अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय
11 फरवरी 1856 को अवध का विलय ब्रिटिश साम्राज्य में कर लिया गया था।
अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय (avadh ka british saamraajy mein vilay) –
अवध के स्वतंत्र राज्य की स्थापना –
1722 ई. में मुगल सम्राट ने सादतखाँ को अवध का सूबेदार नियुक्त किया था और तभी से अवध के पृथक राज्य का आरंभ हुआ। सादत खाँ वीर, साहसी, महत्वाकांक्षी तथा अत्यंत कुशल सेनानायक था। जिसने 1739 तक अपना पद पैतृक कर लिया और एक स्वतंत्र शासक बन गया। नवीन स्वायत राज्य अवध
1739 में उसकी मृत्यु के बाद उसका पौत्र सफदरजंग गद्दी पर बैठा और उसने भारतीय राजनीति में विशेष भाग लिया। अवध का नवाब होते हुए भी वह मुगल साम्राज्य में वजीर के पद पर भी कार्य करता रहा।
1754 ई. में उसकी मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र शुजाउद्दौला नवाब बना। वह आरंभ में विलासी एवं प्रशासन में अरुचि रखने वाला था लेकिन कठिनाई तथा आपत्ति के समय परिश्रम तथा शौर्य का परिचय भी देता था। वह अवध का सबसे शक्तिशाली और प्रभावशाली नवाब रहा। अपने समय का वह योग्यतम नेता था।
1961 ई. में शाह आलम ने शुजा को अपना वजीर घोषित कर दिया। 1762-63 ई. में शुजाउद्दौला बुन्देला सरदार हिन्दुपति के विरुद्ध संघर्ष करता रहा।
बक्सर का युद्ध और शुजाउद्दौला की पराजय
मेजर एडम्स के नेतृत्व में जब ब्रिटिश सेना ने 1763 ई. में बंगाल के नवाब मीर कासिम को पराजित कर पटना पर अधिकार कर लिया तो मीरकासिम ने कुछ सेना और तोपखाने सहित 4 दिसंबर, 1763 ई. को अपनी सरहद से भाग कर अवध के नवाब शुजाउद्दौला के यहाँ शरण ली।
अवध का नवाब शुजाउद्दौला इस समय मुगल साम्राज्य का प्रधानमंत्री और सम्राट का विशेष संरक्षक था।
सम्राट शाह आलम इस समय शुजाउद्दौला दोनों को अंग्रेजों तथा बंगाल की स्थिति से अवगत कराया। शुजाउद्दौला ने कुरान हाथ में लेकर अंग्रेजों को सजा देने और मीरकासिम को फिर से मुर्शिदाबाद की गद्दी पर बैठाने की कसम खायी।
संभवतः शुजाउद्दौला धन के लालच तथा बंगाल में अपनी शक्ति बढाने के उद्देश्य से मीरकासिम ने भी भाग कर जान बचाई।
अवध के नवाब का आत्म समर्पण और इलाहाबाद की संधि
बक्सर की विजय के बाद अंग्रेजी सेनाएँ अवध की ओर बढी और उन्होंने बनारस तथा इलाहाबाद पर भी अधिकार कर लिया। नवाब शुजाउद्दौला ने मराठों तथा रुहेलों की सहायता से अंग्रेजों को अवध से खदेङने की चेष्टा की लेकिन उसे कोई सफलता हाथ नहीं लगी। अतः 1765 ई. में उसे अंग्रेजी सेना के समक्ष आत्म समर्पण कर देना पङा।
16 अगस्त, 1765 में अवध के नवाब और अंग्रेजों के मध्य इलाहाबाद में एक संधि संपन्न हुई जिसे इलाहाबाद की संधि के नाम से जाना जाता है। इस संधि में निम्न शर्तें थी-
1773 की बनारस की संधि
वारेन हेस्टिंग्ज ने 1773 में अवध के नवाब के साथ बनारस की संधि की। इसके अन्तर्गत कङा और इलाहाबाद के जिले पुनः मुगल सम्राट से लेकर अवध के नवाब को लौटा दिये गये और इसके बदले में कंपनी के लिए 50 लाख रुपये प्राप्त किये।
