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तृतीय आंग्ल-बर्मी युद्ध के कारण तथा बर्मा का विलय

दूसरे बर्मा युद्ध (Second Anglo-Burmese War)के कारण डलहौजी की द्विपक्षीय आलोचना होने लगी। कुछ के अनुसार संपूर्ण बर्मा को विजय न करके उसने भयंकर भूल की थी तथा कुछ के अनुसार बर्मा के साथ छेङछाङ की कोई आवश्यकता नहीं थी। इंग्लैण्ड में पहली विचारधारा बलवती होने लगी।

भारत सचिव उत्तर बर्मा को अधिक महत्त्वपूर्ण समझने लगा। यदि अंग्रेजों की सर्वोच्चता ब्रिटिश बर्मा और चीन के बीच के स्थानों पर कूटनीति द्वारा स्थापित नहीं हो सकती और यदि कोई दूसरी शक्ति वहाँ अपना प्रभाव स्थापित करे उससे पहले उत्तर बर्मा को जीतना आवश्यक समझा गया।

अतः दक्षिणी बर्मा को जीतकर अंग्रेजों को संतोष नहीं हुआ। वे ऐसे अवसर की तलाश में थे जबकि वे संपूर्ण बर्मा पर अपना प्रत्यक्ष अधिकार कर सकते। दूसरे बर्मा युद्ध के बाद कुछ ऐसे कारण उत्पन्न हो गये, जिससे तीसरा बर्मा युद्ध हुआ और संपूर्ण बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

तृतीय बर्मा युद्ध के मुख्य कारण निम्नलिखित थे

दूसरे बर्मा युद्ध के बाद अंग्रेजों का आर्थिक साम्राज्यवाद का जाल फैलता रहा।बर्मा सरकार के साथ नई-नई संधियाँ करके अंग्रेज अपने अधिकारों में वृद्धि करते रहे। 1862 ई. की संधि के अनुसार अंग्रेजों को बर्मा की सीमाओं में रहने का अधिकार मिल गया।

उन्हें बर्मा की सीमाओं से होकर चीन से व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हो गया। 1867 की दूसरी संधि द्वारा बर्मा ने लकङी,तेल तथा कीमती पत्थर के अतिरिक्त अन्य सभी वस्तुओं के व्यापार पर से अपना एकाधिकार त्याग दिया, बर्मा की राजधानी में ब्रिटिश रेजीडेण्ट के रहने की सुविधा दी गई तथा उसे ब्रिटिश नागरिकों के हितों की देखभाल का अधिकार दे दिया गया।

इसके अतिरिक्त बर्मा सरकार को विभिन्न वस्तुओं की चुँगी समाप्त करने,बर्मा में अपना एक राजनीतिक प्रतिनिधि रखने तथा यूनान एवं रंगून के बीच जल यात्रा करने आदि के लिये विवश किया गया। अंग्रेज रंगून से प्रोम तक एक रेलवे लाइन भी बनाना चाहते थे। अंग्रेज इससे भी संतुष्ट नहीं थे। वे उत्तरी बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने का जाल भी फैला रहे थे।

बर्मा का राजा अंग्रेजों से घृणा करता था। बर्मा का राजा व अधिकारी, दो युद्धों में पराजित होने के बाद भी अपने को अंग्रेजों से श्रेष्ठ समझ रहे थे। बर्मी प्रथा के अनुसार विदेशी प्रतिनिधि को राजा के समक्ष उपस्थित होते समय अपने पैर से जूते उतारने पङते थे। अंग्रेजों ने इस प्रथा का पालन करना बंद कर दिया।इस पर बर्मा के राजा ने कहा कि वह जूते के लिये अवश्य युद्ध करेगा, हालांकि उसने पीगू के लिए युद्ध नहीं किया था। इसके प्रत्युत्तर में अंग्रेज प्रतिनिधियों ने राजा से मिलना ही बंद कर दिया।

इसी समय बर्मा के राजा की कुछ गतिविधियों ने अंग्रेजों को नाराज कर दिया।1873 ई. में बर्मा ने फ्रांस के साथ एक व्यापारिक संधि की, जिसमें एक शर्त यह भी थी कि फ्रांसीसी अधिकारी बर्मी सैनिकों को सैनिक प्रशिक्षण देंगे।

