आधुनिक भारतइतिहास

1935 ई. के अधिनियम में प्रांतीय स्वायत्तता

प्रांतीय स्वायत्तता

1935 ई. के अधिनियम में प्रांतीय स्वायत्तता

1935 ई. के अधिनियम में प्रांतीय स्वायत्तता – मॉन्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट (1918 ई.) में कहा गया था कि ज्योंही स्थिति अनुकूल होगी, हमारा लक्ष्य पूर्ण उत्तरदायित्व देने का है। इसी संदर्भ में 1919 ई. का अधिनियम पारित किया गया था तथा प्रांतों को आंशिक उत्तरदायित्व सौंपा गया था। 1935 का अधिनियम क्या था, 1935 के अधिनियम की विशेषताएँ

1927 ई. में नियुक्त साइमन कमीशन ने भी सिफारिश की थी कि, भविष्य में प्रत्येक प्रान्त जहाँ तक भी हो सके अपने घर का स्वयं स्वामी हो।

ब्रिटिश संसद की संयुक्त प्रवर समिति ने भी प्रांतीय स्वायत्तता के सिद्धांत का समर्थन किया। अतः प्रांतों में द्वैध शासन को समाप्त कर दिया गया और उसके स्थान पर प्रांतीय स्वायत्तता स्थापित की गयी। प्रांतीय स्वायत्तता क्या है

1935 ई. के अधिनियम के अधीन प्रांतों में द्विसदनीय विधान मंडलों की व्यवस्था की गयी। आसाम, बंगाल, बिहार, बंबई, मद्रास और उत्तर प्रदेश में द्विसनीय विधानमंडल तथा पंजाब, मध्यप्रांत, बरार, उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत, उङीसा तथा सिन्ध में केवल एक सदनीय विधान मंडल की व्यवस्था की गयी।

द्विसनीय विधानमंडलों में निम्न सदन को विधान तथा उच्च सदन को विधान परिषद का नाम दिया गया। विधानसभा के सभी सदस्य जहाँ निर्वाचित होकर आते थे, वहाँ विधान परिषद के कुछ सदस्यों को गवर्नर द्वारा मनोनीत किये जाने का प्रावधान था। निर्वाचन के क्षेत्र में स्थानों को भिन्न-भिन्न संप्रदायों के आधार पर बाँटा गया। जैसे सामान्य स्थान, अनुसूचित जाति, मुसलमान, यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाई, जमींदार, विश्वविद्यालय के स्नातक, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत और पंजाब के सिक्ख, मजदूर व्यापारी और उद्योगपति, पिछङे हुए क्षेत्र एवं कबीले, सिक्ख महिलाएँ, मुसलमान महिलाएँ इत्यादि।

इस अधिनियम में और भी अधिक हितों और वर्गों को प्रतिनिधित्व प्रदान करके चुनाव पद्धति के द्वारा साम्प्रदायिकता को और भी अधिक प्रोत्साहित किया गया। मतदान के लिए अथवा चुनाव लङने के लिए योग्यता संपत्ति पर आधारित थी तथा प्रत्येक प्रांत के संदर्भ में भिन्न था।

विधान परिषद के संबंध में केवल धनाढ्यों, रायबहादुरों, विधानमंडलों के भूतपूर्व सदस्यों, मंत्रियों आदि, उच्च श्रेणी के व्यक्तियों को ही मताधिकार प्राप्त हुआ। निम्न सदन के चुनाव के लिए योग्यता को और भी अधिक सरल बना दिया गया। इस प्रकार जहाँ 1919 के अधिनियम के द्वारा 3 प्रतिशत लोगों को मताधिकार प्राप्त हुआ था, 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत 14 प्रतिशत जनता को मताधिकार प्राप्त हुआ।