नवाब के व्यय पर अवध की रक्षा के लिए कंपनी की एक अलग सेना रखी गयी। इस प्रकार अब अवध पर कंपनी का शिकंजा और मजबूत हो गया।
फैजाबाद की संधि
1775 ई. में अवध के नवाब शुजाउद्दौला की मृत्यु हो गयी तथा उसकी मृत्यु के बाद उसका 26 वर्षीय पुत्र आसफुद्दौला गद्दी पर बैठा। उसने 1775 से 1797 तक अवध पर शासन किया तथा इस अवधि में अवध का पतन होने लगा। वह अयोग्य और विलाप्रिय व्यक्ति था तथा अपना अधिकांश समय भोग-विलास में व्यतीत करता था। आसफुद्दौला के गद्दी पर बैठने के बाद कंपनी ने उसे सूचित किया कि कंपनी और नवाब के बीच व्यक्तिगत आधार पर संधियां की गई थी और मृत नवाब के बाद दोनों पक्षों के बीच संबंध समाप्त हो गये थे।
अतः उन्होंने आसफुद्दौला पर दबाव डाला कि वह अंग्रेजी कंपनी के साथ एक नई संधि करे। बाध्य होकर अवध के नवाब ने अंग्रेजों के साथ नई संधि करना स्वीकार कर लिया। अतः 22 मई, 1775 ई. को अवध के नवाब आसफुद्दौला तथा अंग्रेजी कंपनी के बीच एक संधि हुई, जिसे फैजाबाद की संधि कहते हैं।
फैजाबाद की संधि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थी-
- कंपनी ने किसी भी आक्रमण के समय अवध की सुरक्षा करने का वचन दिया।
- अवध की सुरक्षा के लिए ब्रिटिश सेना नियुक्त की गयी।
- अवध के नवाब ने बनारस, गाजीपुर तथा चुनार के जिले कंपनी के अधिकार में हमेशा के लिए सौंप दिये।
- अवध की सुरक्षा के लिए जो एक ब्रिगेड सेना नियुक्त की गयी, उसका खर्च नवाब को वहन करना होगा। कंपनी को 50 हजार रुपया प्रति ब्रिगेड प्रतिमास अधिक दिया जाना स्वीकार किया गया।
अवध की बेगमों पर अत्याचार
भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्ज ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला को कंपनी की बकाया रकम चुकाने को कहा। आसफुद्दौला ने इस रकम को चुकाने में अपनी असमर्थता प्रकट की और कहा कि यदि कंपनी उसकी माँ तथा दादी से संपत्ति दिलवा दे, तो वह कंपनी का कर्ज चुका सकता है।
अतः वारेन हेस्टिंग्ज के दबाव डालने पर अवध की बेगमों ने एक बार 26 लाख रुपया तथा दूसरी बार 30 लाख रुपया नवाब को दिया तथा नवाब ने यह राशि कंपनी को दे दी। इस धनराशि में भी नवाब कंपनी का कर्जा नहीं चुका सका। 1781 ई. में नवाब ने वारेन हेस्टिंग्ज से कहा कि यदि उसे सैनिक सहायता दी जाए, तो वह बेगमों से धन लेकर कंपनी को चुका सकता है।
वारेन हेस्टिंग्ज ने नवाब को सैनिक सहायता देना स्वीकार कर लिया। 1782 में अवध के नवाब ने अंग्रेजी सेना लेकर फैजाबाद में बेगमों के महल को चारों ओर से घेर लिया। बेगमों के नौकरों तथा अंगरक्षकों को यातनाएँ देकर पूरा खजाना हस्तगत कर लिया गया। अंग्रेजों ने बेगमों से लगभग 76 लाख रुपये वसूल किये।
ब्रिटिश सेना के बोझ से नवाब की आर्थिक कठिनाइयाँ
ब्रिटिश सेना के खर्च का बोझ अवध राज्य पर बढता ही गया। 1775-1786 के बीच कंपनी की सरकार हर संभव उपाय से अधिक रुपया वसूल करती रही। इस आर्थिक बोझ के कारण अवध राज्य की अवनति होती गयी और नवाब की आर्थिक दशा शोचनीय हो गयी।
