सदस्यों का एक आयोग गठित किया और सार का प्रशासन इस आयोग को सौंप दिया । प्रारंभ में आयोग पर फ्रांस का प्रभाव रहा और इस कारण सार के निवासियों को काफी कष्टों का सामना करना पङा।

राष्ट्रसंघ को बार-बार इस कष्टप्रद स्थिति की जानकारी दी गई परंतु संघ ने अपनी आँखें बंद ही रखी। बहुत बाद वाद-विवाद के बाद आयोग में कुछ परिवर्तन किया गया। 1935 ई. में राष्ट्रसंघ के निरीक्षण में वहाँ जनमत संग्रह किया गया और जनता ने भारी बहुमत से जर्मनी के साथ मिलने का निर्णय दिया।

परिणामस्वरूप 1 मार्च, 1935 को सारघाटी का क्षेत्र जर्मनी को वापस लौटा दिया गया।वर्साय व्यवस्था के अनुसार डेन्जिग के स्वतंत्र नगर का प्रशासन भी राष्ट्रसंघ को सौंपा गया था। राष्ट्रसंघ ने डेन्जिग के प्रशासन के लिये एक कमिश्नर नियुक्त किया। बाद में एक संविधान बनाया गया और प्रतिनिध्यात्मक विधानसभा का गठन किया गया।

चूंकि डेन्जिग बंदरगाह का नियंत्रण पोलैण्ड के हाथ में था, अतः डेन्जिग कमिश्नर के प्रयत्नों से उन झगङों को शांतिपूर्वक ढँग से निपटा दिया गया। इस स्वतंत्र नगर के प्रशासन में राष्ट्रसंघ को महत्त्वपूर्ण सफलता मिली, परंतु 1939 ई. में राष्ट्रसंघ को डेन्जिग के मामले में दुर्भाग्यपूर्ण कठिनाइयों का सामना करना पङा।

मेंडेट संबंधी कार्य

मेंडेट प्रथा को आदेश-पद्धति, समादेश-पथा, संरक्षण-प्रथा आदि नामों से भी पुकारा जाता है। समुद्र पार जर्मन उपनिवेशों (किओचाओ को छोङकर) और तुर्की साम्राज्य के भूतपूर्व अफ्रेशियाई प्रातों में निवास करने वाले लोगों की उन्नति और विकास का उत्तरदायित्व राष्ट्रसंघ को सौंपा गया था।

राष्ट्रसंघ ने कुछ उन्नत देशों को संघ के नाम पर इन क्षेत्रों का शासन चलाने के लिये समादेश शक्तियाँ प्रदान की। समादेश शक्तियाँ प्रदान की। समादेश शक्ति प्राप्त राज्यों को इन क्षेत्रों के प्रशासन संबंधी कार्यों की वार्षिक रिपोर्ट कौंसिल को भेजनी पङती थी।

कौंसिल इन रिपोर्टों की जाँच करता था और इस काम के लिये राष्ट्रसंघ में एक स्थायी मेंडेट आयोग (समादेश आयोग) की स्थापना की गयी।

समादिष्ट क्षेत्रों को उनकी राजानीतिक, भौगोलिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया गया। अ वर्ग के अन्तरग्त तुर्की साम्राज्य की वे जातियाँ सम्मिलित थी, जिनके बारे में यह धारणा निश्चित की गयी थी कि वे उन्नति की उस स्थिति तक पहुँच चुकी हैं, जिसमें अस्थायी तौर पर उनकी स्वतंत्रता के अस्तित्व को माना जा सकता है।

इस वर्ग के अन्तर्गत इराक (मेसोपोटामिया), फिलिस्तीन और ट्रान सजोर्डन इंग्लैण्ड को और सीरिया तथा लेबनान फ्रांस को मिले। ब वर्ग के अन्तर्गत मध्य अफ्रीका में स्थित जर्मनी के भूतपूर्व प्रदेश थे। इसके लिये निश्चित सरकारी नियंत्रण एवं निरीक्षण की आवश्यकता अनुभव की गयी।