1919 के अधिनियम के अनुसार प्रांतों को आंशिक उत्तरदायित्व देने के लिए प्रांतीय विषयों को रक्षित तथा हस्तांतरित विषयों में बाँटा गया था। 1935 के अधिनियम द्वारा रक्षित एवं हस्तांतरित विषयों का भेद समाप्त कर दिया गया। अब प्रांतों में न तो कोई रक्षित एवं विषय रखा और न हस्तांतरित। इस अधिनियम के अनुसार प्रांतों को एक नया वैधानिक दर्जा दया गया। प्रांतों का क्षेत्र केन्द्र से अलग कर, प्रांतीय विषयों पर उत्तरदायी मंत्रियों का नियंत्रण स्थापित कर दिया गया। मंत्रियों की नियुक्ति गवर्नर द्वारा विधानमंडल के सदस्यों में से की जाती थी और ये मंत्री विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होते थे।

प्रांतों के गवर्नर को अनुदेश प्रपत्र में राय दे दी गयी थी कि वह ऐसे व्यक्तियों को मंत्री पद पर नियुक्त करे, जिनका विधान मंडल में स्थायी बहुमत हो। अल्पसंख्यकों को मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्व देने तथा मंत्रियों के संयुक्त उत्तरदायित्व की बात भी अनुदेश प्रपत्र में कही गयी थी। इस प्रकार प्रांतों को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान कर दी गयी।

प्रांतीय स्वायत्तता का स्वरूप

एक सच्ची और सही अर्थों में प्रांतीय स्वायत्तता वह होती है जहाँ कि, सरकार के ऊपर कोई बाह्य नियंत्रण न हो और वह सरकार आंतरिक रूप से लोकप्रिय विधायिका के प्रति उत्तरदायी हो। 1935 के अधिनियम के अन्तर्गत जो स्वायत्तता प्रांतों को प्रदान की गयी उस पर बाह्य नियंत्रण था अथवा नहीं तथा प्रांतों को जो कार्यपालिका एवं विधायिका संबंधी अधिकार एवं शक्तियाँ प्रदान की गयी उसी के आधार पर प्रांतों के आंतरिक उत्तरदायित्व का परीक्षण करके हम इस निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं कि 1935 अधिनियम द्वारा प्रांतों को वास्तविक स्वायत्तता प्रदान की गयी थी अथवा नहीं।

जहाँ तक प्रांतों पर बाह्य नियंत्रण अर्थात केन्द्र का नियंत्रण था या नहीं, इस प्रश्न पर विचार करने के लिए हमें प्रांतों के कार्यकारिणी, विधायी और आर्थिक मामलों पर केन्द्र के नियंत्रण का परीक्षण करना होगा। इस अधिनियम में यह प्रावधान रखा गया था कि प्रांतीय कार्यकारिणी अधिकार इस प्रकार प्रयोग में लाये जायेंगे कि उससे प्रांतों पर लागू होने वाले किसी केन्द्रीय कानून का उल्लंघन न हो और न ही केन्द्र के कार्यपालिका संबंधी अधिकारों पर आघात हो।

गवर्नर जनरल को यह अधिकार दिया गया था कि भारत या उसके किसी भाग में शांति एवं व्यवस्था की स्थिति को खतरा उत्पन्न होने पर गवर्नर को निर्देश दे सकता था कि वह अपनी कार्यपालिका शक्ति का किस तरह प्रयोग करे। यदि प्रांतीय सरकारें, संघीय सरकार के आदेश का पालन करने से इन्कार कर दे तो गवर्नर जनरल अपनी स्वैच्छिक शक्ति का प्रयोग करते हुए गवर्नर को तत्संबंधी आदेश दे सकता था और ऐसी स्थिति में लोकप्रिय मंत्रियों के विरोध के बावजूद गवर्नर को उसका पालन करना पङता था। इस प्रकार के अनेक प्रतिबंध प्रांतों की कार्यपालिका शक्तियों पर लगा दिये गये थे, फिर भी प्रांतों को स्वायत्तता देने की बात कही गयी थी।

प्रांतों की विधायिका शक्तियों पर भी केन्द्र का काफी नियंत्रण रखा गया था। विषयों का विभाजन करते हुए जो तीन सूचियाँ बनाई गयी थी, उनमें यद्यपि प्रांतीय सूची के अन्तर्गत निर्दिष्ट विषयों पर प्रांतीय विधानमंडल को कानून बनाने का पूर्ण अधिकार दिया गया था, लेकिन अवशिष्ट शक्तियाँ प्रांतों को न देकर गवर्नर जनरल को दे दी गयी। प्रांतीय सूची के विषय भी केन्द्र द्वारा अनियंत्रित नहीं छोङे गये।

