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खिलजी क्रांति का स्वरूप एवं विस्तार

खिलजी क्रांति का स्वरूप एवं विस्तार – 20 वर्ष मंत्री (1246-1266ई.) और बीस वर्ष सुल्तान (1266-1286-87 ई.) के रूप में राज्य करने के बाद बलबन की मृत्यु हो गयी। उसका वंश तीन वर्ष से अधिक राज्य न कर सका। बलबन ने शहीद राजकुमार मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने की इच्छा व्यक्त की। परंतु मलिकों ने कैखुसरो को मुल्तान भेज दिया और बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को मुइज्जुद्दीन का खिताब देकर गद्दी पर बैठा दिया। कैकुबाद एक सुंदर, शिष्ट और उदार युवक था परंतु उसका नवयुवक होना ही उसकी प्रधान दुर्बलता थी। 17 या 18 वर्ष की आयु में गद्दी प्राप्त करने वाले इस युवक का पालन पोषण और शिक्षा दीक्षा अपने कठोर पितामह के नियंत्रण में हुई थी। उसने सुंदर स्त्रियों व शराब के प्यालों से एकदम दूर रखा गया। परिणाम यह हुआ कि नियंत्रण से स्वतंत्रता पाते ही वह भोगविलास, मद्यपान, शिकार और नाच-गान में अपना जीवन व्यतीत करने लगा। तीन वर्षों में ही उसका आधा शरीर लकवे से बेकार हो गया तथा शासन कार्य अन्य लोगों के हाथ में चला गया।

नायब-ए-मुमलिकत बनकर मलिक निजामुद्दीन ने, जो दिल्ली के कोतवाल फखरुद्दीन का भतीजा एवं दामाद था, शासन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया। निजामुद्दीन ने कैकुबाद को उसके चचेरे भाई के प्रति चेतावनी दी कि वह उसके सिंहासन को छीनने का प्रयत्न कर सकता है। अतः उसने ही मुइजुद्दीन कैकुबाद को भङकाकर मंडोली में कैखुसरो की हत्या करवा दी। बलबन के घोषित उत्तराधिकारी की हत्या के बाद ऐसा हत्याक्रम आरंभ हुआ कि कोई भी स्वयं को सुरक्षित नहीं समझ सकता था। निजामुद्दीन ने सभी तुर्क अमीरों से पीछा छुङाने की योजना बनाई और निर्दयतापूर्वक अमीरों व मलिकों की हत्या करवाने लगा।

जब कैकुबाद दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया गया तो उसका पिता बुगरा खाँ लखनौती में सुल्तान नासिरुद्दीन के खिताब से सुल्तान बन गया। बुगरा खाँ अपने पुत्र के भ्रष्ट जीवन के संबंध में और निजामुद्दीन के षङयंत्रों के संबंध में जानता था। निजामुद्दीन ने बराबर यह प्रयत्न किया कि बुगरा खाँ और कैकुबाद में युद्ध छिङ जाए, क्योंकि अब वह स्वयं सिंहासन पर अधिकार करने की महत्वाकांक्षा रखता था। बुगरा खाँ स्वयं दो वर्ष बाद अपने पुत्र से मिलने आया और उसे निजामुद्दीन से पीछा छुङाने का परामर्श दिया। कैकुबाद ने निजामुद्दीन को मुल्तान जाने का आदेश दिया परंतु वह विलंब करता रहा। कुछ समय बाद तुर्क अधिकारियों को उचित अवसर प्राप्त हुआ और उन्होंने विष देकर निजामुद्दीन की हत्या कर दी।

अब कैकुबाद ने समाना से मलिक फीरोज खिलजी को बुलाया और उसे राज्यपाल और युद्धमंत्री (आरिजे ममालिक) नियुक्त किया। उसे शाइस्ता खाँ की उपाधि प्रदान की। मलिक फिरोज खिलजी ने अपने भाई शिहाबुद्दीन तथा अलीगुर्शप (अलाउद्दीन खिलजी) सहित अनेक वर्षों तक बलबन की सेवा की थी। मंगोलों के विरुद्ध युद्धों से भी उसे प्रसिद्धी मिली थी। वह एक जन्मजात सैनिक था। बलबन के दो अमीर मलिक एतमार कच्छन और मलिक एतमार सुरखा क्रमशः बारबक और वकील-ए-दर बनाए गए।