और इन क्षेत्रों का स्वायत्त शासन प्रदान करने की बात भविष्य के लिये टाल दी गयी । ब वर्ग के क्षेत्रों का इस ढँग से विभाजन किया गया कि कैमरून का 1/6 भाग, टोगोलैण्ड का 1/3 भाग फ्रांस को मिला और जर्मन पूर्वी अफ्रीका का शेष भाग बेल्जियम को प्राप्त हुआ।

स वर्ग के अन्तर्गत दक्षिण-पश्चिमी अफ्रीका और प्रशांत महासागर में स्थित द्वीप जिन पर पहले जर्मनी का अधिकार था, सम्मिलित थे। ये काफी पिछङे हुए क्षेत्र थे। इस वर्ग के क्षेत्रों का विभाजन इस प्रकार किया गया – जर्मन दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका दक्षिण अफ्रीकन संघ को, जर्मन सेमोआ न्यूजीलैण्ड को, नारू द्वीप इंग्लैण्ड को, विषवत रेखा के दक्षिण में स्थित अन्य जर्मन द्वीप आस्ट्रेलिया को और विषवत रेखा के उत्तर में स्थित जर्मन द्वीप जापान को दिए गए।

स्थायी समादेश आयोग कौंसिल को सूचित करता रहता था कि समादिष्ट क्षेत्रों का शासन प्रबंध वहाँ के निवासियों के कल्याण तथा उन्नति की दृष्टि से तथा राष्ट्रसंघ की धाराओं के अनुसार चलाया जा रहा है अथवा नहीं। दुर्भाग्यवश, आयोग को समादिष्ट क्षेत्रों की अपीलों को सुनने अथवा उन क्षेत्रों का निरीक्षण करने का अधिकार नहीं दिया गया था। फिर भी, यह पद्धति मूल्यवान सिद्ध हुई।

अल्पसंख्यकों की सुरक्षा

पेरिस शांति समझौतों के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा के लिये की गई संधियों के निरीक्षण का उत्तरदायित्व राष्ट्रसंघ को सौंपा गया था। उपर्युक्त, संधियों में यह व्यवस्था की गई कि यदि कोई राज्य अल्पसंख्यकों के संबंध में स्वीकृत कर्त्तव्यों का उल्लंघन करता है तो कौंसिल का कोई भी सदस्य कौंसिल का ध्यान आकर्षित कर सकता था।

अल्पसंख्यकों के संबंध में राष्ट्रसंघ का उत्तरदायित्व बहुत भारी था, क्योंकि यह व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय नहीं थी और जिन देशों ने इस प्रकार की संधियों पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, उन्हें अल्पसंख्यकों पर अत्याचार करने से रोकना सरल काम नहीं था। पोलैण्ड और रूमानिया ऐसे ही देश थे।

पोलैण्ड ने तो स्पष्ट रूप से राष्ट्रसंघ के सुझावों को ठुकरा दिया। कालांतर में जर्मनी ने भी यहूदियों पर अमानुषिक अत्याचार किए और संघ अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने में असफल रहा। वस्तुतः संघ को बहुत ही सतर्कता के साथ कदम उठाना पङता था।

एक तरफ तो अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और उन पर होने वाले अत्याचारों को रोकने की बात थी और दूसरी तरफ बहुसंख्यकों के राष्ट्रीय स्वाभिमान को संतुष्ट बनाए रखने की बात थी। राष्ट्रसंघ की इस दोहरी नीति की कटु आलोचना की गयी, क्योंकि इस प्रकार की नीति के अन्तर्गत किसी भी प्रकार की सख्त कार्यवाही के लिये कोई स्थान न था।

आर्थिक, सामाजिक और मानवीय कार्य

यद्यपि राष्ट्रसंघ मुख्यतः एक राजनीतिक संस्था थी, फिर भी इसने आर्थिक, सामाजिक और मानवीय क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण एवं प्रशंसनीय कार्य किया और इन क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीयतावाद को प्रोत्साहन दिया।