प्रांतीय सूची में बहुत से विषयों में यह आवश्यक था कि प्रांतीय विधानमंडल में कानून बनाने हेतु कोई विधेयक प्रस्तुत करने से पूर्व गवर्नर जनरल की स्वीकृति आवश्यक थी। इसके अलावा सच्ची प्रांतीय स्वायत्तता के अन्तर्गत जहाँ इस बात की शंका अथवा विवाद उत्पन्न हो जाय कि अमुक विषय केन्द्रीय है अथवा प्रांतीय वहाँ इसका निर्णय संघीय न्यायालय करता है। जहाँ यह शक्ति विशुद्ध रूप से न्यायिक थी, लेकिन अधिनियम में यह भी प्रावधान किया गया कि गंभीर आपातकाल में संघीय व्यवस्थापिका का निर्णय करना गवर्नर जनरल के अधिकार में था। ऐसे प्रावधान प्रांतीय स्वायत्तता का मजाक उङाते थे।

आर्थिक स्थिति के संबंध में 1935 का अधिनियम 1919 के अधिनियम से बेहतर था। पुरानी व्यवस्था में प्रांतों का करारोपण का अधिकार नहीं था। लेकिन अधिनियम द्वारा राजस्व के स्त्रोतों का विभाजन कर प्रांतों को पर्याप्त आर्थिक स्वायत्तता प्रदान कर दी गयी। फिर भी जो व्यवस्था स्थापित की गयी उसे पूर्णतया संतोषजनक नहीं माना जा सकता। प्रांतों के ऋण लेने के अधिकार पर कुछ प्रतिबंध लगा दिये गये। प्रांतों को जो राजस्व के स्रोत सौंपे गये वे प्रांतों के लिए पर्याप्त नहीं थे। इसीलिए अधिनियम में यह प्रावधान किया गया था कि घाटे वाले प्रांतों को संघीय राजस्व में से अनुदान दिया जायेगा।

जहाँ तक प्रांतों को आंतरिक स्वायत्तता का प्रश्न है, गवर्नर को इतनी विस्तृत शक्तियाँ दी गयी कि विधानमंडल की सक्तियाँ संकुचित होकर रह गयी थी। जहाँ विधानमंडल के द्वारा अस्वीकृत विधेयक गवर्नर की स्वैच्छाधिकारी और व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियों द्वारा कानूनी रूप प्राप्त कर सकता था।

केवल प्रतिबंधित तरीके से ही विधानसभा के सदस्य मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रखने का प्रयास करते थे। वे केवल अध्यक्ष की अनुमति से मंत्रियों को प्रश्न और पूरक प्रश्न पूछ सकते थे, लेकिन अध्यक्ष बिना कारण बताये प्रश्न या पूरक प्रश्न पूछने की मनाही कर सकता था। बजट के ऊपर चर्चा हो सकती थी, लेकिन बजट के लगभग 70 प्रतिशत भाग पर मतदान नहीं कराया जाता था। शेष 30 प्रतिशत भाग ऐसा था जिसमें कटौती तो की जा सकती थी, लेकिन बढोतरी नहीं की जा सकती थी और विधानमंडल द्वारा की गयी कटौती को गवर्नर अपने विशेषाधिकार द्वारा पुनर्स्थापित कर सकता था।

इस वर्णन से स्पष्ट है कि यदि प्रांतीय स्वायत्तता बाह्य नियंत्रण के मामले में एक धोखा थी तो आंतरिक मामलों में प्रांत की कार्यपालिका का मजाक थी। सिद्धांत रूप से ब्रिटिश संसद और भारत सचिव को, प्रांतों के नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया था, लेकिन व्यवहार में ऐसा नहीं किया गया। गवर्नरों की स्वैच्छाधिकार शक्ति तथा व्यक्तिगत निर्णय की शक्ति गवर्नर जनरल के अधीन थी, जो स्वयं भारत सचिव द्वारा नियंत्रित था।

