आधुनिक भारतइतिहास

मीर कासिम शासक के रूप में

मीर कासिम

मीर कासिम (Mir Qasim) – मीर कासिम मीर जाफर का दामाद था। मीरजाफर के शासनकाल में मीर कासिम ने पूर्णिया और रंगपुर के फौजदार के रूप में अपनी प्रशासनिक प्रतिभा का अच्छा परिचय दिया था। इसके समय में बंगाल का अंग्रेज गवर्नर जनरल वेन्सीटार्ट था।

मीर कासिम शासक के रूप में

अलीवर्दी खां के अनुवर्ती नवाबों में मीर कासिम सब से योग्य था। वह पहले ही पूर्निया तथा रंगपुर के फौजदार के रूप में अपनी योग्यता दर्शा चुका था। वह राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर ले गया। संभवतः वह मुर्शिदाबाद के षङयंत्र वातावरण तथा कलकत्ता से दूर रहना चाहता था ताकि अंग्रेजों का हस्तक्षेप अधिक न हो।

मीर कासिम ने सेना का गठन यूरोपीय पद्धति पर करने का निश्चय किया। मुंगेर में तोपों तथा तोङेदार बंदूकों को बनाने की व्यवस्था की गयी। नवाब को शाहजादा अलीगौहर, जो अभी तक बिहार में था, से भी बचना था। दूसरे, वह नेपाल की ओर से अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। वह बंगाल तथा बिहार के उद्दंड जमींदारों का भी दमन करना चाहता था। जिन्होंने कई बार नवाब की आज्ञाओं का उल्लंघन किया था। ये लोग किसी समय भी राजा के लिए खतरा बन सकते थे। बिहार का उप-सूबेदार राम नारायण नवाब की सत्ता के विरुद्ध अंग्रेजों से समर्थन की आशा करता था। राम नारायण ने तो मीर जाफर की सत्ता को भी स्वीकार नहीं किया। केवल क्लाइव के हस्तक्षेप के कारण ही वह मीर जाफर से बचा रहा। अब अंग्रेजों के समर्थन से वह लगभग स्वतंत्र सा बन गया। वह मीर कासिम के प्रति भी निष्ठावान नहीं था। नवाब की बार-बार आज्ञा पर भी उसने बिहार की आय का ब्यौरा नहीं दिया। मीर कासिम अपनी सत्ता के इस स्पष्ट उल्लंघन को सहन नहीं कर सका। उसने गवर्नर वेनसिटार्ट की सहमति से पहले राम नारायण को निलंबित किया, फिर सेवा से हटा दिया तथा मार डाला।

इसके बाद मीर कासिम ने राज्य की आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयत्न किया। जिन अधिकारियों ने गबन किया था उन पर बङे-बङे जुर्माने किए गए, कुछ नए कर लगाए गए तथा पुराने करों पर 3/32 भाग अतिरिक्त कर के रूप में लगाया गया। उसने एक और कर खिजरी जमा, जो अभी तक अधिकारियों द्वारा छुपाया जाता रहा था, भी प्राप्त किया। सियार-उल-मुत्खैरीन के लेखक ने तो मीर कासिम के प्रशासन को बहुत सराहा है। वह लिखता है कि “मीर कासिम ने प्रशासन की गुत्थियों को, विशेषकर वित्तीय मामलों को बङी कुशलता से सुलझाया। सेना तथा सेवकों को नियमित रूप से वेतन मिलता था, अच्छे लोगों का आदर होता था, उन्हें पुरस्कृत किया जाता था। कहां कैसा व्यय करना है, उदारता से अथवा कृपणता से, इन सभी योग्यताओं में वह समकालीन राजाओं में अद्वितीय था।

मीर कासिम तथा ईस्ट इंडिया कंपनी

कंपनी ने समझा था कि मीर कासिम भी कठपुतली है। वह कंपनी की आर्थिक मांगों को अधिक सफलता से पूरा कर सका था। वास्तव में कंपनी समझदार तथा भीरु शासक चाहती थी। वॉरेन हेस्टिंग्ज ने भी उसके प्रशासन की प्रशंसा की यद्यपि वह उसके भीरुपन की स्पष्टतः खिल्ली भी उङाता था।