आर्थिक सहयोग

आर्थिक क्षेत्र में इसने विश्व के सभी देशों को स्वस्थ आर्थिक नीतियाँ अपनाने के लिये प्रेरित किया, ताकि महायुद्ध से विध्वंसित संसार का पुनर्निमाण किया जा सके। उसके प्रयासों के फलस्वरूप एक अन्तर्राष्ट्रीय सहायता संघ अस्तित्व में आया, जिसने संकटग्रस्त देशों को अनेक बार आर्थिक सहायता प्रदान की।

आस्ट्रिया के नागरिकों को जीवित रखने के लिये मित्रराष्ट्रों ने 4 करोङ पौण्ड की सहायता दी। परंतु इसके बाद भी जब स्थिति में सुधार नहीं हो पाया तो राष्ट्रसंघ से अनुरोध किय गया। राष्ट्रसंघ ने बङे पैमाने पर आस्ट्रिया को अन्तर्राष्ट्रीय ऋण दिलवाया और उसकी आर्थिक स्थिति की देखभाल के लिये एक वित्तीय आयुक्त भी नियुक्त किया।

1930-31 की विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के कारण जब आस्ट्रिया की आर्थिक स्थिति पुनः बिगङ गई तो राष्ट्रसंघ ने आस्ट्रिया की पुनः मदद की। इसी प्रकार हंगरी की दयनीय आर्थिक स्थिति सुधारने नें भी समय-समय पर महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया।

शरणार्थियों की समस्या

महायुद्ध के परिणामस्वरूप यूरोप में शरणार्थियों की समस्या ने गंभीर रूप ले लिया था। शरणार्थियों को बसाने में राष्ट्रसंघ ने अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस काम के लिये राष्ट्रसंघ ने एक पृथक आयोग स्थापित किया, जिसका अध्यक्ष डॉ. नानसेन को बनाया गया।

यूनान के लगभग दस लाख शरणार्थियों को बसाने के लिये राष्ट्रासंघ ने 5 करोङ डॉलर की सहायता दी और दूसरे देशों से भी सहायता दिलवाई। इसी प्रकार, बल्गेरिया को भी अपने शरणार्थियों को बसाने के लिये विदेशी ऋण तथा सहायता दिलवाई गई। केवल चार वर्षों में संघ के आयोग के तत्त्वाधान में दो लाख शरणार्थियों को बसाया गया।

युद्धबंदियों को वापस अपने देश भिजवाने के संबंध में भी संघ ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। डॉ. नानसेन के प्रयत्नों से लगभग 3 लाख युद्धबंदियों को बंधन मुक्त करवयाा गया और उनके दुखों को दूर करने में सहायता दी गयी। संघ के प्रयत्नों से 1922 के अंत तक लगभग सभी युद्धबंदियों को अपने घरों को भेज दिया गया।

दासप्रथा और बेगार उन्मूलन

दासप्रथा और बेगारी के उन्मूलन के लिये भी राष्ट्रसंघ ने अथक प्रयत्न किया। इन समस्याओं पर विचार करने के लिये 1924 में एक विशेष समिति नियुक्त की गयी, जिसकी रिपोर्ट पर 1926 में साधारण सभा ने दासता के दमन के अन्तर्राष्ट्रीय अभिसमय को स्वीकार किया।

संघ के सचिवालय ने इस विषय पर विभिन्न राज्यों द्वारा किए गये कार्यों का वार्षिक प्रकाशन करवाकर अन्य देशों को प्रोत्साहित किया। लीबिया, इथोपिया, नेपाल, बर्मा आदि देशों में दासता को समाप्त करने के प्रश्न पर संघ ने बङी लगन से कार्य किया।

नारी-कल्याण और बाल-कल्याण

नारी-कल्याण और बाल-कल्याण की दिसा में भी संघ ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उसने अपने सदस्य राष्ट्रों से अपील की कि वे अपन-अपने देशों में स्त्रियों और बच्चों के व्यापार को रोकने का प्रयास करें।

1921 ई. में संघ द्वारा नियुक्त परामर्शदात्री आयोग ने अनैतिक उद्देश्यों के लिये होने वाले स्त्रियों के व्यापार को रोकने के नियम बनाए। इसके अलावा अश्लील साहित्य के प्रकाशनों को रोकने और वेश्यावृत्ति का अंत करने तथा अवैध बच्चों की समस्या को सुलझाने की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