प्रांतों में गवर्नर के अधिकार इतने व्यापक एवं विस्तृत थे कि वह प्रांत का निरंकुश शासक था। इसीलिए कहा गया कि प्रांतीय स्वायत्तता क्या थी, वह तो गवर्नर की स्वायत्तता थी जिसकी भव्य प्रतिष्ठा परंपराओं से आच्छादित थी तथा प्रशासन पर उसका प्रभाव असीमित था।

यद्यपि प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं का आकार बढा दिया गया था, प्रत्यक्ष चुनाव प्रारंभ कर दिये गये थे तथा विधानमंडल के सदस्यों के अधिकारों में वृद्धि कर दी गयी थी, लेकिन कुछ महत्त्वपूर्ण मामलों में व्यवस्थापिका की शक्तियों का अपहरण, प्रांतीय स्वायत्तता को झुठला देते थे। इस प्रकार चाहे बाह्य नियंत्रण की दृष्टि से देखा जाय अथवा आंतरिक उत्तरदायित्व की दृष्टि से, प्रांतीय स्वायत्तता की दृष्टि से देखा जाय अथवा आंतरिक उत्तरदायित्व की दृष्टि से, प्रांतीय स्वायत्तता में पूर्णता नहीं थी। यद्यपि महत्त्वपूर्ण प्रगति की जा चुकी थी, लेकिन वास्तविक एवं पूर्ण स्वायत्तता अभी कोसों दूर थी।

प्रांतीय स्वायत्तता की कार्य प्रणाली

प्रांतों को स्वायत्तता के विषय में मुस्लिम लीग ने अपना सहयोग दिया। लेकिन काँग्रेस ने इस अधिनियम को अस्वीकार करते हुए यह निश्चय किया थआ कि वे विधानसभा के अंदर अथवा बाहर इसके प्रति सहयोग नहीं करेंगे ताकि यह समाप्त हो जाय। मुस्लिम लीग ने अधिनियम के अनुसार चुनाव लङने का निश्चय किया।

काँग्रेस में भी एक प्रभावशाली गुट ऐसा था, जो अधिनियम के अनुसार चुनाव लङने के पक्ष में था ताकि अधिनियम को अंदर से नष्ट किया जा सके। 1936 में काँग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में चुनाव लङने का निर्णय किया गया। किन्तु काँग्रेस के सदस्य इस विषय पर एकमत नहीं हो सके कि चुनाव जीतने के बाद पद ग्रहण किया जाय अथवा नहीं। अप्रैल, 1937 ई. में इस अधिनियम के अनुसार प्रांतों में चुनाव कराये गये। काँग्रेस ने 1161 स्थानों पर चुनाव लङा तथा 716 स्थानों पर विजय प्राप्त की। गवर्नरों के अधीन 11 प्रांतों में से 6 प्रांतों में (बिहार, उङीसा, संयुक्त प्रांत, मध्य प्रांत, बंबई तथा मद्रास) काँग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला। तीन अन्य प्रांतों में (आसाम,उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रांत, बंगाल) काँग्रेस सबसे बङे दल के रूप में सामने आई।

मुस्लिम लीग को 482 स्थानों में से केवल 109 स्थान प्राप्त हुए। मुस्लिम बहुमत वाले चार प्रांतों में से एक भी क्षेत्र में वह बहुमत प्राप्त न कर सकी। चुनावों के बाद काँग्रेस में यह विवाद उत्पन्न हो गया कि काँग्रेस बहुमत वाले प्रांतों में पद ग्रहण किये जायँ या नहीं। अंत में महात्मा गाँधी के आग्रह पर यह निश्चय किया गया कि वे काँग्रेस बहुमत वाले प्रांतों में मंत्रिमंडलों का निर्माण करेंगे, बशर्ते कि गवर्नर यह घोषणा करे कि वह मंत्रियों के दैनिक कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करेगा तथा संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में कार्य करेगा।

गवर्नरों ने इस प्रकार की घोषणा नहीं की। जून, 1937 में गवर्नर जनरल लार्ड लिनलिथगो ने इस विषय में सार्वजनिक गोषणा की, जिसे संतोषजनक मानकर 6 प्रांतों में काँग्रेस ने मंत्रिमंडल बनाये। वर्ष के अंत में काँग्रेस ने अन्य दलों (मुस्लिम लीग नहीं) प्रांतों में काँग्रेस ने मंत्रिमंडल बनाये।