अतः 1786 में जब कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर भारत आया तो आसफुद्दौला ने उससे अस्थायी ब्रिगेड अवध से हटा लेने की प्रार्थना की। कार्नवालिस ने अवध में नियुक्त ब्रिटिश सेना की संख्या में कमी करना तो स्वीकार नहीं किया, परंतु उसने यह स्वीकार कर लिया कि भविष्य में नवाब 74 लाख रुपये वार्षिक शुल्क के स्थान पर केवल 50 लाख रुपये ही दे। इससे नवाब को कुछ राहत मिली।
सादत अली से संधि (फरवरी, 1798)
21 सितंबर, 1797 को आसफुद्दौला की मृत्यु हो गयी। उसके बाद आसफुद्दौला के दत्तक पुत्र वजीर अली को नवाब घोषित किया गया। गवर्नर जनरल सरजान शोर ने वजीरअली को अवध का नवाब स्वीकार कर लिया। परंतु आसफुद्दौला का भाई सादतअली स्वयं नवाब की गद्दी पर बैठना चाहता था। जब सर जॉन शोर ने यह महसूस किया कि वजीर अली के नवाब बने रहने से अंग्रेजों के स्वार्थों की पूर्ति नहीं हो सकेगी, तो उसने सादत अली को नवाब बनाने का निश्चय कर लिया।
सादत अली ने अंग्रेजों की सभी शर्तें स्वीकार करने का वचन दिया। अतः जनवरी, 1798 में वजीर अली को नवाब के पद से हटा दिया गया और सादत अली को अवध का नवाब घोषित कर दिया।
गद्दी पर बैठने के बाद सादतअली ने फरवरी, 1798 में कंपनी से एक नई संधि की जिसकी प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थी-
- अवध के नवाब ने कंनपी को 76 लाख रुपया वार्षिक शुल्क देना स्वीकार कर लिया।
- इलाहाबाद में ब्रिटिश सेना रखी जायेगी और इलाहाबाद का दुर्ग ब्रिटिश सेना के अधिकार में रहेगा। नवाब ने अपनी सेना में कमी करना स्वीकार कर लिया।
- ब्रिटिश सेना को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी कि वह विदेशी आक्रमण से राज्य की रक्षा करेगी।
लार्ड वेलेजली की दबाव डालने की नीति
मई, 1798 में लार्ड वेलेजली गवर्नर जनरल बनकर भारत आया। वह घोर साम्राज्यवादी था तथा अवध के अधिकांश भागों को कंपनी के राज्य में सम्मिलित कर लेना चाहता था। उसने अवध के रेजीडेन्ट के पद पर कर्नल विलियम स्काट को नियुक्त किया। इसके बाद उसने बाहरी हमले का खतरा दिखा कर अवध के नवाब पर दबाव डालना शुरू कर दिया। उसने सादतअली से मांग की कि वह अपनी निरर्थक सेना के एक भाग को समाप्त कर दे तथा इसके बदले में अवध में ब्रिटिश सेना की संख्या में वृद्धि कर दी जाए।
लार्ड वेलेजली ने सादत अली को यह भी आदेश दिया कि वह अधिक सेना के रखने के खर्च को पूरा करे। उसने कहा कि अवध में ब्रिटिश सेना में वृद्धि करने के बाद सादतअली 126 लाक रुपये वार्षिक शुल्क कंपनी को अदा करे। उसने अपनी मांग के औचित्य को बताते हुए कहा कि भारत पर अफगानिस्तान के शासक जमानशाह के आक्रमण की आशंका है।
सादत अली ने सेना के बढे हुए खर्च को देने में असमर्थता प्रकट की। परंतु लार्ड वेलेजली ने कठोर रुख अपनाते हुए नवाब को चेतावनी दी कि वह या तो कंपनी के प्रस्तावों को पूरी तरह से स्वीकार कर ले अन्यथा दोनों के बीच संधियाँ समाप्त कर दी जायेंगी। नवम्बर, 1799 में लार्ड वेलेजली के कुचक्रों से नवाब इतना निराश हो गया कि वह राजगद्दी छोङने के लिए तैयार हो गया।
