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प्राचीन काल में दक्षिण भारत की अर्थव्यवस्था

प्राचीन काल से भी पहले अर्थात् अति प्राचीन काल से ही भारत के आर्थिक जीवन का आधार वार्ता को स्वीकार किया गया है।

वार्ता के अंतर्गत कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य की गणना की गयी है।

अर्थशास्त्र में इसका महत्त्व इस प्रकार स्वीकार किया गया है – वार्ता से तात्पर्य कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य से है। धान्य, पशु, स्वर्ण कुप्य (स्वर्ण तथा रजत के अतिरिक्त अन्य कोई धातु) तथा विष्टि (बेगार) जैसे वार्ता के साधन से राजा अपने राजकोष तथा दंड को बढाकर शत्रु पर विजय प्राप्त करता है। महाभारत में वार्ता को लोक का मूल बताते हुये कहा गया है, कि इससे संसार का पोषण होता है, अतः इसका सदा अनुसरण करना चाहिये।

अमरकोष में वार्ता को जीविका का पर्यायवाची माना गया है।

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मनु ने राजा को सलाह दी है, कि वह लोक व्यवहार से वार्ता विद्या को सीखे।

विष्णुपुराण में भी वार्ता के अंतर्गत कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य की गणना की गयी है, और इसे एक विद्या माना गया है।

अतः प्राचीन भारत के विभिन्न युगों में राज्य की ओर से कृषि, पशुपालन तथा वाणिज्य के विकास को प्रोत्साहन प्रदान किया गया। दक्षिण के महान शक्तिशाली शासकों ने कृषि तथा वाणिज्य के विकास में योगदान दिया। संगमकालीन संस्कृति के अंतर्गत देखने को मिलता है, कि दक्षिण की आर्थिक समृद्धि संगमोत्तर काल में ही प्रारंभ हुई, जबकि यहाँ राष्ट्रकूट, पल्लव, चालुक्य, चोल आदि राजवंशों ने अपने साम्राज्य स्थापित किये।

कृषि कार्य

संगम काल के बाद में दक्षिण भारत में कृषि का खूब विकास हुआ। इस समय जंगलों की कटाई कर अधिकाधिक भूमि को कृषि योग्य बनाया गया। भूमि का स्वामी होना सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक था। अतः समाज के सभी वर्णों के लोग कृषि कर्म में रुचि लेने लगे। समाज के वे लोग, जिनके पास काफी भूमि होती थी, मजदूरों की सहायता से खेती करवाते थे। छोटे किसान स्वतः खेती करते थे।

शूद्रवर्ण के स्त्री-पुरुष खेतिहर मजदूरों के रूप में काम करते थे, जिन्हें बदले में अनाज दिया जाता था।

भूमि की उर्वरता के आधार पर उसे कई श्रेणियों में बाँटा गया था – उर्वरा, बंजर, परती, रेतीली, काली, पीली आदि…अधिक जानकारी

शिल्प तथा उद्योग धंधे

दक्षिण भारत में कृषि कर्म के साथ-साथ संगम काल के बाद विविध प्रकार के शिल्पों तथा उद्योग धंधों का प्रचलन हुआ था। दक्षिण की आर्थिक समृद्धि में इनका भी महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। सबसे प्रमुख वस्त्रोद्योग था।

देश के विभिन्न भागों में उत्तम प्रकार के सूती तथा रेशमी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। गुजरात, बरार, तेलंगाना, नागपट्टम, मूलस्थान, कलिंग,मालाबार तट, वारंगल आदि में बढिया किस्म के सूती और रेशमी वस्त्रों का निर्माण किया जाता था। वारंगल में अच्छी-अच्छी दरियां बनाई जाती थी…अधिक जानकारी

व्यापार तथा वाणिज्य

विभिन्न स्त्रोतों से विदित होता है, कि दक्षिण में आंतरिक तथा बाह्य दोनों ही व्यापार प्रगति पर था। देश के भीतर एक स्थान से दूसरे स्थान को माल ले जाया जाता था। उस समय यातायात के साधनों की कमी थी। सङकों की हालत अच्छी नहीं थी। अतः भार ढोंने के लिये बैलगाङियों, टट्टुओं तथा मनुष्यों का उपयोग किया जाता था। तमिल देश में दकन की अपेक्षा सङकों की दशा अच्छी थी। नदियों के किनारे स्थित स्थानों में नावों में भरकर माल ले जाया जाता था। नगरों में व्यापारियों के निगम होते थे। व्यापारियों के स्थानीय संगठनों की संज्ञा नगरम् थी। इस प्रकार के संगठन कांची तथा मामल्लपुरम् में विद्यमान थे। व्यापारिक संगठन, राजनीतिक गतिविधियों से उदासीन होकर अपना सारा समय व्यापार में ही लगाते थे। लेखों से हमें मणिग्रामम्,नानादेशिस, बलंडियर, वलैङ्ग, इदंगै, तेलिन् आदि व्यापारी संघों के विषय में सूचनायें प्राप्त होती हैं। इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण नानादेशिस् नामक संगठन था, जिसे अय्यवोलेपुर (एहोल)के पांच सौ स्वामियों के नाम से जाना जाता था।ये अपने उद्यम के लिये पूरे विश्व में विख्यात थे। ये स्थल तथा जल मार्गों से यात्रायें करते थे तथा चोल, चेर, पाण्ड्य, मूलेय, मगध, कोशल, सौराष्ट्र, धानुष्ट, कुरुम्ब, कंबोज, गोल्ल, लाल, बर्व्वर, फारस, नेपाल, एकपाब, लंबकर्ण, स्त्रीराज्य तथा गोलामुख की यात्रायें करते थे। यह विवरण हमें शिकारपुर तालुक (शिमोगा जिसे में स्थित) की एक प्रशस्ति, जो 1045 ई. की है, में प्राप्त होता है…अधिक जानकारी

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