जिन प्रांतों में काँग्रेस ने अपने मंत्रिमंडल बनाये थे, वहाँ साधारणतया गवर्नरों ने मंत्रियों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं किया। चार अवसरों को छोङकर गवर्नरों ने प्रांतों में कोई संवैधानिक संकट उत्पन्न नहीं किया। प्रथम संकट मध्य प्रांत में पैदा हुआ। इस प्रांत में मुख्यमंत्री डॉ.एन.बी.खरे ने अपने दो मंत्रियों से इस्तीफा माँगा, लेकिन मंत्रियों ने यह कहकर कि हाई कमान के आदेश के बिना वे इस्तीफा नहीं देंगे, इस्तीफा देने से इन्कार कर दिया। फलस्वरूप स्वयं मुख्यमंत्री ने इस्तीफा दे दिया।

गवर्नर ने हस्तक्षेप करते हुए विरोधी मंत्रियों को बर्खास्त करते हुए डॉ.खरे को पुनः मंत्रिमंडल बनाने की अनुमति दे दी। काँग्रेस हाई कमान ने काँग्रेस को विभाजित करने का आरोप गवर्नर पर लगाते हुए डॉ.खरे के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करके उसे पद मुक्त कर दिया तथा मंडित रविशंकर शुक्ल को मुख्यमंत्री बना दिया। ऐसा करके काँग्रेस ने गवर्नर को यह जता दिया कि उसे मंत्रिमंडल के बारे में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

1938 ई. में उङीसा का गवर्नर छुट्टी पर जाना चाहता था। भारत सरकार ने उङीसा के मुख्य सचिव को प्रांत का कार्यवाहक गवर्नर बनाने का निर्णय लिया। लेकिन उङीसा मंत्रिमंडल ने इसका विरोध किया क्योंकि मंत्रियों के अधीन एक अधिकारी को मंत्रियों के ऊपर नियुक्त करना अनुचित था। काँग्रेस ने निश्चय किया कि गवर्नर जनरल ने यदि उङीसा के मुख्य सचिव को प्रांत का कार्यवाहक गवर्नर बनाया तो उङीसा का मंत्रिमंडल त्याग पत्र दे देगा। परंतु इस संकट का हल भी उस समय निकल गया जबकि उङीसा के गवर्नर ने अपनी छुट्टी रद्द करवा दी।

इसी प्रकार संयुक्त प्रांत और बिहार में फरवरी, 1938 में गवर्नरों और मंत्रिमंडलों के बीच राजनैतिक कैदियों को छोङे जाने के प्रश्न पर गंभीर विवाद उत्पन्न हो गया। काँग्रेस राजनैतिक बंदियों की रिहाई का वादा कर चुकी थी, अतः वह राजनैतिक बंदियों को मुक्त करना चाहती थी। इस पर गवर्नर जनरल ने अधिनियम की धारा 126 के अधीन गवर्नरों को यह आदेश जारी किया कि वे अपने मंत्रिमंडलों के इस निर्णय का विरोध करे क्योंकि यह मामला गवर्नरों के विशेष उत्तरदायित्व के अन्तर्गत आता है। गवर्नर जनरल के इस अनुचित हस्तक्षेप के विरोध में मंत्रियों ने त्याग पत्र दे दिये।

बाद में गवर्नर जनरल और काँग्रेस हाई कमान में एक समझौता हो गया कि बंदियों की रिहाई धीरे-धीरे अलग-अलग बंदियों के मामले को ध्यान में रखकर की जायेगी। संयुक्त प्रांत में ही मुसलमानों पर काँग्रेस के कथित अत्याचार का मामला उठा। लीग को मंत्रिमंडल में शामिल न करने के कारण निराश होकर काँग्रेस पर यह आरोप लगाया गया कि काँग्रेस मंत्रिमंडल मुसलमानों व अल्पसंख्यकों को मिटाने पर तुले हुए हैं।