परंतु मीर कासिम कंपनी की साम्राज्यवादी नीति में ठीक नहीं बैठता था। हैरी वेरेल्स्ट ने जो 1767- 69 तक फोर्ट विलियम कलकत्ता का गवर्नर था तथा जिसने (A View of the Rise, Progress, and Present State of the English Government in Bengal) नाम की पुस्तक भी लिखी है, मीर कासिम तथा कंपनी के बीच झगङे के कारणों को दो भागों में बांटा हैः तात्कालिक तथा वास्तविक। उसके अनुसार तात्कालिक कारण तो आंतरिक व्यापार था परंतु वास्तविक कारण इस नवाब की राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं थी। वह कहता है, यह असंभव था कि मीर कासिम अपनी सरकार की नींव हमारे समर्थन पर ही निर्भर रहने दे। आत्मरक्षा ने उसे स्वाधीनता की ओर खींचा। वेरेल्ट के विश्लेषण को ध्यान में रखते हुए प्रोफेसर एच.एच.डॉडवैल तथा डाक्टर नंद लाल चैटर्जी ने नवाब की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं तथा आंतरिक व्यापार के प्रश्नों के बीच एक स्पष्ट रेखा खींची है। डॉडवैल लिखते हैं कि “स्थिति की प्रमुख बात यह थी कि अंग्रेजों तथा नवाब के हित एक-दूसरे के विरोधी थे। स्थिति में स्थिरता उस समय तक नहीं आ सकती थी जब तक नवाब अपने आप को स्वतंत्र मानता रहता तथा अँग्रेज वे अधिकार मांगते रहते जो स्वतंत्र परिस्थिति के अनुरूप नहीं थे।डाक्टर चटर्जी लिखते हैं, “निजी आंतरिक व्यापार पर लगे करों का झगङा इस लङाई का केवल एक मात्र अथवा प्रमुख कारण नहीं था। जब उसने युद्ध की इच्छा की तो उसके संकल्प भिन्न थे।… आगे लखते हैं कि इस में कोई संदेह नहीं कि नवाब की इच्छा अंग्रेजों से पूर्ण रूपेण स्वतंत्र होने की थी तथा वह शनैः शनैः 1757 में स्थापित अंग्रेजी सत्ता को समाप्त करना चाहता था। उसका उद्देश्य यूरोपीय व्यापारियों की विशेष शक्ति को समाप्त कर, निष्कंटक तथा निरंकुश सूबेदारी स्थापित करना था।

परंतु यदि हम समकालीन परिस्थितियों को ध्यानपूर्वक देखों तो प्रतीत होता है कि मीर कासिम राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए कोई प्रयत्न नहीं कर रहा था। कहीं नहीं दिखता कि उसने अंग्रेजों को दिए तीनों जिलों अथवा शोरे तथा चूने के व्यापार में अंग्रेजों को दी हुई रियायतों को वापस लेने का प्रयत्न किया हो। वह तो केवल अँग्रेजों की शक्ति को अधिक बढने से अथवा अपनी शक्ति को अधिक कम होने से रोकना चाहता था। वह केवल संधियों का अक्षरशः पालन चाहता था। आंतरिक व्यापार में प्रति वर्ष बढती हुई भ्रष्टता से उसके वित्तीय साधन तथा उसके राजनैतिक अधिकार क्षेत्र दोनों ही कम हो रहे थे। अंग्रेजों तथा उनके एजेन्टों और गुमाश्तों के हथकंडे उसकी राजसत्ता के लिए खतरा बनते जा रहे थे। ये लोग जनता पर ही अत्याचार नहीं करते थे अपितु मीर कासिम के अधिकारियों को भी बंदी बना लेते थे। मैकॉले लिखता है, कंपनी का प्रत्येक सेवक अपने आपको स्वामी समझता था तथा स्वामी अपने आपको कंपनी का ही रूप समझता था। कंपनी के सेवक वृक्षों के नीचे न्यायालय लगाते तथा स्वामी अपने आपको कंपनी का ही रूप समझता था। कंपनी के सेवक वृक्षों के नीचे न्यायालय लगाते तथा मनमाना दंड दे दिया करते थे। मीर कासिम केवल यह चाहता था कि झगङे की स्थिति में कंपनी के गुमाश्ते नवाब की अदालतों के अधीन कार्य करें। अंग्रेज जानते थे कि उनको व्यापार में अधिकाधिक लाभ तभी हो सकता है जब उनके गुमाश्ते जनता पर मनमानी कर सकें। नवाब की अदालतों के अधीन कार्य करने पर ऐसा नहीं हो सकता था तथा अंग्रेजों का लाभ सीमित रह जाता। अतः मीर कासिम का झगङा स्वतंत्रता के प्रश्न पर नहीं था अपितु अँग्रेजों के अपने राजनैतिक तथा कानूनी अधिकारों के दुरुपयोग पर था।