तुर्की अमीर फीरोज खलजी से द्वेष करने लगे और आपसी मतभेद बढ गए। सुल्तान गिरते स्वास्थ्य से परिस्थिति और भी संकटमय हो गयी। दिल्ली का अमीर वर्ग दलों में विभाजित हो गया। तुर्की दल के नेता थे एतमार कच्छन और एतमार सुरखा और इसमें पुराने बलबनी अमीर शामिल थे। यह दल बलबन के वंश को सत्तारूढ रखना चाहता था। दूसरे दल का नेता था जलालुद्दीन खिलजी जिसे आम लोग तुर्क नहीं मानते थे। यह दल नए तत्वों के पभुत्व का समर्थन था। अब तुर्कों और तथाकथित गैर-तुर्कों में वास्तविक शक्ति प्राप्त करने के लिये गुप्त संघर्ष आरंभ हो गया। जिस समय पक्षाघात से असहाय कैकुबाद किलखरी के महल में था। मलिक कच्छन और मलिक सुरखा ने उसके बच्चे कैमुर्स को गद्दी पर बैठाया। जलालुद्दीन खिलजी को उसका नायब नियुक्त किया गया और महत्त्वपूर्ण पद और विभाग योग्य अधिकारियों को बाँट दिए गए। बरनी लिखते हैं कि राजत्व, बलबन के ही वंश में रहा और किसी अन्य जाति के व्यक्ति के हाथ में नहीं गया। वह तुर्कों के हाथ से निकल नहीं गया।

तुर्कों के लिये इस प्रकार से सिंहासन की रक्षा और कुछ नहीं, केवल पुराने अमीरों द्वारा जलालुद्दीन खिलजी के विरुद्ध एक षङयंत्र था। मलिक कच्छन और मलिक सुरखा ने कुछ अन्य तुर्क अमीरों के साथ मिलकर निश्चय किया कि ऐसे अमीर, जो सच्चे तुर्क नहीं हैं, शक्तिहीन बनाकर अपदस्थ कर दिए जाने चाहिए। उनके नामों की सूची में जलालुद्दीन खिलजी का नाम सबसे ऊपर रखा गया। मलिक अहमद चप नायबे-अमीरे-हाजिब ने इस षङयंत्र की सूचना जलालुद्दीन को दी। जलालुद्दीन ने अब दिल्ली में ठहरना सुरक्षित नहीं समझा और अपने अनुयायियों के साथ बहारपुर (पुरानी दिल्ली से छह या सात मील दूर) चला गया। अन्य गैर-तुर्क अधिकारी, जिनका नाम हत्या किए जाने वाले अमीरों में था, खिलजियों से आकर मिल गए।

जलालुद्दीन के पलायन से तुर्की अमीर आतंकित हो गए और दूसरे दिन ही उन्होंने कार्रवाई आरंभ कर दी। उन्होंने जलालुद्दीन को समाप्त करने के आशय से उसे कैमूर्स के दरबार में उपस्थित होने का संदेश भेजा। जलालुद्दीन को सारी योजना की जानकारी थी। अतः जैसे ही कच्छन जलालुद्दीन के भवन पर पहुँचा उसकी हत्या कर दी गयी। कच्छन की हत्या के बाद दोनों दलों में संघर्ष शुरू हो गया। एतगार सुरखा ने उनका पीछा किया परंतु उसे मार डाला गया।

नन्हें सुल्तान के अपहरण के विरुद्ध दिल्ली के नागरिक उठ खङे हुए। उन्होंने बहारपुर जाकर उसे खलजियों के शिकंजे से बचाने का निश्चय कर लिया। अस्सी वर्ष से शासन करने वाले इल्बारियों के प्रति उनके ह्रदय में भक्ति थी। वे खिलजियों द्वारा शासित किए जाने के विचार से भी घृणा करते थे। परंतु मलिक-उल-उमरा ने नागरिकों को आगे बढने से रोका क्योंकि उसके पुत्र जलालुद्दीन की हिरासत में थे। अधिकांश लोग वापस लौट गए, किंतु अनेक तुर्की अमीर व मलिक, जिनके दोनों नेता मार डाले गए थे और जो लक्ष्य भ्रष्ट हो चुके थे, जलालुद्दीन से जा मिले।