परंतु जब सादतअली को पता चला कि उसके गद्दी त्यागते ही वेलेजली समस्त अवध को अंग्रेजी राज्य में मिला लेगा, तो उसने गद्दी त्यागने का विचार त्याग दिया। इस पर वेलेजली बङा क्रुद्ध हुआ और उसने सादत अली को सूचित किया कि अवध में अंग्रेजी सेना की संख्या बढाई जा रही है तथा यह सेना अवध में प्रवेश के लिए तैयार है। यद्यपि सादत अली ने इसका विरोध किया, परंतु लार्ड वेलेजली ने नवाब के विरोध की चिन्ता न करते हुए, अवध में अंग्रेजी सेना भेज दी तथा नवाब को इस अतिरिक्त सेना का खर्च देने को बाध्य किया गया।
अवध में सेना भेजकर भी वेलेजली संतुष्ट नहीं हुआ। उसने नवाब के सामने दो प्रस्ताव रखे तथा उससे मांग की गयी कि वह इनमें से किसी एक को स्वीकार कर ले। पहला प्रस्ताव यह था कि वह अपना संपूर्ण राज्य कंपनी को सौंप दे तथा राजगद्दी का परित्याग कर दे। दूसरा प्रस्ताव यह था कि वह समस्त ब्रिटिश सेना के खर्च को पूरा करने के लिए दोआब, रुहेलखंड तथा गोरखपुर के क्षेत्र अंग्रेजों को सौंप दे।
नवाब ने दोनों प्रस्ताव अस्वीकार कर दिये। इस पर लार्ड वेलेजली ने अवध में स्थित ब्रिटिश रेजीडेन्ट को आदेश दिया कि वह अवध के उतने क्षेत्र पर अधिकार कर ले जितना सेना के खर्च के लिए आवश्यक हो और इसके लिए यदि आवश्यक हो, तो बल प्रयोग भी किया जाये। अतः विवश होकर सादतअली को अंग्रेजों की शर्तें स्वीकार करनी पङी।
1801 की संधि
10 नवम्बर, 1801 को अवध के नवाब सादतअली ने कंपनी से एक नई संधि कर ली जिसकी प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थी-
- नवाब ने गोरखपुर, इलाहाबाद, कानपुर, फर्रूखाबाद, इटावा, बरेली और मुरादाबाद के जिले जिनकी आय लगभग एक करोङ रुपये वार्षिक थी, स्थायी रूप से कंपनी को सौंप दिये।
- नवाब ने अवध की सेना के अधिकांश भाग को समाप्त करने का वचन दिया।
- नवाब ने अपने प्रशासन का कार्य कंपनी की सलाह से करने का वचन दिया।
- अंग्रेजी सेना को अवध के भिन्न-भिन्न भागों में रखने का निश्चय किया गया।
इस संधि के फलस्वरूप अवध राज्य चारों ओर से ब्रिटिश राज्य से घिर गया। इसके साथ ही अवध की उत्तर सीमाओं पर अधिकार करके ब्रिटिश सेनाएँ सिंधिया का मुकाबला करने को तैयार थी। अब अंग्रेजों को अवध के अलावा मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार प्राप्त हो गया।
लार्ड वेलेजली ने जिस प्रकार नवाब पर दबाव डालकर उसे संधि के लिए विवश किया, उसकी कटु आलोचना की जाती है। लार्ड वेलेजली ने सभी संधियों तथा वचनों को ताक पर रखकर नवाब के राज्य पर अधिकार करने के उद्देश्य से ही उस पर अंग्रेजी सेना रखने का दबाव डाला तथा सेना रखने के खर्च के बहाने नवाब के आधे राज्य को हङप लिया।
डाडवेल का कथन है कि अवध के प्रति नीति वेलेजली की तानाशाही वृत्तियों में सबसे अधिक निकृष्ट थी। ब्रिटिश संसद सदस्य फाक्सडोन ने इस कार्य को डकैती की संज्ञा दी थी।
अवध पर ब्रिटिश नियंत्रण में वृद्धि
यद्यपि नेपाल के युद्ध एवं बर्मा-युद्ध के अवसरों पर अवध के नवाब ने अंग्रेजों को आर्थिक सहायता दी थी, परंतु वे अवध पर अपना नियंत्रण बढाने के लिए प्रयास करते रहे। 1837 में अवध के नवाब नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गयी। अंग्रेजों ने मृत नवाब के चाचा मोहम्मद अली को गद्दी पर बिठाने का प्रयास किया।