मीर कासिम का झगङा आंतरिक व्यापार पर लगे करों को लेकर आरंभ हुआ। वेनसिटार्ट ने आंतरिक व्यापार की परिभाषा राज्य में एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल को लाने तथा ले जाने को माना है। कंपनी को 1717 में फर्रुखसीयर ने एक फरमान द्वारा आयात तथा निर्यात कर से छूट दे दी थी। उस पर कोई बहस नहीं थी। नवाब ने केवल उस दस्तक का प्रश्न उठाया जो कलकत्ता काउंसिल के प्रधान ने दी हुई थी तथा उसके अनुसार कर की छूट होती थी तथा जिसकी सहायता से कंपनी के अधिकारी अपना निजी व्यापार करते थे तथा नवाब को कर से वंचित रखते थे। यही नहीं, अब इन अधिकारियों ने यह दस्तक धन लेकर भारतीय व्यापारियों को भी देनी आरंभ कर दी थी जिससे शेष मिलने वाला कर भी समाप्त हो गया था। दूसरी ओर कंपनी के अधिकारी नवाब के कानूनों का पालन नहीं करते थे, उसके अफसरों पर निरादर करते थे तथा जनता को लूटते थे। एक बार एक आर्मीनियन ने नवाब के निजी प्रयोग के लिए कुछ शोरा खरीदा। शोरे के व्यापार पर अंग्रेजों का एकाधिकार था। कंपनी के पटना के एजेन्ट एलिस ने उस आर्मीनियन को बंदी बना लिया। इसी प्रकार एक बार एलिस ने कंपनी के सिपाहियों को मुंघेर के दुर्ग की तलाशी लेने के लिए भेज दिया क्योंकि उसे संदेह था कि कंपनी के दो भगोङों ने वहां शरण ले रखी थी।

कंपनी के सेवक केवल कर रहित व्यापार से ही संतुष्ट नहीं थे अपितु बाजार में सस्ता माल खरीदने के लिए बल का प्रयोग करते थे। इस विषय में मीर कासिम ने कंपनी के गवर्नर को इस प्रकार लिखाः आपके भद्रपुरुष इस प्रकार व्यापार करते हैं। वे समस्त देश में गङबङी फैलाते हैं, लोगों को लूटते हैं तथा मेरे अधिकारियों का निरादर करते हैं तथा उन्हें शारीरिक यातना देते हैं। प्रत्येक ग्राम, परगने तथा व्यापार केन्द्रों में वे नमक, सुपारी, घी, चावल, घास, बांस, मछली, बोरियां, सोंठ, शक्कर, तंबाकू, अफीम इत्यादि अनेक वस्तुओं… का क्रय-विक्रय करते हैं। किसानों तथा व्यापारियों से लगभग चौथाई मूल्य पर माल लेते हैं तथा 5 रुपये के लिए भी उस व्यक्ति को बंदी बना लेते हैं जो 100 रुपया भूमि कर के रूप में देता है। वे मेरे अधिकारियों को उनके अधिकार से वंचित कर रहे हैं। इस प्रकार मुझे 25 लाख रुपय वार्षिक की हानि हो रही है।

इस आंतरिक व्यापार के दुरुपयोग से नवाब की आय बहुत कम हो गयी तथा भारतीय प्रजा असहाय हो गयी थी। कंपनी के अधिकारियों ने कङा रुख अपनाया तथा गतिरोध को दूर करने के सभी प्रयत्न असफल हो गए। अंत में वेनसिटार्ट, वारेन हेस्टिंग्ज तथा काउंसिल का एक अन्य सदस्य नवाब को मुंगेर में मिले। एक समझौता किया गया। नवाब ने अंग्रेज व्यापारियों को आंतरिक व्यापार में भागीदार बनाना स्वीकार कर लिया- इस शर्त पर कि वे वस्तुओं के क्रय-मूल्य पर 9 प्रतिशत कर दे दें तथा नवाब को ही दस्तक देने का अधिकार होगा। परंतु अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह स्वीकार हुई कि नवाब को ही सब मामलों में निर्णय करने का अधिकार होगा, परंतु दुर्भाग्यवश कलकत्ता परिषद ने बहुमत से इस समझौते को अस्वीकार कर दिया। एच.एच.विलसन के अनुसार, वेनसिटार्ट तथा हेस्टिंग्ज को छोङ कर कलकत्ता परिषद के शेष सभी सदस्य केवल लालचपूर्ण तथा अन्याय और तर्करहित बात कर रहे थे। यही नहीं, कलकत्ता परिषद के उन सदस्यों ने जो इस व्यापार से लाभ उठा रहे थे, मीर कासिम के झगङे का स्वागत किया क्योंकि नए नवाब से उन्हें पहले की भांति बहुत सा धन प्राप्त करने की आशा थी।

