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सुल्तान अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246ई.) का इतिहास

सुल्तान अलाउद्दीन मसूदशाह

अलाउद्दीन मसूदशाह  इल्तुतमिश का पौता था। जब बहरामशाह ने सुल्तान की शक्तियों को अपने हाथों में लेना चाहा तो चहलगानी ने उसे हटाकर रुकनुद्दीन के पुत्र अलाउद्दीन मसूदशाह को शासक बनाया। इसके काल में बलबन अमीर- ए- हाजिब के पद पर था।

मलिक ईजुद्दीन किलू खाँ ने विद्रोहियों का नेता होने का दावा किया और इल्तुतमिश के महलों पर अधिकार कर लिया। उसने स्वयं को सुल्तान घोषित किया परंतु तुर्क अमीर राजवंश में परिवर्तन नहीं चाहते थे। उनके विरोध के भय से किश्लू खाँ ने एक हाथी और नागौर के अक्तादार के पद के बदले सिंहासन पर से अपना दावा वापस ले लिया। इससे यह स्पष्ट हो गया कि तुर्की सरदारों में कोई भी इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह सुल्तान बन सकता। यह भी स्पष्ट था कि गद्दी इल्तुतमिश के वंशज को ही दी जाएगी पर उसे केवल नाममात्र का सुल्तान बनकर रहना होगा। सुल्तान बहरामशाह अपने विशेषाधिकारों को सुरक्षित रखने में असफल रहा था जिससे तुर्की अमीरों की शक्ति प्रमाणित हो गयी थी। बहरामशाह की पराजय और उसकी हत्या तुर्की अमीरों की स्पष्ट विजय थी।
अलाउद्दीन मसूदशाह (1242 – 1246 ई.)

अब अलाउद्दीन मसूदशाह को सुल्तान चुनकर अमीरों ने जनता को अनुरोध किया कि उसे शासक स्वीकार किया जाए। उसे भी इस शर्त पर सुल्तान बनाया गया कि राज्य का प्रयोग वह नायब के द्वारा करेगा। मलिक कुतुबुद्दीन हसन को नायब बनाया गया। ख्वामुहज्जबुद्दीन की भी हत्या कर दी गई क्योंकि वह ताजिक (गैर तुर्की) था। उसने तुर्क सरदारों को उनके महत्त्वपूर्ण पदों से पदच्युत करने का प्रयत्न किया था। उसकी हत्या के बाद नज्मुद्दीन अबू वक्र वजीर बनाया गया। बहरामशाह के विरुद्ध विद्रोह में गयासुद्दीन बल्बन ने समस्त तुर्क व ताजिक विद्रोहियों में सबसे अधिक साहस दिखाया था, अतः उसे हाँसी की अक्ता दी गयी। मुहज्जबुद्दीन की हत्या के बाद वह अमीरे हाजिब बनाया गया। बाद में उसे उलुग खाँ की उपाधि प्राप्त हुई थी (1249ई.)।

सुल्तान अलाउद्दीन मसूदशाह

बल्बन भी चालीस तुर्कों के दल का सदस्य था, परंतु अपनी योग्यता के कारण उसने बहुत अधिक प्रभावशाली स्थान प्राप्त किया। मिनहाज के अनुसार उसकी सफलता से दरबारी वर्ग ईर्ष्या करने लगा। वह लिखता है उलुग खाँ का राजनीतिक दर्जा ऊंचा हो गया, यहाँ तक कि मलिक उसकी खुशकिस्मती से ईर्ष्या करने लगे और वैमनस्य के काँटे उनके ह्रदय में चुभने लगे। किंतु अल्लाह ने यह तय कर दिया था कि वह अन्य व्यक्तियों से महान होगा। अतः जैसे-जैसे उनकी ईर्ष्या बढती गयी, उसकी सत्ता रूपी देवदारु की खुशबू भी समय के साथ फैलती गई। दरबार में उसका कोई प्रतिस्पत्धी नहीं रह गया और वह सुल्तान का मुख्य सलाहकार बना।

सुल्तान मसूदशाह का शासनकाल तुलनात्मक दृष्टि से अधिक शांतिपूर्ण रहा। बलबन ने अपनी शक्ति बढा ली थी और तुर्कों पर उसका प्रभुत्व रहा था। वह तुर्की सरदारों का नेता बन गया। मंगोल आक्रमणों के कारण तुर्की सरदारों का ध्यान उस ओर लगाकर बलबन ने सत्ता पर अपना प्रभाव बढा लिया। अतः सुल्तान के साथ सरदारों का संघर्ष नहीं हुआ। अमीरों का आपसी वैमनस्य व झगङे भी कम हो गए। यह समय बलबन की शक्ति निर्माण का काल था। सन् 1245 में मंगोल के विरुद्ध नीति के सफल होने के बाद बलबन का प्रभाव अधिक बढ गया। इस अभियान से लाहौर, उच्छ और सुल्तान सल्तनत के अधिकार में आ गए।

बलबन अपने साथ के तुर्क अधिकारियों की ईर्ष्या के प्रति सावधान था। अतः जब उसने सुल्तान के पद पर नासिरुद्दीन को बैठाने के लिये षङयंत्र किया तो उसने बिना कोई शर्त रखे सभी महत्त्वपूर्ण तुर्क अधिकारियों को अपनी ओर मिला लिया। जिस शांतिपूर्ण ढंग से सुल्तान मसूदशाह को सिंहासन से हटाया गया इससे स्पष्ट है कि सुल्तान अपनी सत्ता पूरी तरह खो चुका था। चार वर्ष एक मास के शासनकाल के बाद उसे 10 जून, 1246 को कारागार में डाल दिया गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गयी।

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