नशीले पदार्थों के व्यापार पर रोक

राष्ट्रसंघ ने अफीम और कोकीन जैसी मादक वस्तुओं के व्यापार को रोकने की तरफ भी विशेष ध्यान दिया। उसका उद्देश्य इन मादक पदार्थों पर नियंत्रण करके उन्हें केवल औषधियों और वैज्ञानिक प्रयोगों की जरूरतों तक सीमित करना था। इस संबंध में अनेक नियम बनाए गए जो जेनेवा नियम के नाम से प्रसिद्ध हैं।

स्वास्थ्य संबंधी कार्य

स्वास्थ्य संबंधी कार्यों की दिशा में 1923 में एक स्थायी स्वास्थ्य संगठन की स्थापना की गयी। इसका उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग के द्वारा जन स्वास्थ्य की सुरक्षा को विकसित करना था। संगठन का मुख्य कार्य संक्रामक रोगों की रोकथाम तथा निवारण के लिये अपनी सेवाएँ अर्पित करना था।

1923 में मलेरिया रोग का निवारण करने के लिये एक मलेरिया आयोग स्थापित किया गया। इसी प्रकार तपेदिक, कैंसर, आंतशोध, कुष्ट आदि रोगों की रोकथाम के लिये भी कार्य किया गया। पूर्वी यूरोप में टाइफस बुखार की रोकथाम का प्रयास किया गया।

बौद्धिक सहयोग

बौद्धिक सहयोग के क्षेत्र में राष्ट्रसंघ ने उल्लेखनीय कार्य किए। उसका मुख्य उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक, साहित्यकारों, कलाकारों, लेखकों और शिक्षकों में पारस्परिक सहयोग को विकसित करना था। राष्ट्रसंघ मानव समाज को एकता के सूत्र में बाँधना चाहता था, ताकि सम्मिलित ज्ञान-शक्ति से मानव जीवन को सुखी एवं समपन्न बनाया जा सके और अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा का भी विकास हो सके।

इस दृष्टि से बौद्धिक सहयोग के लिये एक अन्तर्राष्ट्रीय समिति की स्थापना की गयी। 1926ई. में पेरिस में भी बौद्धिक सहयोग संस्थान की स्थापना की गयी। इस संगठन ने अनेकों ढँग से साहित्य का प्रकाशन करवाया, सेमीनारों और वाद-विवाद का आयोजन किया और विश्व शांति की स्थापना तथा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के विकास में महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान किया।

अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा संबंधी कार्य

राष्ट्रसंघ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना था। परंतु उसे इस काम में सफलता नहीं मिल सकी। जहाँ तक छोटे-छोटे राज्यों के झगङों का संबंध था, राष्ट्रसंघ कुछ सीमा तक सफल रहा। परंतु जहाँ बङे राष्ट्रों का सवाल आया, वहाँ राष्ट्रसंघ उनकी कार्यवाहियों को रोकने अथवा उन्हें नियंत्रण करने में बुरी तरह से असफल रहा।

छोटे राज्यों के झगङों को निपटाने में भी संघ को जो सफलता प्राप्त हुई थी, उसका मुख्य कारण महाशक्तियों के आतंक का वह भय था, जो छोटे राज्यों में समाया हुआ था। इस प्रकार के विवादों में सर्वप्रथम अल्बानिया का सीमा विवाद प्रस्तुत हुआ। 1921 ई. में अल्बानिया और यूगोस्लाविया के मध्य सीमा-विवाद को लेकर सशस्त्र संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी।

राष्ट्रसंघ ने दोनों देशों में समझौता करा दिया। इसी प्रकार, आलैण्ड द्वीप- समूह के स्वामित्व के प्रश्न पर फिनलैण्ड और स्वीडन में विवाद उठ खङा हुआ। राष्ट्रसंघ ने फिनलैण्ड के पक्ष में निर्णय देकर विवाद को समाप्त करवाया। 1921 ई. में बल्गेरिया और यूनान में सीमान्त को लेकर झगङा हो गया।