बलबन के अमीरों ने तुर्कों के हाथ में प्रभुसत्ता रखने का प्रयत्न किया। बरनी के कथन से स्पष्ट है कि दिल्ली में दो दल थे जो अपना प्रभाव स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील थे। वे कैगुर्स को नाममात्र का शासक बनाकर स्वयं शासन पर नियंत्रण करना चाहते थे। बलबन के परिवार के प्रति प्रेम व श्रद्धा अभी जीवित थी। परंतु प्रश्न यह उठता है कि तुर्क अमीरों ने, जो किसी भी अयोग्य शासक का प्रभुत्व सहन नहीं करते थे, आखिर एक शिशु सुल्तान को गद्दी पर क्यों बिठाया? इसका एक उत्तर यही हो सकता है कि इस प्रकार की परिस्थिति पूर्णतः नई थी। इससे पहले तुर्कों को इस प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पङा था। शासन करने वाले वंश का यह परीक्षाकाल था। इल्बारी वंश के समर्थक (एक शिशु की आङ लेकर भी) अपने हाथों में ही शक्ति रखना चाहते थे। मलिक छज्जू और जलालुद्दीन का इस संघर्ष में सर्वोच्च स्थान था। जलालुद्दीन अपनी सीमाओं को जानता था, ऐसी स्थिति के कारण वह तीन माह तक सत्ता प्राप्त करने में संकोच करता रहा। दोनों विरोधी दल एक-दूसरे पर अविश्वास करते थे और उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। किंतु समय आने पर जलालुद्दीन ने अंत में अपनी योग्यता व कुशलता से बलबन के वंश के समर्थकों को पछाङ दिया।

तुर्की दल के विनाश, शिशु सुल्तान पर अधिकार और मुइज्जुद्दीन के मरणासन्न होने के कारण जलालुद्दीन खिन्न था। उसने तरकेश नामक व्यक्ति को (जिसका पिता मुइजुद्दीन के हाथों मारा गया था) बदला लेने के लिये किलूखरी भेजा। मुइजुद्दीन को उसने जमुना नदी में फेंक दिया और इस प्रकार 1290 ई. में अंतिम इल्बारी सुल्तान की मृत्यु हो गयी। खिलजी शाही सत्ता प्राप्त करने को तत्पर नहीं थे और अभी तक उन्होंने जो कुछ किया था वह विशेषतः सुरक्षात्मक था। कैमुर्स को दरबार में लाकर जलालुद्दीन ने तीन महीने तक उसके संरक्षक और वजीर के रूप में काम किया। परंतु यह व्यवस्था असफल रही और जलालुद्दीन ने स्वयं को किलूखरी में शासक घोषित कर दिया। शत्रु एवं मित्र सभी ने उदीयमान सितारे का स्वागत किया।

दिल्ली के नागरिकों को जलालुद्दीन के राज्यारोहण से निराशा हुई। बरनी लिखता है कि दिल्ली उच्च श्रेणी और संपन्न लोगों से भरपूर थी किंतु बधाई के किसी स्वर ने जलालुद्दीन के राज्यारोहण का स्वागत नहीं किया। जनता की भावना खिलजियों के विरुद्ध थी जिसके सत्तारोपण ने तुर्कों के शासन का अंत कर दिया था। जनता खिलजी लोगों को तुर्कों से भिन्न समझती थी। खिलजी क्रांति ने जनमत की शक्ति को भी प्रदर्शित किया था, क्योंकि जनसाधारण के विरोध के भय से जलालुद्दीन एक लंबी अवधि तक दिल्ली में आने का साहस नहीं कर सका।