अंग्रेजों ने इसका घोर विरोध भी किया तथा दबाव डालकर संधि को रद्द करवा दिया।बर्मा ने इसी तरह की संधि इटली से भी की जिसमें इटली ने बर्मा को कुछ सैनिक सामान देने का वादा किया। अंग्रेजों ने पुनः हस्तक्षेप किया और संधि की इस शर्त को रद्द करवा दिया। बर्मा की सरकार ने अपना एक प्रतिनिधिमंडल ईरान भेजा तथा विदेशी शक्तियों के सहयोग से बर्मा में तोपें व बंदूक बनाने का कारखाना स्थापित करने का प्रयत्न किया। अंग्रेज अधिकारी बर्मा के राजा की इन गतिविधियों को सहन नहीं कर सके।

थीबा की नीति

1878 ई. में मिण्डन की मृत्यु के बाद उसका युवा पुत्र थीबा बर्मा की गद्दी पर बैठा। इस समय लार्ड लिटन भारत का गवर्नर जनरल था, जो अग्रगामी विदेशी नीति का समर्थक था। लार्ड लिटन ने बर्मा के नये राजा से अनेक सुविधाओं की माँग की, जिसमें जूते उतारने की प्रथा समाप्त करने की भी बात थी।

थीबा ने अंग्रेजों की सभी मांगें स्वीकार कर ली, लेकिन जूते उतारने की प्रथा समाप्त करने से इंकार कर दिया।इसी बीच 1879 ई. में थीबा ने राज परिवार के लगभग 80 व्यक्तियों का कत्ल करवा दिया। इस पर लार्ड लिटन ने ब्रिटेन रेजीडेण्ट को घटना की विस्तृत रिपोर्ट देने को कहा।

ब्रिटिश रेजीडेण्ट ने इस कत्ले आम के संबंध में एक कठोर पत्र थीबा को लिखा। बर्मा दरबार में कहा कि यह काम राज्य हित में किया गया है। इस बार संपूर्ण ब्रिटिश जाति ने बर्मा को अंग्रेजी राज्य में मिलाने की मांग की। उनका कहना था कि जनता को क्रूर व अत्याचारी शासक से मुक्ति दिलाने के लिए बर्मा पर ब्रिटिश आधिपत्य आवश्यक है। किन्तु अफगानिस्तान में लार्ड लिटन की अग्रगामी नीति असफल हो जाने के कारण, ब्रिटिश प्रधानमंत्री ग्लेडस्टोन संयम से काम कर रहा था। फिर भी, बर्मा दरबार और अंग्रेजों के संबंध दिनों-दिन खराब होते गये।अक्टूबर,1879 ई. में ब्रिटिश रेजीडेण्ट व अन्य अंग्रेज अधिकारियों ने मांडले(1857 ई. में बर्मा की राजधानी आवा से बदलकर मांडले कर दी गई थी)को छोङ दिया।

थीबा ने अपने पिता की तरह कुछ यूरोपीय शक्तियों से संबंध स्थापित करने का प्रयास किया। 1883ई. में उसने अपना राजदूत पेरिस भेजा। अंग्रेजों ने राजनयिक माध्यम से इसका विरोध किया तथा फ्रांस से यह वादा कराया कि यदि बर्मा से कोई संधि की जायेगी तो वह विशुद्ध व्यापारिक संधि होगी।

जनवरी, 1885 ई. में बर्मा और फ्रांस के बीच एक व्यापारिक संधि संपन्न हो गयी। यद्यपि इस संधि में कोई राजनीतिक धारा नहीं थी, फिर भी अंग्रेज इस संधि से असंतुष्ट थे। इसी बीच यह अफवाह फैली कि बर्मा ने फ्रांसीसियों को रेल लाइन बनाने, हीरे निकालने,मांडले में एक बैंक खोलने के अधिकार व अन्य व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान कर दी हैं।

यद्यपि यह सब अफवाह मात्र थी, फिर भी अंग्रेज फ्रांसीसियों की प्रतिस्पर्द्धा से भयभीत हो उठे। अंग्रेज व्यापारियों ने भारत सचिव पर दबाव डाला कि या तो संपूर्ण बर्मा को जीतकर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया जाय या वहाँ ऐसे शासक को गद्दी पर बैठाया जाय जो पूरी तरह अंग्रेजों पर निर्भर हो।

व्यापारी वर्ग के दबाव के कारण ब्रिटिश सरकार ने यह निश्चय कर लिया कि संपूर्ण बर्मा को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया जाय।तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन आरंभ से ही बर्मा को जीतना चाहता था। अतः अब बर्मा और अंग्रेजों का युद्ध अनिवार्य हो गया।