लीग ने पीरपुर के नवाब के नेतृत्व में एक जाँच समिति नियुक्त की। पीरपुर रिपोर्ट में काँग्रेस शासित राज्यों में मुसलमानों पर कथित अत्याचारों को बढा-चढा कर बताया था इस रिपोर्ट का खूब प्रचार किया। काँग्रेस ने कहा कि मामले की छानबीन के लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश को नियुक्त किया जाय। किन्तु वायसराय जानते थे कि इस मामले में लीग के आरोप निराधार हैं, कोई कार्यवाही नहीं की। यद्यपि गवर्नर के अधिकार में अल्पसंख्यकों की रक्षार्थ विशेषाधिकार था, लेकिन काँग्रेस के संगठित विरोध को देखते हुए उसने लीग के निराधार आरोपों को कोई महत्त्व नहीं दिया। इस प्रकार की घटनाएँ काँग्रेस मंत्रिमंडलीय प्रांतीय स्वायत्तता को व्यवहारिक रूप देने में उपयोगी सिद्ध हुई।

गैर-काँग्रेसी प्रांतों में गवर्नरों ने अधिकांश मामलों में अपनी इच्छानुसार कार्य एवं हस्तक्षेप किया। इन प्रांतों में काँग्रेस जैसा कोई भी दल संगठित अथवा बङा नहीं था। बंगाल और सिन्ध में जो संयुक्त मंत्रिमंडल बने वे अत्यन्त ही निर्बल और इस कारण अस्थायी थे। यहाँ गवर्नर मंत्रिमंडल के कार्यों में हस्तक्षेप करके प्रभावशाली बने रहे। 1943 ई. में तो गवर्नर ने सिन्ध के मुख्यमंत्री को उस समय पदच्युत कर दिया जबकि एक स्थायी बहुमत उसका समर्थक था। इसी प्रकार की घटना को बंगाल में भी दोहराया गया। गैर-काँग्रेस प्रांतों में गवर्नरों ने अपनी स्वैच्छाचारी शक्तियों का खुलकर प्रयोग करके मनमानी चलाई।

उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत, सिन्ध तथा बंगाल में, विधानसभा में मुस्लिम लीग की कम संख्या होने पर भी उसे असंवैधानिक तरीके से सत्तारूढ करने का प्रयास किया गया। पंजाब में तो स्थिति और भी अधिक असाधारण रही। प्रांत का मुख्यमंत्री यद्यपि व्यक्तिगत कार्य से छः मास से भी अधिक अनुपस्थित रहा, तो भी उसके स्थान पर किसी भी व्यक्ति को नियुक्त नहीं किया गया।

जून, 1937 से अप्रैल, 1939 के दौरान जब तक प्रांतों में काँग्रेस सत्तारूढ रही, मंत्रियों ने प्रांतों की संपूर्ण उन्नति तथा जनहित में सराहनीय कार्य किये। किसानों को ऋण से मुक्त कराने, दुर्भिक्ष की स्थिति से बचाने, क्रय-विक्रय की अच्छी सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के प्रयत्न किये गये तथा इस संबंध में बङी शीघ्रता से कानून पास किये गये।

शराब बंदी, प्राथमिक शिक्षा, ग्राम विकास आदि समस्याओं की ओर विशेष ध्यान दिया गया। स्वयं ब्रिटिश सरकार के अधिकारियों ने काँग्रेस मंत्रिमंडलों के कार्यों की सार्वजनिक सफलता की प्रशंसा की। 1939 ई. में ब्रिटिश सरकार ने काँग्रेस मंत्रिमंडलों से परामर्श किये बिना भारत को भी द्वितीय विश्व युद्ध में अपने वास्तविक उद्देश्य को स्पष्ट करे तथा भारत के वर्तमान एवं भविष्य के प्रति अपनी नीति स्पष्ट करे। परंतु वायसराय के द्वारा दिया गया उत्तर काँग्रेस को संतुष्ट नहीं कर सका। अतः 15 नवम्बर, 1939 तक सभी काँग्रेसी मंत्रिमंडलों ने त्याग-पत्र दे दिये। इसके बाद इन प्रांतों में गवर्नरों का शासन स्थापित कर प्रांतीय स्वायत्तता का गला घोंट दिया गया।

Related Articles

error: Content is protected !!