परंतु जब मृत नवाब की सौतेली मां ने इसका विरोध किया तो अंग्रेजों ने बल प्रयोग के द्वारा मोहम्मद अली को गद्दी पर बिठा दिया, इसके बदले में मोहम्मद अली ने एक समझौता-पत्र पर हस्ताक्षर किये जिसके अनुसार नवाब के अपने स्वयं के खर्चे से अवध में दो रेजीमेन्ट घुङसवार सेना, पांच रेजीमेन्ट पैदल सेना तथा बटालियन प्रशिक्षित सेना रखना स्वीकार किया। नवाब ने यह भी स्वीकार किया कि यदि अवध के किसी जिले में अराजकता एवं अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है, तो उस जिले को ब्रिटिश अधिकारियों के नियंत्रण में सौंप दिया जायेगा।
यह संधि बहुत कठोर थी। अतः 1839 में कंपनी के संचालक मंडल ने अपनी अस्वीकृति भेजते हुए लार्ड आकलैण्ड को आदेश दिया कि वह संधि निरस्त किये जाने की सूचना नवाब के पास भेज दे। परंतु आकलैण्ड ने संचालक-मंडल के आदेशों का पालन नहीं किया।
अवध का अधिग्रहण
1848 में लार्ड डलहौजी भारत में गवर्नर-जनरल बनकर आया। डलहौजी एक घोर साम्राज्यवादी व्यक्ति था तथा भारत में ब्रिटिश-साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। कलकत्ता से पंजाब तक अंग्रेजों का शासन स्थापित हो चुका था।
अवध का बङा राज्य कलकत्ता और लाहौर के बीच आवागमन में बाधा उपस्थित कर सकता था। इस कारण अवध को हङप कर संपूर्ण उत्तर भारत पर सीधे अधिकार करने की उसने योजना बनाई। अवध पर अधिकार करके कंपनी की आमदनी भी बढाई जा सकती थी।
1849 में डलहौजी ने कर्नल स्लीमन को अवध में रेजीडेन्ट नियुक्त किया तथा अवध की स्थिति के बारे में एक रिपोर्ट तैयार करने को कहा स्लीमैन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि अवध में चारों ओर अराजकता एवं अव्यवस्था फैली हुई थी।
उसने अवध की दुर्दशा के लिए अवध के नवाब वाजिदअली शाह को दोषी ठहराया परंतु उसने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा कि अवध राज्य को ब्रिटिश-साम्राज्य में मिलाना उचित नहीं होगा। 1854 में डलहौजी ने जनरल औटरम को अवध में रेजीडेन्ट के पद पर नियुक्त किया।
औटरम ने अवध की स्थिति के बारे में एक नई रिपोर्ट प्रस्तुत की। यह रिपोर्ट परिस्थिति का सही मूल्यांकन नहीं थी। यह एक प्रकार का आरोप-पत्र था जिसमें अवध की खराब स्थिति का वर्णन किया गया था। इस रिपोर्ट के आधार पर डलहौजी ने अवध के विषय में एक ब्यौरा तैयार किया जिसमें उसने सुझाव दिया कि राज्य में अव्यवस्था एवं कुशासन के कारण अवध का प्रशासन कंपनी को सौंप दिया जाना चाहिए। उसने यह भी सुझाव दिया कि 1801 की संधि को भंग कर दिया जाए। गृह सरकार ने डलहौजी के निर्णय को स्वीकृति प्रदान कर दी।
अतः 1856 में डलहौजी ने अवध के नवाब वाजिदअली शाह पर आरोप लगाया कि उसने शासन कार्यों की उपेक्षा करके 1801 की संधि का उल्लंघन किया है। अतः इस संधि को भंग कर दिया गया।