तृतीय आंग्ल-बर्मी युद्ध और बर्मा का विलय

1881 ई. में भारत सरकार के एक आयोग ने बर्मा और मणिपुर की सीमा को निश्चित किया था। किन्तु बर्मा ने इसे मानने से इंकार कर दिया और धमकी दी कि वह सीमा पर गङे पत्थरों को उखाङ फेंकेगा। इस पर अंग्रेजों ने मणिपुर के शासक को आदेश दिया कि यदि बर्मा ऐसा करे तो उसके विरुद्ध सैनिक कार्यवाही की जाय। लेकिन इस समय बर्मा के राजा ने संयम से काम लिया, जिससे कोई खुला संघर्ष नहीं हुआ। फिर भी युद्ध अधिक दिनों तक नहीं टाला जा सका।

एक अंग्रेज व्यापारिक कंपनी- बंबई -बर्मा व्यापारिक कारपोरेशन को बर्मा में जंगलों का ठेका दिया गया था। यह कंपनी बिना उचित कर अदा किये कार्य कर रही थी।

बर्मा सरकार ने इस संबंध में छानबीन की तो पता चला कि इस कंपनी ने दस लाख रुपये के कर की चोरी की है। बर्मा सरकार ने इस कंपनी के ठेके को समाप्त करने का निर्णय लिया, किन्तु बाद में उस पर साढे तेईस लाख रुपये का जुर्माना करके छोङ देने का फैसला किया और कहा कि वह इस रकम का चार बराबर किश्तों में भुगतान करे।

किन्तु कंपनी ने इसे स्वीकार नहीं किया और ब्रिटिश सरकार से अपील की। भारत सरकार तो बर्मा में हस्तक्षेप करने का बहाना खोज ही रही थी। अतः ब्रिटिश कमिश्नर ने इस जुर्माने को रद्द करने की माँग की तथा सुझाव दिया कि इस मामले की निष्पक्ष जाँच के लिये यह मामला गवर्नर जनरल द्वारा नियुक्त एक प्रतिनिधि को सौंप दिया जाय। बर्मा सरकार ने इस सुझाव को अस्वीकार कर दिया। तब 22 अक्टूबर,1885 को बर्मा दरबार के समक्ष अल्टीमेटम भेजते हुए निम्न शर्तें प्रस्तुत की-

  1. बर्मा दरबार एक अंग्रेज प्रतिनिधि की राय से कंपनी के झगङे का फैसला करे।
  2. अंग्रेज प्रतिनिधि के पहुँचने तक कंपनी के विरुद्ध कोई कार्यवाही न की जाय।
  3. भविष्य में एक अंग्रेज प्रतिनिधि हमेशा बर्मा दरबार में रहेगा।
  4. बर्मा विदेशों से अपने संबंध भारत के गवर्नर जनरल की राय से स्थापित करे।
  5. अंग्रेजों को चीन से व्यापार करने की पूरी सुविधा प्रदान की जाय।

बर्मा सरकार से यह भी स्पष्ट कह दिया गया कि प्रथम तीन माँगें बिना किसी विवाद के 10 नवंबर,1885 तक स्वीकार कर ली जानी चाहिये। इस पर 9 नवंबर को बर्मा सरकार ने प्रत्युत्तर भेजा कि यदि अंग्रेज कंपनी बर्मा के राजा से कोई प्रार्थना करेगी तो उस पर अवश्य विचार किया जायेगा।

तीसरी व पाँचवीं माँग स्वीकार कर ली गई। चौथी मांग के संबंध में कहा गया कि उसका निर्णय फ्रांस,जर्मन और इटली के राज्यों को करने दिया जाय क्योंकि ये राज्य बर्मा और इंग्लैण्ड दोनों के ही मित्र राज्य हैं।

लार्ड डफरिन ने अपनी माँगें भेजने के साथ ही युद्ध की तैयारी आरंभ कर दी थी।बर्मा के राजा ने अपना प्रत्युत्तर भिजवाया ही था कि वह यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि ब्रिटिश सेना उसके देश में प्रवेश कर गई है। ब्रिटिश सेना को कोई विशेष विरोध नहीं किया जा सका और राजा ने बिना शर्त आत्म-समर्पण कर दिया।

जनवरी, 1886 ई. में संपूर्ण उत्तर बर्मा पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। कुछ थोङे से सैनिक जो बर्मा के जंगलों में इधर-उधर भाग गये थे, उन्होंने दो वर्षों तक गुरिल्ला युद्ध नीति से ब्रिटिश अधिकारियों को परेशान किया।