खिलजी मूलतः तुर्क थे, किंतु यह भी सच है कि दीर्घकाल तक अफगानिस्तान में रहने के कारण उन्होंने उस देश की आदतों और रीति-रिवाजों को अपना लिया था। उनमें से कुछ मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी के सैनिकों के रूप में भारत आए। मध्य एशिया और अफगानिस्तान में मंगोलों की उथल-पुथल के फलस्वरूप इस जाति के अनेक लोग शरणार्थी के रूप में भारत आए। यहाँ उन्हें शासक जाति के इल्बारी तुर्कों से भिन्न समझा गया। लगभग एक शताब्दी तक प्रभुसत्ता पर इल्बारी तुर्कों का एकाधिकार रहा था। अतः खिलजियों द्वारा सत्ता प्राप्ति का दिल्ली की जनता ने स्वागत नहीं किया। दिल्ली की जनता जिन परिस्थितियों में रहने की अभ्यस्त हो गयी थी, उसे यह वंश परिवर्तन उनका एक बङा उल्लंघन प्रतीत होता था। अतः खिलजियों के राज्यारोहण के कारण व्याप्त विस्मय की भावना के मूल में जनता की परंपरावादिता थी, खिलजियों व इल्बारियों की प्रतिद्वंद्विता नहीं। जातीय दृष्टि से दोनों ही तुर्क थे। मूल तथ्य यह कि खिलजी क्रांति भारत में मुस्लिम राजत्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। मूल तथ्य यह है कि खिलजी क्रांति भारत में मुस्लिम राजत्व के विकास में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। जलालुद्दीन को जो गद्दी प्राप्त हुई वह न तो वंशाधिकार से प्राप्त हुई न चुनाव अथवा षङयंत्र से। जातीय उच्चता या खलीफा की स्वीकृति पर भी उन्होंने अपने राजत्व का दावा नहीं किया। उन्होंने राज्य को शक्ति प्रयोग के बल पर ही अपने हाथ में रखा। खिलजी वंश ने न जनता, न अमीर वर्ग और न ही उलेमा का समर्थन प्राप्त किया। उन्होंने मुस्लिम जमात को भी यह बता दिया कि धार्मिक समर्थन के बिना राज्य न केवल जीवित रह सकता है बल्कि सफलतापूर्वक कार्य भी कर सकता है। यह एक अभूतपूर्व सत्य था और उसमें अलाउद्दीन की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उसका दृष्टिकोण उलेमा वर्ग से प्रभावित राजत्व के दृष्टिकोण से पूर्णतः भिन्न था। सबसे बङी बात यह है कि खिलजियों ने धर्म को राजनीति से दूर रखने का निश्चय किया।

खिलजी क्रांति का महत्व केवल एक वंश परिवर्तन तक ही सीमित नहीं था। पच्चीस वर्ष पूर्व बलबन द्वारा स्थापित राज्य व्यवस्था के विपरीत वह एक नए युग का आरंभ था। भारतीयों के लिये वंश परिवर्तन कोई नई चीज नहीं थी। अनेक आकस्मिक वंशीय क्रांतियों के कारण सत्ता का हस्तांतरण जनसाधारण के लिये अधिक महत्व का नहीं था। परंतु खिलजी क्रांति के परिणाम दूरगामी हुए। ममलूक वंश के साथ-साथ वह जातिवाद भी समाप्त हो गया, जिससे कुतुबुद्दीन, इल्तुतमिश और उसके उत्तराधिकारियों का दृष्टिकोण प्रभावित था। इल्बारी तुर्कों ने जातिवाद पर अधिक बल दिया था। राज्य की आधारशिला केवल तुर्की हितों की सुरक्षा और उन्हीं के सीमित एकाधिकार पर रखी गयी थी। बलबन के काल में विरोधी तत्वों के दमन के लिये हिंसात्मक तरीके भी अपनाए गए। कथित खिलजी दल की सरल विजय ने यह सिद्ध कर दिया कि जातीय निरंकुशता और अधिक समय तक राज्य नहीं कर सकती थी। खिलजियों की नसों में शाही खून था। मूलतः वे निचले तबके के थे। उनके राज्यारोहण ने इस मिथ्या धारणा को समाप्त कर दिया कि प्रभुसत्ता पर केवल विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का ही एकाधिकार है। खिलजी क्रांति निश्चय ही तुर्की आधिपत्य के विरुद्ध भारतीय मुसलमानों का विद्रोह था। उनका विद्रोह गोरी और गजनी से प्रेरणा प्राप्त करने वालों के विरुद्ध भी था जो दिल्ली की ओर निहारते थे। इस क्रांति ने शाही रक्त की तुलना में सर्वसाधारण के जनमत का आधिपत्य स्थापित कर यह सिद्ध कर दिया कि गद्दी पर कोई भी ऐसा व्यक्ति अधिकार कर सकता था जिसमें उसे अपने हाथ में रखने की शक्ति व योग्यता हो। अनेक उच्चवर्गीय तुर्क जो भारतीय और गैर-तुर्क मुसलमानों को निम्न नस्ल का मानते थे इस तथ्य से स्तंभित हो गए कि सत्ता खिलजी वंश के हाथ में पहुँच गयी है।