इसके बाद डलहौजी ने दूसरी संधि तैयार की और नवाब वाजिदअली शाह से मांग की कि वह नई संधि स्वीकार कर ले। नई संधि के अनुसार नवाब से मांग की गयी कि वह अवध का संपूर्ण प्रशासन कंपनी को सौंप दे। डलहौजी यह प्रदर्शित करना चाहता था कि अवध राज्य को हङपने की बजाय केवल प्रशासन का खर्च कंपनी अपने हाथ में ले रही है। अवध के नवाब ने इस नई संधि का विरोध किया क्योंकि वह नाममात्र का नवाब बन कर नहीं रहना चाहता था।
वह डलहौजी से मिलने कलकत्ता गया, परंतु डलहौजी ने उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं दिखाई। 11 फरवरी, 1856 को डलहौजी ने नवाब वाजिदअली शाह को अपदस्थ करने तथा अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी।
लार्ड डलहौजी ने घोषित किया कि ब्रिटिश सरकार ईश्वर तथा मनुष्य दोनों की दृष्टि में अपराधी होगी यदि वह ऐसी व्यवस्था को और अधिक सहयोग देगी जिसमें लाखों व्यक्तियों के लिए कष्ट भोगना निहित हो।
अवध विलय की समीक्षा
अंग्रेजों की अवध विलय की नीति का मूल्यांकन निम्नलिखित बिन्दुओं के आधार पर किया गया है-
स्लीमैन तथा औट्रम की रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण थी-
कर्नल स्लीमैन तथा जनरल औट्रम की रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण थी तथा बढा-चढाकर लिखी गयी थी। उन्होंने लार्ड डलहौजी के आदेशों के अनुसार ही अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। उन्होंने अवध के कुशासन को बढा-चढा कर प्रस्तुत किया। अतः उनके प्रतिवेदनों को सत्य नहीं माना जा सकता। इन रिपोर्टों को आधार बनाकर लार्ड डलहौजी अवध राज्य को हङपना चाहता था।
अनुचित एवं अनैतिक कार्य
लार्ड डलहौजी द्वारा कुशासन का आरोप लगा कर अवध को हङपना न्यायोचित नहीं था। यद्यपि अवध के नवाब इलाहाबाद की संधि के बाद से ही अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे थे और उनकी इच्छानुसार प्रशासन का संचालन करते रहे, परंतु कृतघ्न निकले और उन्होंने कुशासन का बहाना बना कर अवध राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।
अंग्रेजी सरकार ने भी विलय के बाद अवध की शासन व्यवस्था को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। अवध की जनता अपने नवाब के शासन को अंग्रेजी कंपनी के शासन से कहीं अच्छा समझती थी और इसी कारण अवध की जनता ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के विरुद्ध खुल कर भाग लिया।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने ठीक लिखा है कि – अवध विलय की घटना डलहौजी की डकैती की चरम सीमा थी।
कुशासन के लिए अंग्रेज उत्तरदायी थी, न कि नवाब
अवध के कुशासन के लिए अंग्रेज उत्तरदायी थे, न कि नवाब। अवध में कुशासन के लिए अंग्रेज ही उत्तरदायी थे, क्योंकि उन्होंने शासन में सुधार करने के लिए नवाबों को कोई सहयोग नहीं दिया। अवध की शासन सत्ता वास्तव में अंग्रेजों के हाथों में ही थी, अतः अवध के शासन में तब तक कोई सुधार संभव नहीं था जब तक कि अंग्रेज नवाबों के साथ सहयोग न करें। वास्तव में अंग्रेज अवध के शासन में सुधार करने के लिए इच्छुक नहीं थे, वरन वे तो कुशासन का आरोप लगाकर अवध राज्य को हङपना चाहते थे।