पर्याप्त जन-धन की हानि के बाद अंततः शांति स्थापित हो गयी। 1 जनवरी, 1886 को संपूर्ण बर्मा को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया और वह अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य का एक सूबा बन गया।

इस युद्ध के पश्चात बर्मा, भारत के एक प्रदेश के रूप में, ब्रिटिश राज के अंतर्गत आ गया था।

बर्मा में समस्या प्रधान जगहों पर छोटे-2 किलों का निर्माण करवाया गया तथा ब्रिटिश सैनिकों ने चलते-फिरते विद्रोहियों को शांत कर दिया।विजित क्षेत्रों में सर चार्ल्स बर्नार्ड को चीफ कमिश्नर बनाया गया। 1935 ई. तक बर्मा इसी स्थिति में रहा।
इसके बाद 1937 से, ब्रिटिश लोग बर्मा को भारत से अलग करके एक अलग उपनिवेश के रूप में शासन करने लगे। बर्मा ने 1948 में एक गणतंत्र के रूप में स्वतंत्रता प्राप्त की।

बर्मा विलय का औचित्य

नैतिकता के आधार पर बर्मा में की गयी ब्रिटिश कार्यवाही का औचित्य सिद्ध करना कठिन है। कुछ ब्रिटिश विद्वानों ने राजा के निरंकुश और कठोर चरित्र की आलोचना की है। यदि इन आलोचनाओं में कुछ सत्यता भी हो तो उससे ब्रिटिश कार्यवाही का औचित्य सिद्ध नहीं होता। यद्यपि बर्मा के राजा को फ्रांस से मैत्री करने का अधिकार था, किन्तु ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों की पृष्ठभूमि में फ्रांसीसियों के प्रभाव को दृष्टि में रखते हुए लार्ड डफरिन का कदम राजनीतिक बुद्धिमत्तापूर्ण कहा जाता है। अँग्रेजों का 2/3बर्मा पर पहले से ही अधिकार था तथा शेष बर्मा पर अँग्रेज फ्रांस के प्रभाव की स्थापना कैसे बर्दाश्त कर सकते थे। लार्ड डफरिन ने अपनी कार्यवाही के औचित्य को सिद्ध करते हुए कहा था कि यदि फ्रांसीसियों की कार्यवाही हमें उत्तर बर्मा से हटाने के गंभीर प्रयास में जुटी हुई थी तो हमें उस क्षेत्र पर अधिकार करने की कार्यवाही करने से हिचकने की आवश्यकता नहीं थी।

वस्तुतः भारत में ब्रिटिश सरकार का अपने पङौसी राज्यों के साथ संबंध साम्राज्यवादी भावना से प्रभावित था। जब एक व्यापारिक कंपनी ने राजनैतिक सत्ता प्राप्त की तब उसकी सुरक्षा के लिए विस्तार होना शुरू हो गया। यद्यपि बार-बार विस्तारवादी नीति के विरुद्ध घोषणाएँ की गयी, फिर भी अँग्रेज अपनी राज्य सीमा को यथावत न रख सके और वे अपने निकटवर्ती अवेयवस्थित एवं अर्द्धसम्य राज्यों की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं थी।

यूरोप की अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों के प्रभाव को भी अँग्रेज, भारतीय साम्राज्यवाद की ओर जाने वाले जल व थल मार्ग पर सहन नहीं कर सकते थे। पङोसी राज्यों जब तक मैत्रीपूर्ण सहयोग के लिए अँग्रेजों पर निर्भर थे तथा किसी विदेशी प्रभाव से मुक्त थे, तब तक अँग्रेजों को कोई चिन्ता नहीं थी। लेकिन उनका शक्तिशाली होना या किसी अन्य शक्ति पर आश्रित होना उन्हें पसंद नहीं था। यदि किसी दूसरे साम्राज्यवादी को उस राज्य की ओर बढते देखते तो, इससे पूर्व कि दूसरी शक्ति का उस पर प्रभाव स्थापित हो, वे स्वयं उस भू-भाग पर अधिकार करने के अवसर से कभी नहीं चूकते थे।

बर्मा के संबंध में भी यही बात थी। बर्मा और फ्रांस की मैत्री और इस संबंध में फैलती हुई कुछ अफवाहों ने अँग्रेजों को उत्तेजित कर दिया। इससे पूर्व कि, फ्रांस, बर्मा पर अपना प्रभाव स्थापित हो, अँग्रेजों ने बर्मा को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।

Reference : https://www.indiaolddays.com/

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