खिलजी क्रांति के महत्त्व के संबंध में के.एस.लाल लिखते हैं, इससे न केवल एक नवीन वंश का उदय हुआ, बल्कि इसने अनवरत विजयों, कूटनीति में असाधारण प्रयोगों और अतुलनीय साहित्यिक क्रियाकलापों के एक युग को जन्म दिया। इतिहास की गाथाओं में खलजी सुल्तानों और विशेषकर अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है- अभूतपूर्व विजयों की एक अनवरत श्रृंखला । देश के सुदूरतम कोनों में खलजी सेनाओं ने प्रवेश किया। स्वतंत्र राज्यों पर आधिपत्य करने के साथ ही बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा का भी ध्यान खिलजी शासकों ने रखा। अलाउद्दीन ने मंगोल आक्रमण से देश की रक्षा की और सुदूर दक्षिण तक अपनी सेनाएँ भेजी।

अनेक दृष्टियों से अलाउद्दीन खिलजी का बीस वर्ष (1296-1316 ई.) का शासनकाल महत्त्वपूर्ण था। मध्यकालीन इतिहास में अलाउद्दीन के कुछ सुधार पूर्णतः नवीन प्रयोग कहे जा सकते हैं। यद्यपि उनकी सफलता अल्पकालीन थी तथापि उससे उसका महत्त्व कम नहीं होता। वह अपने उद्देश्यों में पूर्ण रूप से सफल रहा। परंतु अपने समस्त प्रशंसनीय कार्यों के बावजूद अलाउद्दीन उतना लोकप्रिय नहीं हुआ जितने इल्तुतमिश या बलबन हुए थे। इसका प्रधान कारण यही था कि खिलजी शासकों की सत्ता मुख्यतः शक्ति पर आधारित थी। संभवतः इसी कारण वे जनसाधारण के ह्रदय में वह स्थान नहीं बना सके जो इल्बारी सुल्तानों को मिला था। एक समकालीन संत शेख बशीर ने कहा कि – अलाउद्दीन के साम्राज्य का आधार स्थायी नहीं था। इस संबंध में आर.पी.त्रिपाठी लिखते हैं, खिलजी क्रांति का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि राजभक्ति की उस भावना को, जो दिल्ली सिंहासन के प्रति विकसित हो रही थी और जिससे भविष्य में अच्छे परिणामों की आशा थी, भारी धक्का लगा। यदि खिलजियों ने राजभक्ति तथा राजप्रतिष्ठा की परंपराओं को उत्पन्न होते ही न कुचल दिया होता और उन्हें बढकर अपनी पूर्णता तक पहुँचने दिया होता, तो सैनिकवादी तत्व बहुत न्यून हो जाता और अधिकारों तथा कर्तव्यों और आज्ञा देने तथा पालन करने की नई परंपरा स्थापित हो जाती जैसा कि संसार के अन्य देशों में हुआ था। दुर्भाग्यवश खलजी क्रांति ने सरकार के सैनिक पक्ष को शक्तिशाली बनाकर एक ऐसा घातक उदाहरण उपस्थित किया जो दिल्ली सल्तनत की जीवन शक्ति को क्षीण करता रहा।

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