यूनानी सैनिक दस्ते तो बल्गेरिया के क्षेत्र में घुस भी गये। परंतु राष्ट्रसंघ ने तत्काल कार्यवाही करके समस्या को सुलझाया। 1932 ई. में पेरू और कोलम्बिया सशस्त्र झङप पर उतर आए। 1934 ई. में संघ के निरंतर प्रयासों के बाद दोनों देशों में समझौता हो गया। 1926 ई. में मौसुल के समृद्ध तेल के क्षेत्र में स्वामित्व को लेकर इराक और तुर्की में झगङा उठ खङा हुआ। इस समय मेंडेट प्रथा के अंतर्गत इराक पर इंग्लैण्ड का संरक्षण था।

अतः इंग्लैण्ड ने राष्ट्रसंघ में इराक की तरफ से पैरवी की। राष्ट्रसंघ के सामने आने वाले विवादों में पहली बार एक महाशक्ति सामने आई थी। संघ ने जाँच-पङताल के बाद मौसुल का अधिकांश क्षेत्र इराक को दिलवाया। इससे इंग्लैण्ड संतुष्ट हो गया।

अब हम उन विविदों को लेते हैं, जिनका राष्ट्रसंघ सुलझा नहीं सका-

राष्ट्रसंघ की असफलता का मुख्य कारण यह था कि इन विवादों में या तो किसी एक पक्ष को महाशक्ति का समर्थन प्राप्त था अथवा कोई न कोई महाशक्ति स्वयं ही दूसरा पक्ष थी। 1921 ई. में बिल्ना नगर को लेकर पोलैण्ड, और लिथुआनिया में झगङा हो गया। पोलैण्ड को फ्रांस का समर्थन प्राप्त था। राष्ट्रसंघ ने समस्या को सुलझाने का अथक प्रयास किया परंतु उसे सफलता न मिली, क्योंकि महाशक्तियाँ पोलैण्ड के पक्ष में थी जबकि तथ्य उसके विरुद्ध थे।

इसी प्रकार, कोर्फ्यूकाण्ड में भी राष्ट्रसंघ असफल रहा। हुआ यह कि यूनान की भूमि पर राष्ट्रसंघ द्वारा भेजे गए एक सीमान्त आयोग के इटालियन सदस्यों को कुछ उपद्रवी यूनानियों ने मार डाला। इटली के तानाशाह ने यूनान को क्षमा माँगने तथा हर्जाने की भारी धनराशि जमा कराने को कहा।

यूनान ने इस मामले को संघ के सामने रखा तथा अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय का निर्णय मानने और न्यायलय के पास हर्जाने की धनराशि जमा कराने की बात की। इस पर इटली के जहाजी बेङे ने यूनान के कोर्फ्यू द्वीप पर अधिकार जमा लिया। संघ के सभी सुझावों को मुसोलिनी ने ठुकरा दिया।

अतः अंत में, इंग्लैण्ड और फ्रांस की मध्यस्थता से इटालियन सैनिकों ने कोर्फ्यू द्वीप खाली किय। इस घटना से संघ की निर्बलता का आभास हो गया।

सुदूरपूर्व की समस्याओं को सुलझाने में तो राष्ट्रसंघ पूर्ण रूप से असफल रहा। जापान ने संधि व्यवस्था का उल्लंघन करते हुये अचानक चीन के मंचूरिया क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया और समूचे मंचूरिया पर अधिकार करके उस क्षेत्र में मंचूको राज्य रूपी अपनी कठपुतली सरकार कायम कर दी।

चीन ने जापानी आक्रमण के विरुद्ध राष्ट्रसंघ से अपील की। संघ ने काफी विलम्ब के बाद घटनास्थल पर एक जाँच-आयोग भेजा। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जापान को आक्रामक ठहराया और प्रस्ताव भी पास किए। परंतु प्रस्तावों के माध्यम से संघ चीन को मंचूरिया वापिस नहीं दिलवा पाया। 1935 ई. में जापान ने राष्ट्रसंघ की सदस्यता को भी त्याग दिया। 1937 ई. में जापान ने चीन के अन्य क्षेत्रों में बङे पैमाने पर आक्रामक कार्यवाही प्रारंभ कर दी।