मीर कासिम ने कठोर कार्यवाही की तथा सभी आंतरिक कर हटा लिए। अब भारतीय व्यापारी भी अँग्रेज व्यापारियों के समान हो गए। नवाब ने कोई अन्यायपूर्ण काम नहीं किया था। वेनसिटार्ट तथा वॉरेन हेस्टिंग्ज का विश्वास था कि नवाब ने अपनी प्रजा पर एक अनुग्रह कर दिया है तथा हमारे पास इसका विरोध करने का कोई तर्क नहीं है। उसके न मानने पर उसे हटाने का भी कोई अधिकार नहीं है। परिषद के सदस्य चाहते थे कि नवाब अपनी प्रजा पर कर लगाए क्योंकि केवल उसी अवस्था में वे दस्तक का दुरुपयोग कर सकते थे। इस प्रकार कलकत्ता काउंसिल के लोग नहीं चाहते थे कि नवाब अपनी प्रजा पर न्यायपूर्ण ढंग से राज्य करे। पटना के अधिकारी एलिस ने उत्तेजनापूर्ण कार्यवाही की तथा पटना नगर पर आक्रमण कर दिया।

एच.एच. डॉडवैल का विचार है कि युद्ध परिस्थितियों के कारण हुआ न कि युद्ध के उद्देश्य से। नवाब अपनी इच्छा से राज्य करना चाहता था परंतु अँग्रेजों ने अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए नवाब पर युद्ध थोप दिया। नवाब जानता था कि वह अँग्रेजों की अपेक्षा बहुत दुर्बल है, अब झगङा न्याय-अन्याय का नहीं था अपितु केवल बल का था। मीर कासिम की मूर्खता यह थी कि उसने स्थिति का ठीक-ठीक अनुमान नहीं लगाया।

अब मीर कासिम की बारी थी। उसने अपने श्वसुर के विरुद्ध षङयंत्र रचा था, अब उसके पाप उसके सिर आ पङे। वह अपनी इच्छानुसार राज्य नहीं कर सकता था। लोग उस पर हंसते थे तथा विवश होकर उसने बक्सर का युद्ध किया। परास्त हुआ तथा बेघर होकर भागते हुए 7 जून,1777 को उसकी मृत्यु हो गयी।

बक्सर का युद्ध

कंपनी तथा नवाब में युद्ध 1763 में ही आरंभ हो गया। कई झङपें हुई तथा मीर कासिम ने हार खाई। बच कर वह अवध पहुँचा तथा अवध के नवाब तथा मुगल सम्राट से मिलकर अँग्रेजों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। इन तीनों की सम्मिलित सेना, जिसमें 40 तथा 50 हजार के बीच सैनिक थे, कि टक्कर कंपनी की सेना से हुई। कंपनी की सेना में 7027 सैनिक थे तथा उसकी कमान मेजर मुनरो के हाथ में थी। युद्ध बक्सर के स्थान पर 22 अक्टूबर, 1764 को हुआ। दोनों दलों की क्षति अत्यधिक हुई परंतु मैदान अँग्रेजों के हाथ रहा।

युद्ध घमासान हुआ। अंग्रेजों के 847 सैनिक घायल अथवा मारे गए तथा दूसरी ओर 2000 के लगभग घायल तथा मारे गये। प्लासी का युद्ध, युद्ध-कौशल से नहीं जीता गया था। वहां विश्वासघात हुआ था, परंतु यहां दोनों ओर से डट कर युद्ध किया गया। तैयारी पूरी थी। निश्चय ही यह अधिक कुशल सेना की जीत थी।

बक्सर ने प्लासी के निर्णयों पर पक्की मोहर लगा दी। भारत में अब अंग्रेजों को चुनौती देने वाला कोई दूसरा नहीं रह गया था। अब नया नवाब उसकी कठपुतली था। अवध का नवाब उनका आभारी तथा मुगल सम्राट उनका पेन्शनर था। इलाहाबाद तक का प्रदेश अँग्रेजों के चरणों में आ गया तथा दिल्ली का मार्ग खुला था। इसके बाद बंगाल तथा अवध ने अंग्रेजों के अधिकार से बाहर आने का प्रयत्न नहीं किया तथा उनका फंदा और भी सुदृढ होता चला गया।

प्लासी के युद्ध ने बंगाल में अंग्रेजों की शक्ति को सुदृढ किया तथा बक्सर के युद्ध ने उत्तरी भारत में, तथा अब वे समस्त भारत पर दावा करने लगे थे। इसके बाद मराठों तथा मैसूर ने कुछ चुनौती देने का प्रयत्न किया। परंतु भारत की दासता अब स्पष्ट थी, केवल समय का प्रश्न था। बक्सर का युद्ध भारतीय इतिहास में निर्णायक सिद्ध हुआ।

Reference Books :
1. पुस्तक – आधुनिक भारत का इतिहास, लेखक – बी.एल.ग्रोवर, अलका मेहता, यशपाल

  

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