चीन ने पुनः राष्ट्रसंघ से अपील की। परंतु राष्ट्रसंघ न तो चीन को उसकी भूमि ही दिलवा सका और न उसकी प्रादेशिक अखंडता को कायम रख सका, न युद्ध बंद करवा सका और न जापान को दंडित कर सका। जापान की कार्यवाही ने राष्ट्रसंघ की निर्बलता को स्पष्ट कर दिया और इससे हिटलर और मुसोलिनी जैसे अधिनायकों को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला।

1928ई. में दक्षिण अमेरिका के दो राज्यों – बोलीविया और पेरागुए में चाको प्रांत को लेकर संघर्ष छिङ गया और पेरागुए ने चाको प्रान्त का अधिकांश भाग अपने अधिकार में कर लिया। यह मामला राष्ट्रसंघ के सामने प्रस्तुत किया गया। पेरागुए ने संघ के किसी भी सुझाव को स्वीकार नहीं किया और अंत में संघ की सदस्यता ही छोङ दी।

इससे भी संघ की निर्बलता स्पष्ट हो गयी। इथोपिया(अबीसीनिया) में इटली की आक्रामक कार्यवाही को नियंत्रित करने में राष्ट्रसंघ की के खोखलेपन को और अधिक स्पष्ट कर दिया। जब इटली ने संपूर्ण इथोपिया को निगल लिया तो कुछ समय बाद राष्ट्रसंघ ने इथोपिया पर इटली के अधिकार को मान्यता भी दे दी। राष्ट्रसंघ के लिये इससे बढकर अनैतिक एवं अपमानजनक बात और क्या हो सकती थी ?

पेरिस शांति समझौतों की व्यवस्था को बनाए रखना – राष्ट्रसंघ का मुख्य उद्देश्य था। परंतु हिटलर के नेतृत्व में जर्मनी ने संधियों की धाराओं का अतिक्रमण कर खुले रूप में अपना शस्रीकरण प्रारंभ कर दिया और संघ में इतनी शक्ति नहीं थी कि उसे रोक सके। जर्मनी ने आस्ट्रिया को हङप लिया, राइलैण्ड में किलेबंदी कर ली और चेकोस्लोवाकिया का अंग भंग कर डाला, परंतु राष्ट्रसंघ कुछ न कर सका। परिणामस्वरूप तानाशाहों का साहस बढता गया और संसार का वातावरण तनावपूर्ण होता गया।

स्पेन के मामले में भी राष्ट्रसंघ को बुरी तरह से अलफल होना पङा। जनरल फ्रांको के नेतृत्व में प्रतिक्रियावादी तत्त्वों ने स्पेन की उदारवादी गणतंत्रीय सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह कर दिया, जिससे स्पेन में गृह-युद्ध शुरू हो गया। हिटलर और मुसोलिनी ने जनरल फ्रांको को खुले तौर पर सहायता दी।

जब गणतंत्रीय सरकार ने राष्ट्रसंघ से सहायता की माँग की तो संघ ने तटस्थता की नीति अपनाई। परिणामस्वरूप स्पेन की गणतंत्रीय सरकार का पतन हो गया। संघ के प्रमुख सदस्य राज्यों ने फ्रांको की सरकार को मान्यता देकर राष्ट्रसंघ की घोर उपेक्षा की। अपने पतन के पूर्व राष्ट्रसंघ को एक और विफलता का मुँह देखना पङा।

1939 के अन्त में सोवियत रूस को संघ से निष्कासित तो कर दिया, परंतु फिनलैण्ड को बचाने के लिये ठोस कार्यवाही न कर पाया और 1940 के शुरू में फिनलैण्ड पर रूस का अधिकार हो गया। इन सभी घटनाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि राष्ट्रसंघ बङी शक्तियों की आक्रामक कार्यवाहियों को रोकने में सर्वथा असफल रहा और उसका अंत हो गया।

1. पुस्तक- आधुनिक विश्व का इतिहास (1500-1945ई.), लेखक - कालूराम शर्मा

Online References
wikipedia : राष्ट्रसंघ

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